हल्द्वानी हिंसा: हिन्दुत्ववादी सरकार और संगठनों के नफरती अभियान का परिणाम

खूबसूरत पहाड़ियों का राज्य उत्तराखंड आज नफरत और भय में सुलग रहा है। धार्मिक सद्भावना की अपनी सदियों पुरानी परंपरा उलटकर, राज्य तेजी से बहुलतावादी भारत को केवल हिंदुओं की जमीन में बदलने के लिए हिन्दुत्ववादियों के युद्धस्थल में उभर रहा है। 8 फरवरी को हल्द्वानी के शहर प्रशासक, बड़ी संख्या में पुलिस बल और करीब सौ नगर निगम कर्मचारियों के साथ बुलडोजर लेकर 20 वर्ष पुरानी मस्जिद और मदरसा तोड़ने के इरादे से निकले। इससे लोग आक्रोशित हुए और पुलिस व निगम कर्मचारियों पर पथराव किया और एक समूह ने एक पुलिस थाने के एक हिस्से को भी आग लगा दी। पुलिस ने इसका जवाब “शूट ऐट साइट के आदेश से दिया, नतीजतन कम से कम छह लोग मारे गए और कई अन्य घायल हुए।

एक सप्ताह के अंदर, मैं कारवां-ए-मोहब्बत और एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स की एक तथ्य शोधक टीम में शामिल हुआ। कारवां-ए-मोहब्बत से नवशरण सिंह, अशोक शर्मा, ज़ाहिद कादरी, कुमार निखिल और मैं थे। एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स से नदीम खान और मोहम्मद मोबाशीर थे।

हमने पाया कि शहर में अब भी तनाव था और इसका सामाजिक ढांचा छिन-भिन्न था। हल्द्वानी उत्तराखंड का दूसरा सबसे बड़ी आबादी वाला शहर है। पुराने शहर, जिसमें एक सैन्य छावनी है, में अधिकांश निवासी मुस्लिम हैं। शहर के नए हिस्से बाद में विकसित हुए जहां पहाड़ियों से और भारत के अन्य हिस्सों से आकर हिन्दू रहने लगे। 

8 फरवरी की हिंसा से पहले शहर में कभी सांप्रदायिक झड़पें नहीं हुईं थीं। 8 फरवरी की हिंसा भी शहर के मुस्लिमों और हिंदुओं के बीच नहीं हुई। यह प्रदेश प्रशासन और मुस्लिम निवासियों के एक हिस्से के बीच हुई जो अप्रत्याशित जल्दबाजी में और अन्यायपूर्ण तरीके से मस्जिद तोड़े जाने से खफा थे।

लेकिन, यह सब अचानक भी नहीं हुआ था। उत्तराखंड में हाल के वर्षों में मुस्लिम निवासियों के खिलाफ लगातार नफरती अभियान चलाया जा रहा है। हिन्दुत्व संगठन यह अभियान चला  रहे हैं जिसे मुख्यमंत्री पुष्कर धामी की सरकार कभी दबी ज़बान तो कभी खुलकर प्रोत्साहित कर रही है।

इस अभियान के मूल में यह विचार है कि हिंदुओं के पास एक विशेष और अपनी पवित्र भूमि हो- जैसे मुस्लिमों के पास मक्का है। इसके लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उत्तराखंड की देवभूमि का चयन किया है। उनकी सोच में यह भूमि हिंदुओं की पवित्र भूमि हो सकती है यदि यहां से इसके मुस्लिम निवासियों को निकाला जाए भले ही वह राज्य की आबादी का 14 फीसदी हैं।

दिसंबर 2021 में धर्म संसद में भगवाधारी धार्मिक नेताओं ने खुले आम मुस्लिम “घुसपैंठियों” को बाहर निकालने के सफाई के युद्ध के लिए जंग की तलवारें तेज करने का आह्वान यह कहते हुए किया कि पुलिस और सेना इसमें बाद में लोगों से जुड़ सकती है।   

और खुले आह्वान 100 हिन्दू स्वयंसेवकों से 20 लाख मुस्लिमों को मारने के लिए किए गए। धामी के नेतृत्व में प्रदेश प्रशासन ने नरसंहार और नस्लीय सफाई के इन अह्वानों को रोकने या दंडित करने की कोई कोशिश नहीं की। नतीजतन, उत्तराखंड के सार्वजनिक जीवन में नरसंहार के ऐसे आह्वान सामन्य बात बन चुकी है।

इस अभियान में मुस्लिमों को खतरनाक जिहादी गतिविधियों में शामिल बताया जाता है जिनसे राज्य के हिंदुओं को खतरा हो। इनमें पहली गतिविधि “आबादी जिहाद” है, अर्थात मुस्लिमों की तरफ से जानबूझ कर बड़ी संख्या में आबादी बढ़ाना और राज्य के बाहर से भी अपने समुदाय के सदस्यों को लाना जिसका उद्देश्य संख्या के मामले में हिंदुओं को पीछे छोड़ देना है।

दूसरी, “लव जिहाद” है, जिसके तहत दावा किया जाता है कि मुस्लिम पुरुष हिन्दू लड़कियों को प्रेम या शादी के रिश्ते में फांस लेते हैं ताकि उनका धर्म परिवर्तन किया जा सके और उनके शरीरों का इस्तेमाल कर मुस्लिम बच्चे पैदा किए जा सकें।

उत्तराखंड के मुस्लिमों के कथित रूप से छेड़े अन्य जिहादों की संख्या भी बढ़ती ही जा रही है। एक “भूमि जिहाद” है जिसके तहत दावा किया जाता है कि मुस्लिम राज्य में बड़ी मात्रा में ज़मीनें खरीद रहे हैं ताकि हिन्दू निवासियों को वहां से हटाया जा सके और “व्यापार अथवा आजीविका जिहाद”, जिसके तहत मुस्लिम राज्य में हिंदुओं के हक कि नौकरियां छीन रहे हैं। एक और सर्वाधिक काल्पनिक जिहाद “मज़ार जिहाद” है, जिसके तहत आरोप है कि मुस्लिम राज्य भर में मजारें बनाकर हिन्दू पहचान मिटाकर अपनी पहचान बनाना चाहते हैं।

इतने मोर्चों पर इन जिहादों की कहानियों के प्रचार-प्रसार का एक नतीजा मुस्लिमों के आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार के रूप में निकला है, घरों व दुकानों से मुस्लिम किरायेदारों को निकाला जा रहा है और उन्हें स्थायी रूप से राज्य छोड़ देने की धमकियाँ दीं जा रहीं हैं।

यदि यह सिर्फ फर्जी व नफरती प्रचार होता राज्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की 1400 शाखाओं और अन्य दक्षिणपंथी संगठनों का फैलाया हुआ, तब भी यह राज्य की धार्मिक सद्भावना को तार-तार करने के लिए काफी ही होता। लेकिन राज्य के मुस्लिमों के खिलाफ इस नफरती दुष्प्रचार के प्रभाव को कई गुना बढ़ा देता है धामी का यह सभी “झूठ”  को जोर देकर दोहराना, जो अपनी संवैधानिक प्रतिज्ञाओं और जिम्मेदारियों के मुकाबले संघ में अपनी विचारधारात्मक जड़ों के प्रति ज्यादा समर्पित लगते हैं। 

वह लगातार लव जिहाद और भूमि जिहाद के खिलाफ ठोस कार्रवाई करने के वादे कर हैं। उनकी सरकार ने धर्मांतरण विरोधी कानून के तहत सजा पांच साल से बढ़ाकर दुगुनी यानि दस साल कर दी है। वह अपनी सरकार की उपलब्धियों के रूप में कभी 1000 मजारें तो कभी 3000 मजारें तोड़ने की शेखी बघारते हैं।

इनमें से कई कब्रें बंजर वन गुज्जरों की हैं, जो पीढ़ियों से वनों में अपने जानवरों के साथ रहते और घूमते आए हैं और जब वह मरते हैं तो उनके शव वन में ही दफना दिया जाते हैं और छोटे पत्थर रख दिए जाते हैं निशानी के तौर पर।

इन भड़काऊ बयानों के जरिए मुख्यमंत्री का अपने अधिकारियों के लिए संदेश स्पष्ट होता है। वह उनसे उम्मीद करते हैं कि राज्य के मुस्लिम निवासियों को कथित अतिक्रमण, कथित अवैध आजीविकाओं और सरकारी ज़मीनों पर घरों व मज़ारों आदि के लिए निशाना बनाया जाए।

हिन्दू संगठनों के फैलाए सांप्रदायिक उन्माद और राज्य अधिकारियों, खासकर मुख्यमंत्री के सांप्रदायिक टोन वाले संदेशों से बना माहौल  वह पृष्ठभूमि थी, जिसमें 8 फरवरी की घटना को समझा जा सकता है।

स्थानीय निवासियों का अनुमान है कि राज्य में लगभग तीन चौथाई निर्माण सरकारी ज़मीनों पर हैं और उनका आरोप है कि इन “अतिक्रमणों” के खिलाफ प्रशासन की कार्रवाई ज्यादातर धार्मिक और जातीय अल्पसंख्यकों को, उनके पूजा स्थलों समेत, निशाना बनाकर की जाती है।

हल्द्वानी में 8 फरवरी की झड़पों से कई सप्ताह पहले, निगम अधिकारियों ने शहर के कई आवासों और छोटे व्यवसायों के खिलाफ नोटिस लगाए और कई निर्माण बिना किसी प्रतिरोध  के तोड़े।

एक मामले में, स्थानीय अधिकारियों ने घोषणा की कि खाली कराई जमीन पर गौशाला बनाई जाएगी। मुस्लिम निवासी बहुत डर गए, क्योंकि घनी मुस्लिम आबादी के बीच गौशाला का मतलब उन पर गौवध के आरोप लगाए जा सकते हैं।

“अतिक्रमण हटाने” की इस शृंखला के बीच, 30 जनवरी को नगर निगम आयुक्त ने एक 20 साल पुरानी मस्जिद और उससे लगा मदरसा तोड़ने के अपने निर्णय की घोषणा की। समुदाय के लोगों ने उनसे मिलकर अनुरोध किया कि मस्जिद और मदरसा न तोड़ा जाए और दावा किया कि जिस जमीन पर मस्जिद व मदरसा हैं, वह सोफिया मलिक नामक एक महिला से कानूनी तरीके से लीज़ पर ली गई है।

इमामों का एक प्रतिनिधि मण्डल भी निगम अधिकारियों से मिला और मस्जिद व मदरसे को न तोड़ने का अनुरोध किया क्योंकि धर्म स्थल और स्कूल कानूनी रूप से लीज़ ली गई जमीन पर थे। अधिकारी अड़े रहे कि मस्जिद सरकारी जमीन पर थी और मस्जिद व मदरसे को सील कर दिया। जमीन पर कानूनी कब्जे का दावा करने वाले व्यक्ति ने राहत के लिए उत्तराखंड उच्च न्यायालय से गुहार लगाई।

यहां तक सब शांतिपूर्ण था। समुदाय आश्वस्त था कि भले मस्जिद व मदरसा अब सरकार के कब्जे में थे, पर वह तब तक सुरक्षित थे जब तक कि अदालतों में इनकी वैधता पर निर्णय आए। 8 फरवरी की सुबह, मामले पर एकल न्यायाधीश पीठ के सामने सुनवाई हुई और उन्होंने 14 फरवरी पर इस पर सुनवाई का निर्णय सुनाया।

इसलिए यह चौंकाने वाला था कि 8 फरवरी की दोपहर, उत्तराखंड उच्च न्यायालय में सुनवाई के चंद घंटे बाद, निगम अधिकारी, बड़ी संख्या में पुलिसकर्मियों के साथ बुलडोजर लेकर मस्जिद और मदरसा तोड़ने आ गए। केवल दो लोगों को कुछ मिनटों के अंदर कुरान और अन्य पवित्र चीजें निकालने की अनुमति दी गई और तोड़ने की कारवाई शुरू की गई।

इसने स्थानीय निवासियों में घबराहट और रोष पैदा किया। महिलाओं का एक समूह कारवाई रोकने के लिए बुलडोज़रों के आगे खड़ा हो गया लेकिन महिला व पुरुष पुलिसकर्मियों ने उन्हें बलपूर्वक हटाया। इससे स्थानीय लोगों की भावनाएं और भड़क उठीं।

मस्जिद और मदरसे को ढहाए जाने तक जमा कुछ लोगों ने पुलिस पर पत्थर फेंके। कुछ निगम कर्मचारी और पत्रकार भी घायल हुए। इसका वीडियो प्रमाण है कि पुलिस ने भी भीड़ पर पत्थर फेंके।

हिंसा लगातार बढ़ती रही। पुलिस स्टेशन लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर है। कुछ गुस्साये लोगों के समूह ने पुलिस स्टेशन के निकट पार्क वाहनों को आग लगा दी और पुलिस स्टेशन के कुछ हिस्सों को भी आग लगा दी।

पुलिस ने भीड़ पर अंधाधुंध गोली चलाकर इसका जवाब दिया। भीड़ नियंत्रण के ज्ञात प्रोटोकॉल के अनुसार गोलीचालन से पहले भीड़ को तितर-बितर करने के लिए लाठी चार्ज, आँसू गैस और पानी के फव्वारे छोड़ने जैसे तरीके अपनाने होते हैं। लेकिन स्पष्ट है कि पुलिस के गोलीचालन शुरू करने से पहले समुचित तरीके नहीं अपनाए गए।

गवाहों के अनुसार, पुलिस ने कई सौ गोलियां चलाईं। स्थानीय लोगों का यह भी आरोप है कि मारे गए और घायल लोगों की संख्या आधिकारिक दावों में बताई गई संख्या से बहुत अधिक हो सकती है। वह इसे भी गलत बताते हैं कि पुलिस ने वास्तव में गोली “शूट ऐट साइट” के औपचारिक आदेशों के बाद चलाई। कई आरोप लगाते हैं कि पुलिस ने भीड़ पर तभी गोली चलानी शुरू कर दी थी जब लोगों ने पुलिस स्टेशन पर हमला भी नहीं किया था।

पुलिस के गोलीचालन में छह लोग मारे गए और कई अन्य घायल हो गए। जिला अधिकारियों ने हमें कर्फ्यू लगे इलाके में जाकर मारे गए लोगों के परिजनों से मिलने की अनुमति नहीं दी। लेकिन खबरों से संकेत मिलता है कि अधिकांश लोग शाम में कार्य से घर लौट रहे थे और यह वह लोग नहीं थे जिन्होंने पुलिस स्टेशन पर हमला किया था।

रात को नौ बजे कर्फ्यू लगाया गया जो प्रभावित इलाके में बिना किसी ढील के छह दिनों बाद भी जारी था, जब हमारी टीम हल्द्वानी पहुंची थी। कर्फ्यू लगी बस्ती में करीब एक लाख या उससे भी अधिक लोग हैं, जिनमें से अधिकांश दिहाड़ी व कम आय वाले श्रमिक हैं।

इतने दिनों का दंडनीय लॉकडाउन निवासियों के लिए काफी मुश्किल था जबकि इस तकलीफ का महत्वपूर्ण हिस्सा गैरजरूरी था।

जिला प्रशासन राहत का बेहतर प्रबंध कर सकता था और समय-समय पर कर्फ्यू में राहत दी जा सकती थी, खासकर महिलाओं और बच्चों के लिए। इलाके में इंटरनेट भी निलंबित की गई और बंदी छह दिन बाद भी जारी थी।

हल्द्वानी समुदाय के कई वरिष्ठ सदस्य, जिनमें पत्रकार, वकील, व्यवसायी शामिल थे, हमसे मिले। हमने कर्फ्यू लगे इलाके के कुछ परिवारों से फोन पर भी बात की।

उन्होंने बताया कि पुलिस करीब 300 मुस्लिम घरों में तलाशी के बहाने घुसी और उन्होंने महिलाओं और बच्चों समेत लोगों को बुरी तरह मारा-पीटा, घरों में संपत्तियों और बाहर खड़े वाहनों को नुकसान पहुंचाया।

यही पैटर्न हमने उत्तर प्रदेश में विवादास्पद नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 के समय विरोध प्रदर्शनों के दौरान भी देखा था। मैंने देखा था कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शहरों में कई घरों में पुलिस ने कानून व्यवस्था व शांति बनाए रखने की अपनी भूमिका निभाने के बजाय दंगाइयों की तरह व्यवहार किया था। ऐसा लगता है कि उत्तराखंड पुलिस ने हल्द्वानी में वही तरीका अपनाया। बड़ी संख्या में नौजवान, कुछ महिलाएं और किशोरों तक को पूछताछ के लिए गुप्त स्थलों पर ले जाया गया और मारा-पीटा गया।

नतीजतन, हमने पूरा हल्द्वानी शहर भय से आक्रांत देखा। इंटरनेट बंदी ने हालात को और बिगाड़ा। अबाधित कर्फ्यू और इंटरनेट बंदी के कारण स्थानीय लोग अपने डर, चिंताओं और शिकायतों या तोडफोड व मारपीट की घटनाओं के बारे में किसीको बताया नहीं पाए।

मुख्यमंत्री धामी हिंसा के कुछ दिनों बाद हल्द्वानी गए। वह केवल झड़पों में घायल पुलिसकर्मियों से मिले उन परिवारों से नहीं, जिन्होंने अपनों को इस हिंसा व पुलिस गोलीचालन में खोया। उन्होंने यह भी घोषणा की कि तोड़ी गई मस्जिद के स्थान पर एक पुलिस स्टेशन का निर्माण होगा।

उनकी घोषणा का प्रतीकवाद समझा जा सकता है। 1992 में उत्तर प्रदेश के एक नगर में  भीड़ द्वारा तोड़ी गई मस्जिद के स्थान पर हिन्दुत्व की जीत के प्रतीक के रूप में राम मंदिर का निर्माण किया गया है।और अब एक दूसरी मस्जिद, जो राज्य ने तोड़ी है, को पुलिस स्टेशन से बदला जाएगा, जो एक हिन्दुत्व सरकार में राज्य की शक्ति की जीत का प्रतीक है।

मैं जब यह लिख रहा हूं तो हल्द्वानी समेत राज्य के कई हिस्सों से मुस्लिम संपत्तियों पर नफरती हमलों के फिर से शुरू होने, मुस्लिम किरायेदारों को निकालने और उनके आर्थिक व सामाजिक बहिष्कार के आह्वानों की खबरें आ रही हैं।

हल्द्वानी में मस्जिद और मदरसे को तोड़ने और उसके बाद हुई हिंसा ने राज्य में उन डरावनी सांप्रदायिक दरारों को चौड़ा ही किया है जो राज्य प्रशासन के प्रोत्साहन से हिन्दुत्व संस्थाओं ने योजनाबद्ध ढंग से बनाई थीं।

लेकिन, सब खबरें बुरी ही नहीं हैं। हल्द्वानी हिंसा के बाद उत्तराखंड के कई शहरों में शांति मार्च हो रहे हैं। इनसे यह उम्मीद तो झलकती ही है कि भले राज्य प्रशासन और हिन्दुत्व संगठन राज्य को सांप्रदायिक नफरत और विभाजन की आग में झोंकने की कोशिश कर रहे हों, लेकिन उत्तराखंड के लोग प्रतिरोध कर रहे हैं। यही वह लोग हैं जो प्रेम और समानता की भूमि को फिर से हासिल करेंगे जो हर धर्म और पहचान के लोगों का अपना घर है।

(हर्ष मंदर मानवाधिकार कार्यकर्ता, शांति कार्यकर्ता, लेखक और शिक्षक हैं। लेख स्क्रॉल से साभार।)

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