महंगाई के लिए रिलायंस, अडानी, टाटा और बिड़ला की भारी मुनाफे की उगाही जिम्मेदार है: विरल आचार्य

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमऍफ़) ने अपने ब्लॉग में 26 जून को प्रकाशित एक लेख में यूरोप में जारी मुद्रास्फीति में वृद्धि यानि महंगाई के लिए भारी कॉर्पोरेट मुनाफ़े को जिम्मेदार ठहराया है। आईएमएफ के अनुसार आयात एवं सप्लाई चेन मैनेजमेंट के अलावा आधी महंगाई के लिए कंपनियों द्वारा भारी मुनाफा वसूली जिम्मेदार है। भारत में बढ़ती मुद्रास्फीति के संदर्भ में देखें तो कुछ इसी प्रकार का विश्लेषण आरबीआई के पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने मार्च 2023 में पेश किया था, जिस पर भारत में कोई खास चर्चा नहीं हुई।

30 मार्च, 2023 को विरल आचार्य ने अपने एक शोधपत्र में दावा किया था कि रिलायंस समूह, टाटा समूह, आदित्य बिड़़ला समूह, अडानी समूह और भारती टेलीकॉम जैसे “बिग 5” असल में छोटे स्थानीय कंपनियों की कीमत पर खुद को मजबूत करते जा रहे हैं। इसी दौर में सरकार द्वारा “आसमान-उच्च टैरिफ” को लागू कर इन समूहों को विदेशी कंपनियों से मिलने वाली प्रतिस्पर्धा से बचाने का भी काम किया गया।

विरल आचार्य के अनुसार, भारत के इन 5 सबसे बड़े घरानों के पास रिटेल, इन्फ्रास्ट्रक्चर, संसाधन और दूरसंचार क्षेत्रों में कीमतों के निर्धारण की अपार शक्ति है, ये ही मुद्रास्फीति बढ़ाने में योगदान दे रहे हैं और इनके गठजोड़ को तोड़ दिया जाना चाहिए। 2017 से 2019 के बीच भारतीय रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर रहे विरल आचार्य जो फिलहाल न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी स्टर्न स्कूल में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर के तौर पर कार्यरत हैं, ने कहा, “इन बी बिग-5 को राष्ट्रीय चैंपियन बनाने, जिसे कई लोग ‘नए भारत’ की औद्योगिक नीति मानते हैं, का अर्थ है प्रत्यक्ष तौर पर कीमतों को उच्च स्तर पर बनाये रखने में मदद करना है।” 

भारत के बारे में आचार्य का तर्क यह है कि भारतीय उपभोक्ता इनपुट मूल्य में गिरावट से पूरी तरह से लाभान्वित नहीं हो सकते क्योंकि 5 बड़ी कंपनियों का धातु, कोक, परिष्कृत पेट्रोलियम उत्पादों के साथ-साथ खुदरा व्यापार सहित दूरसंचार पर लगभग पूर्ण नियंत्रण बना हुआ है। भारत में वस्तुओं के दाम अभी भी ऊँचे बने हुए हैं, हालांकि वैश्विक स्तर पर सप्लाई-चेन की समस्या कम होने के बाद से कुछ महीनों से इसमें गिरावट आई है।

उन्होंने कहा, “कॉर्पोरेट शक्ति का बढ़ता संकेन्द्रण मुद्रास्फीति को और अधिक लगातार बनाए रखने और भारत के बड़े राजकोषीय और चक्रीय रूप से संवेदनशील चालू खाता घाटे को देखते हुए बाहरी क्षेत्र के मोर्चे पर भेद्यता पैदा करने का जोखिम उठा रहा है।”

प्रतिस्पर्धी वातावरण को बढ़ाने एवं मूल्य निर्धारण की ताकत को कम करने के लिए उन्होंने ऐसे गठजोड़ को ध्वस्त किये जाने तक की सलाह दी थी। उनके अनुसार यदि फिर भी काम न बने तो इनके रफ्तार के पहिये में बालू डालकर इन्हें आर्थिक तौर पर अनाकर्षक बना देने की पहल भारत के नीति-निर्धारकों की ओर से की जानी चाहिए। विरल आचार्य की ओर से यह शोध-पत्र ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूट के पैनल में उभरते बाजार विषय पर पेश की गई थी। 

यूरोप में भी इस समय महंगाई अपने चरम पर है। वहां भी महंगाई का कारण भी वहां कि कार्पोरेट कंपनियां हैं। पेट्रोल-डीजल-गैस के आयात की लागत में जितनी बढ़़ोत्तरी हुई, उसकी तुलना में यूरोप की कंपनियों ने भारी वृद्धि कर सारा बोझ उपभोक्ताओं पर डाल दिया है। यूरोप का कामगार अब अपनी घट चुकी क्रय शक्ति को पुनः हासिल करने के लिए वेतन में वृद्धि पर जोर दे रहा है। यदि 2025 तक यूरोपीय सेंट्रल बैंक को 2 प्रतिशत के लक्ष्य को हासिल करना है तो इन कंपनियों को लाभ के छोटे हिस्से पर संतोष करना पड़ सकता है, जैसा कि आईएमएफ के ताजातरीन विश्व आर्थिक दृष्टिकोण में अनुमान लगाया गया है। 

रिपोर्ट में आगे कहा गया है, यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के बाद आयात की लागत बढ़ जाने की वजह से अक्टूबर 2022 में यूरोप में मुद्रास्फीति 10.6 प्रतिशत तक पहुंच गई थी। यूरोपीय कंपनियों ने लागत में इस प्रत्यक्ष वृद्धि से कहीं ज्यादा भार उपभोक्ताओं पर डाल दिया। मई 2023 में मुद्रास्फीति हालांकि घटकर 6.1 प्रतिशत रह गई है, लेकिन मुद्रास्फीति में मौजूद अंतर्निहित मूल्य दबाव जिद्दी साबित हो रही है।

इसके चलते यूरोपियन सेंट्रल बैंक पर हालिया ब्याज दरों में बढ़ोत्तरी का दबाव बना हुआ है, जबकि समूचा यूरोज़ोन इस वर्ष की शुरुआत से ही मंदी में चला गया है। हालत यह है कि नीति निर्धारकों ने जून में दरें बढ़ाकर 22 साल के उच्चतम स्तर 3.5 प्रतिशत पर पहुंचा दीं हैं। सच यह है कि भारत और यूरोप दोनों जगहों पर कार्पोरेट कंपनियों की मोनोपोली और इस मोनोपोली के चलते मनमाना मुनाफा कमाने की स्थिति जिम्मेदार है।

समूचे विश्व में उदारीकरण और वैश्वीकरण ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों सहित विभिन्न देशों में मौजूद कॉर्पोरेट और क्रोनी कैपिटलिस्ट को आज उन ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया है, जहां से वे अब सरकारों और दुनिया की आर्थिक-गतिविधि को नियंत्रित करने की अकूत ताकत हासिल कर चुके हैं। यूरोपीय संघ को लेकर आईएमएफ का ताजा आकलन साफ़ बताता है कि जिन्होंने कल तक पूंजीवाद के इस स्वरूप को शक्ति-संपन्न करने में मदद पहुंचाने का काम किया था, आज वे खुद इनके बढ़ते वर्चस्व से सशंकित हैं। 

आईएमएफ की रिपोर्ट में कहा गया है “जैसा कि साप्ताहिक चार्ट से पता चलता है कि उच्च मुद्रास्फीति मुख्य रूप से भारी मुनाफे और आयात की कीमतों को दर्शाती है, और 2022 की शुरुआत के बाद से कीमतों में वृद्धि में मुनाफे का प्रतिशत 45 प्रतिशत है। नए शोध से पता चलता है कि मुद्रास्फीति में आयात लागत का योगदान करीब 40 प्रतिशत है, जबकि श्रम लागत का योगदान 25 प्रतिशत है। दूसरे शब्दों में कहें तो बढ़ी हुई लागत की मार से श्रमिकों के बजाय यूरोप के बिजनेस समूहों को बचाया गया है। इस वर्ष की पहली तिमाही में उनका मुनाफा महामारी-पूर्व के स्तर से 1 प्रतिशत (मुद्रास्फीति को समायोजित कर) अधिक पाया गया है। वहीं दूसरी तरफ कर्मचारियों को दिया गया मुआवजा मुद्रास्फीति से 2% कम था।”

आईएमएफ ब्लॉग में आगे कहा गया है, “हाल के महीनों में श्रम लागत में तेजी आई है। इसी अवधि के दौरान 2022 के मध्य में आयात की लागत जहाँ शीर्ष पर थी, उसमें कमी आई है। लेकिन वेतन में बढ़ोत्तरी अभी भी मुद्रास्फीति की दर से कम है। 2022 में वास्तविक श्रम की कीमत 5 प्रतिशत तक गिर गई है, जिसे देखते हुए श्रमिक वेतन में वृद्धि की मांग कर रहे हैं। यहाँ पर मुख्य प्रश्न यह है कि वेतन वृद्धि कितनी तेज़ी से अमल में लाई जाती है, और क्या कंपनियां श्रम की बढ़ी दरों को कीमतों में वृद्धि किये बगैर अपने मुनाफे में कटौती के जरिये चुकाने के लिए तैयार होंगे?”

आईएमएफ के अनुमान के मुताबिक “अगले दो वर्षों तक वेतन में करीब 4.5% की वृद्धि का अनुमान है, जो कि विकास दर से कुछ कम ही रहने वाली है। लेकिन व्यवसाय में लाभ का हिस्सा घटकर महामारी-पूर्व की स्थिति पर पहुंच सकता है। जैसा कि अप्रैल के विश्व आर्थिक दृष्टिकोण में अनुमानित किया गया था, वस्तुओं के मूल्य में गिरावट का क्रम बना रहने वाला है।” 

आईएमएफ ने यूरोपीय देशों में बढ़ती महंगाई को केंद्रित करते हुए बड़े कॉर्पोरेट घरानों की भूमिका को जवाबदेह बनाया है। भारत में मजबूत श्रमिक आंदोलन के अभाव के कारण लंबे समय से भारी मुद्रास्फीति का दबाव झेल रही भारत की 90% आबादी की आय में निरंतर गिरावट, बढ़ती बेरोजगारी, छंटनी और तालाबंदी के चलते अपने लिए वेतन में बढ़़ोत्तरी की मांग तक रख पाने में असमर्थ है।

उदारवादी अर्थनीति के दौर में भारत कोविड-19 महामारी के दौरान ‘आपदा में अवसर’ के जिस मंत्रजाप के साथ आगे बढ़ा, उसके खिलाफ कोई स्पष्ट समझ ही अभी देश के बुद्धिजीवी वर्ग तक में विकसित नहीं हो पाई है, आम नागरिकों तक इस संदेश को ले जाना तो फिलहाल एक दिवास्वप्न से अधिक नहीं है।   

( रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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