विधानसभा चुनाव परिणाम: शकुनि के पासों से खेलेंगे तो शकुनि ही जीतेगा

ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषकों ने विधानसभा चुनाव परिणामों- खासकर छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के नतीजों- को अप्रत्याशित बताया है। अनेक के अनुसार चुनाव से पहले राजस्थान में भी इस तरह का अंतर दिखाई नहीं दे रहा था। जितनी चौंकाने वाली यह जीत है उतना ही चौंकाने वाला इस जीत के बाद- खासकर मध्यप्रदेश में- पसरा सन्नाटा है। 

इतनी भारी भरकम जीत के बाद भी न कहीं कोई उल्लास है, न जनता में ही कहीं कोई जोश है। जनता के बीच चौराहों और चाय दुकानों पर जिस तरह की चर्चाएं चुनाव नतीजों के बाद आमतौर से होती हैं वे भी नहीं दिखाई दे रही हैं। ज्यादातर जगह तो जीते हुए प्रत्याशियों ने भी विजय जलूस निकालने से बचना ही ठीक समझा है। यह नयी बात है। 

कुछ दिनों में मतदान के माइक्रो रुझान सामने आ ही जायेंगे, उनके आधार पर ज्यादा समग्र विश्लेषण भी होंगे, कारण तलाशे जायेंगे। फिर भी एक मोटा मोटा अनुमान लगाया ही जा सकता है कि क्या हुआ, कैसे हुआ और क्यों हुआ?

किसी भी घटना के विकास का कोई एकमात्र कारण नहीं होता, अनेक वजहें होती हैं जिनका जोड़ समुच्चय अंतत परिणाम को निर्धारित करता है। अनेक ईंटें मिलकर किसी इमारत को खडी करती हैं- मगर मुख्य होती है बुनियाद और ईंटों को जोड़ने वाला सीमेंट। निर्णायक वही होती है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के नतीजों के पीछे वह बुनियाद और सीमेंट क्या है इसे अब तक उपलब्ध कुछ उदाहरणों के जरिये समझा जा सकता है।

इनमें से एक है डाक मतपत्र। सार्वजनिक क्षेत्र और संगठित क्षेत्र के मजदूर कर्मचारी इन दिनों अपने उद्योगों के अस्तित्व के संकट से गुजर रहे हैं। निजीकरण, वेतन समझौतों का लगातार टाले जाना और नई भर्ती पर रोक के चलते हुई काम बाढ़ और बढ़ती औद्योगिक असुरक्षा ने इन उद्योगों की तस्वीर ही बदल कर रख दी है।

विधानसभा चुनाव में मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के जितने भी पब्लिक सेक्टर की बसाहटों के इलाके थे उनमें उसी पार्टी को ज्यादा वोट मिले जो यह सब भयानक तेजी के साथ कर रही है। क्यों?

छत्तीसगढ़ और राजस्थान की सरकारें पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) को लागू कर चुकी थीं। मध्यप्रदेश में मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने सरकार में आते ही ओपीएस को लागू करने का वायदा किया था। इसके बावजूद अब तक मिली जानकारी के मुताबिक़ इन तीनों ही प्रदेशों में कर्मचारियों के एक तिहाई, कहीं कहीं इससे भी अधिक हिस्से ने वोट पेंशन बंद करने वाली भाजपा को दिए। क्यों? 

एक बड़ा तबका मध्यम वर्गीय, निम्न मध्यमवर्गीय समुदाय का है; वह समुदाय जिसमें हर घर में दो या तीन बेरोजगार या अर्ध-बेरोजगार हैं। महीने के खर्च निकालने में पसीना निकल आता है, बैंक कर्ज की किश्तें चुकाने की चिंता में नींद हराम हुई पड़ी है, इसके बाद भी वह उन्हीं का बटन दबा कर आया है जिसकी वजह से ये मुश्किलें पैदा हुईं। क्यों?

मतदान के कुछ ही महीने पहले एक बिगडैल भाजपाई द्वारा एक आदिवासी के सर पर मूत्रदान की हॉरर फिल्म रिलीज़ हुयी थी। बड़े पैमाने पर आदिवासियों की जमीनें छीनकर कॉरपोरेट कंपनियों के हवाले की जा रही हैं, छत्तीसगढ़ में बस्तर को अडानी के लिए खाली कराने के लिए उसे कोलम्बस का अमरीका बनाया जा रहा है। 

इसके बाद भी जो पार्टी और जिसकी सरकार यह काम कर रही है, वही मप्र में आदिवासियों के लिए आरक्षित आधे से ज्यादा और बस्तर की दो तिहाई और सरगुजा की सभी की सभी सीटों में जीत हासिल करती है, बाकी आदिवासी सीटों पर भी उसके वोट बढ़ते हैं। क्यों?

महंगाई की आग का प्रत्यक्ष अनुभव करने और रात दिन इसके लिए हुक्मरानों को कोसने वाली महिलाओं का बड़ा– काफी बड़ा – हिस्सा, सस्ते गैस सिलेंडर के वायदों के बावजूद अचानक उसी बटन को दबाकर आ जाता है जिन पर वह अंगुली दिखा दिखाकर लानत भेज रहा था। क्यों?

इन सभी क्यों का एक ही जवाब है, इन सभी समानताओं का एक ही साम्य है; इसका नाम है हिंदुत्व। वह हिंदुत्व जिसका हिन्दू या सनातन धर्म से कोई रिश्ता नहीं है; जो धर्म की चाशनी में डुबोकर धतूरा मिली अफीम है।

इसी का असर था कि जो सभी आपस में बैठते समय भाजपा सरकार की नीतियों पर गुस्सा उतारते हैं, उसके लिए उसे धिक्कारते हैं। इन दिनों तो इनके सबसे बड़े नेता मोदी की भी आलोचनाएं मुखर हो रही हैं। इन सारी निंदाओं के बीच, इनमें से किसी भी शिकायत का जवाब दिए बिना, बल्कि इनकी पुष्टि करते हुए कोई चतुर सुजान धीरे से बोलता है कि “कुछ भी कहो, हिन्दुओं को तो बचाया है।“ और इस एक वाक्य से अंगुली सीधे उस जगह पहुंच जाती है, जहां वह खुद नहीं दबाना चाहता।

यह सिर्फ एक वाक्य नहीं है, यह बुद्धि हरने का वह सायनाइडी कैप्सूल है जिसे एक बहुत ही व्यवस्थित और अनवरत चलाये गए अभियान से तैयार किया गया है। पूरा मीडिया, संघियों की आईटी सेल, भाजपा शासित राज्यों के शिक्षा और प्रशासन के सभी तंत्र किसी न किसी रूप में इसी मन्त्र को लोगों को कंठस्थ कराने में लगे हैं। हर तीज त्यौहार का इस्तेमाल इसी कैप्सूल को और महीन तरीके से गाढा और सांघातिक बनाने के लिए किया जा रहा है।

मध्य प्रदेश में चुनाव की गरमागरमी शुरू होने के पहले ही सभी गांवों में एक एक बाबा– साधू– पुजारी की विधिवत ड्यूटी लगाई गयी। इन पंक्तियों के लेखक ने स्वयं एक शुद्ध आदिवासी– आदिवासियों में भी सबसे प्राचीन आदिवासी समुदाय बैगा आदिवासियों के- गांव में देखा कि दुर्गा पूजा के नाम पर एक चबूतरे पर एक अस्थायी मन्दिर बना है और एक पुजारी उसमें उन आरतियों को गवा रहे हैं जिनका न दुर्गा के साथ कोई रिश्ता है, न आदिवासी संस्कृति के साथ कोई संबंध हैं।

पुजारी से बात करने से पता चला कि उनकी “जिम्मेदारी” में यह गांव और यह काम है। इसके लिए वे हर शाम कोई 45 किलोमीटर दूर से सिर्फ यही कर्मकाण्ड कराने आते हैं और रात में फिर 45 किलोमीटर लौट जाते हैं। आदिवासियों को जनेऊ, चोटी का महत्व समझाते हैं और इस तरह इस कदर संस्कारित करते हैं कि इन दिनों अब उन्हें भी अपनी बच्चियों और महिलाओं को घर से बाहर जाने देना कुसंस्कार लगने लगा है।

ये वे गांव हैं जिनमें भले पीने के पानी के लिए हैण्डपम्प तक नहीं है– मगर मेड इन चाइना हैंडी लाउडस्पीकर्स में एक जैसी पेन ड्राइव से एक जैसे गीत और प्रवचन हैं, और उन्हें निश्चित समय पर बजाने वालों की तैनाती है।

लगभग हर बड़े गांव के प्रवेश द्वार पर पंचायतों और ग्रामीण विकास के लिए आये फण्ड से पिछले कुछ वर्षों में नए नए भगवानों की विशालकाय मूर्तियां खड़ी कर दी गयीं हैं। यह प्रक्रिया आदिवासियों के हिन्दूकरण की महापरियोजना के तहत शुरू हुयी थी– अब उनके उग्र हिन्दुत्वीकरण तक पहुंच गयी है। उन्माद और विषाक्तता को स्थायी भाव बनाया जा रहा है।

लिहाजा कुछ सुधी विद्वानों के इस दावे का कोई आधार नहीं हैं कि इस बार के चुनावों में साम्प्रदायिक प्रचार नहीं था या ज्यादा नहीं था– अव्वल तो यह सच भी नहीं है, क्योंकि राजस्थान से मध्य प्रदेश तक खुद मोदी वोट डालने के पहले कन्हैयालाल को याद करने की दुहाई दे रहे थे, राजस्थान में चार चार कथित साधुओं–बाबाओं को उम्मीदवार बनाकर उनके क्षेत्रों में खासतौर सभाएं लेने जा रहे थे।  हिन्दुओं को त्यौहार नहीं मनाने दिए जाने का आरोप लगाते रहे।

दूसरे यह कि मानस में साम्प्रदायिकता की इतनी महीन रोपाई की जा चुकी है कि अब उसे भाषणों में  बार बार उतनी तीव्रता से दोहराने की जरूरत नहीं है– एक संकेत, एक मुहावरा, एक इशारा ही काफी होता है उस कैंसर के फोड़े को हरियाने के लिए।

जनमानस के विवेक को हर लेने, उसकी दृष्टि को संकुचित कर देने वाले इस नफरती कोहरे से सारे वातावरण को पाट दिया गया है। यही विवेक शून्यता है जो सब कुछ जानने समझने के बाद भी उसी अंधेरे कुंए में धकेल रही है, जिससे बाहर आने के लिए वह बाकी 4 वर्ष 364 दिन छटपटाता रहता है।

सवाल यह है कि इसका मुकाबला कैसे किया गया?

इतिहास का सबक है कि शकुनि के पासों से खेलने की ‘चतुराई’ शकुनि की जीत को ही पक्का करती है। उग्र हिंदुत्व और नर्म हिंदुत्व का रूपक तेज धधकती आग को सुलगती आग से ही बुझाने की कपोलकल्पना है। दोहराने की आवश्यकता नहीं कि धर्म और साम्प्रदायिकता दो अलग अलग चीजें हैं; धार्मिक होना एक अलग बात है मगर धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल एक बिलकुल ही अलग तरह का काण्ड है।

यह एक ऐसा काण्ड है जो जितना भी सकारात्मक है उस सबको स्वाहा करने की क्षमता रखता है। जो बागेश्वर धाम का दुर्भाषा प्रवचनकर्ता हिन्दू राष्ट्र को अपना ध्येय और नरेन्द्र मोदी को विश्व का सबसे महान नेता मानता है उसके चरणों में ढोक देना और उसे कुछ करोड़ रूपये की दक्षिणा देकर अपने विधानसभा क्षेत्र में प्रवचन के नाम पर बुलाने की कमलनाथी चतुराई शकुनि के पासों से उसी की फड़ पर बैठकर खेलने की चतुराई है।

इसे ही छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल ‘राम वन पथ गमन’ और रामकथाओं के सरकारी आयोजन के नाम पर उन्मादी बाबाओं को इकट्ठा करके आजमा रहे थे। जाहिर है इसका हश्र वही होना था जो हुआ।

साम्प्रदायिकता के उन्मादी प्रचार की काट और उसका तर्कसंगत जवाब ढूंढने की बजाय उन्हीं के उस अखाड़े में जाकर खेलना जिसके वे उस्ताद हैं– ऐसी कार्यनीति है जो साख और पहचान को ही धुंधला कर देती है। ऐसा करना सिर्फ धर्मनिरपेक्षता की समझदारी के ही उलट नहीं हैं बल्कि उस कथित सर्व धर्म समभाव की धारणा के भी खिलाफ है जिसे पिछले कुछ दशकों से इस देश की अनेक धर्मनिरपेक्ष पार्टियों ने अपनाया हुआ है।

सांड को सींग से पकड़ना होता है। पूंछ से पकड़ने पर “हलुआ मिला न माड़े–दोऊ दीन से गए पांड़े” की वही स्थिति होती है जो हुई है। राजस्थान में शकुनि के पासों से खेलने और खुद को ज्यादा खरा हिन्दू बताने वाले अखाड़े में नहीं उतरा गया तो वहां का परिणाम दोनों राज्यों जैसा नहीं रहा।

कुछ विद्वानों की ईमानदार समझदारी है कि साम्प्रदायिकता की काट करने के लिए उसके बारे में कुछ भी बोलने के बजाय चुप रहना चाहिए और सारी शक्ति आर्थिक और दैनंदिन जीवन से जुड़े विषयों पर संघर्षो में लगाई जानी चाहिए। यह समझदारी अधूरी है, इसलिए कि विषबेल की जड़ और शाखाओं को निशाने पर लिए बिना सिर्फ कुछ पत्तियों को हिलाने से कुछ हासिल नहीं होता।

यह बात इन चुनाव नतीजों में भी उजागर हुयी, यदि आर्थिक प्रश्न अकेले ही काफी होते तो राजस्थान और छत्तीसगढ़ में राहतों और सहूलियतों में योगदान करने वाली नीतियों को इन चुनावों में निर्णायक होना चाहिए था; किन्तु ऐसा हुआ नहीं।

निस्संदेह इन चुनावों में कॉरपोरेट घरानों से मिले अपार और अकूत पैसे का इस्तेमाल, नत्थी प्रशासन, आज्ञाकारी और शरीके जुर्म केन्द्रीय चुनाव आयोग, वोट बंटवारे के लिए खूब सारा पैसा देकर मैदान में उतारी गयी बी-टीम पार्टियां और उम्मीदवार, हितग्राहियों के संगठनों और दूसरे नामों से हर पोलिंग बूथ में बिछाया गया तीन से चार “कार्यकर्ताओं” का जाल, ईवीएम मशीनों से छेड़खानी की पुष्ट खबरें, डाक मतपत्रों को खोलने आदि इत्यादि की वारदातें भी इन चुनाव परिणामों को प्रभावित करने वाले कारणों में शामिल हैं।

इनसे जुड़े तथ्य जल्द ही सामने आयेंगे। मगर इन सबके साथ, असली बुनियाद और उसका सीमेंट गारा नफरती धुंध है। इसकी शिनाख्त करना, इसका व्यापकतम शक्ति जुटा कर प्रतिरोध करना फौरी महत्व और सर्वोच्च प्राथमिकता का काम हो जाता है, क्योंकि यह सिर्फ 4-5 प्रदेशों की विधानसभा तक सीमित मसला नहीं है, यह एक चुनाव का मामला भी नहीं है, यह वह खतरनाक फिसलन है जो देश को बहुत लम्बे समय तक अंधेरी गुफा में ले जाने की आशंकाओं से भरी है। ये वे लम्हे हैं जिनकी खता की सजा सदियों को भुगतनी पड़ सकता है।

चुनाव परिणामों के बाद का सन्नाटा इस बात का प्रतीक है कि अभी भी नागरिकों का विराट बहुमत, साम्प्रदायिक दुष्प्रचार के प्रभाव में वोट डालने वालों का भी काफी बड़ा हिस्सा यह स्वीकार करने में लाज महसूस करता है कि उसने इस आधार पर वोट दिया है। कहीं न कहीं उसका सुप्त विवेक बचा है जो यह मानता है कि ऐसा करना अच्छी बात नहीं होती।

मतलब यह कि, सैकड़ों वर्ष की साझी विरासत और साझी संस्कृति की फसल अभी पूरी तरह से उजड़ी नहीं है, धरा अभी बंजर नहीं हुई है। उस पर पाला मारने और सोच को कुंठित बनाने वाली साजिशें अभी पूरी तरह से कामयाब नहीं हुई हैं। ज़रा सी जिद के साथ मिलकर प्रयास किये जाएं तो इन्हें नाकामयाब बनाया जा सकता है; मगर इसके लिए तिनके चुनने से काम नहीं चलेगा, दरियाओं को ही झूम कर उठना होगा।

(बादल सरोज लोकजतन के सम्पादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)

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