2024 लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की अहमियत और परिवर्तन की संभावना

2024 लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की गुत्थी को सुलझाए बगैर इस महासमर को जीतना किसी के लिए भी संभव नहीं है। 80 लोकसभा सीटों के लिहाज से उत्तर प्रदेश यदि इंडिया गठबंधन अपनी पैठ बनाने में सफल नहीं रहता है, तो उसके लिए दिल्ली अभी भी बहुत दूर रहने वाली है।

फिलहाल यूपी में पलड़ा बड़े पैमाने पर निःसंदेह एनडीए के पक्ष में झुका हुआ है। लेकिन प्रदेश की जनसांख्यकी पर नजर डालें तो ऐसी कई दरारें हैं, जिन्हें अगर इंडिया गठबंधन पाटने की कोशिश करता है, तो उसे भी आशातीत परिणाम हासिल हो सकते हैं। लेकिन इसके लिए काफी देर हो चुकी है। यह दूसरी बात है कि एक बड़ा तबका ऐसा है जो अपनी अस्मिता की तलाश कर रहा है, और वही इस चुनाव में सबसे अहम रोल अदा करने जा रहा है।

उत्तर प्रदेश में दलित मतदाता करीब 21% हैं, और अनुसूचित जाति के लिए प्रदेश में 17 सीटें आरक्षित हैं। 2019 में 15 सीटों पर भाजपा को जीत हासिल हुई थी, जबकि 2 सीटें बसपा के खाते में गई थीं। 2014 में तो सभी 17 सीटों पर भाजपा+अपना दल का कब्जा था। इस बार भी हैरत की बात नहीं कि इन सभी आरक्षित सीटों पर एनडीए को ही जीत हासिल हो।

ऐसे में देखना होगा कि इंडिया गठबंधन की मौजूदा स्थिति क्या है और एनडीए के मुकाबले उसकी तैयारियों में प्राथमिकताओं में दलित वोट कहां ठहरता है। उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोक दल इंडिया गठबंधन से बाहर हो चुका है, इसलिए प्रैक्टिकली जमीन पर सिर्फ समाजवादी और कांग्रेस ही मैदान में हैं। 2019 में एनडीए को 51.19% मत प्राप्त हुए थे, और उसे 80 में से 64 सीट पर जीत हासिल हुई थी। दूसरी ओर, मुकाबले में सपा, बसपा और रालोद को कुल 39.23% वोट हासिल हुए थे, और उसके खाते में मात्र 15 सीटें आई थीं। कांग्रेस ने यह चुनाव अकेले लड़ा था, और उसके खाते में 6.41% और एकमात्र रायबरेली की सीट आई थी। बसपा को 10 एवं सपा के खाते में 5 सीट आई थी।

भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश से ही सीटों में बढ़ोत्तरी की संभावना

इस बार भाजपा उत्तर प्रदेश में अपनी सीटों की संख्या 70+ करने के लिए जी-जान से जुटी है, क्योंकि इंडिया गठबंधन और 10 वर्ष की एंटी इनकंबेंसी कई अन्य राज्यों में पार्टी को नुकसान पहुंचाने जा रही है। पीएम मोदी ने इस बार भाजपा के लिए भले ही 370+ का नारा दिया हो, लेकिन वस्तुतः उसे लोकसभा में आवश्यक बहुमत के लिए जरुरी 272 सीटों की चिंता खाए जा रही है। एनडीए के लिए 400+ का आह्वान असल में हिंदी प्रदेशों के मतदाताओं को आश्वस्त करना है कि भाजपा अपराजेय है, और इसलिए इधर-उधर सोचने की जरूरत नहीं है।

पिछले पांच वर्षों में दक्षिण के राज्यों में भाजपा का प्रभाव निरंतर घटा है। लेकिन हाल ही में बिहार और महाराष्ट्र से भी गठबंधन में दरार की खबरों ने नरेंद्र मोदी के तीसरी बार पीएम बनने की ख्वाहिश में पलीता लगाने का काम कर दिया है। भाजपा ने महाराष्ट्र और बिहार की सियासत में इतनी अधिक तोड़-फोड़ की है, कि अब सहयोगी दलों को भी भाजपा से डर लगने लगा है, और वे राज्य के साथ-साथ लोकसभा सीटों के लिए भी सिर-फुटव्वल से पीछे नहीं हट रहे। ऐन चुनाव की घोषणा से पहले ऐसी स्थिति शायद पहली बार भाजपा के हिस्से में आई है। जबकि दूसरी तरफ इंडिया गठबंधन, जो कल तक लड़खड़ाती हुई नजर आ रही थी, एक के बाद एक विभिन्न राज्यों में सीट-समझौते की ओर बढ़ रही है।

सुनने में आ रहा है कि राजस्थान में भी कांग्रेस और राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के हनुमान बेनीवाल के साथ नागौर, बाड़मेर और जैसलमेर सीट पर समझौते की बात अपने अंतिम चरण में है। मध्य प्रदेश में समाजवादी पार्टी, गुजरात, हरियाणा और दिल्ली में आम आदमी पार्टी के साथ समझौता कर इंडिया गठबंधन ने साफ़ कर दिया है कि इस बार वह मोदी को एकतरफा जीत का मौका हर्गिज नहीं देने जा रही है। पूर्वोत्तर में भी इस बार भाजपा के लिए चुनावी नैया को पार लगा पाना पूर्व के मुकाबले दुष्कर होने जा रहा है।

हाल के वर्षों का लेखा-जोखा

ऐसे में उत्तर प्रदेश का महत्व आज और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, और एक-एक सीट का महत्व कई गुना बढ़ गया है। यहां पर कागज पर भाजपा और सहयोगी दल की स्थिति पहले से भी अधिक मजबूत नजर आ रही है। इस बार बसपा ने अभी तक एकला चलो का ही संदेश दिया है, और उसके दस सांसदों में से अधिकांश इधर-उधर भाग रहे हैं। बसपा के बगैर यह मुकाबला एकतरफा नजर आता है, क्योंकि 2019 में सपा को मात्र 18.11% और कांग्रेस को 6.36% वोट प्राप्त हुए थे। हालांकि 2022 विधान सभा चुनाव तक आते-आते काफी कुछ बदल गया था, और राज्य में अधिकांश वोटों का ध्रुवीकरण भाजपा और समाजवादी पार्टी के पक्ष में हो चुका था। विधानसभा के मत प्रतिशत की बात करें तो एनडीए को करीब 41% और सपा के पक्ष में 32% वोट आये थे। बसपा के खाते में 13% वोट आये थे, लेकिन पहली बार उसका प्रदर्शन ऐतिहासिक तौर पर बदतरीन रहा, और उसके हिस्से में एकमात्र सीट ही आ सकी थी।

लेकिन हाल में घोषी विधानसभा उपचुनाव के नतीजे, राज्य के बदलते हालात की ओर इशारा करते हैं। 2022 में इस सीट पर सपा के प्रत्याशी दारा सिंह चौहान 42% वोट पाकर जीते थे। लेकिन 2023 में वे पाला बदलकर भाजपा में शामिल हो जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप दोबारा से इस सीट पर चुनाव होता है। लेकिन नतीजे हैरान करने वाले निकले। बसपा ने इस बार अपना उम्मीदवार नहीं खड़ा किया था। सपा को इस सीट पर करीब 57% वोट हासिल हुए, जबकि भाजपा से दारा सिंह चौहान को 38% वोटों से ही संतोष करना पड़ा था। इंडिया गठबंधन के लिए यह पहला मौका था, जब सपा के उम्मीदवार सुधाकर सिंह को कांग्रेस सहित कम्युनिस्ट पार्टियों का समर्थन मिला।

तभी से कयास लगाये जा रहे थे कि यदि सपा, कांग्रेस और बसपा 2024 में भी संयुक्त रूप से चुनाव लड़ती है तो प्रदेश में परिणाम को बड़े पैमाने पर पलटा जा सकता है, जिसके नतीजे में देश को 10 साल बाद भाजपा मुक्त भी संभव किया जा सकता है। लेकिन इस बार ऐसे किसी गठबंधन की संभावना को ही कैसे खत्म करना है, यह बात भला भाजपा से बेहतर कौन जान सकता है। अब सभी की निगाहें मायावती के बचे-खुचे वोट बैंक पर लगी हुई है। अगर बसपा का आधार बड़े पैमाने पर भाजपा के पक्ष में चला जाता है तो उसके लिए 70+ के लक्ष्य को हासिल करना बेहद आसान हो जाने वाला है। लेकिन वहीं यदि घोषी की तरह बसपा के समर्थक इंडिया गठबंधन के पक्ष में वोट करते हैं, तो 2019 के मुकाबले विपक्ष 25-30 सीट तक हासिल करने में कामयाब हो सकता है। भाजपा के लिए 2019 की तुलना में यूपी से 10+ सीट को गंवाने का अर्थ है, दिल्ली से भी हाथ धोना, जिसे वह किसी भी कीमत पर नहीं होने देगी।

यूपी में समाजवादी पार्टी प्रमुख घटक दल के तौर पर है। कांग्रेस के खाते में 17 सीटें दी गई हैं, जिसका अर्थ है कि रालोद की अनुपस्थिति में सपा के पास लोकसभा की 63 सीटें हैं। उसके पास आजाद समाज पार्टी के चंद्रशेखर आजाद उर्फ रावण को अपने साथ समायोजित करने का सुनहरा अवसर है। खबर है कि इस बार समाजवादी पार्टी के टिकट से चंद्रशेखर को नगीना लोकसभा की सीट मिल सकती है। हालांकि आज ही एक और खबर चल रही है कि सपा उन्हें अपने टिकट पर इटावा से खड़ा करने जा रही है। अगर ऐसा होता है तो चन्द्रशेखर की जीत पक्की हो सकती है, और इंडिया गठबंधन को भी राज्य में कई सीटों पर इसका फायदा मिल सकता है।

यूपी के दलित मतदाताओं में इस बार अजीब सी चुप्पी देखी जा रही है। उसे साफ़ दिख रहा है कि बहनजी की पार्टी इस बार पूरी तरह से निष्क्रिय भूमिका में है। 1989 से 2012 तक बसपा का सफर प्रदेश में दलित एवं वंचित राजनीति के इतिहास में सुनहरा काल रहा, लेकिन 2014 के बाद से तेजी से यह प्रभामंडल धूमिल होता चला गया। मायावती का कट्टर समर्थक जाटव वोटर 2019 के चुनाव में करीब 19% पहले भी भाजपा के साथ चला गया था, जबकि गैर-जाटव वोट का 68 फीसदी हिस्सा भी उसके पक्ष में हो गया था। मायावती की निष्क्रियता और चन्द्रशेखर के विकल्प के तौर पर सक्रिय होने से ये दोनो वोट बैंक अपने लिए नया विकल्प देख सकते हैं।

इंडिया गठबंधन के लिए अवसर

2001 में गठित हुकुम सिंह कमेटी के अनुसार उत्तर प्रदेश में ओबीसी समुदाय की आबादी 50% से ऊपर थी। इसमें यादव बिरादरी सबसे अधिक थी। यूपी में यादव आबादी के 9.40%, कुर्मी और पटेल 7.4%, जबकि निषाद, मल्लाह और केवट 4.3%, भर और राजभर 2.4%, लोध 4.8% और जाट 3.6% हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं। यादवों के लिए समाजवादी पार्टी पहली पसंद रही है। इसके साथ ही मुस्लिम अल्पसंख्यक आबादी भी प्रदेश में 19.26% हिस्से का प्रतिनिधित्व करती है, जो इस बार इंडिया गठबंधन के पक्ष में सबसे मजबूत दीवार की तरह खड़ी है। हाल के वर्षों में राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी में व्यापक बदलाव आया है, और देशभर में अल्पसंख्यक समुदाय एक बार फिर से कांग्रेस पार्टी की ओर देख रहे हैं।

पिछले तीन दशकों के दौरान भले ही उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का प्रदर्शन लगातार गिरा हो, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के मुकाबले वही एक राष्ट्रीय पार्टी है, जिसके पास केंद्रीय स्तर पर ढांचा मौजूद है, और वह देश ही नहीं वरन विदेश मामलों पर भी लगातार समानांतर विचार रखती आई है। भाजपा-आरएसएस की विचारधारा के खिलाफ देश में धर्मनिरपेक्षता, विविधता और भाईचारे की वकालत करने वाली कांग्रेस ने अब खुद को पूरी तरह से पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों और महिलाओं के पक्ष में खड़े दिखने का मन बना लिया है, जिसका खामियाजा भी उसे कई राज्यों में भुगतना पड़ रहा है। इस बात को भी देश का दलित बहुजन वर्ग और खासकर अल्पसंख्यक वर्ग नजरें गड़ाए उम्मीद के साथ देख रहा है समाजवादी पार्टी में अखिलेश भी निरंतर हार के बाद पीडीए फार्मूले के सहारे अब दलितों को अपनी ओर आकर्षित करने के प्रयास में हैं।

संक्षेप में कहें तो उत्तर प्रदेश में अभी भी एनडीए का पलड़ा काफी भारी है, लेकिन यदि सपा और कांग्रेस ओबीसी, मुस्लिम अल्पसंख्यक के साथ-साथ अनुसूचित वर्ग से भी एक हिस्से को अपने पक्ष में लाने में सफल हो जाता है तो पूरी उम्मीद है कि एक बड़ा उलटफेर संभव है। हालंकि यह उलटफेर तेलंगाना विधानसभा की तरह हो पाना संभव नहीं है, फिर भी इंडिया गठबंधन 2014 और 2019 की तुलना में कम से कम दो दर्जन सीटों को अपने नाम करने में कामयाब रह सकता है। उत्तर प्रदेश में इतना बदलाव ही 2024 की दशा-दिशा को बदलने के लिए काफी रहने वाली है, लेकिन भाजपा की चुनावी मशीनरी के रणनीतिकार आसानी से ऐसा होने देंगे, ऐसा सोचना एक खाम-ख्याली होगी।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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