यूपी में नाबालिग बच्चों को दी कार-स्कूटी तो जाएंगे जेल, होगी 3 साल की सजा और 25 हजार जुर्माना

नई दिल्ली। अभी ट्रक ड्राइवरों और गाड़ी चालकों की हड़ताल रुकी भी नहीं है कि इसी दौरान उत्तर प्रदेश के माध्यमिक शिक्षा विभाग के निदेशक ने राज्य के सभी जिला विद्यालय निरीक्षकों को 2 जनवरी, 2023 को पत्र लिखकर 18 साल से कम उम्र के बच्चों को कार या दोपहिया वाहन चलाते हुए पाने पर उसे, उसके अभिभावक और वाहन मालिक को सजा के प्रावधान से अवगत कराने का आदेश परित किया।

राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग की ओर से बच्चों की ड्राइविंग पर रोक लगाने की मांग की गई थी। अब इस संदर्भ में अभियान चलाया जाएगा। जिस बच्चे को वाहन चलाते हुए पकड़ा जाएगा उसका ड्राइविंग लाइसेंस 25 साल बाद ही बन पाएगा।

जारी किये गये निर्देश के अनुसार मोटर वाहन संशोधन अधिनियम, 2019 में एक नई धारा 199 क जोड़ा गया है जिसमें वाहन चलाते हुए पकड़े गये किशोर के संरक्षक/मोटरवाहन के स्वामी को ही दोषी मानते हुए दंडित किया जाएगा। इसके तहत तीन वर्ष का कारावास और 25 हजार रुपये तक का जुर्माना किया जा सकता है और गाड़ी का पंजीकरण भी एक साल के लिए रद्द हो जाएगा। यह आदेश 3 जनवरी से लागू हो गया है।

शिक्षा निदेशक की ओर से जारी यह पत्र सभी स्कूलों में पढ़ा और सूचित किया जाएगा। उत्तर प्रदेश में शिक्षा की दर के हिसाब से लगभग 32 फीसद बच्चे शिक्षा से वंचित हैं। वे स्कूल नहीं जाते हैं। यदि हम ड्रॉपआउट का आंकड़ा देखें तो 2018-22 के बीच माध्यमिक शिक्षा में यह दर 2.7 फीसदी, उच्च प्राथमिक में 2.9 फीसदी और माध्यमिक में यह 9.7 प्रतिशत है।

यदि हम जिलेवार इसे देखें तो उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों में यह 15 फीसदी से अधिक दिखता है। उत्तर प्रदेश की कुल आबादी में 8.50 करोड़ से अधिक आबादी 18 साल से कम उम्र की है। इसमें से लगभग डेढ़ करोड़ की उम्र 15-17 साल की है। 2020 में आई रिपोर्ट में शिक्षित बेरोजगारों की संख्या लगभग 34 लाख थी। यहां इन आंकड़ों को देने का मकसद यह बताना है कि बहुत से बच्चे, जिनकी उम्र 18 साल से कम है या तो स्कूल कभी गये नहीं, या गये तो दोपहिया या कार चलाने की उम्र तक स्कूल से बाहर हो गये।

इस ड्रॉपआउट और स्कूल न जाने के पीछे एक बड़ा कारण परिवार की आर्थिक स्थिति और कम उम्र में ही काम पर जाना होता है। ये बच्चे बहुत जल्द ही काम पर जाने लगते हैं या कमाने के लिए दूसरे राज्यों में चले जाते हैं। 2017 में जो रिपोर्ट आई उसमें उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक बच्चे काम पर जा रहे थे। इनकी उम्र 14 साल से कम थी।

इस संदर्भ में राज्य सरकार की कई योजनाएं हैं और बाल श्रम रोकने के लिए कई कानून भी, लेकिन खेतों से लेकर शहरों के खतरनाक कामों में इन बच्चों को काम करते हुए देखा जा सकता है। शिक्षा निदेशालय की ओर से जारी प्रपत्र का दायरा उन बच्चों तक भी जाता है, जो छात्र नहीं हैं और जीविका के लिए ई-रिक्शा चलाने में लग गये हैं या चार पहिया वाहन चलाना सीखने के लिए सहयोगी की भूमिका से होते हुए ड्राइवरी सीखते हैं।

इस उम्र के बच्चों तक यह आदेश कैसे पहुंचेगा, स्पष्ट नहीं है। शिक्षा निदेशालय की ओर से जारी प्रपत्र यह दिखाता है कि यह सूचना मुख्यतः उन बच्चों के लिए है जो स्कूल की पढ़ाई कर रहे हैं। इसमें व्यवसाय से जुड़े पक्ष को देखा नहीं गया है।

दंड के प्रावधान पर इतना जोर क्यों दिया जा रहा है?

आमतौर पर अनुशासन को व्यक्ति के निर्माण के लिए जरूरी माना जाता है। लेकिन, जब यह ‘अनुशासन’ राज्य की ओर से जारी किया जाता है तब उद्देश्य तो एक बेहतर नागरिक बनाने की ओर ही होता है लेकिन सजा के प्रावधान मुख्य हो जाते हैं। निश्चित ही इसमें ताकत का केंद्रीयकरण जरूरी होता है। यह सिर्फ सजा को सिद्ध करने की बौद्धिकता की ही ताकत नहीं होती है, यह सजायाफ्ता व्यक्ति को उसकी सजा भोगने तक ले जाने की भी ताकत अख्तियार करने की होती है।

इस तरह अनुशासन की यह व्यवस्था कानून और पुलिस दोनों के साथ-साथ चलने में अभिव्यक्ति होती है। अनुशासन, कानून और पुलिस के त्रिकोण में राज्य सत्ता के पास ‘सभ्य’ होने की दावेदारी अंतर्निहित होती है। इसे लोकतांत्रिक जामा पहनाने की कई प्रक्रियाएं होती हैं, जिसमें बहुमत प्रमुख है; लेकिन यही अंतिम होता है। इसके लिए कई बार रिपोर्टों का सहारा भी लिया जाता है और एक बड़ा सहारा न्यायपालिका से भी मिलता है।

दंडित करने का प्रावधान लाने वाली राजसत्ता अक्सर खुद को अभिभावक के तौर पर पेश करती है। पहले वह प्रावधान लाती है और खुद को इससे ऊपर रखते हुए सीधे घोषित करने में लग जाती है कि जो कानून का उलघंन करेगा उसे सजा मिलेगी। इस मामले में केंद्र में प्रधानमंत्री मोदी और उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी के बयानों को देखा जा सकता है। इसके साथ-साथ एजेंसियों की सक्रियता को भी देखा जा सकता है।

इस प्रक्रिया में अभिभावकत्व का दावा ‘मोदी की गारंटी’ में बदलते हुए हम देख सकते हैं। यह गारंटी अब दिल्ली और झारखंड की दो चुनी हुई सरकारों के मुख्यमंत्रियों के जेल जाने की संभावना तक जा रही है। यह गारंटी यहीं तक सीमित नहीं है। हाल ही में एक साक्षात्कार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब यह कहा- “अब ब्रह्मांड की कोई ताकत अनुच्छेद 370 की वापसी नहीं करा सकती”- तब यह एक ऐसे वक्तव्य में बदल जाता है जो सारे कानूनी प्रावधानों और लोकतांत्रिक मूल्यों को ही नहीं ईश्वरीय ताकत की कल्पना को भी पीछे छोड़ जाता है।

आप इसे दंभ या ऐसा ही कुछ कह सकते हैं लेकिन एक आधुनिक राज्य की संकल्पना में इसे असीम ताकत से भरी तानाशाही वाले राज्य/शासक कहना ही अधिक उपयुक्त होगा। इसका प्रतिरूप हम उत्तर प्रदेश में देख सकते हैं। राज्य के भीतर राज्य की संकल्पना को तोड़ते हुए इसे सिर्फ जम्मू-कश्मीर के नजरिये से ही नहीं अन्य राज्यों की सत्ता के पतन में भी देखना चाहिए। और, इससे भी अधिक दंडित करने के अधिकार के बढ़ते संकेंद्रण में देखना चाहिए जिसमें शासक खुद को अभिव्यक्त करने में गर्वान्वित हो रहा है।

उत्तर प्रदेश में सड़क दुर्घटनाएं

जनवरी से दिसम्बर 2022 के आंकड़ों को देखें, तो उत्तर प्रदेश में सड़क दुर्घटना के 41,746 मामले सामने आए, जिसमें 22,595 लोग मारे गये और 28,541 घायल हुए। 2021 की तुलना में यह 10.6 प्रतिशत अधिक है। मौत की संख्या और घायलों की संख्या में तेज वृद्धि को देखा जा सकता है। इसमें सबसे अधिक सड़क दुर्घटनाएं कानपुर में 640 हुई थीं। प्रयागराज, लखनऊ, आगरा, बुलंदशहर, गोरखपुर और उन्नाव में यह आंकड़ा क्रमशः 603, 587, 548, 542, 512 और 510 है।

लखनऊ राज्य की राजधानी है। यहां आबादी के हिसाब से दुघर्टना की संख्या कम है। दुर्घटनाओं के इन आंकड़ों से दुर्घटना के कारणों तक पहुंचना मुश्किल है। लेकिन, यदि हम उत्तर प्रदेश में हाईवे प्रोजेक्ट को देखें, तो यह सड़क मार्ग में तेजी से निर्माण कार्य में लगे राज्यों में से एक दिखेगा।

ये हाईवे अपने उद्घाटन के साथ ही कई समस्याओं को लेकर सामने आ जाते हैं। गांवों और कस्बों को काटते हुए ये हाईवे गाड़ियों को जो रफ्तार प्रदान करते हैं, उसके अनुकूल न तो उत्तर प्रदेश का समाज विकसित हुआ है और न ही उसके पास इस तरह की गाड़ियां ही उपलब्ध हैं।

ये हाईवे राज्य के औद्योगिक विकास को नजर में रखकर विकसित किये जा रहे हैं। निश्चित ही छोटी खेती पर निर्भर गांव, कस्बे और छोटे शहर इसकी रफ्तार का हिस्सा नहीं हैं। मध्यवर्ग का एक छोटा सा हिस्सा अपनी कार के साथ साल के चंद महीनों में यात्रा करता है। राज्य का परिवहन विभाग कुछ गाड़ियां इस पर चलता है। इन सड़कों पर होने वाली दुर्घटनाओं के कई सारे कारण हैं। ये कारण सिर्फ चालक की गलतियों की वजह से ही नहीं होते हैं।

यह सच है कि उत्तर प्रदेश में कुल दुर्घटनाओं में मारे गये लोगों और दुर्घटना को अंजाम देने वालों का 40 प्रतिशत हिस्सा नाबालिगों का है। निश्चित ही इसे रोकना चाहिए और हर हाल में इस रोका जाना चाहिए। इसे रोकने की जिम्मेदारी अभिभावक और गाड़ी मालिक पर डालना और उन्हें अपराधी की श्रेणी में डाल देना कत्तई उपयुक्त नहीं है।

कारावास का प्रावधान परिवार की आर्थिक सुरक्षा को खतरे में डाल देगा। यदि परिवार चलाने वाला ही जेल में जाएगा, तब न सिर्फ वह अपने व्यवसाय और नौकरी से हाथ धो बैठेगा, बल्कि परिवार के अन्य सदस्यों की तबाही का भी कारण बन जाएगा। कानून का यह प्रावधान जीवन सुरक्षा से अधिक परिवार की तबाही को अधिक सुनिश्चित करने के प्रावधान में बदल जाएगा।

यहां एक बार तकनीक और समाज के बीच के रिश्ते को जरूर समझना होगा। यदि दो पहिया स्पोर्ट्स वाहन और हाईवे साथ आयेंगे तब इसके संयोजन से बनने वाली समस्याओं से मुकरना मुश्किल है। यदि संपन्नता का अर्थ चार पहिया या दो पहिया महंगी गाड़ियां हैं, तो युवा हो रहे लोगों का इसके प्रति आकर्षण को सिर्फ कानून के सहारे रोकना मुश्किल है। उत्तर प्रदेश देश में सबसे युवा लोगों के प्रदेशों में सबसे ऊपर है।

निश्चित ही दुर्घटनाओं को रोकने के लिए उपाय होने चाहिए, लेकिन इसका अर्थ यह कत्तई नहीं है जो अपराधी नहीं है, उसे ही सजा दे दी जाये। यह भी एक बुलडोजर नीति है जिसे कानूनी जामा पहनाया जा रहा है। आपसे यह कहा जा रहा है कि अपने बच्चों को संभालों, नहीं तो बच्चों को बाद में सबसे पहले तुम्हें दंडित किया जाएगा। यह किसी भी तरह से नागरिक समाज का प्रावधान नहीं हो सकता है। इसे तुरंत वापस लेना चाहिए।

(अंजनी कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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