धार्मिक स्थलों में बढ़ोतरी, स्कूल और अस्पताल की कमी: देश धर्म के महासमुद्र में डूब रहा है

नई दिल्ली। भारत की कुल विकास की दर संभव है दो अंकों में चली जाए। लेकिन, इसका अर्थ यह नहीं है कि देश के हर नागरिक की यही विकास दर है। ऊपर के 15-20 प्रतिशत की विकास दर वही नहीं है जो देश की 80-85 प्रतिशत लोगों की है। यह विभेद उपभोग से लेकर संपत्ति बटोरने तक में देखा जा सकता है। किसी सूचकांक को हासिल करने के लिए उसकी ठोस सांख्यिकी को पढ़ना भी जरूरी होता है।

ठीक ऐसी ही स्थिति इस देश के धार्मिक होने में भी है। बहुत आसानी से कह दिया जाता है कि भारत धर्म का देश है। इस कहने में धर्म को एक आम आस्था में बदलकर दी जा रही परिभाषा में बहुत सारी सांस्कृतिक मान्यताओं को भी समाहित कर लिया जाता है।

इस समाहितीकरण को जब हिंदू नाम दिया गया और मंदिरों को उसका स्मारक घोषित कर दिया गया, तब भी यह परिभाषा चलती रही। भारत को हिंदूओं का देश घोषित करने वालों की संख्या भी बढ़ती गई। यह भुला दिया गया कि बहुसंख्यक समुदाय इस मंदिर का हिस्सा ही नहीं है, उसमें वह जा ही नहीं सकता जबकि एक बड़ा हिस्सा इस तरह की आस्था वाले स्थानों को मान्यता ही नहीं देता है।

आधुनिक भारत राष्ट्रवाद का उभार कई सारे धार्मिक आग्रहों के साथ हुआ जो इतिहास से अपनी खुराक ले रहा था और वर्तमान को गढ़ने में लगा रहा था। इसमें समस्या तब पैदा हुई जब उन धर्मों को चिन्हित किया गया जिनका इतिहास इस भारत के भूगोल से बाहर था। उन्हें दुश्मन करार दिये जाने का एक आधार गढ़ा जाने लगा।

भारत में सबसे ज्यादा ध्वंसावशेष बौद्ध मठों, विहारों और संस्थानों के दिख रहे थे। लेकिन, इतिहास के पन्नों से मंदिरों के ध्वंसावशेष खोजने का सिलसिला चला। यह मंदिरों के लिए दूसरे स्मारकों पर दावेदारी तो थी, इसने मंदिरों के निर्माण को राष्ट्रवाद के विकास का हिस्सा बना दिया। यह प्रचारित किया गया विरासत को हासिल करने का अर्थ मंदिरों का पुनरूद्धार है।

भारतीय राष्ट्रवाद का निर्माण एक ऐसी निरन्तर चलने वाली धारा बन गई, जो हर समय संकटग्रस्त और निर्माण के लिए उद्वेलित रहती है। एक राष्ट्र का निर्माण कई सारी भौगोलिक दावेदारी में अभिव्यक्त होती है जिसकी वजह से अन्य राष्ट्रों के साथ रिश्तों को परिभाषित करना जरूरी हो जाता है।

इसी तरह राष्ट्रवाद की अंदरूनी ताकत समाज के विभिन्न हिस्से होते हैं। समय के साथ सामाजिक वर्ग, जाति, वर्ण विभेद के वर्चस्व के अनुसार राष्ट्रवाद पुनर्परिभाषित होता रहता है। निश्चित भारत का प्रभुत्व वर्ग में कुछ मात्रात्मक परिवर्तन के साथ प्रभुत्व की पुरानी धारा ही खुद को और मजबूत करने की ओर गई।

इसने भारत के ही अन्य धर्मों के प्रति कठोर रुख लेना शुरू किया और साथ ही बहुसंख्यक दलित, आदिवासी और अन्य मतावलंबियों को धर्म के हिंदूकरण और इसी का राजनीतिकरण करने का रास्ता लिया। जो लोग इसके हामी नहीं बने उन्हें राष्ट्रवाद की परिभाषा और विकास के चौड़े रास्ते से अलग करने की प्रक्रिया अपना ली गई। इस तरह धर्म न सिर्फ सार्वजनिक संस्थान में बदल गया बल्कि धर्म के संस्थान भी सार्वजनिक जीवन के आम हिस्सा बन गये।

ठोस शब्दों में कहें तो मंदिर, धर्म, राष्ट्रवाद, विकास, राजनीति और पार्टी सब एक दूसरे के पर्यायवाची बन गये। जबकि जो सार्वजनिक संस्थान थे वे निजी हाथों में बेच दिये गए। सार्वजनिक जीवन निजी जीवन में बदलते गये। विश्वविद्यालय तक पहुंच भी निजी प्रयासों और क्षमताओं से जोड़ दी गयी। सार्वजनिक हिस्सेदारी को धकियाकर बाहर करने की कोशिशें एक कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा बन गई।

आज धर्म दर्शन और चिंतन से बाहर निकल चुका है। वह अनुष्ठान, दृष्यमान और भव्यता में खुद को अभिव्यक्त कर रहा है। जिसका मूल एक ऐसी अंधश्रद्धा है जो विशाल स्मारक, प्रांगण, रूप और दृश्य से संचालित हो रहा है और इसमें इतिहास की छौंक लगाकर अधिकतम आकर्षक बना देने की चाह है।

मंदिर, आश्रम, पूजा पांडाल से लेकर तीर्थ स्थल और वहां पूजा के सार्वजनिक प्रदर्शन आदि वे आकर्षण हैं, जहां लाखों लोग इकठ्ठा होते हैं और धर्म की आस्था में खुद को डूबोकर अपने को मुक्त कर लेना चाहते हैं। लेकिन, इस पूरे आवरण का निर्माण वहां जा रहे लोग नहीं है, बल्कि वे लोग हैं जो भारत की राजनीति को धर्म, राष्ट्रवाद के साथ जोड़ते हुए आज एक दूसरे का पर्याय बना चुके हैं।

पिछले साल की 15 फरवरी, 2023 को टाइम्स नाउ के डिजिटल पेज पर देबोस्मिता घोष की रिपोर्ट छपी थी। उनके अनुसार भारत में प्रति एक लाख लोगों पर 53 मंदिर हैं। उन्होंने पिक्सेल द्वारा जारी आंकड़ों को उद्धृत किया था। जिसके अनुसार कुल मंदिरों की संख्या 6.48 लाख थी।

2011 के जनगणना के अनुसार भारत में कुल 33 करोड़ भवन गिने गये थे जिसमें से 26.1 करोड़ तो लोगों के आवास थे। इसमें से 21 लाख स्कूल और कॉलेज के भवन थे। जबकि 30 लाख 1 हजार धार्मिक स्थल थे।

मोदी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा की पिछले दस साल से सरकार है। यूडीआईएसई की एक रिपोर्ट के अनुसार, जो प्रतिवर्ष स्कूलों का आंकड़ा पेश करती है, 2018-19 में सरकारी स्कूलों की संख्या 10 लाख 83 हजार 678 थी, जो 2019-20 में घटकर 10 लाख, 32 हजार, 570 रह गई। कुल 51,108 स्कूल बंद हुए।

2020-21 की अवधि में 20 हजार स्कूलों के बंद हो जाने की खबरे छपीं। जबकि कई सारे राज्यों ने सरकारी स्कूलों को क्लस्टर, स्मार्ट और मर्ज करने जैसी शब्दावलियों का प्रयोग कर कुल स्कूलों की संख्या को कम करने की नीति लेकर सामने आये। अकेले उत्तर-प्रदेश में 2018-20 के बीच 29 हजार 74 स्कूल बंद हुए। जबकि देशस्तर पर निजी स्कूलों की संख्या में 3.6 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई।

कुल आंकड़ों को जोड़ा जाये, तब 2018-21 के बीच बंद स्कूलों की संख्या लगभग 72 हजार के करीब पहुंचती है। द हिंदू बिजनेस लाइन ने 3 नवम्बर, 2023 को शिक्षा मंत्रालय के हवाले से रिपोर्ट छापा है, जिसमें 2021-22 के बीच लगभग 20 हजार स्कूल बंद कर दिये गये।

इस बंदी में एक बड़ी संख्या निजी स्कूलों और संस्थानों की है जो कोविड के कारण छात्रों की कमी और अन्य कारणों से बंद हो गये। निश्चित ही गरीबी ने निजी संस्थानों में पढ़ाई करने की क्षमता को कम कर दिया और ये बच्चे सरकारी स्कूलों की तरफ बढ़ गये होंगे। जबकि वहां बंदी का सिलसिला अब भी रूका नहीं है।

इन सरकारी स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों, यहां तक कि निजी विश्वविद्यालयों तक में प्रार्थना से लेकर शोध पत्र पेश करने पर धर्म और राष्ट्रवाद ने जिस तरह से हस्तक्षेप किया है और वित्तिय प्रबंधन की जो स्थितियां बनाई हैं, वह इससे भी बदतर है। जबकि सांस्कृतिक विकास, विरासत और धरोहर के नाम पर धार्मिक स्थलों के लिए हजारों करोड़ रूपये के प्रोजक्ट लगातार काम कर रहे हैं।

केवल उत्तर प्रदेश में राम मंदिर निर्माण ही नहीं पूरी अयोध्या को विरासत और सांस्कृतिक नगरी बनाने के लिए जिस तरह से कोष खोल दिया गया है, उसका नजारा हम देख रहे हैं। प्रयागराज से लेकर काशी कॉरीडोर का काम हम देख चुके हैं। वहीं भारत में विज्ञान सम्मेलन का भविष्य कोष की कमी के कारण अधर में फंस चुका है।

कहते हैं जब नीत्शे ने घोषित किया कि ईश्वर मर चुका है, इसके कुछ ही समय बाद ईश्वर ने घोषित किया कि नीत्शे मर गया है। मरने से बचने के लिए जरूरी है यह कहना कि मैं हूं। लेकिन यह जानना भी जरूरी है कि सिर्फ होना ही काफी नहीं है।

बुद्ध ने अपनी दार्शनिक प्रस्तुति में प्रज्ञा, करूणा और समता का उल्लेख किया था। प्रज्ञा का अर्थ होना, होने का कारण और होने के निमित्त में नीहित है। इसी तरह करूणा जीवन और संसार के बीच के रिश्तों को परिभाषित करता है और समता समाज और उसके तत्वों के संबंधों की बात करता है।

कार्ल मार्क्स अपने द्वंदात्मक ऐतिहासिक भौतिकवादी दर्शन में ऐतिहासिक पक्षधरता और नेतृत्व को निर्णायक मानते हैं। निश्चित ही इस ऐतिहासिक जिम्मेवारी खुद को अलग करना धर्म की अंधी दौड़ में खुद को छोड़ देना होगा। आज जरूरी है पक्षधरता, नेतृत्व और निर्णय को इन संदर्भों में समझना और आगे बढ़ना।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)

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