डीयू में RSS की बढ़ती पैठ ने शैक्षणिक एवं बौद्धिक स्वतंत्रता को लेकर बढ़ाई चिंता

नई दिल्ली। अंग्रेजी अखबार द टेलीग्राफ ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि 20 अक्टूबर को आरएसएस ने दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों के बीच अपनी विचारधारा का प्रचार-प्रसार करने के लिए डीयू से संबद्ध स्वामी श्रद्धानंद कॉलेज में एक “शाखा” का आयोजन किया। उत्तरी दिल्ली में अलीपुर में स्थित स्वामी श्रद्धानंद कॉलेज की वेबसाइट से पता चलता है कि संस्थान की स्थापना 1967 में हुई, और कॉलेज के कार्यक्रमों एवं सेमिनार में भी दक्षिणपंथी रुझान बड़े पैमाने पर नजर आता है। कॉलेज में समय-समय पर होने वाले कार्यक्रमों में भाजपा से जुड़े पदाधिकारियों एवं सांसदों की उपस्थिति एक आम बात है।

लेकिन बात श्रद्धानंद कॉलेज तक ही सीमित नहीं है। डीयू से संबद्ध एक अन्य संस्थान, लक्ष्मीबाई कॉलेज के एक संकाय सदस्य ने इस बात का खुलासा किया है कि सितंबर से आरएसएस ने उनके कैंपस के भीतर कई शाखाएं आयोजित की हैं। डीयू के विभिन्न विभागों एवं कॉलेजों तक में आरएसएस से जुड़े पदाधिकारियों को सेमिनार और सम्मेलनों में आमंत्रित करने का चलन तेजी से बढ़ा है। इसकी एक बड़ी वजह विभिन्न भगवा संगठनों में उनके महत्वपूर्ण पदों पर आसीन होने को बताया जा रहा है।

डीयू शिक्षक संघ की पूर्व अध्यक्ष नंदिता नारायण ने इस घटनाक्रम पर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए इसे “सार्वजनिक विश्वविद्यालय स्थल का दुरुपयोग” एवं “परिसरों का राजनीतिकरण” करार दिया है।

रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि श्रद्धानंद कॉलेज के एक छात्र ने सूचित किया है कि आरएसएस की इस शाखा में करीब 25 छात्रों ने हिस्सा लिया था, जिसमें प्रार्थना, चर्चा एवं कई प्रकार की कसरत को शामिल किया गया था। लेकिन चूंकि उक्त छात्र ने व्यक्तिगत रूप से इस कार्यक्रम में हिस्सा नहीं लिया था, इसलिए इस बारे में वह विस्तृत जानकारी दे पाने में असमर्थ है। उक्त कॉलेज द्वारा अपने आधिकारिक कार्यक्रमों में आरएसएस एवं भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से जुड़े पदाधिकारियों को आमंत्रित करने की परंपरा काफी अर्से से चली आ रही है।

उदाहरण के लिए, 18 अक्टूबर को, दिल्ली भाजपा के “संगठन मंत्री” पवन राणा एवं भारतीय जनता युवा मोर्चा के दिल्ली अध्यक्ष शशि यादव को कॉलेज के “मेरी माटी मेरी देश” कार्यक्रम में आमंत्रित किया गया था। यह कार्यक्रम स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों को श्रद्धांजलि देने हेतु चलाए जा रहे सरकारी अभियान का एक हिस्सा था।

इसके साथ ही कॉलेज में भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उद्यमशीलता को प्रोत्साहित करने हेतु 4 अक्टूबर को “स्वावलंबी भारत अभियान के तहत उद्यमिता प्रोत्साहन सम्मेलन” नामक एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम में आरएसएस के भीतर आर्थिक मामलों से जुड़े थिंक टैंक, स्वदेशी जागरण मंच का प्रतिनिधित्व दीपक शर्मा, संजय गौड़ और राजेंद्र सैनी द्वारा किया गया। इस कार्यक्रम में भाजपा जिला अध्यक्ष सत्यनारायण गौतम भी उपस्थित थे।

कॉलेज छात्र संघ के शपथ ग्रहण समारोह में गेस्ट के तौर पर एबीवीपी को आमंत्रण

इतना ही नहीं 16 अक्टूबर के दिन जब कॉलेज यूनियन के पदाधिकारियों के शपथ ग्रहण समारोह का आयोजन किया जा रहा था, तो उसमें आरएसएस की छात्र शाखा, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) की डीयू इकाई के नेताओं को अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था, जिसका छात्रों ने विरोध किया था। विरोध प्रदर्शन के बाद जवाबी कार्रवाई में कांग्रेस पार्टी की छात्र शाखा, नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ इंडिया (एनएसयूआई) के एक विश्वविद्यालय स्तर के नेता को भी कार्यकम में आमंत्रित किया गया।

आरएसएस एवं उसके आनुषांगिक संगठनों की कैंपसों में बढ़ती उपस्थिति ने डीयू छात्रों और शिक्षकों के बीच में चिंता बढ़ा दी है। रिपोर्ट में एक छात्र के हवाले से कहा गया है, ‘हमारे कॉलेज में आरएसएस एवं उससे जुड़े संगठनों को प्रशासन की ओर से सहयोग मिल रहा है।’

दिल्ली विश्वविद्यालय से सम्बद्ध एक कॉलेज के प्राध्यापक सूरज यादव मंडल का इस बारे में कहना था कि आरएसएस ने हाल के वर्षों में डीयू के कॉलेजों एवं डिपार्टमेंट के भीतर अपनी गतिविधियां तेज कर दी हैं, और वे अब पहले की तुलना में खुले तौर पर अपना काम कर रहे हैं।

उन्होंने बताया कि सेमिनारों एवं सम्मेलनों के पोस्टरों में अब अतिथि वक्ता के तौर पर आरएसएस से जुड़े पदाधिकारियों को उनके पदनामों के साथ बड़ी प्रमुखता से उल्लेख किया जा रहा है। इन कार्यक्रमों में अक्सर सभी नव-नियुक्त शिक्षकों सहित संकाय के लोगों को हिस्सा लेना पड़ता है।

लक्ष्मीबाई कॉलेज में, जहां पर आरएसएस की शाखाएं नियमित रूप से आयोजित की जा रही हैं, वहां पर कुछ संकाय सदस्यों के इन शाखाओं में जाने की सूचना है, जो साफ़ दर्शाता है कि आरएसएस की पहुंच किस स्तर पर बढ़ चुकी है।

अप्रैल 2023 में, दिल्ली विश्वविद्यालय ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तहत पंचांग (एक हिंदू कैलेंडर और पंचांग) एवं भारतीय पारंपरिक ज्ञान पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया था। इस कार्यकम के पोस्टर पर मुख्य अतिथि के तौर पर आरएसएस के संचार मामलों के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामलाल का परिचय दिया गया था।

नंदिता नारायण ने इस बारे में अखबार को बताया कि विश्विद्यालयों में विशेषज्ञों और सरकारी अधिकारियों को उनकी राजनीतिक संबद्धता की परवाह किए बिना आमंत्रित किये जाने की परंपरा रही है। लेकिन इसके साथ ही उनका कहना था कि, यह आमंत्रण उनके राजनीतिक जुड़ाव की बजाय विषय के बारे में उनकी योग्यता एवं विशेषज्ञता के आधार पर किया जाना चाहिए।

शिक्षा का भगवाकरण अब एक कड़वी हकीकत

यह बात अब किसी से छुपी नहीं है कि देश में मौजूद लगभग सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में उप-कुलपतियों की नियुक्ति ही नहीं बल्कि विभागों के स्तर पर शिक्षकों की भर्ती में संघ से नजदीक होना निर्णायक हो गया है। 2014 के बाद शुरुआती वर्षों में इसको लेकर शैक्षणिक जगत में भारी तनाव व्याप्त था, लेकिन अब ऐसा जान पड़ता है कि कैम्पसों का भगवाकरण पूरी तरह से सिरे चढ़ चुका है, और जो लोग कल तक शिक्षा के लोकतांत्रिकरण को लेकर दिन-रात जुटे हुए थे, उन्होंने हथियार डाल दिए हैं।

हाल ही में कांग्रेस नेता राहुल गांधी के साथ भाजपा नेता एवं जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल, सत्यपाल मलिक ने अपने बयान में साफ़-साफ़ इस बात को दोहराया था कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अब वे लोग उप-कुलपति बनकर नियुक्त हो रहे हैं, जिनके पास असल में इंटरमीडिएट कॉलेज का अध्यापक तक बन पाने की योग्यता नहीं है।

यहां तक कि जिन राज्यों में भाजपा की राज्य सरकारें नहीं हैं, वहां पर आये-दिन विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति को लेकर राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच खुली जंग की खबरें आती रहती हैं। पिछले कुछ वर्षों में केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल के विश्वविद्यालय राज्य-सरकार बनाम राज्यपाल के बीच जारी रस्साकशी में बुरी तरह से पिस रहे हैं।

जेएनयू के बजट में अभूतपूर्व कटौती: परिसर में सन्नाटा

पिछले सप्ताह कई समाचार-पत्रों में जेएनयू केंद्रीय विश्वविद्यालय के शोध प्रबंध बजट में भारी कटौती की खबर प्रकाशित हुई थी। विश्वविद्यालय की वार्षिक लेखा रिपोर्ट को देखने पर पता चलता है कि 2014 में मोदी सरकार की ताजपोशी के बाद से इस विश्वविद्यालय का कलेवर कितना बदल चुका है। वर्ष 2015-16 के शैक्षणिक-सत्र से 2021-22 की तुलना करने पर बेहद चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं।

इस रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि किस प्रकार लेबोरेटरी, फील्डवर्क, सेमिनार/वर्कशॉप, छात्रवृत्ति जैसे विभिन्न मदों में भारी कटौती कर जेएनयू की विशिष्ट पहचान को ही खत्म कर दिया गया है। उदाहरण के लिए लेबोरेटरी में वर्ष 2015-16 के लिए बजट जहां 3.16 करोड़ रुपये निर्धारित किया गया था, उसे 21-22 में घटाकर 36 लाख रुपये तक ले आया गया। 88.6% की कटौती के बाद भी यदि जेएनयू के विद्यार्थी वैज्ञानिक प्रयोग कर रहे हैं, तो यह आठवां अजूबा है।

इसी प्रकार फील्डवर्क एवं सम्मेलनों में संकाय सदस्यों की हिस्सेदारी के खाते में 1.08 करोड़ रुपये की राशि को घटाकर 21-22 में मात्र 8 लाख रुपये पर लाकर (92.6%) की कटौती कर दी गई है।

सेमिनार/वर्कशॉप के लिए विख्यात विश्वविद्यालय के पास मात्र 38 लाख रुपये का बजट है, जो 15-16 में 1.70 करोड़ रुपये था (78.8% की कटौती)।

विश्वविद्यालय की ओर से हर साल दी जाने वाली छात्रवृत्ति के मद में भी भारी कटौती की गई है। 2015-16 में 15.8 करोड़ रुपये की छात्रवृत्ति प्रदान की जाती थी, अब 2021-22 में यह घटकर 2 करोड़ रुपये रह गई है, अर्थात इसमें भी 87.3% की कमी हो चुकी है।   

केंद्र सरकार, भाजपा, आरएसएस एवं उसके दर्जनों आनुषांगिक संगठनों सहित गोदी मीडिया के निशाने पर रहते हुए आज जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की जिस भी तस्वीर को देश ने अभी तक संजोकर रखा था, वह असल में उससे काफी दूर छिटक चुकी है। जेएनयू जैसे विश्वविद्यालयों ने पिछले कई वर्षों तक विभाजनकारी, सांप्रदायिक एजेंडे के सामने घुटने नहीं टेके।

केंद्र द्वारा चहेते उप-कुलपतियों की नियुक्ति के माध्यम से मनमाने नीतिगत फैसले किये गये, लेकिन जिस चीज ने जेएनयू के समूचे वजूद पर ही बड़ा प्रहार किया है, वह है उसके द्वारा देश के दूर-दराज के क्षेत्रों से आने वाले वंचित, गरीब छात्रों को कैंपस में प्रवेश देना और परिसर में मौलिक वैज्ञानिक चिंतन, बहस के साथ-साथ देश की विविधता को साक्षात जमीन पर साकार होते देखने का अनुभव।

अब जब विश्विद्यालय के पास इन सबके लिए आवश्यक बजट ही नहीं रहेगा तो न तो ऐसे छात्र ही कैंपस में प्रवेश पा सकेंगे, और न ही विविधता और ताजगी के अभाव में कुछ नया और मौलिक करने का जज्बा ही बचा रह जाता है।

जहां तक दिल्ली विश्वविद्यालय का सवाल है, तो यह कहा जा सकता है कि इसके स्वरूप में पहले भी काफी भिन्नता थी। भाजपा-आरएसएस और कांग्रेस पार्टी से जुड़े छात्र संगठनों और छात्र नेताओं को देश की राजनीति में हिस्सा लेने का अवसर मिलता रहा है। वामपंथी रुझान भी दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति ही नहीं बल्कि अध्यापक संघ में भी रहा है।

लेकिन किसी एक दल या संगठन द्वारा हर संस्थान को अपने कब्जे में कर लेने और बलात सबकुछ अपने पक्ष में कर लेने की ताबड़तोड़ मंशा नहीं रही है। लेकिन अब विश्वविद्यालय प्रबंधन सहित शिक्षकों की नियुक्ति सहित युवाओं के दिलो दिमाग पर भी काबिज होने की भूख, युवाओं के स्वाभाविक तार्किक एवं विद्रोही मिजाज पर पानी फेरने में कामयाब रहती है, इसका सही-सही हिसाब तो आने वाला वक्त ही बता सकता है।     

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।) 

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