INDIA अपनी शोकांतिका लिखने वालों को निराश कर सकता है, अगर वह सटीक एजेंडे के साथ मैदान में उतरे

कांग्रेस और विपक्षी गठबंधन INDIA की obituary लिखने का सिलसिला जारी है। सबसे ताजा एंट्री इसमें चेतन भगत की हुई है। उनके अनुसार INDIA की पार्टी शुरू होने के पहले ही खत्म हो चुकी है। मजाक उड़ाते हुए उन्होंने एक कहानी सुनाई है कि कैसे एक लड़के को अपने दोस्तों के लिए पार्टी throw करने की अनुमति अपने पेरेंट्स से मिली थी। लेकिन उसकी जोरशोर से तैयारी के बीच जब परीक्षा का रिजल्ट आ गया और उसके पिता को पता चला कि वह फिसड्डी है, तो उन्होंने पार्टी कैंसिल करवा दी।

भगत का निष्कर्ष यह है कि कांग्रेस के अंदर भाजपा जैसा जीतने की जुनून और भूख नहीं है, इसलिए वह भाजपा से जीत नहीं पाएगी।

भगत यह बताने की जहमत नहीं उठाते कि आखिर उन राज्यों के विधानसभा चुनाव में हार से, जहां पहले भी लोकसभा की महज 3 सीटें कांग्रेस/INDIA के पास हैं, आम चुनाव में विपक्ष की संभावनाएं खत्म कैसे हो जाती हैं।

यह सच है कि 3 राज्यों में हार विपक्ष के लिए बड़ा झटका है और उसका तथ्यपरक मूल्यांकन तथा आम चुनाव पर उसके सम्भावित असर का तार्किक आकलन होना चाहिए। लेकिन इस सब को ताक पर रखकर फतवेबाजी और चुटकुलेबाजी जाहिर है भाजपा के पक्ष में छेड़े गए propaganda war का हिस्सा है।

बहरहाल, इन जीतों को मोदी के ‘रहस्यमय’ करिश्मे और गारन्टी से जोड़ कर 2024 के लिए चलाये जा रहे प्रचार-युद्ध के कुहासे के बीच CSDS के post-poll सर्वे से जमीनी तस्वीर थोड़ी साफ होती है।

CSDS के आंकड़े बताते हैं कि समाज के सबसे गरीब तबकों में कांग्रेस भाजपा पर भारी पड़ी- राजस्थान में पिछली बार के 40% से बढ़कर 45% गरीब कांग्रेस के साथ रहे जबकि 41% से घटकर 36% ही भाजपा के साथ, MP में भी पिछली बार के 44% से बढ़कर 47% गरीब कांग्रेस के साथ रहे, जबकि भाजपा के साथ 41% ही, हालांकि यह पिछली बार से 7% अधिक था।

दलितों के बीच भी यही पैटर्न दिखता है। सभी राज्यों में कांग्रेस भाजपा पर भारी रही- राजस्थान में कांग्रेस के साथ 48%, भाजपा 33%, MP कांग्रेस 45%, भाजपा 39%, छत्तीसगढ़ कांग्रेस 48%, भाजपा 39%।

अल्पसंख्यकों के बीच भी, उनके ऊपर हमलों के प्रति कांग्रेस के अवसरवादी और निराशाजनक रवैये के बावजूद, कांग्रेस का मत बढ़कर saturation point तक पहुंच गया- राजस्थान में 90%, MP में 85%, छत्तीसगढ़ में 53%।

यह स्वाभाविक है क्योंकि मोदी-भाजपा राज में अर्थव्यवस्था के ध्वंस, महंगाई, बेरोजगारी की सर्वाधिक तबाही, साथ ही सामंती-साम्प्रदायिक हमलों की सबसे भीषण मार गरीब-दलित-अल्पसंख्यक तबकों को ही झेलनी पड़ी है।

इस पैटर्न से साफ है कि अगर छत्तीसगढ़ में बघेल सरकार गरीब-आदिवासी समुदाय के साथ अपने रिश्ते को बनाये रख पाती और उनके बीच भाजपा की भारी बढ़त को रोक पाती तो वह सत्ताच्युत न होती।

छत्तीसगढ़ में सर्वाधिक गरीबों में भाजपा का वोट पिछली बार की तुलना में 34% से बढ़कर 50% पहुंच गया और कांग्रेस का 43% से घटकर 40% रह गया। इसी की अभिव्यक्ति आदिवासी समुदाय के वोटिंग पैटर्न में दिखती है, जहां भाजपा 25% से 46% पहुंच गई और कांग्रेस 47% से 42% पर आ गयी।

ठीक यही बात राजस्थान पर भी लागू होती है जहां कांग्रेस आदिवासी पार्टियों के साथ तालमेल बनाकर अपने आदिवासी मतों में 16% की भारी गिरावट को रोक पाती, तो शायद सरकार बदलने का रिवाज इस बार वहां बदल जाता।

सबसे चौंकाने वाला आंकड़ा ओबीसी के वोटिंग पैटर्न को लेकर आया है। यहां सभी राज्यों में भाजपा को कांग्रेस की तुलना में 10 से 20% तक अधिक मत मिले हैं। ओबीसी में भाजपा पिछली बार की तुलना में हर जगह अपना मत बढ़ाने में सफल हुई- राजस्थान में 40 से बढ़कर 45%, MP में 48 से 55%, छत्तीसगढ़ में 42 से 49%।

जबकि कांग्रेस का वोट हर जगह घट गया- राजस्थान 36 से 33%, MP 41 से 35%, छत्तीसगढ़ में 42 से 39%। यह तब हुआ जब राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के ओबीसी मुख्यमंत्री थे और राहुल गांधी जाति-जनगणना और ओबीसी आरक्षण के सवाल को अपना एक प्रमुख चुनावी plank बनाये हुए थे।

ऐसा लगता है कि पूरा समाज जब भारी बेरोजगारी, सरकारी नौकरियों व गुणवत्तापूर्ण सस्ती सरकारी शिक्षा के अवसरों के खात्मे, अंधाधुंध निजीकरण, चौतरफा आर्थिक तबाही से बेहाल है, उस दौर में इनके समाधान के लिए विपक्ष द्वारा कोई विश्वसनीय रोडमैप पेश किए बिना जाति जनगणना का एकसूत्रीय नारा हाशिये के तबकों को भी convincing और आकर्षक नहीं लगा।

उधर सरकार तथा संगठन के विभिन्न स्तरों पर सटीक सोशल इंजीनियरिंग और समायोजन करके तथा हिंदुत्व की अपील द्वारा ओबीसी तबकों में भी भाजपा कांग्रेस पर भारी बढ़त बनाने में सफल हुई।

यह साफ है कि जाति जनगणना तथा सुसंगत सामाजिक न्याय का सवाल बेशक आवश्यक है, लेकिन वह पर्याप्त नहीं है। ओबीसी समुदाय मूलतः किसान-मेहनतकश समुदाय है। नव उदारवादी अर्थनीति ने जिस तरह की तबाही मचाई है, उनकी विराट बहुसंख्या उसकी चपेट में है।

आखिर बिहार में जाति जनगणना के आधार पर जो 36% परिवार 6000 मासिक (गरीबी रेखा के नीचे ) और 63% परिवार 10 हजार की बेहद कम मासिक आय से भी कम पर जीने को मजबूर हैं, उसमें दलितों के अलावा पिछड़ों की ही तो सबसे बड़ी आबादी होगी। यही हाल सभी राज्यों में है।

जाहिर है महज जाति-जनगणना और आरक्षण का नारा उन्हें अब मंडल के पुराने दौर की तरह पिछड़ों को आकर्षित नहीं कर सकता, विशेषकर ऐसे दौर में जब सरकारी नौकरियां और सरकारी शिक्षा ही खत्म हो रही है। उन्हें चाहिए रोजगार, शिक्षा-स्वास्थ्य, चौतरफा कृषि विकास की गारंटी, अपने आर्थिक विकास का ठोस आश्वासन।

CSDS के इन आंकड़ों से साफ है कि समाज के सर्वाधिक गरीब उत्पीड़ित हाशिये के तबकों का बड़ा हिस्सा आज भी विपक्ष के साथ है और भाजपा  के खिलाफ है। उनके उत्थान के ठोस आश्वासन द्वारा विपक्ष उन्हें और बड़े पैमाने पर अपने साथ ला सकता है।

दरअसल, मोदी राज में अर्थव्यवस्था का जो चौतरफ़ा ध्वंस हुआ है, उससे समाज के हर वर्ग के मेहनतकश तबके- किसान, कर्मचारी-मजदूर, छोटे व्यापारी, छात्र-युवा सब गहरे संकट में हैं।

प्रोफेसर प्रभात पटनायक के शब्दों में- ‘INDIA गठबंधन को अपने संश्रय को सुदृढ़ करने के साथ जनता की जीवन स्थितियों पर फोकस करते हुए अधिक सुस्पष्ठ विचारधारात्मक स्टैंड लेना होगा। उसे एक ऐसा सर्वसमावेशी, व्यापक (overarching) एजेंडा लेकर आना होगा जो जनता को galvanise कर सके, जैसे कभी इंदिरा गांधी ने अपने ‘गरीबी हटाओ’  नारे से किया था। ऐसा एक नारा, मसलन सबके लिए मूलभूत आर्थिक अधिकारों को मौलिक संवैधानिक अधिकार बनाने का सवाल-पूरे समाज पर असर डालेगा।”

एकजुट INDIA गठबंधन अपनी शोकांतिका (obituary) लिखने वालों को निराश कर सकता है, बशर्ते वह जनता को आंदोलित करने वाले वाले सटीक नारे और एजेंडा के साथ मैदान में उतर पड़े।

(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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