इंडिया गठबंधन पहले ईडी की भूमिका पर एकमत हो!

नई दिल्ली। इस बात से तो कोई भी इंकार नहीं कर सकता कि पिछले एक सप्ताह से ईडी के रडार पर झारखंड और दिल्ली के मुख्यमंत्री बने हुए हैं। ईडी अर्थात प्रवर्तन निदेशालय। कल तक यह भूमिका सीबीआई के हाथों में हुआ करती थी, लेकिन उसके पास भी इतने असीमित अधिकार नहीं थे।

ईडी के ईजाद के पीछे यूपीए सरकार का हाथ रहा है, जिसे एक विशेष मकसद से गठित किया गया था। मोदी राज में कुछ परिवर्तनों के साथ, आज उसके पास इतने अधिक अधिकार आ चुके हैं कि वस्तुतः वह देश में कहीं भी किसी को भी समन करने से लेकर बिना जमानत के अधिकार के महीनों तक हिरासत में लेकर पूछताछ कर सकती है।

यही वजह है कि विपक्षी पार्टियों के गठबंधन को 6 माह बीत जाने के बाद भी, विपक्षी दलों के एक ही स्थान पर कदमताल करने की मजबूरी बनी हुई है। बसपा की नेत्री मायावती हों या समाजवादी अखिलेश यादव, इनके लिए अपने बिलों से निकलकर दहाड़ निकालने की बात तो भूल ही जाइये, इशारों-इशारों में भी सत्ता-पक्ष की मुखालफत कर पाना संभव नहीं दिखता।

आज खबर आ रही है कि पश्चिम बंगाल में छापा मारने निकली ईडी की टीम को करीब दो हजार की संख्या में जमा उग्र भीड़ का सामना करना पड़ा है। ईडी और केंद्रीय सशस्त्र बल के वाहनों पर जमकर पत्थरबाजी की घटना में कुछ लोग घायल बताए जा रहे हैं, और उन्हें इलाज के लिए स्थानीय अस्पताल और कोलकाता ले जाया जा रहा है।

यह घटना उत्तर 24 परगना जिले के संदेशखाली में टीएमसी नेता शाहजहां शेख के आवास की ओर जा रही ईडी की टीम को तब झेलनी पड़ी जब टीम राशन घोटाले से जुड़े मामले में टीएमसी नेता से पूछताछ के लिए आ रही थी। लेकिन मजे की बात तो यह है कि ईडी पर हमले पर कांग्रेस पार्टी के एक शीर्षस्थ नेता द्वारा बेहद आपत्तिजनक टिप्पणी की गई।

संसद में लोकसभा में मुख्य विपक्षी नेता की भूमिका निभा रहे कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता, अधीर रंजन चौधरी ने इस घटना पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए प्रेस को बताया है, कि “सत्तारूढ़ पार्टी के गुंडों-दरिंदों ने जो हमला आज ईडी के अधिकारियों के खिलाफ बोला है, उससे यह जगजाहिर होता है कि पश्चिम बंगाल में कानून और व्यवस्था का हाल कितना बुरा है।”

उन्होंने आगे कहा कि “मैं तो यह कहना चाहता हूं कि ईडी को अपने साथ सभी सुरक्षाबलों को लेकर चलना चाहिए। आज तो सिर्फ घायल हुए हैं, कल को तो उनकी जान भी जा सकती है। इसलिए ईडी वालों को और भी ज्यादा सतर्कता बरतते हुए और भी बड़ी संख्या में फ़ौज को अपने साथ लेकर ही किसी के खिलाफ संपत्ति, गिरफ्तारी जैसी कार्यवाही को अंजाम देना चाहिए। मुझे आश्चर्य नहीं होगा कि आज जो ईडी वाले जख्मी हुए हैं, कल उनका कत्ल भी संभव है।”

पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ दल का नाम तृणमूल कांग्रेस है, जिसकी मुखिया ममता बनर्जी हैं। इंडिया गठबंधन में कांग्रेस के बाद डीएमके और तृणमूल कांग्रेस दूसरे सबसे प्रमुख घटक दल हैं। अधीर रंजन चौधरी का यह बयान इंडिया गठबंधन को मजबूत करने वाला है या वे भाजपा के नेताओं की भाषा बोल रहे हैं? क्या यह नहीं कहा जाना चाहिए कि पश्चिम बंगाल में दरअसल कांग्रेस पार्टी ने भाजपा के पक्ष में माहौल बनाना शुरू कर दिया है?

ऐसे गठबंधन का क्या औचित्य है, जिसके प्रमुख नेता का रुख गठबंधन दल के प्रति शत्रुतापूर्ण है। क्या कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी ने मध्य प्रदेश के कमलनाथ की तरह हर राज्य में ऐसे ही क्षत्रप पाल रखे हैं जो विपक्षी दलों की एकता में छेद करने का ठेका लिए हुए हैं? ऐसे लोगों को पार्टी से तत्काल निष्कासित न कर क्या पार्टी अध्यक्ष और पूर्व पार्टी अध्यक्ष भी वास्तव में भाजपा को तीसरी बार भी केंद्र की सत्ता में बिठाने की कोशिश में नहीं जुटे हैं?

आइये अब दिल्ली में ईडी की कार्रवाई और कांग्रेस की भूमिका पर गौर करते हैं। ईडी के द्वारा दिल्ली के मुखिया अरविंद केजरीवाल को 3 बार समन किया जा चुका है। कथित एक्साइज घोटाले में दिल्‍ली के उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को पिछले एक वर्ष से जेल के सलाखों के पीछे रखा जा चुका है। उससे पहले से एक अन्य वरिष्ठ मंत्री सत्येंद्र जैन बंद हैं। राज्य सभा सदस्य और तेज तर्रार नेता संजय सिंह को भी कई महीनों से जेल की हवा खाने पर विवश कर दिया गया है।

अब आम आदमी पार्टी में ले दे के एकमात्र अरविंद केजरीवाल ही बच जाते हैं। शराब घोटाले में अब ईडी की ओर से अरविंद केजरीवाल से पूछताछ के लिए समन का मतलब है 2024 आम चुनावों से ऐन पहले ही आम आदमी पार्टी को पैदल कर देना। लेकिन क्या यह सिर्फ आप पार्टी को पैदल किया जा रहा है? या यह सजा उन्हें इंडिया गठबंधन में एकजुट होकर भाजपा को अपदस्थ करने की मुहिम का फल है?

पार्टी के नेता साफ़ कह रहे हैं कि आज यदि आप पार्टी एनडीए गठबंधन के साथ औपचारिक तरीके से दोस्ती का हाथ बढ़ा लेती है तो उसके खिलाफ ईडी, सीबीआई की कार्रवाई उसी तरह तत्काल बंद हो सकती है, जैसा अजित पवार, छगन भुजबल एंड पार्टी द्वारा एनसीपी तोड़कर आये तमाम नेतओं के मामले में देखने को मिला है।

ईडी आज दिल्ली, तमिलनाडु, झारखंड और पश्चिम बंगाल में सक्रिय है तो इसमें कांग्रेस और इंडिया गठबंधन को क्या करना चाहिए? यह सवाल अगर विपक्षी गठबंधन को परेशान नहीं करता तो क्या यह नहीं मान लेना चाहिए कि जो लोग अपने हक़ के लिए नहीं खड़े हो सकते वे उस जनता के पक्ष में कैसे खड़े होने का दावा कर सकते हैं, जिन्होंने 2016 में नोटबंदी, जीएसटी और कोरोना सहित सीएए और तीन कृषि कानूनों सहित हाल ही में हिट एंड रन कानून में मनमानेपूर्ण तरीके से बदलाव का जोरदार विरोध अपने-अपने ढंग से किया था।

इन सभी प्रमुख घटनाओं में कांग्रेस सहित सभी दलों की क्या भूमिका थी जो ये आज जनता की आवाज बनने का दावा करने जा रहे हैं?

आम आदमी पार्टी (आप) के खिलाफ कांग्रेसियों का गुस्सा स्वाभाविक है। 15 वर्षों तक दिल्ली की सत्ता हाथ से जाने के बाद कांग्रेस का हाल आज यह है कि आज उसके पास विधानसभा में एक भी सदस्य नहीं है। लेकिन वह यह क्यों नहीं सोचती कि आप पार्टी न होती तो दिल्ली पर भाजपा का शासन होता। पंजाब में भी जिस व्यक्ति के हाथों में कांग्रेस की बागडोर थी, वह और प्रदेश पार्टी अध्यक्ष आज भाजपा का पंजाब में सहारा बने हुए हैं।

राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता छीने जाने पर आम आदमी पार्टी (आप) का बयान कांग्रेस को याद होना चाहिए। 24 मार्च 2023 को आम आदमी पार्टी की ओर से दिल्ली विधानसभा को संबोधित करते हुए मुख्यमंत्री अरविंद ने राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता छीने जाने का जिस तरीके से पुरजोर विरोध किया था, वैसा तो स्वयं कांग्रेस के नेता तक नहीं कर पाए थे।

केजरीवाल ने पीएम मोदी पर तीखा हमला बोलते हुए सदन में कहा था- “#RahulGandhi की सदस्यता रद्द कर दी। बहुत डरपोक निकले! भारत के इतिहास में सबसे भ्रष्ट और कम पढ़ा-लिखा प्रधानमंत्री- उनसे सरकार चलती नहीं है और अहंकार उनका सातवें आसमान पर है। नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में पूरे देश को तबाह करने की कोशिश की जा रही है।”

आज कांग्रेस पार्टी का रुख क्या है? इससे पहले भी ईडी के द्वारा सांसद संजय सिंह से दिन भर पूछताछ के बाद शाम को अचानक से गिरफ्तारी की खबर से देश भौंचक्का रह गया था। कोर्ट की ओर से भी पहले पहल यही कहा जाता रहा कि संजय सिंह तो बेल एप्लीकेशन लगाते ही छूट जायेंगे। लेकिन हम देख रहे हैं कि किस तरह से महीने दर महीने खुद अदालतें कैसे अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन कर रही हैं।

हालांकि केजरीवाल के मामले में कांग्रेस पार्टी की ओर से कोई प्रतिकूल प्रतिक्रिया नहीं सुनने को मिली है, और छत्तीसगढ़ के पूर्व उपमुख्यमंत्री टी.एस सिंह देव ने भी ईडी के समन पर अरविंद केजरीवाल की ओर से पूछे गये सवाल का समर्थन ही किया है।

इसी तरह झारखंड में भी मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के खिलाफ ईडी की लगातार घेराबंदी को देखा जाना चाहिए। ईडी के पास क्या-क्या अधिकार हैं, इस बारे में कोर्ट ने कुछ महीने पहले भी सवाल उठाया था। इकोनॉमिक टाइम्स ने अपने एक लेख में ईडी के अधिकार क्षेत्र के बारे में बताया है कि ईडी या प्रवर्तन निदेशालय वैधानिक निकाय नहीं है, बल्कि यह वित्त मंत्रालय के अधीन काम करने वाली एक सरकारी एजेंसी है।

इसके निर्माण के पीछे की कहानी यह है कि भारत को जब अंग्रेजों से आजादी मिली तब 1947 में फॉरेन एक्सचेंज रेगुलेशन एक्ट (विदेशी मुद्रा नियमन कानून) बना था। इसे वित्त मंत्रालय का डिपार्टमेंट ऑफ इकोनॉमिक अफेयर्स देखता था। साल 1956 में प्रवर्तन इकाई बनी। इसी में इकोनॉमिक अफेयर्स डिपार्टमेंट बना। साल 1957 में इसका नाम बदलकर डायरेक्टोरेट ऑफ एनफोर्समेंट या एनफोर्समेंट डायरेक्टोरेट रखा गया। इसे ही अब ईडी कहते हैं। साल 1960 में ED को रेवेन्यू डिपार्टमेंट में शिफ्ट कर दिया गया और तब से यह उसी के तहत काम कर रहा है।

दरअसल खनन मामलों से जुड़े आर्थिक अपराधों की जांच करने का इसके पास कोई अधिकार ही नहीं है। लेकिन देश की अदालत भी सार्थक हस्तक्षेप तो तब करेगी, जब विपक्षी दल इस बाबत जोरदार आवाज उठाएंगे। ऐसा लगता है मानो झारखंड राज्य का मामला तो सिर्फ हेमंत सोरेन को निपटाना है, शेष दल तो सिर्फ सीट शेयरिंग पर फोकस रखेंगे। लेकिन ऐसा तो समाज के विभिन्न तबकों में देखने को मिलता है, जिसमें अलग-अलग तबकों को अलग-अलग रहने पर झेलना पड़ता है। अगर राजनीतिक दलों का भी यही हाल है, तो इनमें और आम जनता में फर्क ही क्या है?

लेकिन क्या इंडिया गठबंधन को ऐन आम चुनाव से पहले अपने सदस्य दलों के खिलाफ जारी विच-हंट के खिलाफ कड़ा रुख नहीं दिखाना चाहिए? क्या कांग्रेस समझती है कि कल प्रियंका गांधी को हरियाणा भूमि विवाद में ईडी द्वारा समन करने पर इंडिया गठबंधन के घटक दलों को भी उसकी तरह ही रुख प्रदर्शित करना चाहिए?

नेशनल हेराल्ड मामले पर कभी भी कांग्रेस को समन किया जा सकता है। कांग्रेस कह सकती है कि उसकी नेता सोनिया गांधी और राहुल गांधी को पहले भी जांच एजेंसियों के द्वारा घंटों पूछताछ के लिए तलब किया जा चुका है। लेकिन ऐसी पूछताछ तो दिल्ली के मुख्यमंत्री भी पूर्व में झेल चुके हैं। जब एक प्रदेश के संवैधानिक प्रमुख केजरीवाल को जांच एजेंसी द्वारा समन किया जा सकता है तो सोनिया गांधी, राहुल और प्रियंका को बार-बार समन करने का नैतिक बल जांच एजेंसियों को स्वतः हासिल हो जाता है।

खबर है कि कांग्रेस पार्टी ने इस बार सिर्फ 255 लोकसभा की सीटों पर अपनी पार्टी के उम्मीदवारों को खड़ा करने का फैसला लिया है। यह अच्छी बात है, और एक विपक्षी एकता के लिए शुभ संकेत है। राहुल गांधी भी 14 जनवरी से प्रस्तावित भारत जोड़ो न्याय यात्रा में इस बार जिन प्रदेशों को कवर करने जा रहे हैं, उनमें से अधिकांश में इंडिया गठबंधन के साझीदार दलों का दबदबा है।

इस यात्रा में देश के 15 राज्यों की 357 लोकसभा सीटें शामिल हैं, जिसका सीधा मतलब है कि यह यात्रा साझीदार दलों को मजबूती प्रदान करने जा रही है। कुल 6,000 किमी से अधिक की इस यात्रा में अकेले उत्तर प्रदेश में यह 20 जिलों और 1,074 किमी कवर करने जा रही है। इसका सीधा लाभ समाजवादी पार्टी को मिलने जा रहा है। लेकिन सीटों के तालमेल को शीर्ष नेतृत्व द्वारा हल करने में देरी का मतलब है विभिन्न प्रदेशों में कांग्रेसियों के द्वारा राज्य में मौजूद क्षेत्रीय दलों के बरक्स मीडिया के सामने अपनी पार्टी की शान में डींगें हांकते रहना।

गोदी मीडिया जानबूझकर इन क्षेत्रीय नेताओं को बाइट देने के नाम पर किस चक्रव्यूह की रचना कर रही है, यह किसी भी राजनीतिक दल के लिए समझना मुश्किल नहीं है। इसके बावजूद 138 साल पुरानी पार्टी के लिए अनिर्णय की स्थिति खुद के पांवों में बेड़ियां डालने के समान है।

देश में सभी इस बात को गहराई से समझते हैं कि क्षेत्रीय दलों का कांग्रेस के नेतृत्व में इंडिया गठबंधन के तहत आने के पीछे भाजपा का राजनीतिक कद नहीं बल्कि राज्यपालों, ईडी, सीबीआई और केंद्रीय जांच एजेंसियों का वह मकड़जाल है, जिसकी चाभी आज केंद्र पर काबिज सत्तारूढ़ दल भाजपा के हाथ में है।

इंडिया गठबंधन की सार्थकता समझदारी के साथ सीट शेयरिंग में तो बाद में है, उससे पहले उसे अपने नेताओं की इमेज की चिंता करनी चाहिए। ईडी, सीबीआई के द्वारा रोज-रोज उस इमेज पर कालिख पोतने का सिलसिला जारी है, जिसे नहीं रोका गया तो मतदान की बेला तक गठबंधन होने के बावजूद उनके खिलाफ अंधाधुंध मीडिया प्रचार उन्हें जनता की निगाह में संदिग्ध बना सकता है। इस बात को समझने के लिए किसी रॉकेट साइंस की जरूरत नहीं है। 

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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