कल्पना कीजिये कि किसी पांच सदस्यीय अंतरराष्ट्रीय संगठन की महत्वपूर्ण बैठक में एक सदस्य अनुपस्थित हो और बाकी बचे चार में से एक सदस्य के अपना वक्तव्य देने के लिए खड़े होते ही एक सदस्य उठकर चल दे तो कूटनीतिक स्तर पर इसके क्या मायने होते हैं।
जोहान्सबर्ग में 22 से 24 अगस्त तक हुए ब्रिक्स के पांच देशों के 15वें शिखर सम्मेलन में यही हुआ। जहां रूसी राष्ट्रपति पुतिन नहीं आये। भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे ही ब्रिक्स की बिजनेस फोरम की बैठक में अपना वक्तव्य देने उठे ही थे कि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग उठकर चले गये और अपनी जगह वाणिज्य मंत्री वांग वनथाओ को भेज दिया। क्या इसे चीन द्वारा भारत को नीचा दिखाने के लिए किया गया बहिष्कार कहा जा सकता है? भारत-चीन के द्विराष्ट्रीय सम्बंधों को लेकर ऐसा पहली बार हुआ है। क्या मोदी और शी के बीच खटास इस स्तर तक आ पहुंची है?
जोहान्सबर्ग में ऐसा क्या हुआ कि शी के चीन लौटते ही 28 अगस्त को वहां के सरकारी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने भारत के अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख में अक्साई चिन को अपना दिखाते हुए नया नक्शा जारी कर दिया?
क्या विदेश मंत्री एस. जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल देश की आंखों में धूल झोंकते हुए झूठ बोल रहे थे कि जोहान्सबर्ग में दोनों नेताओं के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर स्थिति सामान्य बनाने और पीछे हटने को लेकर आपसी सहमति बन गई है?
इससे पहले भारतीय विदेश मंत्रालय ने इंडोनेशिया के बाली में पिछले साल नवंबर 2022 में हुए जी-20 शिखर सम्मेलन के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच भारत-चीन सम्बंधों को स्थिर करने पर आम सहमति का दावा किया था लेकिन इस बात को लंबे समय तक गुप्त रखा गया। किसी ने तब यह तक नहीं बताया कि मोदी और शी जिनपिंग की कोई बातचीत हुई थी।
यह आश्चर्यजनक है कि चीन का यह दावा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग पिछले साल बाली में रात्रिभोज में अपनी बैठक के दौरान द्विपक्षीय सम्बंधों को बहाल करने के लिए ‘आम सहमति’ पर पहुंचे थे, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और उनके समकक्ष चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के केंद्रीय विदेश मामलों के आयोग के निदेशक वांग यी के बीच जोहान्सबर्ग में एक बैठक के बाद जारी एक बयान में किया गया था, जिसमें दोनों सलाहकारों ने भाग लिया था। और, चीन द्वारा यह रहस्योद्घाटन करने के तुरंत बाद ही भारत सरकार ने भी कहा कि हां, ऐसी सहमति बनी थी।
यानी पूरे नौ महीनों तक देश से यह बात छिपाई गई और जब चीन ने इसे सार्वजनिक किया, तभी भारत सरकार के विदेश मंत्रालय ने भी उसकी हां में हां मिलाते हुए कहा कि प्रधानमंत्री मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच पिछले साल नवंबर में बाली में जी-20 शिखर सम्मेलन में द्विपक्षीय वार्ता में भारत-चीन सम्बंधों को स्थिर करने पर आम सहमति बनी थी। इस गोपनीयता और भारत के पिछलग्गूपन का मतलब क्या है?
इसके अलावा जोहान्सबर्ग की बैठक के दौरान मोदी-शी की एक छोटी-सी मुलाकात हुई जिसके बारे में भारत ने बयान जारी किया कि यह भेंटवार्ता चीन के आग्रह पर हुई लेकिन चीन ने इसका खंडन करते हुए कहा कि इसके लिए भारत ने कहा था। अलबत्ता दोनों ओर से यह कहा गया कि सीमा पर तनाव कम करने को लेकर आपसी सहमति बनी। कैसी सहमति बनी, नहीं मालूम। सच क्या है?
दोनों देशों के बीच सीमा पर स्थिति सामान्य बनाने के लिए 19 दौर की बातचीत हो चुकी है लेकिन नतीजा सिफर है। भारत का लेप्सांग और दैमचौक सहित दस हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र अभी भी चीन के कब्जे में है। थल सेनाध्यक्ष जनरल अनिल चौधरी के अनुसार भारत लेप्सांग और दैमचौक क्षेत्र बातचीत के जरिये वापस नहीं ले सका है।
भारत-चीन सम्बंधों के बीच आई खटास का एक अन्य उदाहरण है बाली में हुए जी-20 शिखर सम्मेलन के बाद से भारत में चीन ने अपना राजदूत नियुक्त नहीं किया है।
चीन ने आधिकारिक तौर पर भारत को बता दिया है कि राष्ट्रपति शी जिनपिंग 9 और 10 सितंबर को नई दिल्ली में होने वाले जी-20 शिखर सम्मेलन में शिरकत नहीं करेंगे। उनकी जगह पर चीनी प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व प्रधानमंत्री ली कियांग करेंगे। विशेषज्ञों का मानना है कि जी-20 शिखर सम्मेलन में भाग न लेने का शी जिनपिंग का फैसला एक तरह का संकेत होगा कि चीन भारत के साथ सीमा विवादों को हल नहीं करना चाहता है।
कुछ लोगों का अनुमान है कि बीजिंग को लगता है कि भारत-चीन तनाव के कारण शी जिनपिंग को जी-20 में गर्मजोशी से स्वागत न होने की आशंका है। वहीं, दूसरी ओर जापान और दक्षिण कोरिया के साथ अमेरिका चीन विरोधी खेमा बना रहा है और मोदी के नेतृत्व में भारत की अमेरिका से बढ़ती नजदीकियों से उन्होंने जी-20 से दूरी बनाने का फैसला किया होगा। यह पहली बार होगा जब शी जिनपिंग जी-20 शिखर सम्मेलन में हिस्सा नहीं लेंगे।
इससे पहले रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन इस सम्मेलन में हिस्सा लेने से मना कर चुके हैं। उनकी जगह पर विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव को भेजा जायेगा। यहां पर यह भी उल्लेखनीय है कि पुतिन न तो ब्रिक्स सम्मेलन में जोहान्सबर्ग पहुंचे और न ही जी-20 में भाग लेने भारत आ रहे हैं लेकिन वे सितंबर के आखीर या अक्टूबर के पहले पखवाड़े में चीन जा रहे हैं जहां बीजिंग में उनकी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मुलाकात होगी। क्या भारत को लेकर पुतिन और शी के बीच कोई खिचड़ी पक रही है? यदि हां, तो वह क्या हो सकती है?
इसके अलावा समरकंद (उजबेकिस्तान) में 16-17 सितंबर, 2022 को हुए शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन (SCO) की 22वीं बैठक के दौरान भी मोदी और शी के बीच कोई बातचीत नहीं हुई।
यह ऐतिहासिक तथ्य है कि 1962 के बाद से ही भारत-चीन सम्बंध कभी भी उत्साह भरे नहीं रहे। हालांकि दोनों देश उतार-चढ़ाव के बीच कूटनीतिक तथा व्यापारिक स्तर पर आगे बढ़ते रहे हैं लेकिन नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में भारत की ओर से चीन के आगे झुकने का जो सिलसिला एक बार शुरू हुआ, वह लगातार चीन के पक्ष में ही मजबूत होता चला गया है। कोई एक भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसमें भारत को बढ़त हासिल हुई हो।
लब्बो-लुआब यह है कि बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में इतना साहस नहीं है कि वे चीन को उसी की भाषा में जवाब दे सकें। न ही उन्हें अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की समझ है। वे देश-विदेश में बहुत हल्की और सारहीन बातें करते रहते हैं। उनकी बातों और हावभाव से दूर-दूर तक यह साबित नहीं होता कि वे अंतरराष्ट्रीय सम्बंधों को अपने बूते आगे ले जा सकते हैं। यदि उनमें जरा-सी भी क्षमता, साहस और इच्छाशक्ति होती तो क्या वे यह कायरतापूर्ण बयान देते कि ‘न कोई घुसा है और न ही किसी ने कब्जा किया हुआ है?’ बस, उनकी इसी भीरुता का नतीजा है भारत के प्रति चीन का व्यवहार। या फिर मोदी का ऐसा कोई निजी रहस्य चीन के हाथ लग गया है जिससे वह उन्हें कोई भाव नहीं देता और उन्हें दबाये रखना चाहता है।
(श्याम सिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
Very nice and truly thought.