भारतीय लोकतंत्र को नए दावेदारों की तलाश है!

1947 में देश को ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से आजादी हासिल हुई। यह आजादी कोई खूनी क्रांति नहीं थी, हालांकि आजादी को हासिल करने के लिए विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलन की एक लंबी पृष्ठभूमि की भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इससे ठीक 90 वर्ष पहले ब्रिटिश हुक्मरानों को 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के विद्रोह की गूंज लगातार पृष्ठभूमि में सुनाई देती रही थी। बाद के दौर में भी कई छिटपुट स्थानीय विद्रोह जैसे कि संथाल, भील, चौरी-चौरा, अनुशीलन, गदर पार्टी, भगत सिंह सहित देश भर में क्रांतिकारियों के विभिन्न क्रांतिकारी आंदोलन और अंतिम दौर में ब्रिटिश सेना के भीतर नौसेना विद्रोह जैसे अनेकों विद्रोहों से लगातार दो-चार होना पड़ा था।

लेकिन इसके साथ ही 1885 में जिस राजनीतिक वैकल्पिक आवाज को स्वयं ब्रिटिश हुक्मरान ने भारतीय जनमानस के प्रतिनिधित्व के बतौर फलने-फूलने का मौका दिया, जिससे कि भारत में ब्रिटिश शासन को सुचारू ढंग से चलाया जा सके, उस कांग्रेस पार्टी ने भी आगे चलकर एक ऐसे राष्ट्रीय आंदोलन की शक्ल अख्तियार कर ली थी, जिसके सालाना जलसों में स्वराज, पूर्ण स्वराज, अंग्रेजों भारत छोड़ो जैसे नारे गुंजायमान होकर ब्रिटिश हुकूमत के अस्तित्व के लिए ही एक बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा करने लगे थे।

कल तक जिन काले गुलामों के बीच में से अंग्रेजी मानसिकता वाले बाबू पैदा करने और भारत जैसे खनिज संपदा से भरपूर औपनिवेशिक सत्ता पर अनंतकाल तक काबिज रहने की सोच के साथ ब्रिटिश शासन राज करने की तैयारी कर रहा था, उसमें से ही बड़ी संख्या में नए अंग्रेजीदां वकील, बैरिस्टर, आईईएस एक अधनंगे फकीर की एक आवाज पर देश के किसानों, मजदूरों, छात्रों और युवाओं को देश की आजादी के लिए संगठित और आंदोलित करते जा रहे थे।

अंग्रेज हुक्मरानों के लिए उत्तरोत्तर स्थिति स्पष्ट होती जा रही थी कि यदि जबरन राज को लंबे समय तक लादे रखा गया तो 1950-55 तक आते-आते फिर एक बार 1857 का इतिहास भारत के गुलाम दुहरा सकते हैं। लेकिन इस बार उनका मुकाबला किसी नवाब, जमींदार और पीड़ित सैनिकों की टुकड़ी से नहीं वरन एक राष्ट्र के रूप में सचेत करोड़ों-करोड़ भारतीयता की भावना से ओतप्रोत आबादी से होने जा रहा है, जो उनके समूल विनाश का कारण बन सकता है।

इसीलिए इसे आजादी के साथ-साथ सत्ता का हस्तांतरण भी कहा जाता है। एक विखंडित आजादी, जिसमें भारत के तीन टुकड़े हुए और पूर्वी और पश्चिमी सीमा पर पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान बना। इसके निर्माण के पीछे भी 1857 के विद्रोह के दौरान हिंदू-मुस्लिम एकता के बीज छिपे थे, जिसे बेहद सुनियोजित ढंग से ब्रिटिश हुक्मरानों ने हवा दी थी, अपने राज को हमेशा-हमेशा के लिए कायम रखने के लिए।

मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा और आरएसएस जैसे संगठन अंग्रेज हुक्मरानों के लिए वे प्रिय चहबच्चे थे, जो फूट डालो-राज करो की ब्रिटिश नीति को वास्तविक रूप में अंजाम दे रहे थे। इनके दो नेताओं मुहम्मद अली जिन्ना और सावरकर दोनों ने ही कालांतर में द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत को न सिर्फ प्रतिपादित किया, बल्कि बड़े पैमाने पर विभाजन की पूर्वपीठिका को तैयार करने में इनकी भूमिका आज भी नव-साम्राज्यवादी हितों की सेवा कर रही है।

पाठकों में से अधिकांश लोग इन बातों को बेहतर जानते हैं, लेकिन उन सभी बातों को रेखांकित करना यहां आवश्यक है कि आज 21वीं सदी के दो दशक बाद भी यदि भारत ही नहीं बल्कि समूचा दक्षिण एशिया, आजादी के आंदोलन के भीतर अंग्रेजों द्वारा जिन विभाजनकारी मूल्यों के बीज रोप गया था, उसके घाव आज नासूर बनकर विश्व की एक चौथाई आबादी को आज बुरी तरह से डस रहे हैं, और अपरोक्ष रूप से आज भी नव-साम्राज्यवाद की चाकरी करने के लिए अभिशप्त हैं, तो यह कोई असाधारण बयान हर्गिज नहीं है।  

1947 की आजादी और 75 वर्षों का सफर

इन 75 वर्षों को चंद शब्दों में समेटना हर्गिज आसान नहीं है, लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता है कि भारत को हासिल आजादी उसके नागरिकों के काम आई। भारतीय भूभाग में बचे लोगों में अधिकांश ब्रिटिश गुलामी के जुए को उतारकर अपने देश और उसकी आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक तरक्की की भावना से ओतप्रोत थे। जिन्हें हिंदू राष्ट्र, जागीरदारी और जातिवादी-मनुवादी व्यवस्था कायम रखनी थी, वे इस तरक्कीपसंद सोच के आगे अपनी बात को मजबूती से रख पाने में सक्षम नहीं हो सके।

ऐसा नहीं है कि जनमानस के भीतर जातिवाद, छूआछूत और जातिगत श्रेष्ठता जैसी पिछड़ी मानसिकता खत्म हो चुकी थी, इसे गांधी की हत्या सहित हिंदू समाज में सुधार के लिए लाये गये सरकार के बिल के मुखर विरोध में देखा जा सकता है। लेकिन पाकिस्तान का निर्माण तो विशुद्ध रूप से धार्मिक आधार पर हुआ था, और बड़ी संख्या में भारत के शेष हिस्से से पलायन कर आये लोगों के लिए पाकिस्तान में अपने ठौर-ठिकाने को स्थायी बनाने की चिंता थी, इसलिए उसके पास आर्थिक तरक्की के स्थान पर धार्मिक जकड़बंदी और शुरू से ही सेना का स्थान धीरे-धीरे सर्वोपरि होता चला गया।

पाकिस्तान जिसे धर्म के आधार पर एक देश बनाया गया, वहां पर हिंदू, सिख एवं अन्य धर्मावलम्बियों की तो बात ही छोड़िये मुस्लिम धर्म का अनुसरण करने वाले गैर-पंजाबियों को मुजाहिर, दूसरे दर्जे के नागरिक सहित पूर्वी पाकिस्तान के साथ घोर अमानवीय व्यवहार और दमन की दास्तां सभी को अच्छी तरह से आज भी याद है।

यही कारण है कि एक धर्म आधारित देश तरक्की के बजाय अगले दो दशक बाद ही पाकिस्तान-बांग्लादेश के रूप में दो स्वतंत्र राष्ट्र बन गये। आज भी पाकिस्तान के विभिन्न प्रान्तों में देश से अलग होने की आवाज बुलंद होती रहती है।

भारत में नेतृत्व की बागडोर नेहरू और पटेल के हाथों में थी। देश के पास एक लोकतांत्रिक संविधान था, जिसे तैयार करने में देश के श्रेष्ठ मस्तिष्कों ने लंबा समय लगाया। केंद्र-राज्य सरकार की भूमिका, उनके अधिकारों की व्याख्या की और सुनिश्चित किया कि देश में लोकतंत्र को अंतिम व्यक्ति के प्रति जवाबदेह बनाया जाये। देश में बैलट बॉक्स से केंद्र और राज्य सरकारों का निर्वाचन किया गया।

योजना आयोग और सांख्यिकी विभाग सहित योजनागत ढंग से देश की नई इबारत लिखने की कोशिशें की गईं। ये कोशिशें अपेक्षित रूप से कामयाब भी रहीं, लेकिन ऐसा बहुत कुछ था जिसे लागू करने के लिए नेहरू के पास न तो आवश्यक संसाधन मौजूद थे, और न ही वह टीम थी जो कालान्तर में अपेक्षित परिणाम दे सकती थी। लेकिन बेहद सीमित संसाधनों से भी देश में बड़े-बड़े बांध, बिजली घर, स्टील प्लांट, सीमेंट उद्योग, आईआईटी, इसरो, आईआईएम और एम्स जैसे उच्च कोटि के संस्थान बनाये गये, जिनका सुख और उपलब्धि देश की व्यापक जनता और मौजूदा सरकार दोनों खुले हाथों से उठा रही हैं।

लेकिन नेहरू देश में आवश्यक भूमि सुधार को लागू नहीं करा सके। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों के लिए अपनी सरकार को बाध्य नहीं कर सके, जिसका दुष्परिणाम आज भी व्यापक गरीबी और बदहाली में दिखता है। उनके बाद की कांग्रेस सरकारों ने देश की जरूरत के अनुसार समय-समय पर हरित क्रांति और श्वेत क्रांति के माध्यम से देश में गेहूं, चावल और दूध की जरूरतों को अवश्य हासिल किया।

बाद के दौर में बैंकों के राष्ट्रीयकरण और प्रिवी पर्स की समाप्ति के साथ व्यापक जनमानस को देश की आर्थिक तरक्की से जोड़ा, लेकिन एक काम जिसे किसी भी लोकतंत्र पसंद देश को सबसे अधिक तवज्जो देने की जरूरत होती है, वह है आम नागरिकों की शासन में उत्तरोत्तर बढ़ती भूमिका, उसे देश ने सिरे से नजरअंदाज कर दिया।  

गोरे अंग्रेज चले गये थे, लेकिन देश के भीतर मौजूद वर्गीय, जातीय और क्षेत्रीय असमानता को कैसे कम किया जाए, के बारे में स्वाधीनता संग्राम की सोच में जो धुंधलका था, वह कालांतर में और गहराता चला गया।

यही कारण है कि अर्थशास्त्री थामस पिकेटी जिस भारत में 1950-80 के बीच में गरीबी-अमीरी की खाई को कम होते पाते हैं, वह खाई 80 के दशक के बाद चौड़ी होती चली गई है। 90 के दशक में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत ने देश के चक्र को फिर से 1950 के पूर्व के औपनिवेशिक काल की ओर मोड़ दिया। आज के हालात को कई अर्थशास्त्री 20वीं सदी के शुरूआती दशक से तुलना करते हैं, संभवतः हालात उससे भी बदतर हो चुके हैं।

तब भारत के नौजवान, बैरिस्टर और बाबू के पास गुलामी का जुआ था, जिसे वह झटकने के लिए दिन-रात प्रयत्नशील थे। आज हमारे युवाओं के पास अंबानी-अडानी सहित कुल मिलाकर 20 कॉर्पोरेट घरानों की सूची है, जिनके बारे में पूर्व आरबीआई डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने अपनी समीक्षा में कहा है कि भारत में कोविड-19 के दौरान और उसके बाद भी मुद्रास्फीति के 50% जिम्मेदार ये घराने ही हैं। वस्तुतः आज इन चंद कॉर्पोरेट घरानों के पास देश का एफएमसीजी, आईटी सेक्टर, इन्फ्रास्ट्रक्चर, टेलिकॉम और यहां तक कि रेडीमेड गारमेंट्स, तेल, सब्जी और नमक तक चला गया है।

यदि सोशल मीडिया पर नजर डालें तो आम बातचीत में आप आज के युवाओं को कहते सुन सकते हैं कि अडानी-अंबानी ही आज लाखों लोगों को रोजगार मुहैया करा रहे हैं। यदि वे न हों तो देश की तरक्की ठप पड़ सकती है। हमारा देश आज तेजी से विश्व की 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यस्था बन चुका है, और जल्द ही जापान और जर्मनी को पीछे छोड़ हम तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यस्था बनने जा रहे हैं।

जबकि वास्तविकता यह है कि 100 में 90 शहरी शिक्षित युवाओं के पास आज नौकरी के नाम पर गिग वर्कर के बतौर काम करने का विकल्प है। आईटी सेक्टर में पिछले दो वर्ष से नौकरियों का अकाल है। जिओ की लांचिंग के वक्त जिन दसियों हजार युवाओं को नौकरी हासिल होती है, उन्हें 3-4 महीने बाद ही अचानक से छुट्टी दे दी जाती है। घर-घर फास्ट फूड, आटा, चावल, रेडीमेड गारमेंट्स ही नहीं दूध, सब्जी और फल की सप्लाई करने वाले करीब एक करोड़ रोजगार बड़ी तेजी से पारंपरिक दुकानों, रेहड़ी-पटरी पर सब्जी-फल विक्रेताओं और राशन की दूकान चलाने वाले लाला और छोटू को परिदृश्य से गायब कर रहे हैं।

आज की सरकार ‘मिनिमम गवर्नमेंट-मैक्सिमम गवर्नेंस’ के लुभावने नारे के साथ नेहरू के गरीब भारत से अर्जित तमाम पब्लिक सेक्टर की कंपनियों, उद्योगों को औने-पौने दामों में कॉर्पोरेट के हवाले कर पीएम किसान सम्मान निधि के नाम पर सालाना 6,000 रुपये की रिश्वत के बदले 5 साल में एक बार उनका वोट खरीद कॉर्पोरेट जगत के चरणों में डाल रही है। इसे देश का दुर्भाग्य नहीं कहें तो क्या कहें, जब सरकार को ठीक-ठीक पता है कि 80 करोड़ लोग आज हर महीने 5 किलो अनाज की बाट जोह रहे हैं।

कोविड-19 को खत्म हुए एक वर्ष से अधिक का समय बीत चुका है, लेकिन अगस्त 2023 में मनरेगा के तहत काम करने वालों की संख्या में रिकॉर्ड इजाफा हुआ है। देश के धान उगाने वाले क्षेत्रों में इस वर्ष सूखा पड़ा है। जलाशयों में इतना भी पानी नहीं है कि खरीफ के बाद रबी की फसल के बारे में देश आश्वस्त हो सके। यूपी और विशेषकर महाराष्ट्र के गन्ना किसान इस वर्ष भारी मुसीबत में हैं, जिसके बारे में केंद्र सरकार को आपसे और हमसे बेहतर पता है। लेकिन उसके पास बेरोजगारी, महंगाई और भुखमरी का कोई जवाब होता तो अवश्य झटपट इसका हल खोजते।

लेकिन इसका हल तो मुंबई के दलाल पथ की तिजोरी में बंद है, जिसकी नित नई उछाल को साकार करने के लिए देश की विधायिका से लेकर विदेशी निवेशक सभी की आंखें गड़ी रहती हैं। अडानी घराने के ओवर-इनवॉइसिंग के किस्से से लेकर मारीशस और बरमुडा के निवेशक आज कहां बिला गये, के बारे में सेबी के पास कोई जवाब नहीं है। सेबी ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष क्या साक्ष्य प्रस्तुत किये हैं, और देश की सर्वोच्च अदालत सेबी से अडानी के विषय में क्या, कितना और कब पूछेगी, इसका जवाब जानने की उत्सुकता देश के पास बची ही नहीं।

देश के 80 फीसदी लोगों के पास कल की रोटी का प्रश्न है, विपक्ष की एकता देश बचाने के बजाय स्वयं को ईडी, सीबीआई से कैसे बचाया जाये से उपजी हो तो भला 75 वर्ष बाद यदि कॉर्पोरेट की चाकरी बजाने के साथ-साथ यदि पाकिस्तान की तरह भारत देश के भीतर भी धार्मिक श्रेष्ठता को प्रतिष्ठापित कर देश की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को भू-लुंठित करने की लालसा में मरे जा रहे चंद संगठनों की आस भी पूरी हो जाती है तो इसमें हर्ज ही क्या है?

यह सवाल आज देश के करोड़ों-करोड़ युवाओं का होना चाहिए और उन्हें स्वयं से पूछने की जरूरत है कि क्या वे 1947 से पहले के भारत के युवाओं के स्वप्न के पासंग बराबर भी खुद को पाते हैं या काले अंग्रेजों के रंगीन ख्वाब आज भी दिल में लिए उन्होंने वैश्विक श्रम बाजार में खुद की चमड़ी से उनके लिए जूते बनवाने की पेशकश मंजूर कर ली है?

(रविंद्र पटवाल ‘जनचौक’ की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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