नागरिकों को बोनसाई में तब्दील करने की मुहिम से दो-दो हाथ किए बगैर जीत असंभव

नई दिल्ली। सवाल यह नहीं है कि देश की संसद के भीतर और बाहर आखिर कैसे कुछ युवा इजराइली तकनीक वाली सुरक्षा-व्यवस्था को भेदकर घुस आये? वे यह सब भाजपा सांसद के द्वारा जारी पास से घुसने में सफल रहे, राहत की बात है कि उसमें कोई मुसलमान नहीं मिला, वगैरह-वगैरह पर बहस का बाजार गर्म करते देश का लिबरल खेमा बहस में जुटा हुआ है।

सवाल यह भी नहीं है कि सभापति महोदय और ट्रेजरी बेंच ने इस विषय को शुरू में बेहद गंभीरता से क्यों नहीं लिया, और अब उन सभी युवाओं पर यूएपीए जैसी संगीन धाराओं का इस्तेमाल किया जा रहा है। सवाल यह भी नहीं है कि देश की संसद के मुखिया को अपने आका के आदेश की प्रतीक्षा थी, जो संसद से बाहर अपने 2024 के आम चुनाव के एजेंडे के तहत किसी राज्य में प्यादे को फिट करने में व्यस्त थे, और उनके आदेश के बाद ही इस गंभीर अपराध पर कार्रवाई उनके लिए संभव थी।

यह सब देश पिछले 10 साल से देख और अनुभव कर रहा है। इसमें नया कुछ भी नहीं है। देश 2014 में ही मोदी राज के कार्यकाल की शुरुआत में ही सरकार के सभी सांसदों की क्लास लगते देख चुका है। असल में सबसे पहले तो भाजपा के माननीय नीति-निर्माताओं को बौना बनाने की शुरुआत हुई थी, बाद में कार्यपालिका, विपक्ष, मीडिया और न्यायपालिका की बारी थी।

अब इस तथ्य से तो आप भी इंकार नहीं कर सकते कि पिछले 10 वर्षों के दौरान विधायिका, देश की मीडिया को तो बोंसाई बना ही दिया गया। ऐसा करने के लिए किसी बड़े अभियान की जरूरत नहीं थी। असल में हमारी विधायिका और मीडिया जगत बौना था ही, उसे उसकी औकात के हिसाब से ही हैसियत दिखा दी गई है।

देश का अभिजात अंग्रेजीदां बुद्धिजीवी वर्ग आजादी के बाद से ही अपने लिए बनाये हुए नखलिस्तान में लिबरल डेमोक्रेसी की पैरोकारी कर रहा था। भारतीय वामपंथ संगठित और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की नेतृत्वकारी भूमिका को पिछले 70 वर्षों से संभाले हुए उसी छोटे दायरे में रहते हुए जनवाद और नया समाज बनाने की डींगें हांक रहा था।

90 के दशक में जब देश उदारवादी नीति पर सरपट दौड़ने लगा तो हमारे जैसे करोड़ों निम्न-मध्य वर्गीय परिवारों को भी फौरी तौर पर अर्थव्यस्था में तेजी ने ऊपर की ओर खींचा, जिससे एक आम खुशफहमी बनने लगी थी कि शायद यही सही रास्ता था, जिसे देश ने समाजवाद के झूठे लबादे में नौकरशाही की लालफीताशाही के मकड़जाल में फांस रखा था। 

इन सभी बातों को दोहराने का अब कोई फायदा नहीं है। हमें तो हाल के घटनाक्रम से इस बात की पड़ताल करने की जरूरत है कि अगले 2-4 महीने के भीतर भाजपा-आरएसएस के अश्वमेध के घोड़े को रोकने के लिए विपक्ष किस हद तक खुद को तैयार कर पाया है? उम्मीद है कि इंडिया गठबंधन के नेताओं के लिए इन 6 शिक्षित बेरोजगार युवाओं के संसद के भीतर हंगामाखेज दुस्साहस करने के पीछे की वजह समझ आ गई होगी। अगर अब भी नहीं आई तो ऐसे विपक्षी गठबंधन की देश को जरूरत नहीं है।

जिन लोगों को राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा की प्रचंड जीत से गहरे अवसाद के लक्षण अपने भीतर नजर आने लगे हों, और इस हार के लिए उन्हें भारत की 80% गरीब जनता ही कसूरवार नजर आती हो, तो उन्हें वास्तव में इलाज की जरूरत है। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्हें न देश के हालात से कोई मतलब रहा है, और न वे कांग्रेस के क्षत्रपों, हाईकमान के ढुलमुल रवैये और विपक्षी पार्टियों के अवसरवादी गठजोड़ और स्यापे को ही ठीक से आंक पा रहे हैं।

इन तीनों राज्यों में चुनाव की तैयारियों में कांग्रेस की ओर से कदम-कदम पर इतनी गलतियां की गई थीं, उसके बावजूद यदि उसे करीब 40% मत प्राप्त हुए हैं, तो इसे आम लोगों की भाजपा से मुक्त होने की चाह के रूप में ही देखा जाना चाहिए। लेकिन देश का लिबरल खेमा तो चाहता है कि कांग्रेस के सॉफ्ट हिंदुत्ववादी अवसरवादी राजनीति की बैसाखी पर भी जनता लट्टू क्यों नहीं हो जाती?

देश को इंडिया गठबंधन से पूछना चाहिए कि कांग्रेस सहित इन सभी 26 विपक्षी पार्टियों के पास मोदी-आरएसएस सरकार की नीतियों के बरक्श वे कौन सी नीतियां हैं, जो देश के हालात को 180 डिग्री बदलने की क्षमता रखती हैं? क्या 140 करोड़ शिक्षित-अशिक्षित लोग नहीं देख रहे हैं कि आज भी एक-दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते इन दलों के नेता सिर्फ भाजपा को दिल्ली की गद्दी से अपदस्थ करने के लिए एक मंच पर आ रहे हैं?

इंडिया गठबंधन की प्रस्तावित 19 दिसंबर की बैठक में ऐसा कौन सा अमृत-मंथन होने वाला है, जो देश में गरीब और मजलूमों के लिए आशा और उत्साह का संचार करने जा रहा है? क्या सिर्फ सीट-शेयरिंग के बल पर इंडिया गठबंधन भाजपा और मोदी को नाथने में सफल हो सकता है? साफ़ दिखता है कि मोदी-शाह और आरएसएस 2024 के चुनाव के लिए जितनी गंभीरता से तैयारियों में जुटे हुए हैं, उसकी तुलना में विपक्ष अभी भी 10% भी तैयार नहीं है।

तेलंगाना की जीत चमत्कारिक है, लेकिन भाजपा के नैरेटिव से कांग्रेस तक आक्रांत है

हिंदी पट्टी में अपनी हार से कांग्रेस पस्त है। राहुल गांधी का कहीं कोई अता-पता नहीं है। पिछले 6 दिनों से एक ट्वीट तक नहीं है। ‘भारत जोड़ो’ अभियान की सफलता से उत्साहित कांग्रेस ने अवाम में भी आशा और उम्मीद की किरण बिखेर दी थी। लेकिन तीन राज्यों में हार के लिए जब खुद कांग्रेस का लचर रवैया और इंदिरा गांधी के दौर की निशानियां जिम्मेदार हैं तो इसमें इतना दुखी होने की क्या जरूरत है?

2019 के आम चुनाव में दोबारा करारी शिकस्त के बाद राहुल गांधी ने पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। अगले दो-तीन वर्ष तो ऐसे थे, मानो वास्तव में देश कांग्रेस-मुक्त होने जा रहा है। भला हो हिमाचल प्रदेश के सेव उत्पादक किसान और ओल्ड पेंशन की मांग करने वाले कर्मचारियों का, जिन्होंने अडानी-मोदी के नुमाइंदों को धूल चटाने की ठान ली। इसे कोई कांग्रेस की जीत मान ले तो उसे सावन का अंधा ही कहा जा सकता है।

याद रखिये, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड ऐसे दो अकेले राज्य हैं, जहां सवर्ण आबादी के लिहाज से बहुसंख्यक हैं। हिंदुत्व की पताका यदि किसी राज्य में सिर चढ़कर बोल सकती है तो ये दो राज्य उसके लिए सबसे अधिक मुफीद हैं। इसके बावजूद यदि हिमाचल प्रदेश में भाजपा-आरएसएस चुनाव हार जाती है, तो इसकी वजह वे आर्थिक नीतियां हैं, जो प्रदेश की जनता के पेट पर सीधे लात मार रही थीं।

इसके बाद कर्नाटक में जीत के पीछे कांग्रेस के संगठन, अहिंदा राजनीति और भाजपा के खिलाफ पिछले एक साल से चलाए जा रहे 40% कमीशनखोरी अभियान को दिया जाना चाहिए। इसके साथ ही प्रदेश में मौजूद स्वयंसेवी संगठनों, सिलिकॉन वैली में हिंदुत्ववादी शक्तियों की भयानक खुराफात से आम शहरी लोगों में ऊब और मुस्लिम अल्पसंख्यक समूह का जेडीएस से विलगाव की भूमिका रही है।

लेकिन तेलंगाना की जीत सबसे निर्णायक कही जा सकती है। तेलंगाना की जीत को कांग्रेस को 2024 का गुरुमंत्र मानकर चलना चाहिए था, लेकिन उसने लगता है भाजपा के आईटी सेल के नैरेटिव में फंसे मीडिया को ही अपने जेहन में घुसा लिया है। जब विपक्ष ही भाजपा के चलाए जा रहे अधूरे नैरेटिव से प्रभावित होकर अवसाद में डूबा हुआ हो, तो ऐसे हारे हुए मनोबल के साथ वह 19 दिसंबर को क्या खाक रणनीति तैयार करेगा?

हमें याद रखना चाहिए कि केसीआर 6 महीने पहले तक खुद तीसरे मोर्चे की वकालत कर रहे थे। 2014 की तुलना में 2018 में और प्रचंड जीत के पीछे तेलंगाना की जनता थी, जिसके लगभग सभी तबकों को केसीआर की लोकलुभावन नीतियों का लाभ पहुंचा था। फिर यह चमत्कार कैसे संभव हुआ? यही वह गुत्थी है, जिसे यदि विपक्ष समझ जाये तो 2024 की जीत के लिए उसे सूत्र मिल सकते हैं।

इसके लिए हमें एक बार फिर से तेलंगाना राज्य विधानसभा चुनावों के आंकड़ों को देखना होगा, जिसे उत्तर भारत में कांग्रेस की करारी हार की आड़ में ओझल किया जा रहा है। 2018 में बीआरएस (टीआरएस) को राज्य की 119 सीटों में से 88 सीट हासिल हुई थीं। 46.87% वोटों के साथ इसे टीआरएस की प्रचंड जीत माना गया, जिसमें मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को मात्र 28.43% वोट और 19 सीटें हासिल हुई थीं।

2023 के विधानसभा चुनाव से 2 महीने पहले तक किसी को भी सपने में भी इस बात का अहसास नहीं था कि केसीआर के हाथ से तेलंगाना की कमान खिसकाई जा सकती है। कांग्रेस को भी तेलंगाना की जनता ने एक उपहार दिया है, शायद इसीलिए उसे इस जीत का महत्व अभी तक समझ नहीं आया है।

चुनाव से दो सप्ताह पूर्व जब कांग्रेस की सभाओं में भारी भीड़ और उत्साह नजर आ रहा था, तब भी कई पर्यवेक्षक यही बता रहे थे कि कांग्रेस कड़ी टक्कर देती नजर आ रही है, लेकिन 20% वोटों का अंतर इतना बड़ा पहाड़ है, जिसे एक चुनाव में पाट पाना असंभव है।

3 दिसंबर के दिन कांग्रेस की झोली में 92.36 लाख वोटो के साथ 39.40% मत हासिल होते हैं, और कांग्रेस को 64 सीटों पर जीत मिलती है। दूसरी तरफ केसीआर की पार्टी बीआरएस 87.53 लाख वोट पाकर 37.35% मतों के साथ मात्र 39 सीटों पर सिमट जाती है। इस चुनाव में उसे लगभग 9% वोट और 49 सीटों का नुकसान सहना पड़ा है।

टीआरएस से बीआरएस बनाकर जो केसीआर राष्ट्रीय पार्टी के रूप में खुद को आगे बढ़ाने की महत्वाकांक्षा पाले हुए थे, उसे तेलंगाना की जनता ने क्षेत्रीय क्षत्रप की भूमिका से भी बेदखल कर दिया था। भाजपा और कांग्रेस के लिए एक-दूसरे को राज्यों में पटखनी देना जितना आसान रहा है, किसी क्षेत्रीय क्षत्रप को धूल चटाना उतनी ही मुश्किल हमेशा से रही है। लेकिन क्या आपने किसी एक भी राजनीतिक पर्यवेक्षक को इस बारे में बात करते देखा?

क्या मोदी राज में पिछले 10 वर्षों के दौरान आप पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, तेलंगाना, तमिलनाडु या दिल्ली में भाजपा के एडी-चोटी के जोर लगाने के बावजूद उसे बार-बार धूल चाटते नहीं पाए हैं? यहां तक कि जब बिहार में जेडीयू-राजद के बीच महागठबंध बना तो उस चुनाव में भाजपा की क्या दुर्गति हुई थी?

ऐसे में तेलंगाना राज्य, जहां देश के किसी भी राज्य की तुलना में कहीं अधिक लोककल्याणकारी योजनाओं को राज्य सरकार ने लागू किया, उस राज्य में बिल्कुल नौसिखिये नेतृत्व के बल पर कांग्रेस अपने पक्ष में लहर बनाने में कामयाब हो जाती है, और उसे लगभग 20% वोटों का उछाल हासिल हो जाता है।

क्या महज इत्तिफाक है? इतने बड़े उलटफेर के लिए राजनीतिक पंडित सिर्फ एक कारण बता रहे हैं, और वह यह है कि तेलंगाना की जनता के बीच में केसीआर के खिलाफ 9 साल में एंटी-इन्कंबेसी बढ़ गई थी, और वे कांग्रेस को एक मौका देना चाहते थे।

यह बेहद बचकाना और सरल जवाब है। द प्रिंट के साथ तेलंगाना के जमीन से जुड़े एक विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और सामाजिक कार्यकर्ता का स्पष्ट मत था कि 2018 के बाद ही केसीआर के तेवर पूरी तरह से बदल चुके थे। उनके भीतर अहंकार, तानाशाही प्रवृत्ति इस कदर हावी हो चुकी थी कि राज्य में उनके बगैर किसी जिले तक में ट्रांसफर, पोस्टिंग संभव नहीं थी।

तेलंगाना में आंदोलनों को बेरहमी से कुचला जा रहा था। अपने वाजिब अधिकारों के लिए शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शन पर आम लोगों को यूएपीए का शिकार बनना पड़ रहा था। राज्य में सरकार में शामिल विधायकों की हैसियत नाममात्र की रह गई थी। बड़े-बड़े प्रोजेक्ट्स के तहत जमकर भ्रष्टाचार का बोलबाला था, जिसमें बेहद अदूरदर्शी योजनाओं को सिरे चढ़ाया जा रहा था।

तेलंगाना की जनता आर्थिक लोकलुभावन नीतियों से खुश तो थी, लेकिन केसीआर का घमंड दिनोंदिन बढ़ता जा रहा था, जिसे ‘भारत जोड़ो’ के अगुआ राहुल गांधी में ज्यादा मानवीयता नजर आई, जिसे उसने इंदिराम्मा से जोड़ना शुरू कर दिया था। एंटी-कम्बेंसी का आवेग उसे सोनिया गांधी के तेलंगाना निर्माण के पीछे के प्रयास, जिसका खामियाजा कांग्रेस को आंध्र प्रदेश में भुगतना पड़ा, उसकी याद भी आने लगी।

इसके साथ-साथ तेलंगाना में भाजपा-केसीआर के बीच टैक्टिकल अंडरस्टैंडिंग, जबकि बाकी सभी विपक्षी दलों के खिलाफ ईडी-सीबीआई की कार्रवाई भी कांग्रेस के पक्ष में गई। एक बड़ी वजह तेलंगाना में कांग्रेस के पास पुराने खाए-अघाए नेतृत्व की जगह रेवंत रेड्डी जैसा युवा चेहरे का होना था, जो पिछले एक वर्ष से पूरे प्रदेश में घूम-घूमकर केसीआर के खिलाफ जमकर प्रहार कर रहा था।

रेवंत रेड्डी ने प्रदेश में कांग्रेस को खड़ा करने के लिए भाजपा और बीआरएस में शामिल हो चुके पुराने कांग्रेसियों के लिए सम्मानजनक घर वापसी की लगातार अपील तक की थी। यही वजह है कि तेलंगाना की जनता को रेवंत रेड्डी के रूप में कांग्रेस के भीतर एक नायक नजर आया, और साथ ही केंद्र में कांग्रेस की वापसी के साथ देश की राजनीति में तेलंगाना की खोई भूमिका भी कहीं न कहीं दिखने लगी थी। चुनावी घमासान के अंतिम क्षणों में कांग्रेस की सभाओं में जैसा जन-सैलाब राज्य में उमड़ रहा था, वैसा उत्साह बाकी किसी भी राज्य में नहीं दिखाई पड़ा है।

इसके उलट भाजपा की जीत के पीछे विकल्पहीनता, कांग्रेस की अवसरवादी सॉफ्ट हिंदुत्व के पीछे जाने वाली छवि, वैचारिक शून्यता, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के खिलाफ होने वाले अत्याचारों पर मजबूती से न खड़ा होकर सिर्फ आर्थिक लोकलुभावन नीतियों के सहारे चुनावी वैतरणी पार कर लेने की अवसरवादिता आम लोगों को स्पष्ट जनादेश देने से रोक रही थी।

इसके उलट भाजपा ने मानो इन चुनावों को एक युद्ध क्षेत्र में तब्दील कर दिया था। इसके जनरल नरेंद्र मोदी थे, और सेना की कमान गृहमंत्री अमित शाह के हाथ में थी। क्या मुख्यमंत्री और क्या महारानी सभी को किनारे लगा दिया गया था, और केंद्र से मंत्रियों और सांसदों को विधायकी के चुनाव में झोंक दिया गया।

हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में जितने आर्थिक नारों के साथ कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी, उसके दोगुने प्रचार के साथ भाजपा ने कांग्रेस के प्रचार को भोथरा करके रख दिया। ऐन चुनाव के दौरान अगले 5 वर्ष तक हर माह प्रति व्यक्ति 5 किलो मुफ्त अनाज की घोषणा, आदिवासियों के लिए विशेष पैकेज और पीएम किसान सम्मान की किश्त और शिवराज सिंह चौहान की बहनों को सौगात ने जैसे इन राज्यों में व्यापक जनता को पूरी तरह से विभ्रम की स्थिति में डाल दिया।   

क्या देश मोदी शासन से खुश है?

इस बात का प्रमाण देश ने संसद के भीतर कुछ युवाओं के विरोध में देख लिया है, लेकिन मोदी सरकार इसे नया ट्विस्ट देगी। इसे इंडिया गठबंधन को समझना होगा। उसे बिहार में राजद नेता तेजस्वी यादव या उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सभाओं और रैलियों में उमड़ती युवाओं की भीड़ में नहीं दिखता? तेलंगाना में इसी गुस्साई भीड़ ने कांग्रेस को राज्य की कमान सौंप दी है।

उसे सीएए-एनआरसी के खिलाफ कई महीनों तक जाड़ों की रात में आंदोलनरत उन लाखों-लाख मुस्लिम महिलाओं को याद रखना चाहिए, जिसने भाजपा-आरएसएस के विभाजनकारी कानून को आज तक नियम नहीं बनने दिया। उसे देश के अन्नदाता की लड़ाई पर यकीन करना होगा, जिसने पूरी दुनिया को अपने हकों के लिए आंदोलन करने की नई राह दिखाई है, जिस पर अनेक देश आज भी शोध कर रहे हैं।

उसे याद रखना होगा कि देश के कॉर्पोरेट के लिए इंडिया गठबंधन नहीं मोदी-आरएसएस सरकार सबसे मुफीद है। इसके लिए अगर मोदी सरकार अगले 2-3 महीने राजकोषीय घाटे को 2-3 लाख करोड़ रुपये और लुटा देती है, तो वे इसे सहन करने के लिए सहर्ष तैयार हैं। उनके लिए K-shape इकोनॉमी के तहत जितने बड़े पैमाने पर दौलत की बारिश हो रही है, वह इससे पहले कभी भी संभव नहीं हो पाई थी।

अपनी पॉलिटिक्स तो बताओ इंडिया गठबंधन

क्या इंडिया गठबंधन 19 दिसंबर के दिन, देश के 3 लाख करोड़पति परिवारों के बरक्स शेष 140 करोड़ लोगों की नजर से देश के लिए वैकल्पिक नीतियों की घोषणा करने जा रहा है? देश को हर माह 5 किलो राशन की भीख अब नहीं चाहिए। उसे काम चाहिए, और इसके लिए जमीनी स्तर पर ऐसा आर्थिक ढांचा और सप्लाई-चेन चाहिए, जिसके तहत कम से कम प्रति व्यक्ति 8-10,000 रुपये मासिक कमाकर गांव में ही रहते हुए आत्मनिर्भर बन सके।

इस एक कदम से उन बड़े इम्पोर्टर के पेट पर अवश्य लात पड़ सकती है, जो पूरे देश को चीन के आयातित माल पर टिका चुके हैं। पूरे देश का आर्थिक परिदृश्य सिर के बल खड़ा कर दिया गया है, जिसके लिए भाजपा ही नहीं खुद कांग्रेस भी जिम्मेदार है। क्या कांग्रेस और इंडिया गठबंधन अपनी इस भूल को ठीक करने के लिए कटिबद्ध है?

पश्चिमी देशों में पिछले कुछ वर्षों से चीन के विकल्प की खोज की जा रही है। यह भारत के लिए अवसर था, जिसे हम तेजी से खो रहे हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह हमारे पास कुशल श्रमिकों का घोर अभाव है। देश में बुनियादी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा एवं स्वास्थ्य के बिना इसे हासिल कर पाना असंभव है।

हमारा देश युवा जनसंख्या के लिहाज से पूरी दुनिया के लिए ईर्ष्या का कारण बना हुआ है। लेकिन जो शिक्षित हैं और अपनी मेहनत के बल पर एक खुशहाल जिंदगी चाहते हैं, उनके लिए रोजगार के दरवाजे बंद हैं। शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर अपनी जायज मांगों की लड़ाई लड़ते उन्हें एक दशक बीत चुका है। हां, दूसरा विकल्प उनके लिये खुला है। वह है गौ-रक्षक या लव-जिहाद के खिलाफ अभियान छेड़ने का।

क्या इंडिया गठबंधन को ये बातें दिखाई नहीं देती हैं? अगर इन्हीं दो चार बिंदुओं पर वह ठोस वैकल्पिक नारों के साथ देश के किसानों, असंगठित मजदूरों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों, दलितों एवं आदिवासियों के पक्ष में लड़ने की चाह लिए मैदान में दिखे तो उसके पक्ष में जनमत उसी तरह खड़ा हो सकता है, जिसकी झलक देश तेलंगाना में अभी-अभी देख चुका है।

सवाल विपक्षी दलों की विश्वसनीयता को लेकर है, जो संभवतः आज भी भूपेश बघेल और कमलनाथ की तर्ज पर ही ‘सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे’ वाले जोड़-तोड़ की जुगत में ज्यादा नजर आ रहा है।

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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