क्या तेलंगाना 2024 में कांग्रेस की वापसी का मार्ग प्रशस्त कर रहा है?

यह दूर की कौड़ी लग सकती है। यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार ने 2014 में आंध्रप्रदेश से काटकर तेलंगाना का निर्माण तो कर दिया था, लेकिन तब इसे कांग्रेस के द्वारा हर मोर्चे पर अपनी गिरती साख को बचाने की एक नाकाम कोशिश के तौर पर ही देखा गया था। अलग तेलंगाना राज्य की मांग तो 50 के दशक से ही उठनी शुरू हो चुकी थी, लेकिन यह सपना कई दशकों बाद जाकर सैकड़ों किसानों-श्रमिकों की शहादत के बाद तब पूरा होने के करीब पहुंचा, जब केंद्र सरकार के रूप में कांग्रेस खुद अपने अस्तित्व को बचाने की आखिरी लड़ाई लड़ रही थी।

यूथ कांग्रेस पार्टी से अपने राजनैतिक कैरियर की शुरुआत करने वाले के. चन्द्रशेखर राव ने 80 के दशक में एनटी रामाराव की तेलगु देशम पार्टी में शामिल होकर अपने 17 वर्षों का राजनीतिक सफर तय किया, और 2001 तक टीडीपी में रहते हुए कैबिनेट मंत्री के रूप में कार्य किया। लेकिन बेहद महत्वाकांक्षी केसीआर ने आंध्रप्रदेश के भीतर तेलंगाना राज्य के लिए बढ़ते असंतोष को भांपते हुए 2001 से ही अलग राज्य के लिए संघर्ष करना शुरु किया और 2004 में यूपीए सरकार के साथ दोस्ती और संघर्ष का जो रिश्ता और सिलसिला शुरू किया, उसमें हर बार केसीआर ही लाइमलाइट में आते गये, और यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी की अलग तेलंगाना राज्य की विशेष पहल के बावजूद 2014 के लोकसभा चुनावों में केसीआर की पार्टी टीआरएस को 17 में से 11 सीटों पर जीत हासिल हुई। 2014 में अलग राज्य के रूप में तेलंगाना के हिस्से में कुल 119 विधानसभा सीटों में 63 सीट होने के कारण केसीआर की सरकार बनी, जो 2018 में बढ़कर 88 हो चुकी थी, जबकि कांग्रेस की सदस्य संख्या घटकर 19 रह गई जो 2014 की तुलना में 2 सीट कम थी। 

लेकिन बाद के दौर में तो केसीआर का प्रभाव इस कदर छाया कि कांग्रेस से टूटकर कई विधायक टीआरएस में शामिल हो गये। टीआरएस की महत्वाकांक्षा इस बीच इतनी बढ़ी कि वे तीसरे मोर्चे तक की वकालत करने लगे थे, जिसमें कांग्रेस को एक कोने में धकेलने की मुहिम में उनकी ओर से टीएमसी और नीतीश कुमार सहित अरविंद केजरीवाल के साथ वार्ताओं का एक दौर भी देश ने देखा। आज वही केसीआर जिन्होंने कुछ माह पूर्व ही तेलंगाना राष्ट्र समिति का नाम बदलकर इसका राष्ट्रीय चरित्र भारतीय राष्ट्र समिति (बीआरएस) कर दिया था, आज अपने ही गढ़ में उन्हें हार से बचने के लिए हर संभव प्रयास करना पड़ रहा है। केसीआर के राजनैतिक कैरियर में यह यू-टर्न शायद ही पहले कभी आया हो, जबकि दूसरी तरफ कांग्रेस और उसके नेता राहुल गांधी के लिए भी यह एक नए अवतार में रूपांतरण समझा जाना चाहिए।

तेलंगाना राज्य निर्माण के दौरान कांग्रेस पार्टी केंद्र और आंध्रप्रदेश राज्य दोनों पर शासन कर रही थी। अलग तेलंगाना राज्य के फैसले का आंध्रप्रदेश में भारी राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ सकता है, इस खतरे के बावजूद कांग्रेस का यह फैसला तब हाराकिरी में बदल गया, जब केसीआर ने अंतिम मौके पर पाला बदलते हुए कांग्रेस के साथ तेलंगाना में जाने के बजाय स्वतंत्र राह को वरीयता दी। यही वह समय था जब राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष में भाजपा की कमान गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों में चली गई, जिनके खिलाफ यूपीए सरकार के द्वारा गुजरात दंगों की जांच को करती हुई भी दिखती थी और नहीं भी। ऐसे ही दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) भी एक नई राजनीति और भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम में कांग्रेस को ही निशाने पर रखे हुए थी। पुरानी शैली की राजनीति के स्थान पर नई आक्रामक शैली, बड़े-बड़े वादों और व्यक्ति केंद्रित राजनीति के टक्कर का कांग्रेस के पास कोई जवाब नहीं था, जो उसने अगले 5 वर्षों बाद भी नहीं ढूंढा। 

अपने पहले कार्यकाल में ही तेलंगाना में टीआरएस ने राज्य के करीब हर तबके के लिए विकास की योजनाओं की झड़ी लगा दी थी। अपने काम से राज्य में केसीआर ने खुद को अपरिहार्य बना डाला था। 2018 विधानसभा चुनावों में उन्होंने भारी बहुमत के साथ जीत दर्ज की, और बाद के दौर में कांग्रेस के अधिसंख्य विधायकों को अपने पाले में लाकर विकल्प की संभावना को ही लगभग खत्म कर दिया। लेकिन पिछले एक साल से भी कम समय में ऐसा क्या हुआ कि आज तमाम चुनाव समीक्षक और चुनावी सर्वेक्षण कांग्रेस पार्टी को तेजी से 18% मतों के अंतर को खत्म करते हुए राज्य में सरकार तक बना सकने की मजबूत संभावना के रूप में देख रहे हैं? 

तेलंगाना राहुल गांधी और कांग्रेस के लिए एक नया प्रयोग 

राजनीति को कुछ लोग संभावनाओं का खेल कहते हैं, लेकिन राजनीति ठोस आर्थिक-सामजिक-सांस्कृतिक आधार पर मौजूद विभिन्न तबकों की आकांक्षाओं के प्रतिनिधित्व और आपसी प्रतिद्वंदिता को ही प्रतिध्वनित करता है। 10 साल बाद इतिहास एक बार फिर से करवट ले रहा है। जिस तेलंगाना राज्य के निर्माण की आधारशिला रखने वाले कांग्रेस को स्वंय तेलंगाना की जनता ने ठुकरा दिया था, आज उसे हाथोंहाथ ले रही है, तो यह तेलंगाना ही नहीं शेष भारत की मनोदशा को भी कहीं न कहीं प्रतिबिंबित करता है।

तेलंगाना में कांग्रेस को बिल्कुल नए सिरे से शुरू करना पड़ा है, और कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने यह काम दिया एक ऐसे नवोदित नेता को जिसके राजनीतिक कैरियर की शुरुआत युवावस्था में एबीविपी से हुई, लेकिन बाद में वह स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर आंध्र में एमएलसी बना और दो बार टीडीपी से विधायक भी रह चुका था।

रेवंत रेड्डी को जुलाई 2021 में प्रदेश तेलंगाना की बागडोर सौंपने पर राज्य कांग्रेस के भीतर काफी मतविरोध खड़ा हुआ था, और वरिष्ठ कांग्रेसियों का मानना था कि कांग्रेस का जल्द ही टीडीपी करण हो जाना है। असल में पंजाब में राहुल गांधी एक असफल प्रयोग के बाद भी पार्टी के भीतर इंदिरा कांग्रेस के समय से घुन की तरह पूरी फसल ही बर्बाद कर देने वाले लोगों की बजाय एक नई कांग्रेस को तैयार करने में जुटे हुए थे।

मलकागिरी लोकसभा सांसद रेवंत रेड्डी ने पार्टी की कमान ही नहीं संभाली बल्कि बीआरएस के खिलाफ राज्य में मोर्चा भी खोला, और यदि पिछले एक साल का जायजा लें तो लगातार संगठन को चलायमान रखते हुए उनकी ओर से पार्टी छोड़कर जा चुके लोगों को वापस पार्टी में सम्मान सहित वापस लेने के बारे में अपील करते हुए भी देखा गया। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा ने इसके लिए आधार प्रदान किया था, जिसका रेवंत रेड्डी ने भरपूर उपयोग किया। उन्हें कर्नाटक के उप-मुख्यमंत्री डीके शिवकुमार की शैली का तेजतर्रार आक्रामक नेता माना जाता है, और राहुल गांधी सहित केंद्रीय नेतृत्व के साथ रैलियों में तेलंगाना के नेताओं में उनके मंच पर आने पर उत्साह और जोश को नेतृत्व ने भी महसूस किया। राहुल-प्रियंका-शिवकुमार के साथ रेवंत रेड्डी की केमिस्ट्री भी तेलंगाना में कांग्रेस में जान फूंकने में मददगार साबित हुई है। 

दूसरी तरफ 2018 में बीआरएस 46.87% वोट के साथ कांग्रेस से करीब 18% की भारी बढ़त को हाथ में लेकर चुनावी मैदान में आज भी कागज पर अजेय नजर आती है। इतने बड़े अंतर को पाट पाना मैराथन जीतने के समान है। उपर से केसीआर की रायतु बंधु योजना किसानों के बीच में बेहद लोकप्रिय है। ऐसा माना जाता है कि पीएम मोदी को पीएम किसान सम्मान योजना के जरिये अपनी लोकप्रियता को कायम रखने का आईडिया भी केसीआर की इसी योजना से आया था। लेकिन इस योजना के तहत आज भी खेतिहर मजदूरों, भूमिहीन किसानों और बंटाई पर काम करने वाले असली किसान-वर्ग को इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है।

तेलंगाना में कांग्रेस ने भी इस हिस्से को फोकस में रखते हुए रायतु बंधु स्कीम में प्रति एकड़ 10,000 रूपये को बढ़ाकर 15,000 रुपये करने की घोषणा की है। इसके बावजूद ऐसा माना जा रहा है कि पिछले 9 वर्षों में खेतिहर किसानों को केसीआर के कार्यकाल में सिंचाई, बिजली की भरपूर सुविधा मिलने से फसल पैदावार में जो बढ़ोत्तरी हुई है, उसके चलते अधिकांश लोग केसीआर के पक्ष में रहने वाले हैं। लेकिन बढती बेरोजगारी एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है, जो परीक्षाओं में नकल और बार-बार रद्द किये जाने से युवाओं में नाराजगी की वजह बना हुआ है। 

चुनावी सर्वेक्षण भी हवा के रुख में बदलाव की पुष्टि कर रहे हैं 

पिछले कुछ दशकों से देश ने कांग्रेस को अच्छी स्थिति में होने के बावजूद कई मौकों पर हारते देखा है। गोवा, पंजाब, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड, कर्नाटक और गुजरात राज्यों में इसे देखा गया है। लेकिन हिमाचल प्रदेश में आम लोगों ने आगे बढ़कर भाजपा को हराकर एक दिशा दिखाई थी, जिसे कर्नाटक में कांग्रेस ने अपने अनुभवी राज्य नेतृत्व एवं सांगठनिक ढांचे की बदौलत बड़ी जीत में तब्दील कर दिया। लोक पोल ने 22 नवंबर से लेकर 27 नवंबर के अपने सर्वेक्षण में जो अंतिम निष्कर्ष निकाला है, वह सभी राजनीतिक पंडितों के लिए आंखें खोलने वाला है।

लोक पोल सर्वे के मुताबिक, तेलंगाना विधानसभा की 110 सीटों में कांग्रेस 72-74 सीटों के साथ स्पष्ट बहुमत पाते दिख रही है। बीआरएस के खाते में 33-35 सीटें आने का अनुमान है, जबकि एआईएमआईएम को 6 और भाजपा को 3 सीट तक मिलने की संभावना व्यक्त की गई है। कांग्रेस को रिकॉर्ड 45% वोट मिलने की संभावना जताई जा रही है, जबकि बीआरएस के हिस्से में 38% मत मिलने की उम्मीद जताई गई है। भाजपा के हिस्से में 10% वोट की उम्मीद है, लेकिन इसे सीटों में परिवर्तित करने की उसकी क्षमता काफी घट जाती है। 

अल्पसंख्यकों के बीच में भी कांग्रेस की लोकप्रियता में काफी इजाफा हुआ है। हैदराबाद शहर में जरुर अभी भी असदुद्दीन ओवैसी और उनकी पार्टी एआईएमआईएम पर लोग भरोसा जाता रहे हैं, और यहां से उनकी पार्टी 7 सीटें इस बार भी निकाल रही है। लेकिन इस चुनाव में इस बात को लेकर भी खूब चर्चा है कि ओवेसी आखिर गृह राज्य में मात्र 9 सीटों पर ही चुनाव क्यों लड़ रहे हैं, जबकि अन्य राज्यों में इससे कई गुना सीटों पर उनके द्वारा अपने उम्मीदवारों को मुकाबले में खड़ा किया जाता रहता है। हैदराबाद के बाहर तेलंगाना में अल्पसंख्यक बड़ी संख्या में कांग्रेस के प्रति अपना झुकाव व्यक्त कर रहे हैं, क्योंकि उनके मुताबिक केसीआर ने उनके लिए कुछ खास नहीं किया। 

चुनाव की घोषणा से 6 महीने पहले तक राज्य में बीआरएस के मुकाबले भाजपा को देखा जा रहा था। हैदाराबाद नगरनिगम चुनावों में कई सीटों पर जीत के साथ पार्टी ने अपने इरादे भी जाहिर कर दिए थे, लेकिन अचानक से भाजपा प्रदेश अध्यक्ष और करीमनगर से अपने सांसद, बंदी संजय कुमार के हाथ से पार्टी की कमान छीनकर भाजपा नेतृत्व ने मानो अनजाने में तेलंगाना की बैटन कांग्रेस के हाथ में सौंप दी थी। कहा तो यहां तक जा रहा है कि बंदी संजय कुमार की छवि भी कांग्रेस के रेवंत रेड्डी की तरह थी, लेकिन संजय कुमार से राज्य की कमान छीन लेने के बाद राज्य में भाजपा की केसीआर विरोधी छवि को धक्का लगा। नए प्रदेश अध्यक्ष जी। किशन रेड्डी की छवि अपेक्षाकृत सॉफ्ट मानी जाती है, जिनके पास केंद्र में मंत्रिमंडल का कार्यभार भी है। ऐसा माना जाता है कि रेड्डी और केसीआर के बीच के रिश्ते भी मधुर हैं।

तेलंगाना में ईडी का आधा-अधूरा प्रयोग भाजपा-बीआरएस के खिलाफ गया 

पिछले एक साल से ईडी के राजनीतिक इस्तेमाल के किस्सों से पूरा देश वाकिफ है। दिल्ली में शराब घोटाले की कड़ी में शुरूआती चरण में ही केसीआर की पुत्री कविता का नाम तेजी से उछाला गया था। लेकिन आम आदमी पार्टी के वरिष्ठतम मंत्रियों में सत्येंद्र जैन, उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और यहां तक कि राज्यसभा सांसद संजय सिंह तक को इस मामले के तहत बंदी बनाकर रखा गया है। लेकिन कविता को ईडी के समन के बाद अचानक से कार्रवाई अधूरी छोड़ दी गई, जिसको लेकर तेलंगाना ही नहीं पूरे देश में सवाल खड़ा हो रहा है। कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने लगता है इस प्रश्न को अपने चुनावी सभाओं में बार-बार पूछकर तेलंगाना की जनता के मन में भी केसीआर-भाजपा-ओवैसी के परदे के पीछे के रिश्तों को लेकर बड़े सवाल खड़े कर दिए हैं। 

आज हालत यह हो गई है कि भाजपा यदि 10% से अधिक वोट हासिल कर लेती है तो इसे कांग्रेस के लिए नुकसान और बीआरएस के लिए जीत की शर्त माना जा रहा है। इसके उलट यदि भाजपा को 10% से भी कम मत हासिल होते हैं, तो इसका सीधा फायदा राज्य सरकार के साथ सीधे मुकाबले में खड़ी कांग्रेस को मिलने जा रहा है। अपने अंतिम चुनावी अभियान में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के द्वारा केसीआर के खिलाफ आरोपों की झड़ी को इसी कड़ी में देखा जाना चाहिए। लेकिन राहुल गांधी और उनकी टीम तेलंगाना चुनावों में जिस जज्बे और पूरी ताकत से लड़ी है, और उनकी सभाओं में जिस प्रकार से भीड़ ने गजब का जोश और समर्थन में नारेबाजी की है, वैसा जन-समर्थन अन्य राज्यों में देखने को नहीं मिला है। यहां तक कि कर्नाटक तक में ऐसा जन-सैलाब देखने को नहीं मिला था। 

शायद यही वजह है कि कल चुनाव प्रचार के अंत में राहुल गांधी अपने अभियान का अंत “बाई-बाई केसीआर” के साथ करते देखे गये। कांग्रेस अगर बेहद कड़े मुकाबले में तेलंगाना का यह चुनाव जीत जाती है, तो निश्चित रूप से यह उसके लिए कई दशक बाद सबसे बड़ी मोरल-बूस्टिंग होगी। हाल के वर्षों में ऐसी जीत आप को दिल्ली और पंजाब में नसीब हो चुकी है, और भाजपा के लिए इसे त्रिपुरा में पहली बार की जीत में देखा जा सकता है।

तेलंगाना की जीत संभवतः कांग्रेस के लिए राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की कुल तीन राज्यों की जीत से भी बड़ी कही जा सकती है, शायद इसी वजह से राहुल ने अपनी अधिकतम उर्जा तेलंगाना में ही खर्च की है। कल अर्थात 30 नवंबर के दिन तेलंगाना की जनता क्या फैसला सुनाती है, इसका फैसला अब सभी 5 राज्यों के परिणामों को एक साथ 3 दिसंबर के दिन देखने को मिलने जा रहा है।      

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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