आंदोलन से जन्मे देश के प्रधानमंत्री का आंदोलनकारियों को परजीवी कहना शर्मनाक

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स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने वाली स्वतंत्रता सेनानी सरोजिनी नायडू के जन्मदिवस 13 फरवरी पर पर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा संसद में किसान आंदोलनकारियों को आंदोलनजीवी परजावी कहकर संबोधित किये जाने के संदर्भ में परसों अनहद की ओर से ‘लोकतंत्र और आंदोलन की अहमियत’ विषय पर वेबिनार आयोजित किया गया। 

कार्यक्रम में उद्घाटन वक्ता के तौर पर जानी मानी समाजसेविका और आंदोलनजीवी अरुणा रॉय ने कहा- “ आंदोलनों ने मेरे जीवन की रूपरेखा को बनाया है। मैं आंदोलनों के साथ इसलिए भी जुड़ी हुई हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि लोकतंत्र की आत्मा आंदोलनों में है। और लोकतंत्र की आत्मा को अगर जगाना है तो लोकतंत्र के ढांचे को जीवित रखने के लिए आंदोलनों के सिवाय कोई और रास्ता नहीं है। आंदोलनकारी सत्ता नहीं मांगते वो व्यवस्था में सुधार मांगते हैं। 

जो लोग व्यवस्था में मुनाफ़ा कमाते हैं उन्हें व्यवस्था में बदलाव पसंद नहीं

अरुणा रॉय ने आगे कहा- “जो लोग हम आंदोलनकारियों को परजीवीव कह रहे हैं उनके दिमाग को समझने की ज़रूरत है। लोकशक्ति से जो लोग डरते हैं वो क्यों डरते हैं। वो इसलिए डरते हैं क्योंकि लोकशक्ति ने बहुत बड़े कंट्रैक्टर, पैसे वालों, और सत्ता के खिलाफ़ लड़कर कई ऐसे क़ानून बनवाये हैं जो इनके खिलाफ़ था। हमने सूचना का अधिकार, फॉरेस्ट एक्ट, फूड सिक्योरिटी एक्ट, मनरेगा आदि लड़कर लागू करवाया। लेकिन तब हमें किसी ने परजीवी कहकर नहीं बुलाया। उस समय भी हमसे नफ़रत करने वाले थे। क्योंकि जो लोग उस व्यवस्था में मुनाफ़ा बनाते हैं उन्हें व्यवस्था में बदलाव पसंद नहीं आता है। उन्होंने चतुराई से आंदोलनजीवियों को एक तरफ और परजीवियों को दूसरे तरफ कर दिया। ये हमारी एकता को तोड़ने के लिए प्रयास किया जा रहा है। क्योंकि हम एक साथ जुड़कर आंदोलन की ताक़त बनते हैं। बुद्धिजीवी अर्थशास्त्री हमें आँकड़े प्रदान करते हैं। सुब्रमण्यम भारती (कवि), सरोजिनी नायडू (कवि), जवाहर लाल नेहरू (वकील) बुद्धिजीवी थे लेकिन वो स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े। 

इन्हें लोकतंत्र का नाम चाहिए लोकतंत्र की प्रक्रिया नहीं

समाजसेवी अरुणा रॉय ने आगे लोकतंत्र और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को उल्लेखित करते हुए कहा- “आज जो लोग सत्ता में हैं वो स्टैंडिंग कमेटी के पास भेजे बिना अध्यादेश से ये क़ानून पास कर रहे हैं। ये पूरे लोकतंत्र को डांवाडोल करने के लिए है। इन्हें सिर्फ़ लोकतंत्र का नाम चाहिए। लोकतंत्र का सार नहीं चाहिए, लोकतंत्र के नियम क़ानून उसकी प्रक्रिया नहीं चाहिए, तथ्य नहीं चाहिए। ये राज्यों को, और सत्ता के विकेंद्रीकरण को भी नहीं मानना चाहते हैं। आखिर हम आंदोलनकारी एक लोकतंत्र में क्या चाहते हैं । हम चाहते हैं कि अमीर गरीब, शिक्षित अशिक्षित दलित सवर्ण के बीच, मुख्य समाज और आदिवासी के बीच, बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के बीच, पुरुष औऱ स्त्री के बीच जो असमानता है वो न हो। हम इसी असमानता के खिलाफ़ समानता और अन्याय के खिलाफ़ न्याय के लिए आवाज़ बुलंद करते हैं। विकेंद्रीकरण के मामले में लोगों की आवाज़ आपको सुननी ही पड़ेगी। छोटे छोटे कैंपेन गांवों से शुरु होते हैं उनसे बुद्धिजीवी जुड़ते हैं कहीं पर राजनीतिक दल भी जुड़ते हैं और कहते हैं मुद्दा सही है तब जाकर समाधान निकलता है। ये हम भूल न जायें कि लोकतंत्र के विकेंद्रीकरण के लिए ये सारी प्रक्रिया बहुत महत्वपूर्ण है। बिना विकेंद्रीकरण के देश नहीं चल सकता है। विकेंद्रीकरण को नष्ट करके तानाशाही, फासीवादी सत्ता लाने की कोशिश है और गलत है। किसान देश में अनाज उगाते हैं हम उनका उगाया अन्न खाते हैं। तो हम उनके लिए क्यों न खड़े हों।”

जो भारत आंदोलन से जन्मा, उसी भारत का प्रधानमंत्री आंदोलनकारियों को आज परजीवी बता रहा है

कार्यक्रम को मॉडरेट करते हुए समाजसेवी अंजली भारद्वाज ने कहा –“आँकड़े बताते हैं कि देश के 9 परिवारों के पास देश का 50 प्रतिशत धन एकत्रित पड़ा है। केवल धन ही नहीं देश के तमाम संशाधनों और संपत्तियों पर कुछ परिवारों का मोनीपॉलाइजेशन किया जा रहा है। मीडिया संस्थान भी कोलैप्स कर रहे हैं। अगर हम देखें कि किस तरह का प्रोपागैंडा चलता है मीडिया में तो एक तरह की विचारधारा मीडिया के जरिये चलाया जा रहा है। क्रोनीकैपिटलिज्म तमाम लोकतांत्रिक संस्थानों पर कब्जा करता जा रहा है। आज कोई भी बिल लाने से पहले न तो उस पर चर्चा होती है न लाने के बाद संसद में चर्चा होती हा न विपक्ष की राय ली जाती है, न उसे पार्लियामेंट की स्टैंडिंग कमेटी के पास भेजा जाता है। सब अध्यादेश से मनमाने तरीके से लादा जा रहा है। हमारे देश की न्यायपालिका सुप्रीमकोर्ट तक में समस्या आ रही है। खुद जज ये बात कह रहे हैं। जनांदोलनों पर जिस तरीके का रवैया और जजमेंट सुप्रीमकोर्ट दे रहा है वो हैरान करता है। लोगों की समानता, उनके अधिकारों, न्याय के परिप्रेक्ष्य में न्यायपालिका काम नहीं कर पा रही हैं। तो क्रोनीकैपिटलिज्म का इस दौर में आंदोलन के सिवाय और कोई तरीका लोगों के पास नहीं है। कि लोग मूवमेंट शुरु करें, सड़कों पर आयें, लोग उनसे जुड़ें और साथ आयें, सरकार इसी से डर रही है। ये भूमिका सरकार इसीलिए तैयार कर रही है इसीलिए परजीवी आंदोलनजीवी कह रही है ताकि लोग न जुड़ें। लेबलिंग से सरकार हमारी एकता को तोड़ने की साजिश कर रही है। इसी का नतीजा है कि लोगों के खिलाफ़ झूठे आरोप लगाकर मुक़दमा दायर किया जा रहा है।

अंजली भारद्वाज ने कहा कि –“जो भारत आंदोलन से जन्मा, उसी भारत का प्रधानमंत्री आंदोलनकारियों को आज परजीवी बता रहा है।”

जदयू सासंद मनोज झा ने अगले वक्ता के तौर पर कहा – “ माननीय प्रधानमंत्री ने दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से जब आंदोलनजीवी परजीवी शब्द कहा तो मैं सदन में उपस्थित था। लोकतंत्र में आंदोलन को राज्य कैसे डील करे। हम क्या नतीजे राज्य से चाहते थे और क्या देख रहे हैं। राजस्थान के एक गांव से अगर वो आंदोलन न शुरु हुआ होता तो देश को सूचना का अधिकार क़ानून न मिलता। इलेक्टोरल डेमोक्रेसी में कुछ लोगों को ये मुगालता हो जाता है कि जनता ने उन्हें वोट देकर जिता दिया तो उन्हें ये लाइसेंस मिल गया है कि वो जो कुछ भी चाहतें हैं कर लेंगे। अगर हम इतिहास देखें तो जितना हमने संसद से हासिल किया है संसद के बाहर आंदोलनों से उठी आवाज़ों से कई महत्वपूर्ण क़ानून मिले हैं और उस तरीके का नज़रिया विकसित हुआ है। मैं तो प्रधानमंत्री को शुक्रिया कहूंगा कि उनके उस शब्द से हम लोक आंदोलन की ज़रूरत और महत्व पर आज चर्चा कर रहे हैं। देश भर में आज लोग लोकतंत्र की बात कर रहे हैं। लोकतंत्र और आंदोलन को आप हाइफनेट नहीं कर सकते हैं।”

एक व्यक्ति का आंदोलन भी महत्वपूर्ण है

नारीवादी आंदोलनकारी चयनिका शाह ने नारीवादी आंदोलनों की भूमिका को रेखांकित करते हुए कहा- “ जो नारीवादी आंदोलन है वो इतना पुराना है, वर्षों से चला आ रहा है। लेकिन यदि सावित्री बाई फुले और फातिमा शेख स्कूल नहीं चलाती तो मैं आज जहां हूँ वहां न होती। एक व्यक्ति का आंदोलन भी उतना ही महत्वपूर्ण है। एक व्यक्ति की आवाज को जोड़कर ही नारीवादी आंदोलन सामूहिक आंदोलन बनाने की कोशिश करता है। एक व्यक्ति को बनाये रखना एक व्यक्ति को महत्व देना ये महत्वपूर्ण है। जो निजी है वही राजनैतिक है (पर्सनल इज पोलिटिकल)। अभी के माहौल में ये बात तो और भी महत्वपूर्ण हो जाती है जब दूसरे देश के लोग किसान आंदोलन को सपोर्ट कर रहे हैं तो हमारे प्रधानसेवक कह रहे हैं कि बाहर के लोग हमारे अंदरूनी मामले में क्यों बोल रहे हैं। जब महिलाओं पर घरेलू हिंसा होती थी तो लोग कहते थे घर का  मामला है। लेकिन नारीवादी आंदोलन ने इस नैरेटिव को तोड़ा। अगर आज लोग पैरलल देख पा रहे हैं, प्रधानमंत्री के बयान और घरेलू हिंसा के पक्ष में तर्क देने वालों के एक साथ रखकर देख पा रहे हैं तो ये हमारी नारीवादी आंदोलन की सफलता है।        

चयनिका साह ने आगे कहा- “जितनी स्त्रियां जितने तरीके से सवाल लेकर आईं उससे हमारा नारीवादी आंदोलन और सबल होता गया। जब एक उच्चवर्गीय समाज की स्त्री किसी दलित महिला के आंदोलन से जुड़ती है तो उसके जीवनदृष्टि में बदलाव आता है। ये आंदोलन की सफलता है। एक आंदोलन दूसरे से जुड़कर मजबूत और पुख्ता होता है। प्रधानमंत्री का बयान वाहियात और आंदोलन को बदनाम करने वाला है।” 

लीडर को परजीवी बताकर आंदोलनों का सिर कलम कर रहे प्रधानमंत्री

इतिहासकार मृदुला मुखर्जी ने आखिरी वक्ता के तौर पर बोलते हुए ऐतिहासिक आंदोलनों को संदर्भित किया। उन्होंने कहा- “ इस सराकर को आंदोलनकारी नहीं साइबर वोलंटियर्स चाहिए जो बताये कि एंटीनेशनल लोग क्या कर रहे हैं। ये सब बहुत ख़तरनाक है। ये सब एक ख़तरनाक रास्ते पर ले जा रहा है। हमें बहुत सतर्क रहने की ज़रूरत है।  इन लोगों को काउंटर करना बहुत ज़रूरी है। क्योंकि ये चीज अपील भी करती हैं। आंदोलन और आंदोलनजीवी ठीक हैं लेकिन आंदोलनजीवी के ठीक बाद परजीवी शब्द का इस्तेमाल करके दोनों को एक बराबर कर दिया। लीडरशिप के बगैर कोई मूवमेंट नहीं होता। छोटे से छोटे मूवमेंट का भी एक लीडर होता है। तो लीडर को जब डिलिजेटिमाइज कर दिया पैरासाइट कहकर तो आंदोलन का सिर काट दे रहे हो। ये बहुत ख़तरनाक बात है। अब लगता है जैसे हम 90 साल पुराने समय में लौट गये हैं। ये अंग्रेजी हुकूमत से आगे बढ़कर बोलते हैं। अंग्रेजों के समय भी हमने सड़कों पर कीलें नहीं देखी। जिस तरह से अपने ही देश के लोगों के खिलाफ़ जो चुपचाप बैठे हैं उनके खिलाफ़ आप ये सब कर रहे हैं। दिल्ली की सरहद कब से होने लगी वो तो देश की राजधानी है। देश के लोगों को राजधानी में आने से रोका जा रहा है। दिल्ली की हुकूमत भारत की जनता को अपनी देश की राजधानी में जाने से रोक रही है। गड्ढे खोदकर, नुकीली कीलें गाड़कर, कँटीले तार लगाकर। ये हमारे अंदर घुसता जा रहा है और फिर हमारे शब्दकोष में घुस जाता है और फिर हमें ठीक लगने लगता है। ”

क़ानूनों की मांग और आंदोलनों के इतिहास को खंगालते हुए मृदुला मुखर्जी ने आगे कहा-“ प्रधानमंत्री ने कहा कि किसान कह रहे हैं कि हमने ये क़ानून नहीं माँगे। आप जबर्दस्ती हम पर क्यों थोप रहे हैं। वो कह रहे हैं कि प्रोग्रेसिव रिफार्म्स बिना मांग और आंदोलन के आये हैं। आप कह रहे हैं कि सती प्रथा निर्मूलन क़ानून बिना डिमांड के आ गया। ये समाज की मांग थी उस समय राजा राम राम मोहन राय उस आंदोलन के नेता थे। विधवा विवाह, बाल विवाह निषेध आदि क़ानून बिना आंदोलन और मांग के नहीं बनाये गये। इनके लिए पचासों साल मूवमेंट चलाया गया था। ये शर्मनाक है कि हमारे प्रधानमंत्री को ये सब नहीं पता है। आप प्रधानमंत्री होकर संसद में खड़े होकर बेबुनियाद बातें कैसे कह सकते हो। आप सदन में कह रहे हो कि महिलाओं को संपत्ति में हिस्सा देने का अधिकार, दहेज प्रथा उन्मूलन क़ानून, तीन तलाक़ क़ानून ये बिना मांग बिना आंदोलन के दिये गये। ये सब तथ्यहीन बातें हैं। जनतांत्रिक समाज में बदलाव का ये तरीका होता है। आंदोलन और मांग के बुनियाद पर ही ये होता है।”   

आपके दिमाग में कितनी भी अच्छा आइडिया आये लोकतंत्र में आप उसे थोपते नहीं हो

इतिहासकार मृदुला मुखर्जी ने आगे कहा- “प्रोग्रेसिव बदलाव किसी भी समाज में खासकर एक लोकतांत्रिक खांचे में एक प्रक्रिया के तहत होती है। उसके लिए जनता के बीच से एक संगठित रूप में मांग उठना जिसे हम आंदोलन कहते हैं जिसमें जनता होती है और जिसमें से नेता भी निकलते हैं जिन्हें आप आंदोलनकारी आंदोलनजीवी कह लीजिए । ये एक वैध ढांचा है लोकतांत्रिक बदलाव का। हो सकता है कोई प्रोग्रेसिव आईडिया या अच्छा सुधार सत्ता लीडरशिप लेवल से आती है। जैसे जवाहर लाल नेहरू थे उनके जैसा कोई प्रधानमंत्री आज तक हुआ ही नहीं किसी भी एस्पेक्ट को ले लीजिए आप उनका रोल बहुत अहम था। कोई प्रोग्रेसिव आइडिया या प्रपोजल लीडरशिप की तरफ से भी आता था तो सबसे पहले ये कोशिश रहती थी कि इसे जनता के बीच में ले जाकर समझाया जाये। इसके इर्द गिर्द पोपुलर ओपिनियन बनाया जाये फिर उसको पोलिसी का रूप दिया आये। ये डेमोक्रेसी में सुधार के तरीके होते। लोकतंत्र में, कितनी भी अच्छी चीज आपके दिमाग में जाये आप उसे थोपते नहीं हो। वर्ना वो ऑटोक्रेसी हो जाती है। आप उसे एनलाइटेन स्पॉटिज्म कह सकते हो या बिस्मार्क कह सकते हैं। पर वो डेमोक्रेसी नहीं होती। चाहे आइडिया कितना भी अच्छा हो, कितना भी ब्रिलियंट हो लेकिन जो डेमोक्रेसी के नार्म्स और रूल्स होते हैं जिससे आप वर्क करते हैं । ज़्यादातर प्रगतिशील बदलाव जनता के वर्षों के संघर्ष और आंदोलन के बाद ही हुए हैं। चाहे वो आज़ाद भारत या आजादी के पूर्व की भारत की बात हो। 

इतिहासकार मुखर्जी ने आगे कहा- “लोकतांत्रिक सरकार और लोकतांत्रिक ढांचे का मतलब ही यही है कि जनता और सरकार के बीच में संवाद। और असहमति संवाद का हिस्सा है। बिना असहमति के लोकतंत्र और आंदोलन नहीं होता है। लेकिन आप लोकतंत्र में असहमति का अपराधीकरण नहीं करते। असहमति का दमन नहीं करते। आंदोलन सरकार को बताता है जनता क्या सोच रही है। और अगर किसी सरकार को ये पता ही न लगे कि जनता क्या सोच रही है तो वो सरकार अगली बार वापस ही नहीं आयेगी। लेकिन ये जो गैप आ जा रहा है इसमें वो हमारे लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक है। ये सरकार किसान आंदोलन का अपराधीकरण कर रही है। 1920 के महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन को अंग्रेजों ने बोल्शेविक बताया था ताकि वो जनता को ये मेसेज दे सकें कि गांधी के आंदोलन को दबाना ज़रूरी है। 1929 में ब्रिटिश सरकार पब्लिक सेफ्टी एक्ट लेकर आई, ये कहकर कि हम फॉरेनर्स को पकड़ना चाहते हैं विदेशी कौन था उस समय, खुद ब्रिटिश। लेकिन नहीं कामगार वर्ग और किसान समाज के बीच कम्युनिस्ट बहुत मजबूत हो रहे थे। उनके बीच में कई संगठन बन गये थे। तो अंग्रेज कम्युनिस्टों को दबाना चाहते थे तो बहाना क्या बनाया कि कुछ फॉरेन कम्युनिस्ट आकर यहां के मूवमेंट को खराब कर रहे हैं। हम फॉरेनर्स को पकड़ना चाहते हैं। और वो पब्लिक सेफ्टी एक्ट लेकर आये और पूरा हिंदुस्तानी लीडर इकट्ठा होकर ब्रिटिश सरकार को घेरा कि विचारधारा और आंदोलन का विचार दुनिया में कहीं से भी आ सकता है।”     

इतिहासकार मुखर्जी ने आगे कहा- “उन्हें विदेशी पैसे (एफडीआई) से दिक्कत नहीं है, विदेशी कार्पोरेट से दिक्कत नहीं है उन्हें तो नेवता देते वो विदेश जाते हैं लेकिन विचार और आईडियोलॉजी विदेशी नहीं चाहिए। उसको वो डिस्ट्रक्टिव आईडियोलॉजी बताते हैं। आखिर किसान आंदोलन में क्या विदेशी आईडियोलॉजी आई है। फिर उन्होंने फॉरेन फंडिंग का आरोप लगाया। आखिर किसान का बेटा बाहर जाकर ट्रक चला रहा है, मजदूरी कर रहा है वहां से अपने घरवालों को पैसे भेज रहा है, और वो घरवाले आंदोलन पर हैं तो वो फॉरेन फंडिंग कैसे हो गई, फॉरेन आइडियोलॉजी कैसे हो गई।”

(जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव की रिपोर्ट।)

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