जॉन पिल्जरः समय की आवाज और पक्षधरता की इबारत दर्ज करने वाला बुद्धिजीवी

नई दिल्ली। कुछ साल पहले की बात है जब एनडीटीवी अडानी के कब्जे में नहीं था। रवीश कुमार ने अपने प्राइम टाइम में टीवी स्क्रीन को ब्लैक आउट करते हुए कमेंट्री कर रहे थे। यह एपिसोड चर्चा का विषय बन गया था। मीडिया का बहुसंख्य हिस्सा उन्हीं के शब्दों में ‘गोदी मीडिया’ में बदल गया था। देखना और सुनना एक शोर में बदल गया था। समय गुजरा और एनडीटीवी का स्क्रीन अडानी के कब्जे में आ गया। मीडिया के खत्म होने की औपचारिकता थी, जो पूरी हो गई।

इसके बाद रवीश कुमार यूट्यूब पर अपने चैनल के साथ उपस्थित हुए और वहां अपनी पत्रकारिता को जारी रखा। उनकी पत्रकारिता हमारे बौद्धिक जगत की उस सीमाबद्धता का प्रदर्शन है, जिसके आगे जाने की कोई संभावना नहीं दिखती है। इन संदर्भों में जब मैं जॉन पिल्जर, नोम चोम्स्की, राबर्ट फिस्क, नोम कल्ने जैसी परम्परा देखता हूं, तब अपने परिवेश में बनी सीमाबद्धताएं बेचैन करती हैं।

हम ऐसे ही दौर में 1960-70 के दशक के बचे हुए बुद्धिजीवियों को तब जान पा रहे हैं जब वे हमारे बीच से अलविदा कहते हुए दुनिया से रुखसत हो रहे हैं। जॉन पिल्जर का 30 दिसम्बर, 2023 को जाना एक स्तम्भ का गिर जाने जैसा है। एक बेहद निडर आवाज जिसने कभी भी पक्षधरता को नहीं छोड़ा।

1939 में ऑस्ट्रेलिया के सिडनी शहर में जन्में जॉन पिल्जर ने अपने होशोहवास की जिंदगी इंग्लैंड में जीया। संभवतः ब्रिटिश हुक्मरानों का जो दबदबा ऑस्ट्रेलिया की गोरी आबादी पर रहा, उसका असर उन पर भी पड़ा था। यहां यह बात रेखांकित करना उपयुक्त रहेगा कि ब्रिटिश हुकूमतों ने ऑस्ट्रेलिया की सेना का प्रयोग, खासकर दूसरे विश्वयुद्ध में एक ह्यूमेन शील्ड की तरह किया जिसकी वजह इसकी सेना के फौजी बड़ी संख्या में मारे गये थे।

वह खुद ऑस्ट्रेलिया के भीतर रहे और तेजी से कम हो रहे वहां के मूल निवासियों के प्रति ऑस्ट्रेलियाई सरकार के रवैये के सख्त आलोचक बने रहे। एक लंबे आंदोलन के बावजूद आज भी इन मूल निवासियों को प्रतिनिधित्व का अधिकार नहीं दिया गया है। वह साम्राज्यवाद को सिर्फ अमेरीकी या यूरोपीय नजरों से ही नहीं देखते थे, वे उत्पीड़ित राष्ट्रों के भीतर से पैदा हुए इनके सहयोगियों के माध्यम से भी देखते थे।

दक्षिण एशियाई देशों की ओर जाने के पहले उन्होंने मध्य-एशिया और फिर अमेरिका में वहां के चुनावों के संदर्भ में पत्रकारिता की। इसके बाद वह वियतनाम, कंबोडिया, बांग्लादेश में चल रहे युद्धों की रिपोर्टिंग की। कंबोडिया में पोल पोट के नेतृत्व में जनसंहारों और वियतनाम में अमेरिका के खूनी कारनामों का सामने लाकर अमेरीकी साम्राज्यवाद को नंगा कर दिया।

उस समय वह द मिरर के लिए काम कर रहे थे। 1984 में यह संस्थान बिक गया और साल गुजरने के साथ ही उन्हें वहां से निकाल दिया गया। वह इस दौरान और इसके बाद भी पत्रकारिता के नये संस्थान बनाने में जुटे रहे और पत्रकारिता में सक्रिय बने रहे। वह न्यू स्टेट्समेंट, द गार्जियन में लिखते रहे।

1970 के दशक में ही टेलीविजन का दौर शुरू हो चुका था और डाक्युमेंट्री फिल्म की महत्वपूर्ण भूमिका को पहचाना जाने लगा था। 1970 में उन्होंने वियतनाम युद्ध के समय में अमेरीकन फौज के भीतर बन रही बेचैनियों को को ‘द क्वाइट म्युटिनी’ में पेश किया। उन्होंने इस सिलसिले को बंद नहीं किया और 1974, 1978 और 1995 में एक के बाद एक वियतनाम पर डाक्यूमेंट्री फिल्म का निर्माण किया।

अमेरिका एक भयावह आर्थिक मंदी से गुजर रहा था, मध्य-एशिया का उभार शुरू हो चुका था और ब्रिटिश हुक्मरान अपनी औपनिवेशिक आक्रामक नीति से पीछे हटते हुए अफ्रीका के चंद हिस्सों तक सिमट रहे थे। ऐसे समय में, अमेरिका लैटिन अमेरिका पर कठोर नियंत्रण बनाते हुए दक्षिण एशिया में पैर पसारने के लिए बेचैन था। वह चीन के असर को उसकी सीमाओं पर ही रोक लेना चाहता था। इस काम में वह अपने ही युवाओं को युद्ध झोंक रहा था।

यही वह जमीन थी जिसके ऊपर अमेरिका में नये सिरे से प्रतिरोध की आवाजें मजबूत हो रही थीं और ब्रिटेन में लेखन से लेकर संगीत तक में नयी आवाजें उभर कर आ रही थीं। ब्रिटेन, फ्रांस से लेकर अमेरिका और लातिन अमेरिका तक में साम्राज्यवाद विरोधी, सत्ता और राज्य की निरकुंशता के खिलाफ आवाजें उठ रही थीं। जॉन पिल्जर खुद उन आवाजों में से एक थे और उन आवाजों का आगे ले जाने वाली नेतृत्वकारी भूमिका में भी थे।

जिस समय जॉन पिल्जर अपने टेलीविजन कार्यक्रम के साथ आये थे, उस समय उनके कार्यक्रम पर काफी दबाव बनाया गया। जब ब्राडकास्टिंग संस्थान ने उनके कार्यक्रम को ‘व्यक्तिगत राय’ की तरह पेश करने के लिए कहा तब इस संस्थान के रवैये को उन्होंने ‘प्रतिबंधित करने वाली नीति’ बताया था। उस समय संस्थान ने यह बहस उठाई थी कि जो मानक सर्वाधिक स्वीकृत हैं उसे ही नीति की तरह अपनाया जाये। इसे ही निष्पक्षता भी बताया जा रहा था।

जॉन पिल्जर इसे भी एक खास तरह की पक्षधरता की नजर से देख रहे थे और उन्होंने अपनी पक्षधरता को नहीं छोड़ा। वह संतुलन या व्यक्तिगत राय की बजाय जमीनी हकीकत की पत्रकारिता पर जोर देते रहे। इसी नजरिये से जब उन्होंने 1998 में नेल्सन मंडेला का साक्षात्कार लिया तब आर्थिक नस्लभेद के विभाजन को भी सामने ला दिया। निश्चित ही यह साक्षात्कार जितना गोरों के लिए असहज करने वाला था उतनी ही असहजता नई सत्ता में आ रहे काले लोगों के लिए भी पैदा किया।

यही वह पक्षधरता और जमीनी हकीकत को देखने का नजरिया था जिससे उन्होंने अमेरिका के मध्य-एशिया में हमलावर होने के समय देखा। उन्होंने इराक और अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमलों को इन्हीं नजरियों से देखा, विश्लेषण किया और उत्पीड़ित जनता का पक्ष लेते हुए अमेरिकी साम्राज्यवादी युद्ध का खुला विरोध किया।

उन्होंने संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा अमेरिका के एक झूठे दावे पर इराक पर लगाये प्रतिबंध की वजह से मारे जा रहे लाखों बच्चों पर रिपोर्ट को पेश किया। उन्होंने आतंकवाद रोकने के नाम पर युद्ध की विभीषिका ढाने वाले अमेरिकी कारनामों पर लगातार लिखा और डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण किया। इस दौरान इजरायल और अमेरीका द्वारा फिलीस्तीन को खत्म करने वाली रणनीति को उजागर किया।

जॉन पिल्जर खुद अमेरिका में लोकतंत्र पर बन रहे संकट को लेकर लिखना शुरू किया। वह अमेरिका और चीन के बीच पनप रहे तनाव को काफी गंभीरता से देख रहे थे। वह राज्यों द्वारा जनता के करों को जनता के हितों में खर्च न करने और स्वास्थ्य जैसी आम जरूरतों को पूरा करने से पीछे हटने को लेकर बेहद चिंतित थे। वह इस संदर्भ में लगातार लिख रहे थे।

जॉन पिल्जर की वैचारिकी जनपक्षरता की थी। ‘द मिरर’ में नये मालिक के आ जाने के बाद वह वहां बमुश्किल सालभर काम किया। इस दौरान वह नये संस्थान को बनाने में लगे रहे। उस समय उनके अपने ही मित्रों के साथ वैचारिक मतभेद बने। इस मसले पर वह वैचारिक की बजाय जनपक्षरता का रास्ता चुना और उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद का विरोध और जनपक्षरता को बनाये रखने का निर्णय लिया और वह इसी रास्ते पर लगातार सक्रिय रहे।

1970 के दशक में अमेरिका और यूरोप में बड़ी संख्या में बुद्धिजीवियों ने यही रास्ता लिया। हालांकि, उसी दौर में लातिन अमेरिका, यूरोप और अमेरिका में भी मार्क्सवाद का पक्ष लेकर लेखन और पत्रकारिता करने वाले लोग भी आगे आये। जॉन पिल्जर ने अमेरिकी साम्राज्यवाद और राज्य को जनता के संदर्भ में देखा और विश्लेषित किया। यही कारण था, जिससे उनकी आलोचना जनता की पक्षधरता के साथ धारदार होती गई।

(अंजनी कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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