पीएम मोदी के जन्मदिन पर विश्वकर्मा योजना और ‘यशोभूमि’ की जुगलबंदी के पीछे की वजह

नई दिल्ली। 17 सितंबर 2023 को विश्वकर्मा दिवस और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन का अद्भुत संयोग पिछले 5 वर्षों से दिल्ली के द्वारका में निर्माणाधीन कन्वेंशन सेंटर एवं एक्सपो के उद्घाटन का गवाह बना, इसे इस संयोग से बेहद समझदारी से जोड़ा गया कहा जा सकता है।

पीएम मोदी की एक विशेषता देश पिछले 9 वर्षों से देख रहा है। हालांकि इस मामले में गुजरात-वासियों का अनुभव शेष भारत से भी 12 वर्ष अधिक है। 2014 लोकसभा से पहले देश ने देखा कि किस प्रकार गुजरात में साबरमती रिवर फ्रंट के किनारों पर हरी-हरी घास, स्वच्छ जल और साफ-सफाई है, जो एक कुशल प्रशासक के बलबूते शेष भारत में भी संभव बनाया जा सकता है। स्वच्छ गंगा अभियान को दशकों बीत गये थे, लेकिन हजारों करोड़ रुपये स्वाहा करने के बाद भी गंगा लगातार और ज्यादा प्रदूषित होती जा रही थी।

भाजपा ने यह चुनाव सिर्फ 2 करोड़ रोजगार के वादे, किसानों की आय दोगुनी करने, वन रैंक वन पेंशन और हर खाते में लाखों रुपये लाने के वादे से ही नहीं जीता था, बल्कि इसमें गंगा, यमुना सहित देश की तमाम नदियों में आस्था रखने वाले और उन्हें एक बार फिर से स्वच्छ, निर्मल देखने की चाह रखने वाले करोड़ों-करोड़ भारतीयों की भी गुजरात के चमत्कार को दोहराने की आशा संजोये हुए थे। इसके अलावा, गुजरात की सड़कों का बखान और विदेशी निवेशकों के अनुकूल औद्योगिक नीति के साथ मोदी के विजन की बड़े पैमाने पर चर्चा ने पीएम मनमोहन सिंह की तेज आर्थिक विकास लेकिन उसके औसत प्रजेंटेशन ने भारतीय शहरी मध्य वर्ग को अच्छे दिन के साथ बेहतर प्रेजेंटर की चाह ने भर दिया था।

प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल में निश्चित रूप से कुछ यादगार चीजें प्रदान की हैं, जिनमें विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा सरदार पटेल की स्टेचू ऑफ़ यूनिटी, नया पार्लियामेंट, विभिन्न रोड प्रोजेक्ट्स, वन्दे भारत एक्सप्रेस ट्रेन, प्रगति मैदान का नए सिरे से कायाकल्प, केदारनाथ, उज्जैन महाकाल, बनारस में काशी विश्वनाथ कारीडोर और अब द्वारका में स्थापित कन्वेंशन कम एक्सपो सेंटर जुड़ गया है।

इसके अलावा 2024 आम चुनावों से पहले अयोध्या में राम मंदिर और उत्तराखंड में बद्रीनाथ धाम जैसी वे परियोजनाएं पूरी होनी बाकी हैं, जिनके माध्यम से बहुसंख्यक वर्ग की धार्मिक आस्था को अतिरिक्त उछाल देकर, उसकी रोजमर्रा की जरूरतों से उसका ध्यान हटाना आसान बन जाता है। इसके अलावा अभी भी मोदी जी के ऐसे कई ड्रीम प्रोजेक्ट्स बाकी हैं, जिन्हें कई वजहों से पूरा नहीं किया जा सका है या उनकी डिटेलिंग अभी भी जारी है।

इनमें अरब सागर में छत्रपति शिवाजी की मूर्ति, मुंबई-अहमदाबाद बुलेट ट्रेन जैसी महत्वाकांक्षी परियोजनाएं शामिल हैं। नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में कई अन्य परियोजनाओं का भी उद्घाटन उनके कर-कमलों द्वारा संपन्न हुआ है, लेकिन उन पर काम यूपीए शासनकाल में शुरू हो गया था, और इसके लिए बजट भी आवंटित कर दिया गया था, लेकिन पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री के पास अपने कार्यों को लार्जर देन लाइफ दिखा पाने का हुनर नहीं था, जो किसी भी चुनावी लोकतंत्र में बेहद महत्वपूर्ण पहलू होता है।

नेहरू के बाद मोदी याद किये जायेंगे

इसमें मैं बाकी के प्रधानमंत्रियों की भूमिका को नजरअंदाज नहीं कर रहा हूं, क्योंकि सभी की भारत के निर्माण में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लालबहादुर शास्त्री द्वारा देश में ‘श्वेत क्रांति’ और ‘हरित क्रांति’ की आधारशिला रखी गई, जिसका नतीजा है कि आज हम डेरी उत्पाद एवं खाद्यान के मामले में आत्मनिर्भर देश हैं। इसी तरह इंदिरा गांधी द्वारा बैंकों के राष्ट्रीयकरण, प्रिवी पर्स के खात्मे, बांग्लादेश निर्माण, कलर टेलीविजन सहित मारुती उद्योग की पहल कर देश को ऑटोमोबाइल उद्योग में वैश्विक मानचित्र में लाने की अहम भूमिका रही है।

राजीव गांधी द्वारा कम्प्यूटर क्रांति और अटल बिहारी वाजपेई सरकार के राष्ट्रीय राजमार्गों के निर्माण की पहल ने भी देश की सूरत बदली है। लेकिन आजादी के तत्काल बाद यह नेहरू थे, जिनके कुशल नेतृत्व में देश में बड़े-बड़े बांधों, नहरों, स्टील, सीमेंट और बिजली के कल-कारखाने स्थापित किये गये, जिन्हें नेहरू ‘भारत के आधुनिक मंदिर’ कहकर पुकारते थे।

आज उन्हीं आधुनिक मंदिरों को उन नए पूंजीपतियों के हाथों ओने-पौने दामों में बेचा जा रहा है, जो आजादी के बाद से इसी व्यवस्था में राज्य-संरक्षण की छांव तले फले-फूले और अब देश को ही समूचा निगल जाने के लिए कमर कसे हुए हैं। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में ऐसा जान पड़ता है कि देश दो विपरीत दिशा में एक साथ जा रहा है। एक तरफ धर्म की पताका और हजारों वर्ष पूर्व देश सोने की चिड़िया हुआ करती थी, नदियों में जल की जगह दूध की नदियां बहा करती थीं।

विज्ञान की बात करें तो पुष्पक विमान और मनुष्य की गर्दन पर किसी अन्य जानवर का सिर लगाकर ऑपरेट करना संभव था, जैसी मान्यताओं को बल देते हुए आमजन को उसके प्रतीक के तौर पर भव्य मंदिरों, रिवर फ्रंट और गंगा आरती के लिए तैयार किया जा रहा है, जिसमें उन्हें भले ही उनकी भौतिक जरूरतों की पूर्ति न हो लेकिन उन्हें इस बात की आध्यात्मिक तृप्ति का अहसास कराया जा सके कि वे एक बार फिर से उसी आर्यावर्त भूमि के अहसास को अपने भीतर महसूस कर सकें, जैसा जनश्रुतियों और प्राचीन ग्रंथों का हवाला देकर तृप्त हुआ जा सकता है।

दूसरी तरफ एक्सप्रेस-वे को रनवे की तर्ज पर बनाने के लिए हर वर्ष बजट के भारी-भरकम हिस्से को खर्च किया जा रहा है, जो देश में करोड़ों लोगों को निजी वाहन के सुख का अहसास दिलाती हैं। 85% ईंधन की जरूरत देश आयात से पूरी करता है, तो करता रहे। लेकिन इसके बल पर देश में ऑटोमोबाइल दिग्गजों और ओईम श्रृंखला आज एक महत्वपूर्ण रोजगार का क्षेत्र बन गया है। कृषि, रियल एस्टेट और टेक्सटाइल उद्योग के बाद ऑटो और आईटी सेक्टर ही रोजगार का सबसे बड़ा साधन बन चुके हैं। इनमें ऑटो और आईटी क्षेत्र पर ही सरकार का जोर है, क्योंकि ऑटो सेक्टर के विकास से भारी राजस्व केंद्र को एक्साइज ड्यूटी से प्राप्त होता है, और आईटी सेक्टर में रोजगार और आवश्यक विदेशी मुद्रा हासिल होती है।

नेहरू को देश में जर्जर और औपनिवेशिक शासन के जुए से मुक्ति के बाद आधुनिक राष्ट्र बनाने की चुनौती के लिए याद किया जाता है, तो पीएम मोदी को देश में हिंदूओं के प्रतीक धामों, मंदिरों का निर्माण कर किसी हिंदू शासक के रूप में खुद को इतिहास में दर्ज कराने की सनक के लिए याद किया जायेगा, जब बड़ी संख्या में देश के नागरिकों को आधुनिक शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं एवं रोजी-रोटी की जरूरत 1947 के बाद सबसे अधिक सता रही थी।

लेकिन इस व्यक्तित्व का दूसरा पहलू भी है, जिसमें आधुनिकतम कन्वेंशन सेंटर, चुनिंदा ट्रेन सेवा और चमचमाते एअरपोर्ट के माध्यम से विदेशी निवेशकों को लक्ष्य कर अंधाधुंध सरकारी खर्च को बढ़ाकर जीडीपी की तुलना में कर्ज की सीमा को असामान्य स्तर पर बढ़ा दिया गया है। आज स्थिति यह है कि देश में आधुनिकतम आई-फोन और इलेक्ट्रोनिक गैजेट की असेंबली को ही मेक इन इंडिया नाम देकर हेडलाइंस बनाने का काम किया जा रहा है, यहां तक कि इस मामूली काम के लिए भी चीन को स्किल्ड वर्कर अपने देश से मंगाने की छूट दी जा चुकी है, जबकि देश में करोड़ों शिक्षित बेरोजगारों की भरमार है।

पीएम विश्वकर्मा सम्मान योजना में क्या है?

लेकिन आज हम 15 अगस्त 2023 के दिन पीएम मोदी की लाल किले से की गई उस महत्वपूर्ण घोषणा की तह में जाने का प्रयास करेंगे, जिसे उन्होंने ठीक एक माह बाद अपने जन्मदिन के अवसर पर अपने महत्वाकांक्षी परियोजनाओं में से एक के एक हिस्से के पूरा हो जाने के अवसर पर देश को समर्पित किया है।

पीएम विश्वकर्मा कौशल सम्मान योजना के तहत 13,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। ये 13,000 करोड़ रुपये अगले 5 वर्षों के लिए निर्धारित किये गये हैं, जिसमें 3 लाख पारंपरिक श्रमिकों को लाभ पहुंचेगा। इसका अर्थ हुआ कि औसतन हर वर्ष के लिए 2,600 करोड़ रुपये का बजट रखा गया है। इसमें उन्हें 1 लाख रुपये का कर्ज 5% सालाना ब्याज की दर से प्रदान किया जायेगा। यह भी कहा जा रहा है कि अगले चरण में 2.0 लाख रुपये का कर्ज दिया जायेगा।

इस योजना के तहत 18 पारंपरिक व्यवसायों को शामिल किया गया है। इसमें चयनित स्वरोजगार से जुड़े लोगों को सरकार की ओर से ट्रेनिंग दिए जाने का प्रावधान है, जिसके लिए हर एक को आधुनिकतम टूल्स की खरीद के लिए 15,000 रुपये की सहयोग राशि दी जायेगी। उनके उत्पाद की ऑनलाइन मार्केट एक्सेस, ब्रांडिंग और उत्पादों के विदेशों में निर्यात में मदद पहुंचाई जायेगी। जिन 18 व्यवसायों को विश्वकर्मा में शामिल किया गया है, वे हैं:

कारपेंटर (बढ़ई), नाव बनाने वाले, अस्त्र बनाने वाले, लोहार, ताला मरम्मत करने वाले, हथौड़ा, सुनार, कुम्हार, मूर्तिकार, मोची, राज मिस्त्री, टोकरी, चटाई और झाड़ू बनाने वाले, नाई, दरजी, मालाकार, धोबी, मछली का जाल बुनने वाले और पारंपरिक गुड़िया एवं खिलौने बनाने वाले।

पहली नजर में ही विश्वकर्मा योजना में खामियां

जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि 30 लाख लोगों के लिए वित्त वर्ष 2023-24 से लेकर 2027-28 तक के लिए 13,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है, तो इसका अर्थ है मात्र 2,600 करोड़ रुपये ही सालाना ऋण वितरण होगा। लेकिन उससे भी अधिक हैरान करने वाला तथ्य यह है कि यदि 13,000 करोड़ रुपये को 30 लाख लोगों में बांटें तो प्रत्येक के हिस्से में 1 लाख रुपये की जगह मात्र 43,000 रुपये की ही रकम आती है। फिर 2.0 लाख रुपये प्रति व्यक्ति को कहां से देंगे जब 1.0 लाख रुपये भी नहीं जुट रहे हैं?

क्या सरकार से जुड़े इतने अनुभवी लोगों और वित्तीय मामलों के जानकार लोगों के लिए साधारण गुणा-भाग करना भी इतना कठिन हो चला है? ऐसा बिल्कुल संभव नहीं है। बल्कि इस बारे में यही अनुमान लगाया जा सकता है कि 30 लाख की जगह असल में 10 लाख लोगों को ही इस योजना के तहत कवर किया जाना है, लेकिन हेडलाइंस मैनेजमेंट के लिए आंकड़े को बढ़ा-चढ़ाकर दर्शाया जा रहा है। 30 लाख लोगों को 1 लाख की राशि बांटने के लिए 13 हजार करोड़ रुपये नहीं 30 हजार करोड़ रुपये की दरकार है।

दूसरा, अगर सिर्फ उत्तर प्रदेश राज्य के ही गांवों और कस्बों के पारंपरिक उद्योग-धंधों पर निगाह डालें तो हम पाएंगे कि पीएम मोदी के स्वयं के संसदीय क्षेत्र में दसियों लाख लोगों का पारंपरिक व्यवसाय हैंडलूम रहा है और कुछ इलाकों में गलीचा, कॉर्पेट और बनारसी साड़ी से बनारस की सदियों से पहचान रही है। यूपीए शासनकाल में भी इन लाखों-लाख लोगों की वाजिब मांगों की अनदेखी हुई, लेकिन कुछ मांगों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार होता था।

इन बुनकरों की सुध आजादी के बाद से ली जाती थी, लेकिन मोदी राज में आज वे पूरी तरह से नेपथ्य में डाल दिए गये हैं। ये वे व्यवसाय हैं, जो दुनियाभर में किसी पहचान के मुहताज नहीं हैं। इन्हें बनारस के बुनकरों द्वारा निर्मित किया गया है, इतनी मार्केटिंग ही काफी है। इन लाखों लोगों को इस सूची में शामिल क्यों नहीं किया गया है, यह विचारणीय प्रश्न है।

इसी प्रकार लखनऊ की चिकन कढ़ाई हो, या फिरोजाबाद का चूड़ी और कांच उद्योग, कानपुर का चमड़ा और आगरा के जूते, मुरादाबाद का पीतल और तांबे से बने बर्तन और सजावटी सामान या सहारनपुर की काष्ठ कला हो, इन सभी को राजकीय सहयोग की सख्त जरूरत है। सिर्फ इन्हीं उद्योगों को आर्थिक मदद की जाये तो कुछ नहीं तो 1 करोड़ से अधिक परिवार खुशहाल हो सकते हैं। इस बात को समझने के लिए यूपी की ख़ाक छानने की जरूरत हर्गिज नहीं है, राज्य सरकार के पास इसके आंकड़े पहले से मौजूद होंगे।

लेकिन इसके बावजूद कहा जा सकता है कि अपने 9 वर्षों के कार्यकाल में पीएम मोदी पहली बार ब्लिंक किये हैं। सिर पर 2024 के लोकसभा चुनाव की तलवार लटकी हुई है, विपक्षी दलों की ऐतिहासिक एकजुटता इंडिया गठबंधन के रूप में उत्तरोत्तर मजबूत होती जा रही है। 2014 के बाद पीएम मोदी की योजानाओं में स्किल इंडिया, स्टैंड अप इंडिया, मुद्रा ऋण जैसी तमाम योजनायें एक के बाद एक फुस्स साबित हुई हैं।

आखिरकार मोदी जी को यह बात तो समझ आई है कि न तो वे विदेशी निवेशकों के लिए हुनरमंद (स्किल वर्कर) ही तैयार कर पा रहे हैं और न ही नई पीढ़ी के शिक्षित युवाओं के लिए देश में व्यापक स्तर पर रोजगार ही मौजूद है। देश में खपत बढ़ाने के लिए बहुसंख्यक आबादी के हाथ में पैसे होने चाहिए, तभी पूंजीपति भी उद्योग धंधे लगाने की सोच सकते हैं।

यही वजह है कि देश के धन्नासेठों को कॉर्पोरेट टैक्स में भारी छूट देकर भी कोई फायदा नहीं हुआ, और केंद्र सरकार के हाथ में कुछ नहीं आया। इधर हाल के वर्षों में पीएलआई (प्रोडक्शन लिंक इंसेंटिव) स्कीम से भी सिर्फ बड़ी पूंजी को ही लाभ हासिल हो रहा है और उनमें से कुछ लोग देश में पूंजी निवेश के बजाय ब्रिटेन और अमेरिका जैसे विकसित देशों में पूंजी निवेश कर रहे हैं।

ऐसे में आखिर में बेहद मामूली 2,600 करोड़ रूपये से विश्वकर्मा योजना की शुरुआत एक बेहतर पहल कही जा सकती है। लेकिन 45 लाख करोड़ रूपये के सालाना बजट में से इतनी रकम से कुछ ठोस बदलाव की उम्मीद करना दिन में तारे देखने के समान है। लेकिन संभवतः यह स्कीम भी जमीन पर कम और विज्ञापनों के काम आये तो पिछले ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए देश को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments