रोहित वेमुला के नाम जेएनयू के पूर्व अध्यक्ष संदीप सिंह का पत्र

(यह चिट्ठी जेएनयू के पूर्व अध्यक्ष, प्रियंका गांधी के निजी सचिव संदीप सिंह ने रोहित वेमुला की शहादत पर लिखा था। जनवरी 2016 में लिखा गया यह पत्र आज भी उतना ही प्रासंगिक है।)

प्रिय रोहित,   

यह पत्र मैं देर से लिख रहा हूं। सितारों की यात्रा पर तुम काफी आगे निकल चुके होगे। कहते हैं आवाजें मरा नहीं करती बल्कि दिग-दिगंत में विलीन हो जाती हैं। यह ख़त मैं खुले आसमान के नीचे एकांत में पढूंगा। ताकि मेरी आवाज उस अनंत में भी पहुंचे जहां संभवतः एक दिन तुम दोनों एक-दूसरे को पा लो। तुम कुछ कहना। मुझे भी सुनना।

मुझे गले लगाना मेरे अदेखे भाई।

वहां उस अनंत अन्तरिक्ष में दूरियां विलीन हो जाती हैं, तारे बनते, बिगड़ते और नष्ट होते हैं, विशाल आकाशगंगाओं में बहुरंगी यथार्थ दिक्-काल में अवतरित और तिरोहित होता रहता है, जहां अस्मिताएं अस्थिर हैं और संभावनाएं असीम, जहां जीवन और मृत्यु एक ही पल में घटित होते हैं, जहां सब कुछ गतिमान है, जहां बनती हैं रश्मिधूल। जिससे बने तुम और हम।

इस धरती पर हम एक दूसरे से कभी नहीं मिले। हालांकि ऐसा कई बार हुआ कि एक दूसरे से बिलकुल अनजान, हज़ारों मील दूर अपने-अपने मोर्चों पर हमने एक जैसे नारे लगाये, एक जैसे भाव में हमारी मुट्ठियां तनी और मुंह में वही कसैला स्वाद आया। किसिम-किसिम की छटपटाहटों से लथपथ हमारी यादें और सपने, क्या पता एक जैसी अनिद्रा भरी रातों को, हमारी नीमबेहोशी का दरवाजा खटखटाते हों।

उन सपनों में एक सिलाई मशीन अनवरत चला करती है और एक रहस्यमयी फ्रिज के चुर्र-चुर्र करते दरवाजे के पीछे तरह-तरह की ‘राहतें’ खुद को ठंडक पहुंचा रही होती हैं। बार-बार गायब कर दिए लोग फिर से बस रहे होते हैं। जहां यारों की मोटरसायकिलों से प्यार किया जाता है।

बुढ़ापे और सनक की सरहदों पर वहां एक आदमी खुद से लड़ता हुआ दुनिया को सैल्यूट लगा रहा होता है और वाया-वाया उम्मीदों में एक औरत जमाने भर के लिए कपड़े सीती जी रही होती है। जहां समय और दर्जा दोनों वक़्त से जरा पीछे उड़ती, कट चुकी पतंगों को लूट अपने-अपने घर ले जाना चाहते हैं जिन्हें वे खुशियां कहते हैं। 

फेसबुक की आभासी दुनिया में हमारे बारह साझे दोस्त थे। जिन्हें हम थोडा ज्यादा या कम जानते थे। कल रात अचानक मुझे अहसास हुआ कि यह संख्या अब कभी नहीं बढ़ेगी। की-बोर्ड की ठक-ठक के पीछे अब नयी दोस्ती-कबूल उंगुलियां न होंगी। उस आभाषी दुनिया में अब हमारे और तुम्हारे बीच सिर्फ वे बारह लोग रहेंगे।

तुम तो नए समाज के लिए लड़ना चाहते थे न! जहां आदमी सिर्फ वोट न हो। न एक नंबर। जहां व्यक्ति की पहचान उसका धड़कता हुआ दिल और सुन्दर मस्तिष्क हो। जहां ज्ञान मुक्त करे। जहां शक्ति पर न्याय का शासन हो। जहां बराबरी मजाक न हो और न हिंसा रोजनामचा।

मैंने सरकारी जबान में लिखी वे ऊष्माहीन चिट्ठियां पढ़ीं जिनका जन्म ही हत्या के लिए होता है। ये चिट्ठियां इतनी निर्जीव मालूम होती हैं कि उन पर तरस आ सकता है। पर उन लिफाफों से खून टपकता है और उन्हें पहुंचाने वाली ऑप्टिकल फाइबर की तरंगों में साजिशें परवान चढ़ती हैं। कैसा इत्तेफाक है कि तुम्हारे ‘जुल्म’ को दर्ज करने वाले पुलिस थाने का नाम भी साइबराबाद है।

मैं उन चिट्ठियों को लिखने वाली उंगुलियों के बारे में सोचता हूं। क्या ये पहले से कंपोज़ की जा चुकी होती हैं जिनमें समयानुकूल जोड़-घटाव होता रहता है। इनका master-text कौन लिखता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि एक श्रीमंत दूसरे को, दूसरा श्रीमंत तीसरे को, तीसरा चौथे को अपने श्रीमुख से डिक्टेशन देता जाता है और अदृश्य धागों से फांसी का फंदा तैयार होता रहता है। ‘Enable the ministry’, ‘enable the ministry’ की चीत्कार करती वे चिट्ठियां अब तक कितनों को मार चुकी हैं? 

ब्रह्मा, विष्णु, महेश से बने दत्तात्रेय, सूर्यपुत्र दिवाकर, दत्तात्रेय दिवाकर, पाण्डेय, पाण्डेय, घिल्डियाल, घिल्डियाल, सिंह साहब, सिंह साहब, वहीँ पुरानी कहानी जुबिन इरानी, जुबिन इरानी, इन सबके चाकर अप्पा राव। ये रही शक्ति और जाति के पावक में 11वीं आहुति। स्वाहा, स्वाहा, स्वाहा!

हर मौत बताती है कि हम कितने अकेले हैं। पर उन बचपनों का क्या करें जो अकेलेपन और अभावों  की दहलीजों पर पलते हैं जिनका भविष्य पुरखों के भूत और वर्तमान की भेंट चढ़ता रहता है और पूत के पांव बताने के लिए पालना नहीं बल्कि रस्सी से बंधी एक चादर होती है जिससे पैर निकालने की गुंजाइश नहीं होती।

वह कौन सा विधान है जो जन्म को एक दुर्घटना में बदल देता है और हमें अन्दर से खोखला करता रहता है। हमारी पीठ पर यह भारी सा क्या लाद दिया गया है जो हममें कोई सुन्दरता नहीं देखता।

जिस भाषा में तुम पैदा हुए मैं वह भाषा नहीं जानता। मेरा गांव, भाषा और बचपन तुमको एक-सा नामालूम है। एक ‘लादी’ हुई भाषा में हमें सिखाया। इन्हीं भाषाओँ में अंगूठे काटे जाते रहे हैं और मौत के फैसले सुनाये जाते रहे हैं। ये लादी हुई भाषाएं हमारी दुश्मन हैं भले किसी को दोस्त लगें। हमें अपनी भाषाओँ को फिर से पाना है, जिन्दा करना है। रोटी हो या कविता अपनी भाषा में हो।

हम अपने छोटे-छोटे इतिहासों और लड़ाइयों से होते हुए यहाँ पहुंचते हैं जिसे विश्वविद्यालय कहा जाता है। अचानक हमें एक लम्हा आराम मिल जाता है। यहां हमें बौराई, बेपरवाह और उल्टी दुनिया को सीधा करने वाली आवाजें मिलने लगती हैं। हाथ मिलने लगते हैं, साथ मिलने लगते हैं। हमें प्यार हो जाता है अपनी लड़ाई से। खुद से। वर्ना कई बार अजन्मा हो जाने की चाहना हुई है।

कई बार लगा है कोई हमारा नाम नहीं पुकारेगा और हम उन अभिशप्त घुमक्कड़ों की तरह हैं जिन्हें पल भर को चैन नहीं मिलेगा। फिर जब ये जगह भी हमसे छीन ली जाती है और दूसरा मौका तक नहीं दिया जाता! वहां एक अदृश्य व्यक्ति आध्यात्मिक निर्वैयक्तिकता से कहता है ‘कागजी देरी बस, no ill-will, no ill-will’ तो सिर पटक देने का जी चाहता है।

ये दीवारें, दृश्य-अदृश्य तो जगह-जगह हैं। अब भी अनगिनत पैरों को रास्ता नहीं दिया जाता और कितने अभागों को मरने के बाद भी नहीं मिलती दो गज जमीन। इसमें से अधिकाँश लोग वो हैं जो बस थोडा सी और बेहतरी चाहते हैं। उनके पास बेपनाह इच्छाएं नहीं हैं। पर श्रीमंत अब भी तैयार नहीं हैं। मैं जानता हूँ कि राजनीतिक जुमलेबाजी का काला-सफ़ेद, हकीकत में आते ही बहुरंगी हो जाता है और सत्ता अपनों को पराया कर देती है।

हम दुनिया को समझने में हर बार गलत नहीं होते भाई। बस हम ‘सचमुच का चाहते हैं सब कुछ’। ‘प्यार, पीड़ा, जीवन हो या मृत्यु’। ये उलटे तर्क पर चल रही दुनिया है। कुतर्क ही इसका तर्क और हन्ता है इसकी आस्था। यहां कोई ‘पेट हाज़िर कर अपने हिस्से की कटार’ मांगे या ‘नंगे बुनकरों के लिए कपड़े’, ‘अन्न उपजाने वालों के लिए रोटी’ या तुम्हारी तरह न्याय, बराबरी और सम्मान की पुकार। श्रीमंतों ने सबके लिए रख रखी हैं गोलियां, आत्महत्या की रस्सी और हत्यारा तिरस्कार।

मुझे बार-बार लगता है शायद कुछ दिनों में हम मिलते। शायद मैं किसी काम से हैदराबाद जाता। शायद तुम ही दिल्ली आते। किसी मोर्चें में, मित्रता में या सितारों को और समझने के लिए। विज्ञान लेखक तुम बनते ही। पर जरूर बनते कवि। ऐसी उदात्तता विरल है। शुरुआती मुलाकातें शायद थोडा औपचारिक होती पर इस धरती पर हम गहरे दोस्त बनते।

ये व्यवस्था चोर है। इसने अब तक तुम्हारे पैसे दबा कर रखे हैं। जिसे यह कागजी देरी कहती है वह एक ‘return mail’ भर होता है। पर तुमने चाहा कि तुम्हारे दोस्तों और दुश्मनों को परेशान न किया जाय। ओ, सत्ता की जूठन खाकर किलबिल करते चूहों, शर्म करो, कहां पाओगे ऐसा नाहर दुश्मन!

कुछ रोज पहले एक ‘तगड़ा कवि’ मरा जिसका नाम रामशंकर यादव ‘विद्रोही’ था। वह भारत-भाग्य विधाता सहित सारे बड़ो-बड़ों को मारकर मरना चाहता था। वह चाहता था कि नदी किनारे धू-धूकर जले उसकी चिता। और तुम चाहते हो एक शांत और सरल विदाई। जैसे कोई चुपचाप आये फिर वैसे ही चला जाए।

वह कौन सा दुःख है मेरे भाई जो जवान पीठों पर इतना बोझ लाद देता है कि वे हज़ार सालों तक खामोश हो जाना चाहते हैं। सभ्यता से भी बड़ी उदासी। कहाँ लेकर जाएं यह उदास आत्मा, बेगानापन और दुलार के लिए तरसता मन।

हत्या दर हत्या हो रही है। गरीब मुसहर टोलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक। वे सिर्फ तीन शब्द जानते हैं तिरस्कार, बहिष्कार और निष्कासन। वे मौत को जीवन से बेहतर बना देते हैं।

क्या करें जब विश्वविद्यालय सजा के नाम पर पुराने विधान की आवृत्ति करता है। सामाजिक रूप से बहिष्कृत! मन बहुत बेचैन है। कहां जाऊं। मुक्तिबोध ने कहा था ‘कहां जाऊं दिल्ली या उज्जैन’। पर यहां तो हर जगह नरमेध है, मद्रास है, मदुरै है, भोजपुर है, बाथे है, बथानी है, हरियाणा है रुढ़की है दिल्ली है।

वे हत्या के फन के उस्ताद हैं जहां धर्मतः काट लिया जाता है शम्बूकों का सर, एकलव्यों का अंगूठा। पता ही नहीं चलता कब ‘cut-off’ बन जाता है ‘cut them off’ और ‘योग्यता’ दरअसल अयोग्य ठहराने की विधि का दूसरा नाम है।

एडमिशनों से लेकर साक्षात्कारों तक यही चक्र चलता रहता है जहां अब भी ‘Open Category’ अभेद्य है वहां आपके पहुंचने पर अछूतों सा बर्ताव किया जाता है। वही सब कुछ तय करते हैं। ऐसा पढ़ो तो वैसा आगे बढ़ो। और अगर आप मान भी लें उनकी हर बात और उनके नियम कि ठीक है हमें भी खेल के मैदान में घुसने दो। तो वहां भी चलते हैं उन्हीं के नियम और नियमों के भी नियम। यह उन्हीं की दुरभिसंधी है।       

वेदना और वीतराग से भरी अपनी आखिरी चिठ्ठी में तुमने उन हत्यारों को माफ़ कर दिया जो कभी अपने अपराध के लिए माफी तक नहीं मांगेंगे। उन्हें क्या मालूम क्या खो दिया हमने। हम न तुम्हें भूलेंगे न तुम्हारे हत्यारों को। कवि विद्रोही के शब्दों में, ‘हम दुनिया भर के ग़ुलामों को इकठ्ठा करेंगे और एक दिन रोम लौटेंगे जरूर’।

अलविदा  

संदीप

19 January 2016

(संदीप सिंह जेेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं, कांग्रेस पार्टी से जु़ड़े हुए हैं।)

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