टनल से बाहर आए मजदूर ने कहा-जिंदा रहने के लिए चट्टानों से टपकता पानी चाटा और मुरमुरे खाए

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नई दिल्ली। जिंदगी बचाने के लिए कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है ये उत्तरकाशी के सिल्क्यारा बेंड-बारकोट टनल से बाहर निकले मजदूरों से बेहतर कौन जान सकता है। पल-पल मौत को करीब से महसूस कर रहे उन मजदूरों को मंगलवार 28 नवंबर को सकुशल बाहर निकाल लिया गया। उन्हें चिन्यालीसौड़ के एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में भर्ती कराया गया। और उसके बाद अब हेलिकॉप्टर से ले जाकर ऋषिकेश स्थित एम्स में भर्ती कराया गया है। 17 दिनों के बाद टनल से बाहर आए 41 मजदूरों में से एक, अनिल बेदिया का कहना है कि जान बचाने के लिए उन्होंने, ‘मुरी’ (मुरमुरे) खाया और चट्टानों से टपकता पानी चाटा।

12 नवंबर की सुबह उत्तराखंड में ब्रह्मखाल-यमुनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर सिल्क्यारा सुरंग का एक हिस्सा ढह जाने के बाद झारखंड के रहने वाले 22 वर्षीय श्रमिक की मौत हो गई।

बेदिया ने 29 नवंबर की सुबह उत्तराखंड से फोन पर पीटीआई-भाषा को बताया, ”तेज चीखों से हवा गूंज गई। हम सभी ने सोचा कि हम सुरंग के अंदर दफन हो जाएंगे और पहले कुछ दिनों में हमने सारी उम्मीद खो दी थी।”

बेदिया इस समय उत्तराखंड के एक अस्पताल में भर्ती हैं। उन्होंने कहा, “यह एक बुरे सपने जैसा था। हमने अपनी प्यास बुझाने के लिए चट्टानों से टपकते पानी को चाटा और पहले 10 दिनों तक मुरी पर जिंदा रहे।”

बेदिया रांची के बाहरी इलाके खिराबेड़ा गांव के रहने वाले हैं, जहां से कुल 13 लोग हरे-भरे चारागाहों की तलाश में 1 नवंबर को उत्तरकाशी गए थे। उन्हें नहीं पता था कि किस्मत ने उनके लिए क्या लिखा है। सौभाग्य से, जब आपदा आई तो खिराबेड़ा के 13 लोगों में से केवल तीन ही सुरंग के अंदर थे। 41 मजदूरों में से पंद्रह झारखंड के रांची, गिरिडीह, खूंटी और पश्चिमी सिंहभूम के रहने वाले हैं। 28 नवंबर की शाम को फंसे हुए मजदूरों को बचाए जाने के बाद वे सभी खुशी से झूम उठे।

बेदिया ने बताया कि, “हमारे जिंदा रहने की पहली उम्मीद तब जगी जब अधिकारियों ने लगभग 70 घंटों के बाद हमसे संपर्क किया।”

उनके अनुसार, उनके दो पर्यवेक्षकों ने उन्हें चट्टानों से टपकता पानी पीने के लिए कहा। उन्होंने बताया कि “हमारे पास सुरंग के अंदर खुद को दिलासा देने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं था। आखिरकार, जब हमने बाहर से हमारे साथ बातचीत करने वाले लोगों की आवाज़ें सुनीं, तो विश्वास और जिंदा रहने की उम्मीद ने हमारी हताशा को बदल दिया।”

उन्होंने कहा, पहले 10 दिनों की भयानक चिंता के बाद, उन लोगों को पानी की बोतलों के साथ-साथ केले, सेब और संतरे जैसे फलों के अलावा चावल, दाल और चपाती रोज मिलने लगी।

उन्होंने कहा कि, “हम एक साथ लिपटे हुए थे और जल्द से जल्द बचाव के लिए प्रार्थना करते थे। आखिरकार भगवान ने हमारी सुन ली।”

एक ग्रामीण ने कहा कि चिंता से परेशान उसकी मां ने पिछले दो सप्ताह से खाना नहीं बनाया था और पड़ोसियों ने जो कुछ भी उन्हें दिया, उसी से परिवार का गुजारा चल रहा था।

खिराबेड़ा में बेदिया के 55 वर्षीय लकवाग्रस्त पिता श्रवण बेदिया ने मजदूरों की सकुशल वापसी के बाद व्हीलचेयर पर जश्न मनाया। 22 वर्षीय राजेंद्र के अलावा, गांव के दो लोग सुखराम और अनिल भी 17 दिनों तक टनल के अंदर फंसे रहे।

सुखराम की लकवाग्रस्त मां पार्वती हादसे के बारे में पता चलने के बाद से ही गमगीन थीं। लेकिन मजदूरों के टनल से सुरक्षित बाहर आते ही उन्होंने बेहद खुशी जताई।

12 नवंबर यानि दिवाली के दिन सुबह लगभग 5.30 बजे भूस्खलन के बाद ब्रह्मखाल-यमुनोत्री राजमार्ग पर बन रहा सिल्क्यारा-दंदालगांव टनल का एक हिस्सा ढह गया जिसमें 41 मजदूर फंस गए थे। 12 नवंबर को बचाव अभियान शुरू हुआ और काफी जद्दोजहद के बाद आखिरकार मंगलवार 28 नवंबर को मजदूरों को सकुशल बाहर निकाल लिया गया।

(‘द हिंदू’ में प्रकाशित खबर पर आधारित।)

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