राज्यपाल ने नियुक्त कर दिए कुलपति तो भड़कीं ममता, बोलीं- राजभवन के सामने धरना दूंगी

नई दिल्ली। पश्चिम बंगाल में विश्वविद्यालयों में उपकुलपतियों की नियुक्ति का विवाद अब तूल पकड़ता जा रहा है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के अवसर पर साफ़-साफ़ शब्दों में राज्य विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को चेतावनी जारी करते हुए कहा है कि यदि उन्होंने राज्यपाल सी वी आनंद बोस के निर्देशों का पालन किया तो विश्वविद्यालयों को ‘आर्थिक प्रतिबंधों’ का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए।

इसके साथ ही ममता बनर्जी ने चेतावनी जारी की है कि यदि राज्यपाल की ओर से राज्य के शिक्षा व्यवस्था में इसी प्रकार से दखलंदाजी जारी रही तो वे राजभवन के बाहर धरने पर बैठ जाएंगी। ममता बनर्जी ने राज्यपाल बोस के पर राज्य की शिक्षा प्रणाली में अराजकता पैदा करने और संस्थाओं को ध्वस्त करने का गंभीर आरोप लगाया है।

पश्चिम बंगाल में कुलपति नियुक्ति विवाद पिछले कई महीनों से जारी है, लेकिन राज्यपाल बोस द्वारा 3 सितंबर की आधी रात को राज्य के 16 विश्वविद्यालयों में अंतरिम कुलपति की नियुक्ति की अधिसूचना और 4 सितंबर 2023 के दिन पश्चिम बंगाल में इसकी जानकारी सार्वजनिक होने के बाद से राज्य का सियासी पारा अचानक से गर्म हो चुका है।

इससे पूर्व 1 सितंबर को राज्यपाल निवास से घोषणा की गई थी कि राज्य विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति की हैसियत से राज्यपाल द्वारा विश्वविद्यालयों में कार्यकारी प्रमुख के रिक्त पदों का कार्यभार संभाला जायेगा। इसका अर्थ हुआ कि ऐसे विश्वविद्यालयों के संचालन का सीधा जिम्मा राज्यपाल के हाथ में आ गया। राज्यपाल के इस कदम को राज्य सरकार द्वारा विश्वविद्यालयों पर राज्यपाल/केंद्र के प्रत्यक्ष नियंत्रण में लेने के रूप में देखा गया।

लेकिन इस घोषणा के 72 घंटों के भीतर ही राज्यपाल द्वारा ऐसे 16 विश्वविद्यालयों के लिए तदर्थ उपकुलपतियों की नियुक्ति का नया फरमान जारी कर दिया गया, जहां पिछले कुछ समय से कुलपति की नियुक्ति के बगैर ही विश्वविद्यालय का कामकाज चल रहा था। इन 16 विश्वविद्यालयों में से 2 कृषि विश्वविद्यालय और शेष सामान्य शैक्षणिक विश्वविद्यालय हैं।

उपकुलपतियों की नियुक्ति से एक दिन पहले ही राज्यपाल भवन से एक अधिसूचना जारी की गई थी, जिसके मुताबिक अब राज्य विश्वविद्यालयों के ऊपर राज्य सरकार का नियंत्रण पूरी तरह से खत्म हो गया है। इस अधिसूचना में साफ़-साफ़ लिखा था कि सभी राजकीय विश्वविद्यालयों की फैकल्टी एवं गैर-फैकल्टी स्टाफ के सदस्य सबसे पहले कुलाधिपति (राज्यपाल) के प्रति जवाबदेह हैं, और उसके बाद उनकी जवाबदेही उप-कुलपति के प्रति बनती है।

इस अधिसूचना में यह भी उल्लेख किया गया था कि संभव है राज्य सरकार द्वारा विश्वविद्यालय प्रशासन को निर्देशित किया जाये, लेकिन ये निर्देश विश्वविद्यालय प्रशासन या कर्मचारियों पर बाध्यकारी नहीं होंगे।

राज्यपाल भवन की ओर से जारी अधिसूचना एवं अंतरिम कुलपतियों की नियुक्ति के मसले पर राज्यपाल के फैसले पर राज्य सरकार की ओर से तीखी प्रतिक्रिया आना स्वाभाविक था। सबसे पहले राज्य महिला एवं बाल विकास एवं सामाजिक कल्याण मंत्री शशि पंजा ने राज्यपाल के इस कदम की आलोचना करते हुए इसे उनके द्वारा राज्य के शानदार शैक्षिणक माहौल को बिगाड़ने और समानांतर प्रशासन चलाने की कोशिश करार दिया। दूसरी ओर, भाजपा प्रवक्ता समिक भट्टाचार्य ने राज्यपाल के फैसले को न्यायोचित ठहराते हुए इसे विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता को बरकारर रखने के लिए आवश्यक कदम बताया।

मजे की बात यह है कि पश्चिम बंगाल सरकार और राज्यपाल के बीच विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति को लेकर चल रही यह खींचतान काफी लंबे अर्से से चली आ रही है। इससे पहले भी 1 जून को राज्यपाल द्वारा 11 राज्य विश्वविद्यालयों के लिए अंतरिम कुलपतियों की नियुक्ति का मसला विवादों में बना हुआ था।

इन 11 विश्वविद्यालयों में कल्याणी विश्वविद्यालय, बर्दवान विश्वविद्यालय, संस्कृत कॉलेज एवं विश्वविद्यालय, सीधो कान्हो बिरसा विश्वविद्यालय, काज़ी नज़रुल विश्वविद्यालय, दक्षिण दिनाजपुर विश्वविद्यालय, कलकत्ता विश्वविद्यालय, जादवपुर विश्वविद्यालय, बांकुरा विश्वविद्यालय, बाबा साहेब आंबेडकर विश्वविद्यालय और डायमंड हारबर विमेंस यूनिवर्सिटी शामिल हैं, जिनमें ये तदर्थ नियुक्तियां की गई थीं।

इन नियुक्तियों को लेकर राज भवन की रिलीज में कहा गया था कि पूर्व में शिक्षा राज्यमंत्री बासु ने सभी अंतरिम कुलपतियों के सेवा विस्तार को आंख मूंदकर बढ़ा दिया है, जबकि राज्यपाल द्वारा सभी कुलपतियों के कामकाज के रिव्यु के लिए साप्ताहिक एक्टिविटी रिपोर्ट जमा करने के निर्देश जारी किये गये थे। जिन लोगों ने निर्देशों का पालन नहीं किया है, उन्हें सेवा विस्तार के लिए नहीं चुना गया है।

इसके लिए अप्रैल 2023 में राज्यपाल बोस द्वारा सभी कुलपतियों को “साप्ताहिक एक्टिविटी रिपोर्ट” जमा करने के निर्देश दिए गये थे, और स्पष्ट निर्देश दिया गया था कि किसी भी प्रकार के वित्तीय फैसलों को लेने से पहले उन्हें राजपाल की पूर्व-सहमति लेनी आवश्यक है। इतना ही नहीं 23 मई को राज्यपाल की ओर से राज्य कुलपतियों को साप्ताहिक रिपोर्ट जमा करने के लिए रिमाइंडर भेजे गए। यहां तक कि 26 मई को 6 कुलपतियों को कारण बताओ नोटिस तक जारी किये गये थे।

राज्यपाल के मनमाने फैसलों पर राज्य सरकार की ओर से लगातार विरोध जारी था, और शिक्षा मंत्री की ओर से साफ़ कहा गया कि राज्यपाल के पास ऐसा करने का कोई कानूनी आधार नहीं है। लेकिन अब जबकि राज्यपाल बोस एक के बाद एक फैसले लेकर राज्य की तृणमूल कांग्रेस सरकार को किनारे करते जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर राज्य विश्वविद्यालयों के उपकुलपतियों के सामने क्या करें या न करें की सांप-छूछून्दर वाली स्थिति हो गई है। ऐसे में राज्य की मुखिया को शिक्षक दिवस के मौके पर सामने आकर मोर्चा संभालने के लिए विवश होना पड़ा है।

5 सितंबर को शिक्षक दिवस के मौके पर कोलकाता में गुस्से में बिफरी ममता बनर्जी ने साफ़ शब्दों में कहा, “यदि आप (राज्यपाल बोस) यह समझते हैं कि आप मुख्यमंत्री से ज्यादा शक्तिशाली हैं, तो आप ऐसा सोचने के लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन इस बात को याद रखें कि नीतियों को तय करने का काम राज्य का है, आपका नहीं। यदि आपने इसी प्रकार से दखलंदाजी जारी रखी और यदि किसी कॉलेज या विश्वविद्यालय ने आपके निर्देशों का पालन किया तो राज्य द्वारा उनके ऊपर आर्थिक प्रतिबंध लागू कर दिए जायेंगे।”

ममता ने कहा कि “हम भी देखना चाहते हैं कि आप कैसे प्रोफेसरों और उपकुलपतियों को तनख्वाह देते हैं। यह जैसे को तैसा है…हम किसी कीमत पर समझौता नहीं करने जा रहे हैं।”

इतना ही नहीं राज्यपाल के व्यवहार की तुलना जमींदार से करते हुए ममता बनर्जी ने कहा, “बंगाल में शैक्षणिक वातावरण पर लगातार हमला किया जा रहा है। छात्रों को इसका खामियाजा उठाना पड़ रहा है और उन्हें अपने सर्टिफिकेट हासिल करने में मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। यह सब लंबे समय तक नहीं चलने वाला है। हम पर हमले किये जा रहे हैं। यदि हमने जवाब दिया तो आप कैसे संभाल पाओगे? आप बस देखो क्या करते हैं। आपका व्यवहार किसी जमींदार की तरह का है। सिर्फ बंगाली बोलकर आप हम लोगों को मूर्ख नहीं बना सकते। यदि ऐसा ही चलता रहा, तो मुझे राजभवन के गेट पर धरना करना पड़ेगा।”

इससे पहले अपने वक्तव्य में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा, “राज्य के द्वारा धन दिया जाता है, नीतियां बनाई जाती हैं, और वे (राज्यपाल) राजभवन में बैठकर आदेश दे रहे हैं। इन्होंने आधी रात को जादवपुर विश्वविद्यालय का उपकुलपति नियुक्त कर दिया, इसी प्रकार अलिया विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर के लिए केरल से एक आइपीएस अधिकारी की नियुक्ति कर दी और आरबीयू के लिए एक पूर्व न्यायाधीश की नियुक्ति की है। मैंने कई बार राज्यपाल से निवेदन किया है कि वे ऐसा न करें। यह समूची व्यवस्था को तहस-नहस करने की साजिश है। कृपया याद रखें आप (राज्यपाल) मनोनीत हैं, हम निर्वाचित हुए हैं।”

मुख्यमंत्री ने कहा कि “न्यायालय के आदेश के तहत राज्य विधानसभा ने राज्य के विश्वविद्यालयों हेतु स्थायी उपकुलपतियों की नियुक्ति के लिए सर्च कमेटी के पुनर्गठन हेतु कानून पारित किया। लेकिन राजभवन से यह विधेयक लौटा दिया।” इस संबंध में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने शिक्षा मंत्री ब्रत्या बासु और शिक्षा सचिव मनीष जैन को बंगाल के शैक्षिणक संस्थाओं की रक्षा के लिए लड़ाई जारी रखने के निर्देश दिए। ऐसी जानकारी मिल रही है कि इसके कुछ ही घंटों के भीतर शिक्षा मंत्री ने राज्य के 31 विश्वविद्यालयों के रजिस्ट्रार को शुक्रवार के दिन खर्चों के संबंध में रिव्यु के लिए एक बैठक बुलाई है।

राज्य में उप-कुलपति की नियुक्ति का विवाद पहले ही सर्वोच्च न्यायायल के सामने है। 22 अगस्त को सर्वोच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति सूर्यकांत एवं दीपंकर दत्ता की खंडपीठ ने राज्य की याचिका में अंतरिम उपकुलपतियों की नियुक्ति पर सवाल खड़े किये जाने पर राज्यपाल को एक पक्ष बनाया है। इससे पहले कलकत्ता उच्च न्यायालय ने विश्वविद्यालयों के समुचित संचालन के मद्देनजर कुछ उपकुलपतियों की अस्थायी नियुक्ति को वैध ठहराया था।

इस मामले की सुनवाई इसी महीने होनी है। बता दें कि सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकार और राज्यपाल को इस मसले को सुलझाने के लिए कहा था, और सुझाव में कहा था कि विश्वविद्यालयों को लंबे समय तक अस्थाई कुलपतियों की नियुक्ति के आधार पर नहीं चलाया जा सकता है। 

जैसा कि सभी जानते हैं मौजूदा उप-राष्ट्रपति जगदीप धनकड़ के पश्चिम बंगाल के गवर्नर कार्यकाल के दौरान भी राज्य में कुलपति नियुक्ति के मसले पर राज्य सरकार से लगातार तनातनी का माहौल बना हुआ था। एनडीए सरकार से पूर्व भी केंद्र-राज्य संबंधों में राज्य में विश्वविद्यालय के संचालन को लेकर विवाद कोई नई बात नहीं है। लेकिन मोदी सरकार के 9 वर्षों के दौरान विपक्ष शासित राज्यों में राज्यपाल की भूमिका उत्तरोत्तर विवादास्पद होती गई है।

विशेषकर केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में राज्यपालों द्वारा किसी न किसी बहाने निर्वाचित राज्य सरकार से विवाद को बढ़ावा देकर केंद्र के एजेंडे को आगे बढ़ाया गया है। राज्यों में ईडी, सीबीआई के अलावा राज्यपाल द्वारा केंद्र की वांछित-अवांछित प्रच्छन्न सत्ता को किसी प्रकार से कायम रखने की हनक देश के संघीय ढांचे को तो तहस-नहस कर ही रही है, लेकिन इसमें उच्च शैक्षणिक संस्थाओं की स्वायत्तता और शैक्षिक वातावरण को जिस कदर प्रभावित किया है, उसका भुगतान देश को भोगना पड़ रहा है। 

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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