पीएम मोदी की फ्रांस यात्रा के बीच मणिपुर हिंसा पर यूरोपीय संसद में बहस

नई दिल्ली। यूरोपीय संसद 12 जुलाई को स्ट्रासबर्ग में चल रहे पूर्ण सत्र के दौरान मणिपुर में जातीय हिंसा पर बहस करेगी। यूरोपीय संसद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फ्रांस यात्रा से ठीक पहले ऐसा करेगी। 14 जुलाई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी फ्रांस के बैस्टिल दिवस समारोह में सम्मानित अतिथि के रूप में शामिल होंगे और पेरिस के दौरे पर रहेंगे। पीएम मोदी 13 और 14 जुलाई को फ्रांस में रहेंगे।

यूरोपीय संसद में मणिपुर मामले को दिन के उत्तरार्ध में “मानवाधिकारों, लोकतंत्र और कानून के शासन के उल्लंघन के मामलों पर बहस” के तहत चर्चा के लिए चुना गया है। यूरोपीय संसद मणिपुर के हालात पर “तत्काल बहस” आयोजित करेगी, जहां इस पर चर्चा होगी। अगले दिन यानि 13 जुलाई को प्रस्ताव पर मतदान होगा। वहीं भारतीय विदेश सचिव विनय क्वात्रा ने कहा कि यह मामला “पूरी तरह से भारत का आंतरिक मामला है” और इस भावना से यूरोपीय सांसदों को भी अवगत करा दिया गया है।

मणिपुर हिंसा मामले में यूरोपीय संघ की संसद में छह संसदीय समूहों द्वारा एक प्रस्ताव पेश किया गया था। सभी समूहों ने एकजुट होकर भारत सरकार पर मानवाधिकारों के हनन, मौलिक स्वतंत्रता का गला घोंटने, असहमति, नागरिक समाज और मीडिया पर नकेल कसने का आरोप लगाया है। प्रस्ताव में भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की उनकी राष्ट्रवादी बयानबाजी के लिए भी निंदा की गई और, खास तौर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लोकतंत्र के पिछड़ने की निंदा की गई।

सांसदों के समूह में वामपंथी, यूरोपीय समाजवादी और ग्रीन्स से लेकर क्षेत्रीय दल, परंपरावादी और केंद्र-दक्षिणपंथी राजनीतिक और ईसाई समूह शामिल हैं। दक्षिणपंथी समर्थक ईसीआर समूह ने उन रिपोर्टों पर चिंता जताई है जिसमें मणिपुर में राज्य सुरक्षा बलों द्वारा निभाई गई भूमिका पर सवाल उठाया गया है और भीड़ की ओर से कई जगहों पर सुरक्षाकर्मियों की अनुपस्थिति पर जोर दिया गया है, और सेना की मौजूदगी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की यात्रा के बावजूद, आए दिन झड़पें होने की बातें कही गई हैं।

उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि उन्होंने जो कहा वह धार्मिक अल्पसंख्यकों और आदिवासियों के खिलाफ भेदभावपूर्ण कानून और प्रथाएं थीं। क्रिश्चियन डेमोक्रेट्स के पीपीई समूह की ओर से पेश किए गये प्रस्ताव में ज्यादातर मैतेई और कुकियों के बीच संघर्ष पर जोर दिया गया है और धार्मिक हमले को रेखांकित किया गया है। जहां 250 चर्च, ईसाई स्कूल, अस्पताल और कुछ मंदिर नष्ट हो गए हैं।

यूरोप समर्थक रिन्यू समूह ने भी झड़पों को धार्मिक और राजनीति से प्रेरित बताया। समूह ने विभाजनकारी नीतियों के बारे में चिंता जताई। उन्होंने मोदी सरकार से संयुक्त राष्ट्र कानूनों के अनुसार सुरक्षा बलों द्वारा न्यूनतम बल का उपयोग करने और दिल्ली के साथ-साथ यूरोपीय संघ के सदस्य देशों से निर्बाध सहायता की अनुमति देने का भी आह्वान किया। चर्चा के लिए रखे गए अपने प्रस्ताव में, एस एंड डी समूह ने भाजपा के प्रमुख सदस्यों द्वारा की गई राष्ट्रवादी बयानबाजी की कड़ी निंदा की।

उन्होंने जांच के लिए एक स्वतंत्र मॉनिटर की मांग की और कहा कि मोदी सरकार को खतरनाक सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम या एएफएसपीए को रद्द करना चाहिए। इसी तरह, ग्रीन-यूरो गठबंधन समूह ने भी भारतीय अधिकारियों से समावेशी, अंतर-सांप्रदायिक बातचीत के स्थानीय आह्वान का समर्थन करने के लिए एक सत्य और सुलह समिति स्थापित करने के लिए कहा है।

समूह ने कहा है कि इंटरनेट ब्लैकआउट हटाया जाए और अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों और पत्रकारों को पहुंच की अनुमति दी जाए। उन्होंने विशेष रूप से विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (एफसीआरए) और गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम या यूएपीए के तहत मौलिक स्वतंत्रता के दमन के बारे में भी अपनी चिंता दोहराई। समूह ने विशेष रूप से मोदी के नेतृत्व में लोकतंत्र के पिछड़ने पर चिंता जताई है।

जीयूई/एनजीएल सहित वामपंथी समूह ने भी इसे दोहराते हुए सरकार पर बहुसंख्यक समुदाय का समर्थन करने का आरोप लगाया और अधिकारियों पर जातीय विभाजन को बढ़ावा देने और संघर्ष को धार्मिक टकराव के रूप में पेश करने की कोशिश करने का आरोप लगाया। सभी समूहों के बीच एक मुख्य बात यह थी कि यूरोपीय संघ और सदस्य देशों को भारत के साथ अपने संबंधों के केंद्र में मानवाधिकार और लोकतांत्रिक मूल्यों को रखना चाहिए।

मानवाधिकारों के हनन को संबोधित करने के लिए संयुक्त रूप से एक रणनीति विकसित करनी चाहिए और इसमें लोकतांत्रिक अधिकारों और स्वतंत्रता को शामिल किया जाना चाहिए। यूरोपीय संसद में होने वाली इस चर्चा पर मोदी सरकार ने कमर कस ली है। मोदी सरकार यूरोप की प्रमुख लॉबिंग फर्मों में से एक, अल्बर्ट एंड गीगर को काम पर रखकर पहले से ही कार्रवाई में जुट गई है, ताकि यूरोपीय संसद में मणिपुर हिंसा पर बहस के दौरान किसी भी राजनयिक की शर्मिंदगी को कम किया जा सके।

ब्रुसेल्स स्थित राजनीतिक लॉबिंग एजेंसी, जो यूरोपीय संघ के संस्थानों, विधायकों और अधिकारियों के साथ संपर्क करती है, ने यूरोपीय संसद को एक बयान जारी करते हुए कहा है कि “हम आपका ध्यान आकर्षित करने और अपने विचार साझा करने के लिए लिख रहे हैं “दुर्भाग्य से, मणिपुर में लंबे समय से संघर्ष जारी है। वर्तमान में, भारत सरकार संघर्ष को कम करने और शांति बहाल करने के लिए लगातार काम कर रही है और पार्टियों के बीच बातचीत की सुविधा के लिए मणिपुर में एक शांति समिति का भी गठन किया है।“

अल्बर्ट और गीगर का कहना है कि चूंकि पहले से ही एक भारतीय शांति समिति मौजूद है, “इसलिए, ऐसे कठोर तात्कालिक प्रस्ताव पर चर्चा करने से पहले संसद और भारत के बीच मणिपुर की आंतरिक स्थिति पर चर्चा की जानी चाहिए।” लॉ फर्म ने ये कहा कि, “चूंकि यूरोपीय संघ और भारत एक एफटीए पर बातचीत कर रहे हैं, और भारत इसके लिए एक भविष्य का रणनीतिक भागीदार होगा।”

मणिपुर में तीन मई को उस समय हिंसा भड़क उठी जब मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा दिए जाने की मांग के ख़िलाफ़ राज्य के कुकी समेत दूसरे जनजातीय समुदाय ने रैली निकाली। दो महीने से ज्यादा वक्त बीत जाने के बाद भी ये हिंसा अब तक थमने का नाम नहीं ले रही है।

(कुछ इनपुट ‘द वायर’ से लिए गए हैं।)

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