भाजपा की डबल इंजन की सरकार ने मणिपुर को गृहयुद्ध में ढकेल दिया

मणिपुर में डबल इंजन वाली भाजपा सरकार है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राज्यों के चुनाव में अक्सर मतदाताओं से अपील करते हैं कि राज्य और केंद्र में एक ही पार्टी होने से विकास को बढ़ावा मिलेगा। पर हकीकत में यह कितना सच है? मणिपुर में डबल इंजन सरकार है लेकिन राज्य वर्तमान में गृहयुद्ध की स्थिति में है, क्योंकि इसकी दो मुख्य समुदाय एक-दूसरे पर हमले करते हैं और कुछ मामलों में सशस्त्र समूहों द्वारा एक दूसरे पर हमला किया जाता है।

यह स्पष्ट है कि राज्य सरकार शांति बनाए रखने में पूरी तरह विफल रही है। आलोचकों का दावा है कि राज्य सरकार खुले तौर पर पक्षपात करती है और संघर्ष के एक पक्ष का समर्थन करती है। प्रधानमंत्री मोदी ने मणिपुर के मामले में आश्चर्यजनक चुप्पी साध रखी है। भारतीय संविधान में संवैधानिक मशीनरी के टूटने की स्थिति में राज्य सरकार को बर्खास्त करने के प्रावधान हैं। हालांकि, इस विचार पर कभी चर्चा नहीं की गई क्योंकि मणिपुर एक “डबल-इंजन सरकार” है। राज्य में भाजपा की सरकार है।

चुराचांदपुर जिले में मान्यता प्राप्त जनजातियों के एक समूह स्वदेशी जनजातीय नेताओं के मंच (आईटीएलएफ) ने कहा है कि मणिपुर में जारी अशांति के दौरान 253 चर्च जलाए गए। आईटीएलएफ ने इंफाल से करीब 60 किलोमीटर दूर चुराचंदपुर का दौरा करने वाली राज्यपाल अनुसुइया उइके को सौंपे ज्ञापन में यह दावा किया है।

चुराचांदपुर हिंसा से सबसे बुरी तरह प्रभावित जिलों में से एक है, जो 3 मई को 10 पहाड़ी जिलों में एक एकजुटता रैली आयोजित करने के बाद शुरू हुई थी, जिसमें बहुसंख्यक मेइती को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने की मांग का विरोध किया गया था। हिंदू मेइती और ईसाई कुकी के बीच संघर्ष में 100 से अधिक लोगों की मौत हो गई है और 50,698 विस्थापित हो गए। आईटीएलएफ ने कहा कि सोमवार को भी चुराचांदपुर गांव में हुए हमले में एक व्यक्ति की मौत हो गई थी।

राज्यपाल को लिखे तीन पन्नों के आईटीएलएफ के ज्ञापन में आरोप लगाया गया है कि मेइती और मणिपुर की सांप्रदायिक सरकार द्वारा किए जा रहे जातीय सफाई अभियान के परिणामस्वरूप कुकी समुदाय ने 100 से अधिक कीमती जीवन खो दिए हैं और कई मृत लोग लापता हैं। इसके अलावा, 160 गांवों में लगभग 4,500 घर जल गए हैं, जिससे लगभग 36,000 लोग बेघर हो गए हैं।

केन्द्रीय गृह मंत्रालय के मणिपुर में शांति स्थापित करने के लिए शांति समिति गठित करने के एक दिन बाद अधिकतर कुकी सदस्यों ने पैनल में मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह और उनके समर्थकों की मौजूदगी का विरोध करते हुए पैनल का बहिष्कार करने की बात कही है।

द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक कुकी सदस्यों का कहना है कि पैनल में शामिल करने के लिए उनसे सहमति नहीं ली गई है। उनका तर्क है कि केंद्र सरकार को वार्ता के लिए सहायक परिस्थितियां बनानी चाहिए। शनिवार को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने मणिपुर के अलग-अलग समूहों के बीच शांति स्थापित प्रक्रिया शुरू करने के लिए एक शांति समिति की घोषणा की थी। राज्य की गवर्नर अनुसूइया उइके के नेतृत्व वाली इस समिति में कुल 51 सदस्य हैं। कुकी इनपी मणिपुर (केआईएम) के अध्यक्ष अजांग खोंगसाइ ने कहा है कि वो मणिपुर सरकार के साथ शांति वार्ता में नहीं बैठेंगे।

मणिपुर राज्य गृहयुद्ध की कगार पर खड़ा नजर आ रहा है। भारतीय सेना और असम राइफल्स को भेजा गया है और राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग की जा रही है और संघ ने अनुच्छेद 355 के तहत आदेश जारी करने के निर्देश जारी किए हैं। एक निर्वाचित जिम्मेदार सरकार होने के कारण राष्ट्रपति शासन कठिन है और इस बात की संभावना नहीं है कि इंफाल में सत्ताधारी पार्टी वही है जो दिल्ली में है। वे इम्फाल में अपनी ही पार्टी की सरकार को बर्खास्त करने के लिए अनिच्छुक होंगे। मरने वालों की संख्या तेजी से तीन अंकों की ओर बढ़ रही है और दसियों हज़ार लोग विस्थापित हुए हैं। बड़े पैमाने पर संपत्ति का नुकसान हुआ है और समुदायों पर अत्याचार हुआ है। क्षेत्र में सक्रिय विद्रोही समूहों के साथ युद्ध विराम अब उस कागज के लायक नहीं दिखते जिस पर वे छपे थे।

27 मार्च को, मणिपुर उच्च न्यायालय के एकल- न्यायाधीश न्यायमूर्ति एमवी मुरलीधरन ने राज्य सरकार को अनुसूचित जनजाति की सूची में मेइती समुदाय को शामिल करने पर विचार करने और इस आशय की सिफारिश केंद्रीय मंत्रालय को भेजने का निर्देश दिया।

जबकि उच्चतम न्यायालय के चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने आदेश को चुनौती देने वाली एक विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) की सुनवाई के दौरान मौखिक रूप से टिप्पणी की कि कई संविधान पीठ के निर्णयों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अनुसूचित जनजातियों की सूची को बदलने के लिए न्यायिक आदेश पारित नहीं किए जा सकते हैं। न्यायपालिका यह तय करने की स्थिति में नहीं है कि किन जनजातियों को संविधान के तहत विशेष सुरक्षा की आवश्यकता है। उसके पास उस तरह का प्रशासनिक तंत्र या नीतिगत विशेषज्ञता नहीं है जिसकी इस तरह के नीति निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए जरूरत है।

फिर भी, मणिपुर उच्च न्यायालय के इस विवादास्पद आदेश ने मणिपुर में मौजूदा अनुसूचित जनजातियों के बीच काफी बेचैनी पैदा की। आदेश की आलोचना करने वालों के खिलाफ कारण बताओ नोटिस जारी करने से यह कार्रवाई जटिल हो गई थी। इन सबने शायद आंदोलनकारी जनजातियों को आश्वस्त किया कि जब तक वे सड़कों पर नहीं उतरेंगे, उनके हितों की रक्षा नहीं होगी और धीरे-धीरे एकजुटता मार्च हिंसा में बदल गया और भारत अब अपनी सीमाओं के भीतर एक सशस्त्र सामुदायिक संघर्ष की ओर बढ़ता दिख रहा है।

इससे न्यायिक जवाबदेही का सवाल उठता है। आखिर किसके प्रति जवाबदेह हैं जस्टिस एमवी मुरलीधरन? यदि कोई अन्य लोक सेवक इस विनाशकारी तरीके से असफल होता, तो उस सेवक को निलंबित कर दिया जाता और शायद उसे बर्खास्तगी का सामना करना पड़ता। लेकिन जनता या सरकार न्यायमूर्ति एम वी मुरलीधरन को उनके फैसले के लिए जिम्मेदार ठहराने के लिए कुछ नहीं कर सकती है। एक फ़ैसला जिसके कारण दंगा हुआ और एक फ़ैसला जिसे सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने स्पष्ट रूप से कहा, कानून के ख़िलाफ़ था। यह कैसे हो सकता है कि जस्टिस मुरलीधरन इतना बवाल मचाने के बाद भी काम कर रहे हैं?

केंद्रीय गृह मामलों के मंत्री अमित शाह ने हाल ही में मणिपुर का दौरा किया और उन्होंने भी बाहर आकर अराजकता के लिए उच्च न्यायालय को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि मणिपुर उच्च न्यायालय के जल्दबाजी में लिए गए फैसले से यह हिंसा हुई, 70 मौतें हुईं।

उस आदेश के विरुद्ध एक अंतर्न्यायालय अपील लंबित है लेकिन अराजकता के कारण राज्य में न्यायिक प्रशासन प्रभावित हुआ है और आज तक समस्याग्रस्त आदेश कायम है। हम इस देश में एक ऐसे बिंदु पर कैसे पहुंचे जहां वरिष्ठ न्यायपालिका का एक सदस्य अनिवार्य रूप से कलम के एक झटके से राज्य को आग लगा सकता है और किसी भी परिणाम का सामना नहीं कर सकता है। इससे न्यायिक जवाबदेही का सवाल उठता है।

आखिर जस्टिस एमवी मुरलीधरन ने कानून के विपरीत विकृत आदेश क्यों और कैसे पारित किया? यह अक्षमता दिखाता है और संविधान बहुत स्पष्ट है, एक न्यायाधीश को अक्षमता के आधार पर बर्खास्त नहीं किया जा सकता है। एक बुरे जज को बर्खास्त, अनुशासित या फटकारा नहीं जा सकता। यह महत्वपूर्ण है कि सभी संविधानविद जो भारत में न्यायिक स्वतंत्रता के बचे हुए हिस्से को संरक्षित करना चाहते हैं, कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश एमवी मुरलीधरन के इस्तीफे की मांग क्यों नहीं करते हैं, ताकि इस तथ्य पर मुहर लगाई जा सके कि खराब आदेश पारित करने के दुष्परिणाम होते हैं।

इंफाल घाटी में फंसे आदिवासियों की दुर्दशा के प्रति राज्य सरकार की उदासीनता बहुत कुछ कहती है। अफवाहों और राजनीतिक एजेंडे के आधार पर कट्टरपंथी मेइती पुरुषों और महिलाओं के एक समूह के नेतृत्व में यह हिंसा हुई। इस हिंसा को रोकने में मुख्यमंत्री पूरी विफल रहे। 3 मई को दंगे शुरू होने के बाद चार दिनों तक घाटी में स्थित भारतीय सेना और केंद्रीय अर्धसैनिक बलों ने मॉब लिंचिंग, हत्या और वाहनों, घरों और चर्चों की आगजनी जैसे नृशंस कृत्यों पर नियंत्रण के लिए कोई कोशिश नहीं किया। इसके बजाय, उन्होंने मणिपुर पुलिस कमांडो को मेइती लोगों का साथ देने की अनुमति दी। एक ऐसी टीम का जिसमें पहले से ही मैतेई समुदाय का प्रभुत्व है। यह बहुसंख्यक समुदाय को खुले तौर पर विनाश में समर्थन देने के लिए किया गया। इस कार्रवाई के परिणाम व्यापक थे, और विशेष रूप से आदिवासियों के एक अंतर-राज्यीय और अंतर-राज्य सामूहिक पलायन का कारण बना।

मणिपुर में राज्य मीडिया द्वारा फैलाई गई कहानी लगातार एक सांप्रदायिक रंग में रंगी रही है, जिसमें वस्तुनिष्ठ सच्चाई और तथ्य नहीं हैं। मेइती, 1972 से राज्य के भीतर प्रमुख समुदाय रहा है, राज्य विधानसभा के भीतर अलोकतांत्रिक, असमान प्रतिनिधित्व का आनंद ले रहा है, और 1950 के दशक में भी पिछड़ा नहीं था, अब 21वीं सदी में पिछड़ा होने का दावा करता है। यह घटनाओं का एक नाटकीय मोड़ है।

मणिपुर में विभिन्न पहाड़ी जनजातियों के बीच कलह पैदा करने के लिए एक भयावह योजना थी। इसका संदेह भी जताया जा रहा है। सभी मेइती लोगों का अनुसूचित जाति का दर्जा देना द्विज जातियों को आदिवासी का दर्जा देने जैसा होगा, जो भारत के संविधान के अनुरूप नहीं है।

मणिपुर सरकार के लिए प्रश्न

कुकी समुदाय का कहना है कि ‘राज्य में प्रतिवर्ष कौन-सा समुदाय गणतंत्र दिवस एवं स्वतंत्रता दिवस का बहिष्कार करता है? मणिपुर सरकार ने अब तक उनके खिलाफ क्या कार्रवाई की है? उनके खिलाफ इसकी क्या योजना है? राज्य सरकार अनुच्छेद 371C और मणिपुर विधान सभा (पहाड़ी क्षेत्र समिति) आदेश, 1972 का उल्लंघन क्यों कर रही है? स्वायत्त जिला परिषद (एडीसी) अधिनियम, 1971 के अनुसार जून 2020 से ‘स्वायत्त जिला परिषदों’ के चुनाव क्यों नहीं हुए हैं?

पहाड़ी क्षेत्रों में भूमि सर्वेक्षण मणिपुर भूमि राजस्व और भूमि सुधार अधिनियम, 1960 का उल्लंघन क्यों किया जा रहा है? इम्फाल घाटी के उग्रवादी और जनता पुलिस थानों, मणिपुर पुलिस प्रशिक्षण महाविद्यालय, और मणिपुर राइफल्स या इंडिया रिजर्व बटालियन शिविरों से बंदूकें और हथियार कैसे ले सकते हैं? क्या राज्य सरकार इतनी अक्षम है कि हिंसा, दंगे, नरसंहार और विनाश को बेरोकटोक चलने दे रही है?’

तीन विवादास्पद आदिवासी विरोधी अधिनियमों के तहत आरक्षित वन बनाने और उनकी स्वदेशी भूमि लेने के नाम पर आदिवासी वनवासियों की बेदखली का उद्देश्य केवल एक समुदाय को दूसरे पर अत्याचार करने की कीमत पर खुश करना था।

(जे.पी.सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

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