भारतीय राजनीति में कॉरपोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ का आक्रामक दौर और एनसीपी में टूट के मायने

महाराष्ट्र की राजनीति में भूचाल आया हुआ है। मेरा मानना है कि नहीं राजनीतिक संगठन जिस जमीन पर खड़े थे वह जमीन धंस रही है। जिसमें शिवसेना के बाद अब एनसीपी का एक हिस्सा डूब गया है। कभी शरद पवार के भावी उत्तराधिकारी माने जाने वाले अजीत पवार और वर्तमान समय में उनके विश्वसनीय प्रफुल्ल पटेल भाजपा खेमें से जा मिले हैं। अधिकतर राजनीतिक विश्लेषक इस घटना को केंद्र सरकार की इडी-सीबीआई-आईटी राजनीति का स्वाभाविक परिणाम मान रहे हैं। यह सच है कि अजीत पवार से लेकर प्रफुल्ल पटेल तक सभी 9 मंत्री और सांसद किसी न किसी भ्रष्टाचार के केस में सीबीआई-ईडी-आईटी द्वारा तलब किए जा चुके हैं। 

नरेंद्र मोदी महाराष्ट्र और उसके बाहर इन सभी पर 75 हजार करोड़ के लूट का आरोप लगाते रहे हैं। जोर-जोर से गला फाडते हुए जेल में डालने और सजा देने की गारंटी का ऐलान करते रहे हैं। मगर इन नेताओं को मंत्री बनाने के बाद मोदी जी की विश्वसनीयता खत्म हो गई है। (वैसे उनकी बातों की विश्वसनीयता थी कितनी) इसलिए उनके दहाड़ने को देश में सिर्फ उनके भक्तों और गोदी मीडिया को छोड़कर कोई गंभीरता से नहीं लेता है।

लेकिन एक बात तो स्पष्ट दिख रही है कि मोदी जी ने भ्रष्टाचारियों पर कार्रवाई के अर्थ पलट दिये हैं। जेल में डालने की परिभाषा भी बदल गई है। मोदी जी ने 4 दिन पहले भोपाल में जो ऐलान किया था उस पर अमल करते हुए सभी भ्रष्टाचारियों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया है। इसलिए अब इस बात का कोई मतलब नहीं रह गया है कि एकनाथ शिंदे और अजित पवार-प्रफुल्ल पटेल गुट में कौन भ्रष्टाचारी है और कौन साफ सुथरा है।

संघ भाजपा को इस बात का श्रेय अवश्य दिया जाना चाहिए कि उन्होंने शब्दों के अर्थ बदलें हैं। इस बदलाव को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। “बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ”, “सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास, सबका प्रयास” और “लोकतंत्र हमारी रगों में है, हमारे डीएनए में है”, “राष्ट्रीय एकता अखंडता सद्भाव और भाईचारा सब कुछ चंगा सी” जैसे वचन प्रधानमंत्री द्वारा ही बोले जाते रहे हैं।

कॉरपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ युग का सच

90 के दशक के शुरुआत में भारतीय राजनीति के सामाजिक समीकरण बदलने लगे थे। उस समय लोकतंत्र के रंगमंच पर नए सितारे व सामाजिक समूह सत्ता में हिस्सेदारी के दावे पेश करने लगे थे। इस दौर को गहराई से देखें तो मुख्यत: दो राजनीतिक प्रक्रिया तेजी से घटित हो रही थी।

एक- संघ के नेतृत्व में राम जन्मभूमि मुक्ति को केंद्रित कर खड़े किए गए आंदोलन ने भारत में लोकतंत्र व राष्ट्रवाद के बुनियादी बहुलवादी लोकतांत्रिक चरित्र को पलटते हुए इसे हिंदुत्व के साथ नत्थी कर बहुमत और भीड़ तंत्र यानी शक्तिशाली समूह के विचार व्यवहार परंपरा को लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं में समाहित कर दिया। साथ ही लोकतांत्रिक संस्थाएं भीड़वाद के सामने पंगु बना दी गईं।

दूसरा- इसी दौर में 40 वर्षों के लोकतंत्र के प्रयोग और विकास-यात्रा से भारतीय जाति व्यवस्था के सभी स्तरों, समूहों में मध्यवर्गीय तबकों का अभ्युदय हुआ था। जिससे अंबेडकर की वैचारिक प्रासंगिकता के साथ लोहियावादी राजनीति ने नया आयाम ग्रहण किया। जिस कारण से भारतीय राजनीति का केंद्रीय तत्व जो गांधी-नेहरू के युग्म से बना था, वह नेपथ्य में चला गया। लोकतंत्र की बुनियादी अवधारणा पारदर्शिता, धर्मनिरपेक्षता, समाजवादी, संघात्मक गणतंत्र व बहुलतावादी विचार की चमक और साख धुंधली हो गई।

वीपी सिंह सरकार के समय पहली बार कॉरपोरेट हिंदुत्व का गठजोड़ दिखाई दिया। इसके साथ ही कॉरपोरेट के अंदर का टकराव खुलकर सामने आया। (रिलायंस बनाम बाम्बे ड्राइंग्स) जब अंबानी ने आडवाणी को रथ पर बैठा कर राम जन्म भूमि मुक्ति यात्रा शुरू कराई। उस समय पलटवार करते हुए वीपी सिंह ने अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण की घोषणा कर दूसरी धारा को आगे कर दिया।

लेकिन इसी संक्रमण काल में भारत गहरे आर्थिक और राजनीतिक संकट में फंसता गया। यह संकट ढांचागत और विकास की बुनियादी दिशा में सुधार की मांग कर रहा है। यहीं से भारतीय राजनीति व लोकतंत्र के विकास की दिशा को कॉरपोरेट के साथ विश्व बैंक, आईएमएफ और साम्राज्यवादी पूंजी तय करने लगी।     

नरसिंह राव युग: भारत में नए दौर की शुरुआत

कांग्रेस की राव की अल्पमत सरकार ने अमेरिकी आश्वासन और सहयोग पर एलपीजी की नीतियों को भारत में शोर-शराबे, गाजे-बाजे के साथ आगे बढ़ाने का ऐलान किया। सोवियत संघ के विघटन के साथ वैश्विक परिदृश्य में भी बदलाव आ चुका था। इसलिए भारत में आर्थिक सुधारों के लिए परिस्थिति तैयार थी। इस बदलाव के सूत्रधार मनमोहन सिंह बने। जो आरबीआई के गवर्नर और विश्व बैंक के मुलाजिम रह चुके थे।

एक तथ्य नोट किया जाना चाहिए कि उस समय कॉरपोरेट जगत से लेकर भारत के सभी राजनीतिक दलों में इन नीतियों को लेकर आम सहमति थी। (वामदलों को छोड़कर) आर्थिक नीतियों और बुनियादी ढांचे में होने वाले बदलाव निश्चय ही किसी देश के ऊपरी ढांचे यानी समाज और राजनीति में बदलाव को गति देगें ही। भारत में भी ऐसा ही हुआ।

इस परिवर्तन के प्रभाव समाज और राजनीति में दिखाई देने लगे। गौर करने की बात है कि इसी समय कांग्रेस के अंदर तेजी से विभाजन शुरू हुआ। अलग होने वालों में लोकतंत्र के बुनियादी उसूलों व समाजिक सुधार और विकास की दिशा को लेकर कोई बुनियादी मतभेद नहीं था। इसलिए हम देखते हैं कि व्यक्ति केंद्रित विभाजन कांग्रेस में तेजी से बढ़ा। अर्जुन सिंह, एनडी तिवारी और प्रणब मुखर्जी के अलग होने के बाद शरद पवार की एनसीपी और बाद में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, जगन मोहन रेड्डी की केसीआर सहित न जाने कितने गुट और दल कांग्रेस से निकलकर अस्तित्व में आए।

इसी समय भारत में हिंदुत्व विध्वंसक और आक्रामक अभियान के साथ आगे बढ़ रहा था। जो 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस, 2002 में गुजरात नरसंहार से होते हुए राजनीतिक गठबंधनों के नए प्रयोग के द्वारा सत्ता के बड़े खिलाड़ी के रूप में उभरा। वहीं उत्तर भारत में जनता दल के विभाजन के साथ अनेक राजनीतिक दल बने। जो मूलतः व्यक्ति केंद्रित थे। जिनकी लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता और समाजिक सरोकार कमजोर था।

कांशीराम के नेतृत्व में बसपा के उदय ने जहां दलितों को एक राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित किया वहीं इसने विचार और सिद्धांत विहीन अवसरवादी राजनीति के दौर की शुरुआत की। सत्ता में भागीदारी के नाम पर अवसरवाद की नई राजनीति ने भारतीय लोकतंत्र को अंदर से गहरी चोट पहुंचाई। जब कि वंचित तबकों की सत्ता में भागीदारी सत्ता संस्थानों में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को गति दे सकती थी। लेकिन नेतृत्व के निम्न पूंजीवादी स्वार्थों के कारण यह राजनीति का बदतरीन अवसरवादी मॉडल बनकर रह गया।

इस दौर का प्रभाव भारतीय समाज पर बहुत गहरा पड़ा। लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता और सामाजिक सरोकार घटते गए और राजनीति जाति-धर्म के खांचे के अंदर कैद होती गई। इस दौर ने नागरिक की मानवीय संवेदना को प्रदूषित और विकृत कर दिया। जिससे विखंडित नागरिक का निर्माण किया। जो अंदर से हिंसक नफरती और खुदगर्ज था।

उदारीकरण की सामाजिक उपलब्धि थी नैतिक मानवीय सरोकार व संवेदना का क्षरण और विखंडन। सफलता हासिल करने के लिए किसी भी तरह से लोकतांत्रिक नैतिक सामाजिक दबाव से मुक्त व्यक्ति या संगठन का निर्मित होना।

इसलिए आप देखेंगे की राजनीति में जहां व्यक्तिवाद, परिवारवाद का प्रभाव बढ़ा। वही पूंजी की भूमिका प्रधान होती गई। यहां आकर इतिहास ने मार्क्स को सही साबित कर दिया कि ‘पूंजीवादी समाज में सभी सामाजिक संबंध आना, पाइ, कौड़ी द्वारा निर्धारित होगें।’

सच है कि उदारीकरण से भारत में तीव्र आर्थिक विकास हुआ। पूंजी का उत्पादन और पुनर्उत्पादन के साथ केंद्रीकरण बढ़ने लगा। जिससे कॉरपोरेट की भूमिका और दखल भारतीय समाज के सभी क्षेत्र में स्पष्ट दिखाई देने लगा। चंद कॉरपोरेट घराने राजनीतिक दलों से लेकर सामाजिक-राजनीतिक समीकरणों के निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाने लगे। इसी समय रिलायंस का नाम पहली बार उछलकर सामने आया। वे सत्ता के खेल के बड़े खिलाड़ी माने जाने लगे। मंत्रियों से लेकर प्रधानमंत्री तक के भविष्य का फैसला अब कॉरपोरेट लार्डो के हाथ में चला गया। (पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी का संदर्भ)।

भारत में हिंदुत्व कॉरपोरेट गठजोड़ के ठोस आकार लेते ही फासीवाद के अभ्युदय की भौतिक स्थिति तैयार हो गई। फासीवाद की विशेषता है कि वह सत्ता और पूंजी के केंद्रीकरण को गति देता है। केंद्रीकरण के रास्ते में आने वाले सभी प्रकार के अवरोधों को तेज गति से मिटाते हुए एक व्यक्ति एक विचारधारा और एक पार्टी के प्राधिकार को स्थापित करता है। बाकी सभी विचारों, संगठनों, संस्थाओं को शक्तिहीन करते हुए पचा लेता है या उन्हें हाशिए पर ठेल देता है। जो राजनीतिक-सामाजिक शक्तियां विरोध में खड़ी होती हैं उनका बर्बर दमन करता है।

शरद पवार और एनसीपी का भविष्य

यहां से हम एनसीपी के विभाजन को देख सकते हैं। कांग्रेस से अलग होकर शरद पवार ने एनसीपी का निर्माण किसी सैद्धांतिक आधार पर नहीं किया था। कांग्रेस से अलग होने के बाद शरद पवार के पास देश व महाराष्ट्र के लिए कोई अलग राजनीतिक दिशा नहीं थी। वसंतदादा पाटील के न रहने के बाद शुगर लाबी को एक मजबूत मराठा नेता की जरूरत थी। लेकिन हिंदुत्व की राजनीति के महाराष्ट्र में हावी होने के बाद कोऑपरेटिव का ढांचा ढहने लगा है। निजीकरण की आंधी ने कोऑपरेटिव सिस्टम को लगभग खत्म कर दिया है। इसलिए कोऑपरेटिव लाबी और सूगरकेन किसानों के बल पर महाराष्ट्र और भारत की राजनीति में बहुत दिन तक पैर जमाए रखना अब संभव नहीं रहा।

दूसरा आधार था मराठा राष्ट्रवाद। जिस पर शिवसेना जन्मकाल से ही पली बढ़ी थी। मराठा मानुस से शुरू कर शिवसेना आक्रामक हिंदुत्व राष्ट्रवाद की तरह मुड़ गई और दोनों के घालमेल द्वारा बीजेपी की स्वाभाविक पार्टनर बन गई थी। (जिसका सबसे विद्रूप घिनौना रूप बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद महाराष्ट्र और मुंबई के दंगों और मुस्लिम कत्लेआम में देखने को मिला।) लेकिन फासिस्ट ताकतें किसी को सत्ता में शेयर नहीं देना चाहतीं। इसलिए उन्होंने शिवसेना के साथ वही सलूक किया जो उनकी चारित्रिक विशेषता है। भाजपा जब सत्ता की स्वाभाविक खिलाड़ी हो गई तो उसने सभी सहयोगियों को विखंडित करते हुए अधिकांश को अपने अंदर पचा लिया है। इस स्थिति में 2019 के चुनाव के बाद शिवसेना को भाजपा से अलग हो जाना पड़ा।

महाराष्ट्र में अभी तक मराठा राष्ट्रवाद के दो बड़े प्रतीक रहे हैं। एक शिवाजी महाराज। दूसरे हिंदुत्व के सिद्धांतकार और भाजपा-संघ के वैचारिक नायक सावरकर। ये दोनों आइकॉन मराठा समाज के ही आइकान हैं। इसलिए शिवसेना, शरद पवार और भाजपा में जंग चलती रही है कि कौन मराठा समाज को जीत लेगा।

जबकि इसके ठीक विपरीत में शाहूजी महाराज, ज्योतिबा फुले और अंबेडकरवादी विचार प्रक्रिया महाराष्ट्र में सशक्त सुधारवादी आंदोलन की सूत्रधार रही हैं। इसका व्यापक प्रभाव महाराष्ट्र के बौद्धिक-सामाजिक जीवन में दिखाई देता है। जो मूलत पेशवाई के खिलाफ लोकतांत्रिक-संविधानवादी विचारधारा के द्वारा संचालित होती है।

लेकिन भारत की राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थिति बदल गई है। मुंबई भारत की आर्थिक राजधानी है। इसलिए कॉरपोरेट अपने दूरगामी हितों को ध्यान में रखते हुए इस समय शरद पवार और शिवसेना को छोड़ कर पूर्णतया भाजपा के साथ खड़ा हो चुका है। इस कारण शरद पवार और शिवसेना के लिए महाराष्ट्र की राजनीति में अब दूसरी विचार भूमि और सामाजिक आधार तलाशना होगा जो उनकी चिंतन प्रक्रिया के चलते कठिन काम है। 

सभी जानते हैं कि महाराष्ट्र की राजनीति में पूंजी का खेल कितने बड़े पैमाने पर चलता है। इसलिए आज के दौर में पुराने राजनीतिक नारों, आधारों के बल पर भाजपा और संघ का मुकाबला करना संभव नहीं है। अगर शिवसेना और एनसीपी से अधिकांश नेता विधायक पार्टी छोड़कर भाजपा के पाले में जा रहे हैं तो हमें इसकी जड़ों को उदारीकरण के बाद भारतीय राजनीति में निर्मित राजनीतिक अवसरवाद में ही तलाशना चाहिए। महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी के विघटन को इसी संदर्भ में देखना होगा।

फासीवाद का बुलडोजर सिर्फ अल्पसंख्यकों या गरीबों या कमजोर वर्गों के घर पर ही चलकर नहीं ठहर जायेगा। उसका बुलडोजर छोटे मझोले राजनीतिक दलों को रौदते हुए अंततोगत्वा लोकतंत्र को खत्म करते हुए भारत को एक फासिस्ट राज्य में तब्दील करने की तरफ तेजी से आगे बढ़ेगा ही।

तृणमूल कांग्रेस, जदयू और कांग्रेस के अधिकांश लोग अगर भाजपा में शरण ले रहे हैं तो इसके कारण कॉरपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ की राजनीति से अंदर ढूंढने की जरूरत है। आज भाजपा के अधिकांश विधायक एमपी और कई मुख्यमंत्री तक कांग्रेस या अन्य पार्टियों से गए हुए नेता हैं जिनमें अधिकांश पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। जो आज सभी भाजपा राज के ताज के नगीने हैं। इसमें‌ हेमंत विश्व शर्मा, शुभेंदु अधिकारी, नारायण राणे, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुनील जाखड़ से लेकर न जाने कितने नाम गिनाए जा सकते हैं।

महाराष्ट्र की राजनीति में बदलाव

महा विकास आघाडी की सरकार बनने के बाद महाराष्ट्र की राजनीति में तेजी से बदलाव शुरू हुआ। जो महाराष्ट्र दक्षिण पंथ का सबसे आक्रामक दुर्ग बना हुआ था। वहां लोकतांत्रिक और सामाजिक चेतना के नए स्वर उभरने लगे थे। जिससे भाजपा का चिंतित होना स्वाभाविक था। भारत के अधिकांश कॉरपोरेट घराने महाराष्ट्र और गुजरात से आते हैं। इसलिए बीजेपी इन दो राज्यों को किसी भी कीमत पर हाथ से निकलने नहीं देना चाहती है।

महाराष्ट्र में शिवसेना हिंदुत्व का इंजन थी। उसके अलग हो जाने से सिर्फ बीजेपी सत्ता से ही अलग नहीं हुई। बल्कि महाराष्ट्र के नागरिकों की सोच में बदलाव दिखाई देने लगा। साथ ही तेजी से सामाजिक समीकरण बदलने लगे थे। जहां अधिकांश दलित नेता रामदास अठावले के बाद एक-एक कर बीजेपी की गोद में बैठते गए। वहीं दलितों-पिछड़ों का रेडिकल समूह एंटी हिंदुत्व होता गया। भीमा कोरेगांव में दमन के भी बाद में प्रगतिशील और दलित बौद्धिकों, नेताओं के साथ प्रतिरोधी चरित्र में विस्तार हुआ है। जिससे दलितों पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के सामाजिक ध्रुवीकरण की जड़ें महाराष्ट्र के समाज में फैलती चली गई हैं।

कोल्हापुर में जिस तरह मॉब लिंचिंग के बाद नागरिक समाज एकता बद्ध होकर सड़कों पर उतरा यह महाराष्ट्र में नए ध्रुवीकरण का स्पष्ट संकेत था। वर्चस्वशाली सामाजिक समूहों पर टिका हुआ एनसीपी और शिवसेना का नेतृत्व नई जमीन की तलाश करने लगा है क्योंकि शिंदे और पवार गुट के नीचे से जमीन खिसक चुकी है। जिस कारण नए राजनीतिक-सामाजिक समीकरण नीचे से आकार लेने लगा था। जिससे उनके लिए महाविकास आघाडी बोझ बन गई थी। कॉरपोरेट घराने भी महाराष्ट्र की सामाजिक चेतना में आ रहे बदलाव से सशंकित थे।

ऐसी स्थिति में भाजपा ने पहले शिवसेना को तोड़ा और अब अजीत पवार-प्रफुल्ल पटेल को एनसीपी से तोड़ते हुए मंत्री पद पर बिठा दिया। अजित पवार तो पहले से ही इस अवसर की ताक में थे। लेकिन शरद पवार के व्यक्तित्व के कारण उन्हें ऐसा करने में सफलता नहीं मिल पा रही थी। अब कॉरपोरेट ने एनसीपी से हाथ खींच लिया है। इसलिए अजीत पवार में साहस आ गया।

दूसरा भ्रष्टाचार के नाम पर जिस तरह से ईडी-सीबीआई ने महाराष्ट्र के नेताओं पर कार्रवाई की है। उससे इन दलों का निम्न पूंजीवादी नेतृत्व अंदर से डर गया है। इसलिए वह भाजपा के साथ जाने में ही अपनी सुरक्षा देख रहा है। नवाब मलिक अनिल देशमुख, संजय रावत के हस्र को देखते हुए स्वभाविक है कि शिंदे, अजीत पवार और प्रफुल्ल पटेल सुरक्षित रास्ते की तलाश करने लगे हों। इस अवसर का फायदा उठाकर भाजपा ने महाविकास आघाड़ी के दो मजबूत संगठनों को तोड़ दिया है।   

पटना सम्मेलन और विपक्ष की एकता

पटना सम्मेलन के बाद भारत की राजनीति बदल गई है। कांग्रेस के लगातार बढ़ते प्रभाव से भाजपा में खलबली मची हुई है। यही नहीं हर समय दोहरी राजनीति की संभावनाओं के द्वार खुला रखने वाले शरद पवार के विपक्षी एकता के पक्ष में खुलकर खड़ा हो जाने से महाराष्ट्र और आस-पास के इलाकों में होने वाले राजनीतिक-सामाजिक बदलाव को देखते हुए भाजपा गहरी सोच में पड़ गई थी। जिस कारण बीजेपी ने एनसीपी को तोड़ कर नौ विधायकों को मंत्री बना दिया। प्रधानमंत्री की 4 दिन पहले भोपाल में भ्रष्टाचार के खिलाफ दहाड़ आज एक हास्यास्पद प्रहशन बन गई है।

भारत में दक्षिणपंथी राजनीति का स्वर्ण काल

इस समय भारत में चल रहा अमृत काल वस्तुत: दक्षिणपंथी राजनीति का स्वर्ण काल है। जिसने उदारवादी राजनीति के प्रतिमानों को ध्वस्त करते हुए भारतीय समाज और राजनीति को दक्षिणपंथी अनुदारवादी दिशा में मोड़ने में कामयाबी हासिल कर ली है। इसलिए आप देखेंगे कि आम आदमी पार्टी से लेकर सामाजिक न्याय के झंडा बरदारों की पूरी फौज किस तरह से भागते हुए बीजेपी के पाले में खड़ी होती जा रही है। उत्तर प्रदेश, बिहार से लेकर पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र तक एक ही प्रक्रिया चल रही है। जहां मध्यमार्गीय दल और सामाजिक न्याय वादी ताकतें कमजोर साबित हुईं और वे फांसीवाद के एक ही हमले में धराशाई होकर आत्म समर्पण करने लगी हैं।

लेकिन भारत में उदारीकरण ने जिस पैमाने पर आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक विध्वंस किया है उससे नागरिकों का जीवन दूभर हो गया है। लोकतांत्रिक संस्थाएं ढह गई हैं। संविधान को सिर्फ मृत अक्षरों में बदल दिया गया है। उसके एक-एक मूल्यों पर हमला जारी है। लोकतांत्रिक व्यवहार को तिलांजलि देकर बहुमतवादी राजनीति को जनता और देश पर थोपा जा रहा है। इसने भारतीय समाज को ज्वालामुखी के मुहाने पर ला खड़ा किया है।

मणिपुर की घटनाएं इस बात का स्पष्ट संकेत दे रही है कि संघ मार्का राष्ट्रवाद भारतीय समाज के लिए दुख स्वप्न बन गया है। इसके अतिरिक्त दक्षिण भारत सहित अधिकाधिक क्षेत्रों में असंतोष तेजी से बढ़ रहा है। कश्मीर, आदिवासी इलाके और पूर्वोत्तर भारत तो पहले से ही विरोध का झंडा उठाए हुए हैं। दिल्ली के पास के इलाकों के किसान, मजदूर, कर्मचारी और छात्र के बाद अब महिलाएं भी मोहभंग जनित असंतोष के दायरे में खिंच आई हैं।

अगर कोई राजनीतिक दल और विचार इस बात को नहीं समझता कि आज लड़ाई मूलतः फासीवाद बनाम भारतीय राष्ट्र-राज्य से हो गई है। तो वह फासीवाद के हमले का प्रतिवाद नहीं कर सकता। इसलिए विपक्षी दलों की एकता की कार्रवाई आज के सामाजिक यथार्थ से निकली हुई स्वाभाविक राजनीतिक प्रक्रिया है। जिसने भाजपा और संघ को चिंता में डाल दिया है। एकता के दायरे में राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय सभी विचारधाराएं एक मंच पर आती दिख रही हैं।

इसलिए संघ-भाजपा आक्रामक ढंग से सत्ता और संसाधन का दुरुपयोग करते हुए राजनीतिक दलों को तोड़ने, विखंडित करने, डराने-धमकाने, खरीदने के द्वारा अधिकांश नेताओं को अपने पाले में खींच लेने की कोशिश करेंगे।

लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि भारत 2014 के दौर से बाहर निकल आया है। जहां कॉरपोरेट के रथ पर सवार मोदी और भाजपा ने भारत विजय अभियान को एक अंजाम तक पहुंचाया था। आज परिस्थिति बदल चुकी है। इसलिए वे एनसीपी, शिवसेना, जदयू, तृणमूल कांग्रेस को तोड़ने और छोटे दलों को मिलाने में कामयाब हो जाएं लेकिन आने वाले समय में भारतीय जनगण फासिज्म विरोधी संघर्ष में एकताबद्ध होकर एक विशाल संयुक्त मंच का निर्माण करेंगे। जो कॉरपोरेट, हिंदुत्व, फासिज्म को निर्णायक शिकस्त देकर भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को पुनः बहाल करेंगे। इसलिए हमें एनसीपी में हुए विभाजन की अंतर्कथा के विद्रूप को समझते हुए वर्तमान के घटनाक्रमों को इसी अर्थ में लेना चाहिए।

(जयप्रकाश नारायण स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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