मेवात: समाज, संस्कृति, बहादुरी और गांधी से रिश्ता

मेवात खबरों में जब भी लौटता है तो दहकते सच और इलाक़ायी तौर पर पर्याय बन चुकी सांप्रदायिकता के साथ लौटता है, याकि पहलू खान, रकबर वारिस और नासिर जुनैद से लहूलुहान हुए अखबार में लौटता है। मेवात और मेवातियों के साथ इससे बड़ी तकलीफ़देह बात कुछ और नहीं हो सकती है। यह स्पष्ट है कि हम न मेवात को जानते हैं न मेवातियों को। यह धरती कैसी है, इसकी कुछ झलक यहां पेश हैं।

क्या हम जानते हैं कि बाबर और मेवाड़ के महाराणा सांगा के बीच हिन्दुस्तान की तारीख़ का एक बहुत बड़ा युद्ध सन् 1527 ईसवी में हुआ था। इसके बाद मुगल सत्ता यहां टिकने लगी। बाबरनामा के अनुसार 7 राजा, 9 राव, 104 सरदार सांगा के दरबार में थे। इसके बाद भी मुगल सत्ता के पांव इस जमीन पर जम गए। परंतु क्या हम यह जानते हैं कि मेवात के हसन खां मेवाती ने राणा सांगा के साथ मिलकर खानवा के युद्ध में बाबर का मुकाबला किया? वह बहादुर हसन खां मेवाती, उसी मेवात की सरजमीं के थे जिसकी चर्चा इन दिनों ख़ूब हो रही है।

मेव और राजपूतों में विवाह सम्बंध

यही नहीं; 19 वीं शताब्दी में मेव तथा राजपूतों के बीच विवाह संबंध के उदाहरण भी मिलते हैं। अलवर के राजा बख्तावर सिंह की एक रानी मूसी, मेवात घाटा परगना की डैमरोत पाल के चौधरी मंसाराव की बेटी थी। चौधरी मंसाराव मेव मुसलमान थे। इतिहास में इस बात के प्रमाण कहीं नहीं मिलते लेकिन लोक साहित्य में एक दोहा प्रसिद्ध है जो मूसी के सती होने से संबंधित है–

मूसी मंसाराव की, घणो निभायो नेह।

राजा बख्तावर (के) कारणे, हूम दई निज देह।

मेवात की लोकगाथाएं

मेवात में वीरता परक लोकगाथाओं की संख्या बहुत है। इन लोकगाथाओं के नायकों का क्षेत्र बहुत व्यापक है। इनमें फ़ारस के वीर हैं तो राजपूताना के बहादुर भी। मेवात की लोककथाएं, रुस्तम जोधियां और जंगे जैतून के नायक फारसी वीर हैं। दूसरी ओर यहीं की लोकगाथा ‘सांगा राजपूत की बात’ के नायक राजस्थानी वीर हैं। यही नहीं, ‘घुड़चढ़ी मेव की बात’ के नायक मेवात क्षेत्र के वीर हैं, जिन्होंने अलवर और भरतपुर के राजाओं के विरुद्ध संघर्ष किया।

पण्डून का कड़ा किसने लिखा

मेवात के शायरों एवं मिरासियों ने अनेक ऐतिहासिक काव्यों की रचना की है। महाभारत की कथा से मिलता-जुलता ‘पण्डून का कड़ा’ मेवाती भाषा का लोकप्रिय प्रसिद्ध काव्य है। इसके रचनाकार सादुल्लाह खान और नबी खान माने जाते हैं। इसके तीन भाग हैं- पहला ‘बिराड़ की लड़ाई’, दूसरा ‘भींव का कड़ा’ व तीसरा ‘कुरुक्षेत्र की लड़ाई।’ आश्चर्य की ही बात है कि मेवात का यह महाकाव्य दो मुस्लिम शायरों ने रचा।

मेवात और दिल्ली का राज

दिल्ली में अपने राज की स्थापना के बाद अल्तमश ने बयाना और मेवात पर आक्रमण किया, किंतु जीत स्थाई नहीं रही। बलबन ने अपने शासनकाल में कई बार मेवातियों का दमन किया। कहते हैं कि बलबन के समय मेवातियों की बहादुरी का इतना डर हो गया कि तीसरे पहर की नमाज़ के बाद ही पश्चिम की ओर के दरवाजे बंद कर दिए जाते थे। मन में यह सवाल ज़रूर उठता है कि क्या कारण रहा कि दिल्ली में सन् 1206 से सन् 1857 तक उन लोगों का शासन रहा, जो धार्मिक रूप से मुसलमान थे। इसके बाद भी मेव मुसलमानों की दिल्ली से विलगता रही। मेवात हमेशा उनका विद्रोही बना रहा। इस संदर्भ में मेवाती लोक साहित्य में एक दोहा है-

दिल्ली पै धावा दियो, अपणा पण के पाण।

डरप्या मेवन सूं सदा,खिलजी,मुगल,पठाण।

मेवात की संस्कृति में बसे मेव

एक उदाहरण से इस बात को समझते हैं- मेवात की एक लोक कहावत है, “जाट को कहा हिंदू और मेव को कहा मुसलमान।”

यह कहावत इसलिए सही है कि मेवात के पूरे क्षेत्र में शताब्दियों तक आजीविका का साधन कृषि और पशुपालन रहा है। आज भी है। इस क्षेत्र की आम जनता की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियां लगभग एक जैसी रही हैं। यही वह कारण रहा कि मेव, इस्लाम मतावलंबी होने के साथ-साथ अपनी भूमि और आंचलिक मान्यताओं एवं परंपराओं से बहुत ज़्यादा जुड़े थे।

इस संस्कृति ने उनके जीवन को जितना प्रेरित एवं संचालित किया, उतना सांप्रदायिक मान्यताओं ने नहीं किया। अगर हम मेवात के ओरल ट्रेडिशन या साहित्य के बारे में जानें तो पाएंगे कि मिरासी मुस्लिम ही वो समाज है जो इस परंपरा को सहेज रहा है।

इसीलिए कहने में कोई दखल नहीं कि मेवात की लोक संस्कृति किसी धर्म संस्कृति की वाहक न होकर सही अर्थों में लोक की संस्कृति है।

मेवात, मेव और 52 गोत्र

सिद्दीक अहमद मेव, मेवात के मेव मुसलमानों में 52 गोत्रों का जिक्र करते हैं। दिलचस्प बात यह है कि 52 में से 5 गोत्र अपने आप को जादू यानी कृष्ण वंश या यदुवंशी बताते हैं। आमतौर पर गोत्र का चलन मुसलमानों में नहीं है। यह शायद मेव और कायमखानी मुसलमानों में ही देखने को मिलता है।

मेवात की लोक संस्कृति

लोक विवेक ही लोक संस्कृति का मूल है। लोक साहित्य के विभिन्न रूपों, लोकनाट्य, लोकगाथा, लोकगीत आदि में लोक विवेक ही प्रवाहित होता है। जीवन के विविध अंगों और रूपों का नैरंतर्य प्रवाह लोक विवेक की परंपरा का रूप ग्रहण करता है। दरअसल लोक विवेक को पहचानना ही किसी लोक संस्कृति को समझना है। हर सांस्कृतिक ईकाई का लोक साहित्य विविध रूपों में होता है, जो मनोरंजन के साथ-साथ स्थानीय संस्कृति के मूल्यों का वाहक भी है। किसी समाज के सामूहिक व्यक्तित्व के निर्माण में इन रूपों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। ऐसे ही लोक उदाहरणों का भंडार है मेवात।

मेवात आज कोई प्रशासनिक इकाई नहीं रहा हो लेकिन वह सांस्कृतिक इकाई है। यहां की जनता ने खासकर मेव जन में तीज-त्यौहार, खेल-कूद, राग-रंग, बातों-गीतों, दोहों, रुबाइयों के कहन के माध्यम से अपने सम्पूर्ण लोक जन की रचना की है। इनकी जीवन पद्धति की रचना मेवात की लोक संस्कृति के रूप में देखा जा सकता है। इसी संस्कृति में हिंदू-मुस्लिम सांस्कृतिक प्रेम भरा है।

मेवात के इस सांस्कृतिक ताने-बाने में बदलाव की शुरुआत कहीं से होती जान पड़ती है तो इसमें आर्य समाज और तबलीग आंदोलन की बड़ी भूमिका है। इन दोनों ही आंदोलनों ने मेवात के आम लोगों को अधिक धर्मपरायण बनाया। बाद में पूंजीवादी लोकतांत्रिक राजनीति, जिसका अंतिम ध्येय था कि किसी तरह भी हिंदुओं-मुसलमानों के बीच खाई बढ़ाकर यहां के आमजन को महज वोटों में बदल दिया जाए।

मेवात और गांधी जी

सिद्दीक अहमद मेव ने गांधी के साथ मेवात के संबंध के बारे में लिखा है कि गांधी जी की हत्या मेवों के लिए एक सदमा थी। बंटवारे के वक़्त गांधी ने मेव मुसलमानों को भारत में रहने के लिए मना लिया गया था। गांधी जी की हत्या के बाद उन्हें एक बार फिर लगने लगा कि यहां से जाना होगा। इसीलिए मेवात की महिलाएं एक गीत गाती थीं–

‘भरोसा उठ गयो मेवान का,

गोली लागी है गांधीजी के छाती बीच’

अब सवाल है कि हम इन सब बातों के बाद भी मेवात के बारे में कितना जान पाए हैं? मेव मुसलमान रंगनाथन कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार भारत के पिछड़े समाजों में से एक है। तमाम पिछड़ेपन के बावजूद उपरोक्त उदाहरण से यही बात निकल कर आती है। मेवाती समाज एक बहुत बड़ी विरासत का हिस्सेदार भी है। क्या आज के अखबारों के संपादकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को आम जन तक इस सांस्कृतिक विरासत को नहीं पहुंचाना चाहिए। जिस वक्त में मेवात पर चौतरफा हमले हो रहे हैं, क्या यह काम कारगर नहीं होगा? ख़ैर आख़िर में मेवात का एक और दोहा-

निपजा जोधा मरखना, एक बात सौ बात की।

दिल्ली कांधे ढाल की, घींग धरा मेवात की।

(लेख- दीपक चारण; लेखक हरिदेव जोशी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के छात्र हैं।)

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