मिजोरम रेलवे पुल हादसा: वे मजदूर थे और काम करते हुए मारे गये थे

क्या आपने कभी शहतूत देखा है/ जहां गिरता है, उतनी जमीन पर/ उसके लाल रस का धब्बा पड़ जाता है।/ गिरने से ज्यादा/ पीड़ादायी कुछ नहीं।/मैं ने कितने मजदूरों को देखा है/ इमारतों से गिरते हुए/ गिरकर शहतूत बन जाते हुए।

सबीर हका की यह कविता एक ऐसी मीनार की तरह खड़ी होती जाती है जहां से आप मजदूरों की हर रोज हो रही मौत का नजारा देख सकते हैं। शायद तब भी आपके दिलों पर वह धब्बा न पड़े जो इस धरती पर गिरते हुए मजदूर छोड़ जाता है।

यह संयोग ही था, उस दिन चंद्रमा पर चंद्रयान उतर रहा था। वैज्ञानिक तकनीकी विकास से भारत चांद की एक कठिन यात्रा को अंजाम तक पहुंचा रहा था। उसी दिन मिजोरम के आईजोल में एक बन रहे रेलवे पुल का एक हिस्सा, बोल्डर नीचे गिरा और इस खबर के लिखने तक 26 मजदूर उससे कुचल कर मर गये।

चंद्रयान-3 चांद पर और मौत के कुएं में मजदूर

लेकिन, यह कत्तई संयोग नहीं था कि उस खास जगह पर काम कर रहे 40 से अधिक मजदूर मालदा, बंगाल से थे। ये एक खास ठेका व्यवस्था से लाये गये मजदूर थे। मालदा के सत्तारी इलाके की स्मृति सरकार ने आईजोल के इस निर्मार्णाधीन रेलवे पुल का एक हिस्सा आ गिरने से अपने पति, बेटा, पिता और भाई को खो दिया। परिवार के कमाने वाले सारे सदस्य मर गये। सिर्फ एक बच्ची बच गई है जो गांव में उनके साथ थी। बेटा महज 16 साल का था और वह काम पर था।

मालदा से 12 किमी दूर चौदुआर गांव से यहां काम करने वालों में से 11 लोग मर गये। इसी गांव के एक परिवार के 6 लोग काम करते हुए मारे गये। ऐनल हक ने अपना भतीजा, चचेरा भाई और बड़ा भाई खो दिया। 25 अगस्त, 2023 को इंडियन एक्सप्रेस में उसके रिपोर्टर शांतनु चौधरी लिखते हैं कि मारे गये मजदूरों के गांव पहुंचने पर हर तरफ से रोने की आवाजें आ रही थीं।

मुझे नहीं पता है कि इन परिवारों के रोने की आवाजें चांद पर पहुंची थीं या नहीं, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के पास मजदूरों के मरने की खबर विदेश में होने के बावजूद पहुंच गई थी। उन्होंने शोक संदेश ट्वीट किया और मारे गये मजदूरों को 2 लाख मुआवजा देने की घोषणा की। मुझे यह नहीं पता कि इन मारे गये मजदूरों के परिवारों ने इस ट्वीट को पढ़ा या नहीं।

मुझे यह भी नहीं पता कि यह मुआवजा कैसे और कब तक पहुंचेगा। यह रेलवे की ओर से या प्रधानमंत्री कोष से दिया जाएगा, इसकी भी जानकारी नहीं है। मुझे यह भी नहीं पता है कि ये मजदूर रेलवे के मजदूर माने जायेंगे या नहीं? मारे गये मजदूरों को मुआवजा रेलवे देगा या नहीं? और, यदि प्रधानमंत्री द्वारा घोषित 2 लाख रुपये मिल जायेंगे तब यह पैसा उनके जीवन में क्या बदलाव ला देगा?

मुझे ये बातें, इसलिए नहीं पता हैं क्योंकि श्रम से जुड़े बहुत से प्रावधान बदल चुके हैं। रेलवे का एक बड़ा हिस्सा निजी क्षेत्र में चला गया है, उसके निर्माण कार्य का बहुलांश निजी कंपनियों द्वारा किया जा रहा है। ये निजी कंपनियां अपने नीचे बहुत से ठेकेदारों को रख रही हैं। यहां तक कि रेलवे परिचालन की व्यवस्था, सफाई, बिजली आपूर्ति से लेकर स्टेशनों की देखभाल तक निजी कंपनियों के हाथों में जा रहा है। रेलवे इन निर्माणों और कार्यों की जिम्मेदारी से बाहर है, और जो कंपनियां हैं वह ठेका व्यवस्था और मजदूरों को काम पर लगाने के अलग-अलग प्रावधानों से लैस हैं। उसमें मजदूरों का कितना हक बच गया है, यह देखना इन कंपनियों की व्यवस्थाओं और प्रावधानों से होकर गुजरना होगा।

हर राज्य में मर रहे मजदूर

यह 31 जुलाई, 2023 की बात है। यह मुंबई, थाने की बात है। 700 टन भारी एक मशीन 35 मीटर ऊंचाई से नीचे गिरती है और 20 मजदूरों को मार डालती है। मारे गये लोगों में दो इंजीनियर, पांच स्टॉफ और 13 मजदूर थे। यह घटना समृद्धि एक्सप्रेसवे के निर्माण के दौरान हुई। यह काम महाराष्ट्र राज्य सड़क विकास निगम के तहत हो रहा था। इस घटना के बाद दो ठेकेदारों पर 304ए अर्थात लापरवाही में किसी की जान लेना और 337 अर्थात सुरक्षा आदि की व्यवस्था न देकर मार देने जैसे प्रावधानों के तहत मुकदमा दर्ज हुआ।

यहां भी प्रधानमंत्री ने मारे गये मजदूरों को 2 लाख रुपये मुआवजा देने की घोषणा किया और राज्य सरकार की ओर से 5 लाख रुपये देने की घोषणा की गई। घायलों को 50 हजार रुपया देने की घोषणा हुई। यहां जो दो ठेकेदार हैं उसमें से एक हैदराबाद से है और दूसरा सिंगापुर से। जाहिर है, उनके काम की शर्तें, मजदूरों को काम पर रखने, मजदूरी से लेकर उनके जीवन सुरक्षा से जुड़े प्रावधान भी अलग-अलग होंगे।

यह बात सिर्फ रेलवे तक सीमित नहीं है। दिल्ली के ओखला इंडस्ट्रियल एरिया में दो दिन पहले मजदूर 20 फिट गहरा गढ्ढा खोद रहे थे। संजय कालोनी में इस जगह का मालिक बेसमेंट बनवा रहा था। आठ मजदूर अंदर की तरफ थे। इसमें से दो मजदूर मिट्टी में दबने की वजह से मर गये, बाकी 6 चिंताजनक स्थिति में अस्पताल में भर्ती कराये गये। बाकी 7 और मजदूर इसी मकान के बेसमेंट में काम करते हुए मिट्टी गिरने की चपेट में आ गये। पुलिस ने काम करा रहे मालिक को गिरफ्तार कर लिया। लेकिन, जाहिर है गैर इरादतन हत्या जैसे कमजोर प्रावधानों में उसे बेल पर आने में ज्यादा समय नहीं लगना है। मारे गये मजदूरों को मुआवजा कौन देगा, यह चुप्पी से भरा हुआ विषय है।

कंस्ट्रक्शन कंपनियों और ठेकेदारों के पक्ष में कानून

कंस्ट्रक्शन एक ऐसा शब्द है, जिसमें कई सारे काम समा जाते हैं। रेलवे से लेकर रियल स्टेट, आसमान छूते घरों की सफाई से लेकर मेगा चौड़ी सड़कों के निर्माण तक, हर तरफ इस कंस्ट्रक्शन क्षेत्र का बोलबाला है। इन सारे कामों में निजी कंपनियों का दखल है। सरकारी पैसों, बैंकों के लोन से लेकर विदेशी गठजोड़ और ऋण-आधारित इन कंपनियों ने मजदूरों को काम पर रखने और उनके वेतन भुगतान की एक खास व्यवस्था बना रखी है, जिसे आमतौर पर ठेका प्रथा कहा जाता है।

ये कंपनियां और ठेकेदार अपने पंजीकरण के आधार पर केंद्र, राज्य के स्तर पर अलग-अलग सुविधाएं और छूट हासिल करती हैं। कई विदेशी कंपनियां, खासकर मलेशिया, सिंगापुर से पंजीकृत होने से अतिरिक्त छूट भी हासिल करती हैं। लेकिन, सारा जोर कम तकनीक और लागत का प्रयोग और न्यूनतम श्रम-भुगतान वाले श्रम पर अधिकतम निर्भरता बनाकर काम करने वाली कंपनियां मुनाफा कमाने की होड़ में लगी हुई हैं। मजदूरों को न्यूनतम सुविधाएं देकर, जिसमें उसके जीवन की सुरक्षा भी शामिल है, काम कराने की होड़ हर रोज मजदूरों की जान ले रही है।

काम के दौरान मारे जा रहे मजदूरों की बढ़ रही संख्या

यदि आप आंकड़ों से गुजरें, तब 2020 के बाद से इस तरह के काम के दौरान मारे जा रहे मजदूरों की संख्या में तेज वृद्धि देख सकते हैं। इसके कई कारण हैं। उत्तर-प्रदेश, राजस्थान जैसे बहुत से राज्यों ने श्रम संबंधी कानूनों को या तो खत्म करने की ओर ले गये या मजदूरों से मनमाना काम कराने का प्रावधान बना दिया।

दूसरे, औद्योगिक क्षेत्र में रोजगार लगातार कम होता गया है। तीसरा, सार्वजनिक क्षेत्रों में रोजगार के अवसर नाममात्र के रह गये हैं। चौथा, गांव में बड़े पैमाने पर मनरेगा मजदूरों को विभिन्न तकनीकी खामियों के आधार पर काम से बाहर किया जा रहा है। और मनरेगा के लिए आवश्यक वित्त का प्रबंध नहीं किया जा रहा है। पांचवां, खेती की स्थिति लगातार बदतर होती गई।

परिवार चलाने के लिए बच्चों से कराया जा रहा काम

लेकिन, सबसे बड़ा कारण महंगाई है जिससे बचने के लिए परिवार के हर सदस्य को काम पर लग जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं दिख रहा है। आईजोल में मारे गये मालदा के इलाके से आने वाले थे और कई मजदूर एक ही परिवार के लोग थे।

यह एक भयावह स्थिति है। भयावह स्थिति सिर्फ इसलिए नहीं है कि हर रोज मजदूर मारे जा रहे हैं। भयावह इसलिए भी है, जिंदगी चलाने के लिए एक पिता अपने 16 साल के बच्चे को भी काम पर ले जाने के लिए मजबूर हो रहा है। एक परिवार की आय सिर्फ पिता की कमाई के बल पर चलने लायक रह ही नहीं गई है। ऐसे बहुत से परिवार हैं जो काम न मिलने की स्थिति में कम खा रहे हैं या भूखे रहने की स्थिति में जा रहे हैं। ऐसे परिवारों की संख्या कितनी है, यह बताने से सरकार गुरेज कर रही है।

इस भयावह स्थिति में एक और मसला छुपा हुआ है। और वह है नागरिक समाज। सिर्फ पूंजी ही नहीं, नागरिक समाज भी इसी श्रम पर आधारित जिंदगी जीता है। यह दोनों ही समुदाय श्रमिकों के प्रति जिस तरह का व्यवहार कर रहा है, उससे लगता है कि उनके जेहन में मजदूर नागरिक ही नहीं है। इसे हम कोविड-19 के समय में मजदूरों के शहर से पलायन में देख चुके हैं। अब एक बार मजदूरों का पलायन तेजी से बढ़ रहा है। इस बार यह बेहद बेआवाज है और यह सन्नाटा तभी टूट रहा है जब मजदूर कुचलकर मारा जा रहा है। यह सन्नाटा हर रोज टूट रहा है। यदि हम बहरे नहीं हुए हैं, तब हमें उस मजदूर और उसके परिवार की चीख सुनने की कूवत ज़रूर रखनी चाहिए।

(अंजनी कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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