सामाजिक न्याय की मृगमरीचिका में फंसने के बजाए शिक्षा, रोजगार के मुद्दे को बुलंद करें वामपंथी पार्टियां  

नई दिल्ली। बिहार में जाति आधारित जनगणना को लेकर कई तरह के कयास लगाये जा रहे थे। अनुमान था कि इसमें बड़ी संख्या में सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े समुदायों और दलित वर्ग के लोगों की पहचान हो सकेगी, जिसे आधार बनाकर लक्षित विकास के माध्यम से उन्हें भी मुख्यधारा में लाकर बिहार के समग्र विकास के लक्ष्य को हासिल किया जा सकेगा।

लेकिन इन आंकड़ों की तह में जाने पर ऐसा लगता है कि बिहार का लगभग हर वर्ग ही राज्य संरक्षण पाने का हकदार है। यदि दो-तीन जातियों को अपवाद मान लें तो गरीबी, बेरोजगारी और विकास की दौड़ में बिहार की समूची आबादी ही काफी पीछे छूट गई है।

आजादी के बाद से कांग्रेस और पिछले 30 वर्षों से सामाजिक न्याय के पुरोधा लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के ही नेतृत्व में यदि बिहार चल रहा था, तो आज जब जातिवार आर्थिक आंकड़े आ गये हैं तो वे कौन सा बुनियादी परिवर्तन लाने जा रहे हैं? या यह सिर्फ अगले 5 से 10 वर्षों तक अपनी सामाजिक न्याय की डफली को ही जिंदा रखने की कवायद मात्र है?

जब शिक्षा ही नहीं तो लोगों के हालात कैसे बदलेंगे?

बिहार की आबादी करीब 13 करोड़ के आसपास है। लेकिन रिपोर्ट से जानकारी मिलती है कि 10वीं पास लोगों की संख्या राज्य में मात्र 1 करोड़ 92 लाख 29 हजार 997 है, जो कुल आबादी के 14.71% हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है।

इसी प्रकार राज्य में केवल 9.19 प्रतिशत यानि 1.20 करोड़ (1,20,12,146) लोगों ने ही उच्च माध्यमिक परीक्षा उत्तीर्ण की है। जहां तक स्नातक परीक्षा पास लोगों की संख्या की बात है तो राज्य में केवल 79,89,528 लोग स्नातक हैं जो कुल आबादी का 6.11 प्रतिशत बैठता है। सामान्य वर्ग (जनरल) में 26,95,820 लोग स्नातक हैं, जो उनकी कुल आबादी का 13.41 प्रतिशत है।

अनुसूचित जाति के केवल 7,83,050 लोगों के पास स्नातक की डिग्री है जो उनकी कुल आबादी का 3.05 प्रतिशत है, जो अन्य जातियों की तुलना में बेहद कम है। स्नातकोत्तरों की बात करें तो, राज्य में इनकी कुल संख्या 10,76,700 है, जो कुल आबादी का मात्र 0.82 प्रतिशत है। चार्टर्ड अकाउंटेंट एवं पीएचडी डिग्री धारियों की संख्या महज 95,398 है, जो कुल आबादी का 0.07% है।

इस संख्या को देखकर तो यही निष्कर्ष निकलता है कि बिहार में सबसे पहले तो लोगों को शिक्षा की जरूरत है। बिहार के पढ़े-लिखे अधिकांश लोग बिहार छोड़कर देश और दुनिया में आबाद हो चुके हैं, क्योंकि उनके लिए अपनी अगली पीढ़ी की शिक्षा एवं बेहतर भविष्य के लिए यही जरूरी लगा। लेकिन जो बचे हैं, उनके लिए अब न शिक्षा बची है और न ही कोई उम्मीद।

पिछले 4 महीनों से राज्य में 22 लाख से अधिक प्राथमिक से लेकर इंटरमीडिएट स्तर के छात्रों को उनके विद्यालयों से निष्काषित किया जा चुका है। सामाजिक न्याय की दुहाई देने वाली सरकार से उम्मीद की जानी चाहिए कि 15 दिनों तक कक्षा में अनुपस्थित रहने वाले छात्रों को निष्काषित करने से पहले अपने गिरेबान में झांके और पता लगाये कि क्या उसके द्वारा विद्यालयों में अध्यापकों की नियुक्ति की गई है?

यदि की गई है और अध्यापक-छात्र का अनुपात भी 1:30 बना हुआ है तो यह जिम्मेदारी अध्यापक की है कि वह छात्रों को स्कूल आने के लिए बाध्य करे। इसके लिए विद्यालय और सरकार के पास तमाम उपाय हैं। शिक्षा का अधिकार कानून बनाने का उद्येश्य ही यही रहा है कि देश में प्रत्येक बालक-बालिका साक्षर ही नहीं बल्कि शिक्षित बन सके। लेकिन हैरानी की बात है कि इस विषय पर विपक्ष ही नहीं बल्कि वापमंथ भी पूरी तरह से खामोश है।

6,000 रुपये मासिक आय पर राज्य की एक तिहाई आबादी जिंदा

रिपोर्ट के मुताबिक राज्य के 34.1 फीसदी परिवार ऐसे हैं, जिनकी मासिक आय 6000 रुपये से भी कम है। वहीं, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के 42 प्रतिशत परिवार गरीबों श्रेणी में हैं। आंकड़ों के मुताबिक, पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग के 33 फीसदी से ज्यादा परिवारों को भी गरीब की श्रेणी में रखा गया है। यदि औसत 5 लोगों का परिवार मान लें तो भी मासिक 6,000 रुपये की आमदनी पर जीवनयापन करने वाले 34.1% लोगों के लिए जिंदगी कितनी कठिन होगी, इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।

लेकिन ऐसा नहीं है कि गरीबी की मार सिर्फ अति पिछड़ों या दलितों के हिस्से है। सामान्य जाति में भी 25.09% परिवार इसी श्रेणी में आते हैं। ब्राह्मण 25.32% तो राजपूत 24.89% गरीब हैं। ओबीसी में यादव 35.87%, कुशवाहा 34.32% तो कुर्मी 29.90% गरीब हैं। बिहार के कुल 2 करोड़ 76 लाख 68 हजार परिवारों में से 94,42,000 परिवार (34.13%) गरीब श्रेणी में आते हैं।

इतनी कमरतोड़ महंगाई और पूरे परिवार की कमाई मात्र 6,000 रुपये मासिक को तो गरीबी की रेखा से भी नीचे की श्रेणी में रखे जाने की जरूरत है। सामान्य वर्ग में गरीब वर्ग में सबसे कम संख्या कायस्थ 13.83% है, जबकि अत्यंत पिछड़ी जाति (ईबीसी) में कादर समुदाय में यह प्रतिशत 62.72% तक पहुंच जाता है।

6,000 रुपये मासिक के बाद 10,000 और 20,000 रुपये मासिक आमदनी कमाने वाले परिवार बिहार की कुल आबादी के 75-85% आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं, 20-50,000 रुपये प्रति माह में बीच जीवन निर्वाह करने वाले लोगों का प्रतिशत विभिन्न समुदायों में 7-15% तक है। 50,000 रुपये प्रतिमाह या अधिक कमाने वाले लोगों में सामान्य वर्ग में 16.95%, ओबीसी में 10.87%, ईबीसी 8.32%, अनुसूचित जाति 5.90% एवं अनुसूचित जनजाति में 8% लोग ही आते हैं। असल में यही वह तबका है जो नौकरियों में आरंक्षण का लाभ भी उठा रहा है और सामाजिक न्याय की लड़ाई की अगुआई कर रहा है।

राज्य में 16 लाख सरकारी नौकरियों में 75% आरक्षण के बजाय 100% भी कर दिया जाये तो क्या फर्क पड़ता है? बिहार की कुल आबादी फिलहाल 13 करोड़ के आसपास है। सरकारी कर्मचारियों की संख्या लगभग 16 लाख है। आबादी और नौकरी के बीच तुलना करें तो हर 100 लोगों में से मात्र 1.21% के लिए ही सरकारी नौकरी उपलब्ध है। बाकी के 98% आबादी के लिए तो हर हाल में खेतीबाड़ी, प्राइवेट नौकरी, स्वरोजगार, दिहाड़ी मजदूरी और असंगठित क्षेत्र ही बचा रहने वाला है।

नितीश कुमार सरकार की घोषणा के अनुसार पिछड़ा एवं अंत्यंत पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण अब पहले के 33% से बढ़ाकर 43% कर दिया गया है। अर्थात पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण में 10% की वृद्धि की गई है। इसी तरह अनुसूचित जाति (16% आरक्षण) को बढ़ाकर अब 20% और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण (1%) को अब 2% तक कर दिया गया है। आर्थिक आधार पर मिलने वाले 10% आरक्षण को जस का तस रखा गया है।

इस प्रकार 60% आरक्षण को अब बढ़ाकर 75% तक पहुंचा दिया गया है, लेकिन सवाल उठता है कि क्या इनसे लक्षित समुदाय के वंचित तबकों तक रोजगार मुहैय्या हो सकेगा, या फिर 10-15 वर्ष बाद जब फिर से असंतोष बढ़ेगा तो कोई और सामाजिक न्याय का चारा फेंका जायेगा?

मंगलवार को बिहार विधानसभा में पेश की गई जाति सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार राज्य में केवल पंद्रह लाख लोगों के पास नियमित इंटरनेट कनेक्शन के साथ अपने लैपटॉप हैं, जो सर्वेक्षण की गई आबादी का दो प्रतिशत भी नहीं है। सामान्य वर्ग के 6.33 लाख लोगों के पास लैपटॉप और इंटरनेट कनेक्शन पाया गया, जबकि अनुसूचित जाति में यह संख्या 95,490 थी, जो उनकी आबादी के मात्र 0.37% का प्रतिनिधित्व करता है।

रिपोर्ट में जानकारी दी गई है कि बिहार की कुल 13 करोड़ जनसंख्या में से 8.83 करोड़ गृहणियां और छात्र हैं, जो कुल जनसंख्या का 67.54 प्रतिशत है। राज्य में श्रमिकों की जनसंख्या 2,18,65,634 (जनसंख्या का 16.73%) है। इन दोनों समुदाय का योग 84.27% बैठता है, जिसका अर्थ है शेष आबादी बेरोजगारों एवं 60 वर्ष से ऊपर के वृद्ध पुरुषों की है। लेकिन महिलाओं एवं विद्यार्थियों की 67.54% आबादी में यदि 50% गृहणियां हैं, तो कहा जा सकता कि बिहार में 40% बेरोजगारी की दर है। हालांकि एनएसएसओ की रिपोर्ट खेतों या दुकान पर हाथ बंटाने वाले परिवार के सदस्य को बेरोजगार की गिनती में नहीं रखती है।

आवास की दुनिया भी सिफ़र है

बिहार के 2.76 परिवारों में से 1.01 करोड़ परिवार ही ऐसे हैं, जिनके पास 2 या उससे अधिक कमरों का पक्का मकान है। 61.89 लाख परिवार (22.37%) परिवारों के पास एक कमरे वाली पक्की छत है। लेकिन 73.44 लाख परिवार (26.54%) ऐसे हैं, जिनकी छत टिन/खपरैल की बनी हैं। लेकिन 38.99 लाख परिवारों (14.09%) की जिंदगी तो आज भी फूस के छप्पर तले बीत रही है। 63,840 परिवार ऐसे भी पाए गये हैं, जिनके सिर के ऊपर किसी प्रकार की छत नहीं है।

इन्हीं को ध्यान में रखकर नितीश सरकार जमीन खरीदने के लिए 1 लाख रुपये (पूर्व में 60,000 रूपये) और मकान बनाने के लिए 1.20 लाख रूपये देने की घोषणा की है। इसके अलावा राज्य के 95 लाख गरीबों (प्रतिमाह 6,000 रुपये से कम आय) के लिए राज्य मद से प्रति वर्ष 50,000 करोड़ रुपये (कुल राशि 2.5 लाख करोड़ रुपये) खर्च करेगा। इसके तहत हर गरीब परिवार को 2 लाख रुपये की सहायता राशि मुहैया कराई जायेगी, जिससे कि परिवार कोई काम-धंधा शुरू कर सके या भूमिहीन जमीन खरीद सके।

एक यही काम है, जिसे कहा जा सकता है कि जातिगत सर्वेक्षण के बाद नितीश सरकार ने ठोस रूप से चिंहित किया है। लेकिन क्या एकमुश्त 2 लाख रुपये देने से ये परिवार गरीबी रेखा से बाहर आने में सफल हो सकते हैं? इससे बड़ी रकम तो एनएचएआई ने देश में राजमार्गों के निर्माण में किसानों की भूमि के बदले में चुकता कर दिए थे। हम सभी जानते हैं कि ये रकम बड़ी तेजी से गांव के साहूकारों, सूदखोरों के जरिये गरीबों के हाथ से निकल जाने वाले हैं।

बिना राजकीय हस्तक्षेप, उद्योग-धंधा चलाने एवं विपणन के लिए सप्लाई चेन विकसित किये बिना अधिकांश पूंजी स्वाहा हो जाने वाली है। इसके साथ ही बड़ा सवाल यह है कि क्या इस मद के लिए राज्य के पहले से चले आ रहे जनकल्याण योजनाओं में भारी कटौती नहीं की जायेगी?

हाल के वर्षों का अनुभव तो यही बताता है कि क्या केंद्र सरकार और क्या राज्य, सभी सरकारों ने सिर्फ अपने लिए वोट की खातिर सभी कल्याणकारी योजनाओं के मद में भारी कटौती जारी रखी है, और इसके स्थान पर आम लोगों के खाते में सीधे कैश ट्रांसफर कर तात्कालिक राहत तो पहुंचा दी है, लेकिन बुनियादी स्वास्थ्य सुविधा, शिक्षा, सामुदायिक केंद्र, आंगनबाड़ी, मिड-डे मील सहित सरकारी स्कूलों तक को एक-एक कर बंद किया जा रहा है। स्वयं बिहार में 22 लाख से अधिक छात्रों का निष्कासन इसी बात की गवाही दे रहा है कि गरीबों की आंखों में धूल झोंककर उनके एवं उनके भविष्य को पूरी तरह से अंधकारमय बनाया जा रहा है।

वामपंथ के समक्ष यक्ष प्रश्न 

मंडल की लहर में उत्तर भारत में वामपंथी पार्टियों ने पाया कि उनके आधार क्षेत्र ही नहीं बल्कि उनके नेताओं की भी अच्छी खासी जमात बसपा, सपा और राजद जैसे सामाजिक न्याय की लड़ाई का नेतृत्व करने वाले क्षेत्रीय दलों में समाहित हो गये। एक तरफ मंडल तो दूसरी तरफ कमंडल (हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक उन्माद) के सामने कांग्रेस और वामपंथी दलों के सिमटते जाने की घड़ी थी।

नवउदारवादी अर्थव्यस्था के साथ फासीवादी एवं आइडेंटिटी पॉलिटिक्स का यह दौर अपनी स्वाभाविक रफ्तार से बढ़ा। लेकिन रोजगार रहित विकास का दौर आज K-shape इकॉनमी की शक्ल ले चुका है, और विकास का रस ऊपर से नीचे की ओर आम लोगों के लिए टपकने के बजाय अब उनके रक्त से ही खुद को पोषित करता जा रहा हो, तो वामपंथ को भी सोचना होगा।

आज थोथे नैरेटिव के बल पर फासीवादी शक्तियां या सामाजिक न्याय की शक्तियां भी दो-चार दिन तक ही व्यापक आबादी को अपने पक्ष में रखने में कामयाब हो पा रही हैं। झूठे आख्यान और कथित राष्ट्रीय मीडिया में जीडीपी के आंकड़ों के बल पर यदि देश के गरीबों को बहलाया जा सकता, तो मोदी सरकार कोविड-19 के खत्म होने के बाद ही 5 किलो मुफ्त राशन बंद करा चुकी होती। सभी जानते हैं कि बहुसंख्य आबादी को सब्सिडी में राशन, गैस, खाद सहित कृषि ऋण माफ़ी देना कॉर्पोरेट और उसके प्रभाव में जकड़े मध्य वर्ग को कितना नागवार गुजरता है।

लेकिन आज K-shape की लूट को बदस्तूर बनाये रखने के लिए वे मुफ्त राशन स्कीम को चुपचाप गटक रहे हैं। वामपंथ की ऐतिहासिक जिम्मेदारी है कि वह अपनी भूमिका को पहचाने और देश के सामने इस लूट का पर्दाफाश ही नहीं करे बल्कि उन वैकल्पिक नीतियों, नारों से देश की बहुसंख्यक अवाम को एकजुट करे ताकि एक मुकम्मल न्यायसंगत व्यवस्था के निर्माण की राह प्रशस्त हो सके।

संसदीय लोकतंत्र में कुछ सीटों को जीतने की लालसा में अपनी बुनियादी प्रतिस्थापना से समझौतावादी रुख सोशल डेमोक्रेट की निशानी है, और भारतीय वामपंथ के ऐतिहासिक संघर्ष को देखते हुए उम्मीद की जानी चाहिए कि देर-सवेर वह नवउदारवादी-फासीवादी-आइडेंटिटी राजनीति की काट पेश करने में सक्षम रहेगा।

(रविंद्र पटवाल ‘जनचौक’ की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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