पीएम मोदी के चीयरलीडर्स की तरह काम कर रहा है नीति आयोग: जयराम रमेश

नीति आयोग द्वारा मोदी सरकार के 9 वर्षों के शासनकाल के दौरान 25 करोड़ भारतीयों को गरीबी की रेखा से बाहर निकाल लाने के दावों पर अब महाभारत छिड़ गई है। मल्टी डायमेंशनल पावर्टी इंडेक्स (एमपीआई) या बहुआयामी गरीबी सूचकांक जिसे वर्ष 2010 में यूएनडीपी प्रोग्राम के तहत विश्व में गरीबी को मापने के लिए अपनाया गया था, को आधार बनाकर नीति आयोग की रिपोर्ट पर अब देश के विभिन्न आर्थिक विशेषज्ञों, राजनीतिज्ञों सहित आम लोग भी घोर आश्चर्य व्यक्त कर रहे हैं।

भारत जोड़ो न्याय यात्रा पर राहुल गांधी के साथ मीडिया का प्रभार संभाल रहे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता जयराम रमेश ने नीति आयोग को पीएम मोदी के चीयरलीडर्स के तौर पर काम करने का आरोप तब लगाया जब आज मीडिया में केंद्रीय मंत्री राजीव चन्द्रशेखर की ओर से भारत जोड़ो न्याय यात्रा पर चुटकी और व्यंग्य करते हुए कहा कि “वास्तविक न्याय” कौन कर रहा है, इसे आप नीति आयोग की रिपोर्ट से जान सकते हैं।

राजीव चंद्रशेखर ने अपने बयान में कहा, “पूरा देश जानता है कि पिछले 65 वर्षों तक उन्होंने (कांग्रेस) गरीबों के साथ कैसा अन्याय किया। पीएम मोदी के सत्ता में आने के बाद ही 25 करोड़ लोग गरीबी से मुक्त किये जा सके। इसलिए, सारा देश जानता है कि कौन न्याय कर रहा है और कौन अन्याय। लेकिन इसके बावजूद यदि वे लोग अपनी यात्रा को ‘न्याय यात्रा’ कहना चाहते हैं तो हमें कोई आपत्ति नहीं है।”

बता दें कि नीति आयोग का गठन 2015 में पूर्ववर्ती योजना आयोग के स्थान पर किया गया था। पहले के पंचवर्षीय योजना के स्थान पर इसमें ‘15 वर्षीय रोडमैप’ मॉडल को अपनाया गया।

जाहिर सी बात है कि राहुल गांधी की ‘न्याय यात्रा’ को अन्याय यात्रा बताने वाले राजीव चंद्रशेखर की बात कांग्रेस के पदाधिकारियों को नागवार गुजरी है। इसी क्रम में जब एक पत्रकार ने जयराम रमेश से सवाल किया तो उन्होंने छूटते ही नीति आयोग पर जमकर अपनी भड़ास निकालते हुए इसे पीएम मोदी का चीयरलीडर्स बता डाला।

जयराम रमेश ने कहा, “अरे राजीव चन्द्रशेखर कौन है बोलने के लिए? नीति आयोग की रिपोर्ट पूरी तरह से फर्जी रिपोर्ट है। इसके बारे में हम कल दिल्ली में एक प्रेस कांफ्रेंस करने जा रहे हैं। नीति आयोग कोई स्वतंत्र संस्था तो है नहीं, ये तो प्रधानमंत्री का ढिंढोरा पीटने के लिए बैठे हुए हैं। पीएम मोदी के चीयरलीडर्स हैं, ड्रम बीटर हैं। नीति आयोग के द्वारा जो आंकड़े जारी किये गये हैं, इस पर कोई भी विश्वास नहीं कर सकता। सभी आर्थिक विशेषज्ञ इन आंकड़ों को नकार रहे हैं।”

गौरतलब है कि देश के कई अर्थशास्त्रियों की ओर से भी नीति आयोग की रिपोर्ट को लेकर सवाल खड़े किये जा रहे हैं। दूसरी तरफ भाजपा की ओर से देशभर में सोशल मीडिया पर इन आंकड़ों को लेकर बड़े पैमाने पर प्रचार-प्रसार शुरू हो चुका है। इसे पीएम मोदी के 9 वर्षों की सबसे बड़ी उपलब्धि के रूप में प्रचारित किया जा रहा है।

नीति आयोग द्वारा बहुआयामी गरीबी सूचकांक में पोषण, शिशु एवं बाल मृत्यु दर, मातृत्व स्वास्थ्य, स्कूली पढ़ाई, स्कूल में हाजिरी की संख्या, खाना पकाने का इंधन, स्वच्छता, पेयजल, आवास, बिजली, संपत्ति एवं बैंक अकाउंट को आधार बनाया गया है। इन मानदंडों के आधार पर यदि कोई व्यक्ति 33% या उससे अधिक मामलों में अपात्र पाया जाता है, तो उसे ही बहुआयामी गरीबी के दायरे में गरीब माना जा सकता है।

बड़ा सवाल यह है कि नीति आयोग ने इसके लिए वास्तव में देश में कोई सर्वेक्षण कराया है, या मीटिंग कर ही निर्धारित कर लिया कि देश में इन आधारों पर 25 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर आ गये? इस संबंध में योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष डॉ एन सी सक्सेना का साफ कहना था कि “बहुआयामी गरीबी (Multidimensional Poverty) का आइडिया तो काफी अच्छा है, लेकिन सवाल उठता है कि हम यह डेटा जुटा कहाँ से रहे हैं?”

बड़ा सवाल: डेटा कहां है?

आंकड़े जुटाने के लिए हमारे देश में तीन प्रकार के स्रोत मौजूद हैं: 1. जनगणना (Census), 2. नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (NSSO) एवं 3. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़े। लेकिन आज की तारीख में ये तीनों तो ठप पड़े हैं।

सक्सेना बताते हैं, “2021 में जनगणना की जानी थी, जिसे नहीं किया गया। इसी प्रकार एनएसएसओ का डेटा भी 2011-12 के बाद से जारी ही नहीं किया गया, और नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे को तो सस्पेंड ही कर दिया गया है। ऐसे में तो डेटा तो ही हमारे पास नहीं है।”

यह अपने आप में नीति आयोग की भूमिका पर गहरे सवाल खड़े करता है। लेकिन ये सब पूछने पर सरकार और नीति आयोग कोई जवाब नहीं देगी। नीति आयोग ने तो आंकड़े जारी कर दिए, और यूनडीपी ने भी जस का तस इन आंकड़ों को भारत सरकार के आंकड़े मानकर अपने सतत विकास के मानचित्र में भारत की तस्वीर उजली कर दी।

लेकिन वास्तविक धरातल का हाल तो देश में बच्चे-बच्चे की जुबान पर है। जनगणना, एनएसएसओ एवं नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के बगैर देश में गरीबों की वास्तविक संख्या क्या है, के बारे में अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है। इन आंकड़ों के आधार पर ही पता चल सकता है कि देश में कुल कितने गरीब हैं।

असल बात तो यह है कि नोटबंदी के बाद से ही देश में बड़ी संख्या में बदहाली बढ़ी, जो जीएसटी को लागू करने के बाद 2017-18 में बेहद मुखर रूप से सामने आने लगी थी।

मार्च 2020 में कोविड-19 महामारी के दौरान राष्ट्रव्यापी कड़े लॉकडाउन में देश ने देखा कि किस प्रकार उद्योग-धंधों को पूरी तरह से ठप कर देने और आवागमन को पूरी तरह से बंद कर देने के कारण करोड़ों श्रमिकों को पैदल ही पंजाब, दिल्ली, मुंबई, सूरत और दक्षिणी भारत से अपने-अपने गाँवों की ओर लौटने के लिए मजबूर होना पड़ा था।

दो वर्षों तक कोविड महामारी का दंश झेलते करोड़ों लोगों के लिए मोदी सरकार मुफ्त राशन, पीएम किसान और मनरेगा के बजट में लगातार बढ़ोत्तरी करने को विवश थी। 2022 में जब हालात सामान्य हुए, देश की बहुसंख्यक आबादी के लिए हालात सामान्य नहीं हो पाए। इस तथ्य को सरकार भले स्वीकार न करे, लेकिन 80 करोड़ लोगों को 5 किलो मुफ्त राशन भी वही मुहैया करा रही है।

क्या इसे अजीब संयोग नहीं कहना चाहिए कि एक तरफ नीति आयोग का हवाला देकर भाजपा 25 करोड़ लोगों को गरीबी से मुक्त करने के लिए खुद की पीठ थपथपा रही है, वहीं दूसरी तरफ 80 करोड़ लोगों को आज भी गरीब मानकर प्रति माह मुफ्त 5 किलो अनाज भी वितरित कर रही है?

जब देश में 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे थे, तब पीएम मोदी ने आगे बढ़कर घोषणा की कि मुफ्त अनाज की इस योजना को अगले 5 वर्षों तक मोदी सरकार जारी रखने जा रही है। इसका साफ़ अर्थ है कि सरकार मानती है कि देश में गरीबी की रफ्तार कम होने के बजाय उसमें भयानक वृद्धि हो चुकी है।

इतनी विशालकाय आबादी को गरीबी के दलदल में रखकर 5 किलो मुफ्त अनाज वितरित करने के बजाय, ठोस आर्थिक नीतियों को अपनाकर चरणबद्ध ढंग से गरीबी के दलदल से उबारने की ओर ध्यान देने की जरूरत है। लेकिन मोदी सरकार के पास असल में इस बारे में न कोई सोच है, और न ही फुर्सत। उसे तो सिर्फ आंकड़ों की बाजीगरी कर भव्य, दिव्य और विश्वगुरु वाली छवि दिखाकर हर समय कोई न कोई चुनाव जीतने का ही खुमार छाया रहता है। 

नीति आयोग की रिपोर्ट पर बाथ यूनिवर्सिटी के विजिटिंग प्रोफेसर, संतोष मेहरोत्रा कई गंभीर खामियां गिनाते हैं। उनका साफ़ मानना है कि स्वास्थ्य, शिक्षा एवं सार्वजनिक कल्याण पर पिछली सरकारों द्वारा जो कुछ जमीनी काम किया गया था, उनकी रोशनी में नीति आयोग ने सुधार के जो प्रोजेक्शन दिए हैं, उनमें कई खामियां हैं।

प्रोफेसर संतोष मेहरोत्रा ​​ने कहा कि यूपीए सरकार के कार्यकाल में अन्य कल्याणकारी उपायों के साथ-साथ शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवा में निवेश में वृद्धि देखने को मिली थी। यूपीए सरकार के दौरान दो-तिहाई से भी अधिक लोगों को सब्सिडी में राशन उपलब्ध कराने के साथ-साथ शिक्षा का अधिकार (आरटीई) अधिनियम, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) कार्यक्रम शुरू किए गए थे।

मेहरोत्रा के शब्दों में, “नीति आयोग ने 2005-6 से 2015-16 की अवधि के दौरान सभी प्रमुख संकेतकों पर किए गए सुधारों का वार्षिक मूल्यांकन किया है। इसमें अनुमानित वार्षिक अनुमान डेटा में 2014-15 और 2015-16 की अवधि भी शामिल है। नीति आयोग ने उस रफ्तार का श्रेय ले लिया जिसके लिए असल में पिछली सरकार जिम्मेदार थी।”

नीति आयोग की रिपोर्ट असल में एनएफएचएस 5 पर आधारित है, जिसे दो चरणों में आयोजित किया गया। NFHS 5 के पहले चरण की रिपोर्ट 2019 में 22 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों के लिए जारी की गई थी, जबकि दूसरे चरण की रिपोर्ट 2021 में जारी की गई थी। लेकिन एमपीआई डेटा में 2022-23 तक की अवधि को शामिल कर लिया गया है।

इसी प्रकार 2019 तक 22 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में दर्ज किए गए औसत सुधारों को अगले चार वर्षों के लिए अनुमानित कर लिया गया था और 2021 में शेष राज्यों में दिख रहे औसत सुधारों को अगले दो वर्षों के लिए अनुमानित कर लिया गया।

प्रोफेसर मेहरोत्रा ने कहा, “इस तरह का प्रोजेक्शन पद्धतिगत रूप से त्रुटिपूर्ण है। कोविड के प्रकोप ने सभी गतिविधियों को बाधित कर रखा था। स्कूल 2022 तक बंद थे। कोविड के कारण मृत्यु दर संकेतक भी प्रभावित हुए। इसलिए नीति आयोग के अनुमान पद्धतिगत रूप से त्रुटिपूर्ण हैं।”

लंदन स्कूल ऑफ़ इकॉनोमिक्स के प्रोफेसर एवं अर्थशास्त्री, मैत्रीश घटक भी इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं कि बहुआयामी गरीबी सूचकांक प्रणाली का इस्तेमाल कर गरीबी के अनुमानों में कमी के दावे में इस बात का खुलासा तो कहीं से भी नहीं हो रहा है कि इन गरीबों की क्रय शक्ति इस दौरान किस अनुपात में बढ़ी है। 

उज्ज्वला सिलेंडर है, लेकिन गैस रिफिलिंग के पैसे नहीं हैं 

इस बात को इस उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है। नीति आयोग के अनुसार पोषण, मातृत्व खानपान, शिक्षा, स्कूल में उपस्थिति, बिजली, बैंक खाता, सिलेंडर, शौचालय इत्यादि अहर्ताओं को पूरा करने वाला व्यक्ति यदि बेरोजगार है, तो उसे गरीब माना जायेगा या नहीं? किसी व्यक्ति के पास आवास, शौचालय, बिजली कनेक्शन, उज्ज्वल गैस कनेक्शन और बैंक में जनधन खाता हो, लेकिन जेब में फूटी कौड़ी न हो तो क्या वह इन सभी सुविधाओं का उपयोग कर सकता है?

नीति आयोग की ओर से जारी रिपोर्ट में वर्ष 2005-06 को आधार बनाया गया है, और बताया गया है कि तब रसोई गैस के मामले में (74.40%), शौचालय (70.92%), और बैंक खाते (58.11%) लोग वंचित थे, जबकि शिशु एवं बाल मृत्यु दर (4.84%), स्कूल उपस्थिति (21.27%) एवं पेयजल के मामले में (21.34%) जनसंख्या वंचित थी।

अपने हालिया आंकड़े में नीति आयोग NFHS-5 (2019-21)का हवाला देते हुए दावा कर रहा है कि रसोई गैस (43.90%) और आवास (41.37%) लोगों की पहुंच से अभी भी दूर बने हुए हैं, लेकिन शिशु एवं बाल मृत्युदर (2.06%), बिजली (3.27%), और बैंक खाते (3.69%) के साथ देश ने बड़ी छलांग लगाई है। 

यही वजह है कि नीति आयोग की इस रिपोर्ट पर लोगों की जमकर प्रतिक्रिया आ रही है।

उत्तर प्रदेश कांग्रेस की ओर से X पर पोस्ट में कहा गया है, “हाल ही में नीति आयोग की एक रिपोर्ट आई है। देश के प्रमुख अर्थशास्त्रियों की राय माने तो ये आंकड़े पूरी तरह सच नहीं है।

इन आंकड़ों के मुताबिक देश के 24.82 करोड़ लोग बहुआयामी गरीबी से बाहर आ गए हैं। 2013-14 में यह आंकड़ा 29.17 फीसदी था। जो अब 2022-23 में घटकर 11.82 फीसदी रह गया है।

स्वाभाविक बात है! देश की जमीनी हकीकत जानने वाले सभी लोग यह बात स्पष्टतया जानते हैं कि इन आंकड़ों में कोई सच्चाई है ही नहीं।

आखिर इन आंकड़ों से खेल किया क्यों जा रहा है?”

देश में आम चुनाव सिर पर आ गया है। ऐसे में आंकड़ों से डरने वाली भाजपा सरकार आंकड़ों को अपने अनुकूल बनाने का पूरा प्रयास कर रही है।

NITI आयोग का यह आंकड़ा सिर्फ यही नहीं बता रहा है कि इनसे छेड़खानी चुनावों के मद्देनजर की गई है बल्कि ये यह भी स्पष्ट कर रहा है कि किस प्रकार भाजपाइयों ने संवैधानिक संस्थानों पर अपने अंकुश का झंडा गाड़ दिया है।

यह संविधान-लोकतंत्र और देश-देशवासी किसी के लिए ठीक नहीं!

एक अन्य सोशल मीडिया अकाउंट Aman Patel @socialistAman1 की भी पोस्ट इस बारे में गौरतलब है। उन्होंने लिखा कि-

“भारत में अभी भी 41.32% लोगों के पास अपना घर नहीं है, 30.93% के पास टॉयलेट (संडास) नहीं है, 43.90% के पास रसोई गैस नहीं है, 31.52% आबादी पोषाहार से वंचित हैं, 19.17% गर्भवती महिलाएं खराब मातृ सेहत (एनीमिक) हैं, 7.32% आबादी अभी भी पेयजल से वंचित है। लेकिन उनकी आमदनी चूंकि 180 रुपये रोज है, इसलिये वे गरीबी की रेखा से ऊपर आ गए हैं और इस गणना के अनुसार पिछले नौ वर्ष में 24. 82 करोड़ लोग गरीबी से उबर गए हैं।

180 रुपये का अर्थ हुआ दो डॉलर से थोड़ा-सा अधिक। क्या 180 रुपये रोज कमाने वाला व्यक्ति खुद और अपने बच्चे को पौष्टिक आहार उपलब्ध करा सकता है? क्या वह अपने एक बच्चे की बीमारी में उसके लिये दवा खरीद सकता है? क्या वह अपने एक भी बच्चे को 200ml दूध रोज पिला सकता है? क्या वह अपने एक बच्चे को स्कूल में पढ़ा सकता है? क्या वह अपने लिये किसी त्यौहार पर एक जोड़ी कपड़े या अपनी पत्नी के लिये एक साड़ी खरीद सकता है?

यदि इन सभी सवालों का जवाब हाँ है तो हम यह मान सकते हैं कि 180 रुपये दिहाड़ी कमाने वाला गरीब नहीं है, अन्यथा यही माना जायेगा कि नीति आयोग ने देश के करोड़ों गरीबों के साथ बहुत भद्दा मजाक किया है।”

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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