ग्राउंड रिपोर्ट: अब लखवाड़ डैम के लिए 35 गांवों को छलने की तैयारी

लोहारी गांव, उत्तराखंड। उत्तराखंड जल विद्युत निगम की व्यासी लखवाड़ जल विद्युत परियोजना के दूसरे चरण का काम शुरू हो गया है। इस परियोजना के पहले चरण में व्यासी बांध बनाया गया था। इस बांध के लिए लोहारी गांव को छला गया। यह छलावा ऐसा था कि पूरा लोहारी गांव बांध में डूब जाने के बाद भी इस गांव में रहने वाले ज्यादातर लोग 22 महीने बाद भी गांव से कुछ ऊंचाई पर मौजूद सरकारी स्कूल के भवन में दिन गुजार रहे हैं। दूसरे चरण में लखवाड़ बांध का निर्माण कार्य शुरू कर दिया गया है।

यह बांध व्यासी बांध की तुलना में बड़ा है और इसकी जद में करीब 35 गांव आ रहे हैं। दो गांव पूरी तरह से डूब क्षेत्र में हैं और बाकी गांव आंशिक डूब क्षेत्र में हैं। लखवाड़ बांध के लिए प्रभावित गांवों के लोगों से जो वायदे किये गये थे, वे पूरे नहीं हो पा रहे हैं। इन गांवों के नौजवानों ने फिलहाल बांध निर्माण स्थल पर धरना शुरू कर दिया है। लखवाड़ बांध का निर्माण व्यासी बांध से करीब 7 किमी दूर है। व्यासी बांध में डूब गये लोहारी गांव से इस बांध की दूरी करीब एक किमी है।

लोहारी गांव की गुमानी देवी, घर और गांव डूब जाने के बाद सूखते नहीं आंसू।

यमुना नदी पर बने व्यासी बांध में जलसमाधि ले चुका लोहारी गांव देहरादून जिले में हैं। यमुना नदी के दूसरी तरफ टिहरी जिले की सीमा है। देहरादून शहर से लोहारी गांव की दूरी करीब 70 किमी है। जनचौक ने 22 महीने पहले डूब चुके लोहारी गांव के लोगों की स्थिति का जायजा लेने के साथ ही लोहारी में आंदोलन कर रहे लखवाड़ बांध के प्रभावित गांवों के युवाओं से बातचीत की। इस लेख में पहले लोहारी गांव की बात करेंगे, जिसे अप्रैल 2022 में जल समाधि दे दी गई थी।

गांव के कई परिवार अब भी खाली हो चुके स्कूल भवन में रह रहे हैं। जनचौक जब गांव के स्कूल में पहुंचा तो तीन महिलाएं और कुछ युवक मिले। बैसाखी के सहारे चलने वाली 97 वर्षीय गुमानी देवी से हमने पूछा कि गांव डूब जाने के बाद जिन्दगी कैसी चल रही है? जवाब में उनकी आंखों में आंसू आ गये। जनजातीय जौनसारी बोली में उन्होंने कहा, गांव डूब गया, स्कूल में पड़े हैं, अब तो यहीं पर मरना है। बच्चों का भी कोई ठिकाना नहीं रह गया है। पास ही बैठी रोशनी देवी ने कहा, यमुना के किनारे अच्छी-खासी सिंचाई वाली खेती थी।

अनाज और दालें दुकान से भी खरीदते हैं, यह उन्हें मालूम नहीं था। सब अपने खेतों में उगाते थे। अब न गांव रहा, न खेत, एक-एक चीज खरीदकर खा रहे हैं। रोशनी देवी कहती हैं, जिनके पास सरकारी नौकरी है, वे तो विकासनगर या देहरादून में मकान बनाने की सोच रहे हैं। लेकिन जो परिवार मेहनत-मजदूरी करके दो पैसा कमाते हैं, वे राशन-पानी में ही खर्च हो जाता है। ऐसे में कहीं दूसरी मकान बनाने की सोच भी नहीं सकते। दो साल से इसी स्कूल में हैं, आगे क्या होगा, पता नहीं।

स्कूल में ही हमें रमेश तोमर और महेश तोमर मिले। जब उनसे पूछा गया कि सरकार के अनुसार लोहारी के लोगों को 9 बार मुआवजा मिल चुका है तो फिर इस राशि से उन लोगों ने कहीं दूसरी जगह घर क्यों नहीं बनाया? इस सवाल के जवाब में उन्होंने इस परियोजना की पूरी कहानी सुनाई। यह कहानी बताती है कि किस तरह से परियोजनाओं के लिए लोगों के घर और जमीनें छीनी जाती है और किस  तरह लोगों को छला जाता है। रमेश तोमर के अनुसार व्यासी लखवाड़ परियोजना की शुरुआत तो 1968 में ही हो चुकी थी।

1972 में उनके पूर्वजों से थोड़ी-थोड़ी जमीन ली गई और उस समय के हिसाब से कुछ रुपया मुआवजा दिया गया। यह मुआवजा इतना नहीं था कि वे लोग कहीं और घर या जमीन खरीद पाते। इसके अलावा जो जमीन अधिग्रहीत की गई थी, उस पर कब्जा नहीं लिया गया, लिहाजा मुआवजा मिलने के बाद भी वे अपनी जमीन पर काबिज रहे।

परियोजना के कारण प्रभावित गांवों के युवक परियोजना में रोजगार की मांग को लेकर 8 दिनों से धरना प्रदर्शन कर रहे हैं।

कई दशक तक यह परियोजना ठंडे बस्ते में रही। बाद में फिर से काम शुरू होने की तैयारी की गई तो अगली पीढ़ी के पूर्वजों से कुछ जमीन अधिग्रहीत की गई। तब भी मुआवजा इतना नहीं था कि वे लोहारी गांव को छोड़कर कहीं दूसरी जगह बस जाते। अब करीब एक दशक पहले काम शुरू हुआ और मौजूदा पीढ़ी से कुछ और जमीन अधिग्रहीत की गई। जमीन एक बार में नहीं, बल्कि छोटे-छोटे टुकड़ों में अधिग्रहीत की गई और उसी हिसाब से मुआवजा भी छोटे-छोटे टुकड़ों में मिला। इस तरह से गिनती तो नौ बार हो गई, लेकिन एकमुश्त रकम न मिलने के कारण गांव के लोग कुछ कर नहीं पाये। वे कहते हैं कि पिछले सालों में लोगों ने मुआवजा लेने से इंकार कर दिया था और जमीन के बदले जमीन की मांग कर रहे थे। लेकिन, लोगों के बैंक खातों में जबरन पैसा जमा करवाया गया।

महेश तोमर कहते हैं कि गांव वालों की असली लड़ाई सभी परिवारों को एक ही जगह जमीन देने की है, ताकि पूरा गांव यहां से उठकर दूसरी जगह बस जाए। वे कहते हैं जनजातीय समाज होने के कारण उनके रीति-रिवाज, पर्व त्योहार और देवी-देवता दूसरे समाज से अलग हैं। जनजातीय समाज का हर कार्य, हर त्योहार, हर पूजा सामूहिक होती है। ऐसे में उनकी मांग है कि उन्हें कहीं और एक ही जगह पर गांव बसाने के लिए जमीन उपलब्ध करवाई जाए। जनजातीय समाज के लोग दूसरे लोगों के बीच रहने में असहज महसूस करते हैं, लेकिन सरकार या तो उनकी भावनाओं को समझ नहीं पा रही है या जानबूझकर नजरअंदाज कर रही है।

बांध का जलस्तर कम हो जाने के कारण लोहारी गांव के घर इन दिनों पानी से बाहर हैं। जनचौक ने गांव के कुछ युवकों के साथ पानी से बाहर निकले गांव के घरों को देखा। दो साल पहले जो एक हंसता-खेलता गांव था, वह अब खंडहर है। लोग जो सामान घरों से उखाड़ सकते थे, उसे उखाड़कर स्कूल में ले गये थे, जो वहां अब भी खुले में सड़ रहा है। गांव से लगते हरे-भरे खेतों में अब रेत, कीचड़ और दलदल है।

पानी में छीज चुके घरों के निचले हिस्सों में भी अब कई फुट रेत और कीचड़ है। गांव के युवक बताते रहे कि इस जगह हम खेलते थे, इस जगह सामूहिक पूजा होती थी और इस जगह हमारे पशु रहते थे। संदीप तोमर कहते हैं, पानी कम होने के बाद भी अब हम इस तरफ नहीं आते। घरों की स्थिति देखकर रोना आता है और मन खराब हो जाता है। हम इन घरों, इन खेतों को भूलना चाहते हैं, लेकिन जिस गांव में पैदा होकर बड़े हुए, उसे भूल पाना संभव नहीं हो पाता।

लोहारी गांव के करीब एक किमी ऊपर लखवाड़ बांध का निर्माण शुरू हो गया है। यह इस परियोजना का दूसरा चरण है। पहले चरण में व्यासी बांध जुड्डो नामक स्थान पर बना है, जो लोहारी से करीब 6 किमी नीचे है। व्यासी बांध का जीरो प्वॉइंट लोहारी गांव है। यानी लोहारी तक इस बांध का डूब क्षेत्र है। लोहारी से करीब एक किमी ऊपर लखवाड़ बांध का काम तेजी से आगे बढ़ रहा है। इसी जगह लखवाड़ बांध से प्रभावित 35 गांवों के युवक धरना दे रहे हैं। इनमें से कुछ गांव यमुना के दाहिनी तरफ देहरादून जिले में हैं और कुछ बायीं तरफ टिहरी गढ़वाल जिले में।

लोहारी गांव का स्कूल भवन, जहां कई प्रभावित परिवार दो साल से रह रहे हैं।

ये सभी जनजातीय गांव हैं। जनचौक से बातचीत में ये युवक कहते हैं कि लखवाड़ बांध से प्रभावित होने वाले गांवों के लोगों से जो वायदे किये गये थे, उन्हें पूरा किये बिना ही काम शुरू कर दिया गया है। युवकों के अनुसार उन्होंने 15 दिन का समय दिया है। इन 15 दिनों के धरने के दौरान यदि परियोजना से प्रभावित गांवों के युवाओं को नौकरी देने का वायदा पूरा नहीं होता तो पूरी घाटी के लोग लोहारी में जमा होकर परियोजना का निर्माण कार्य बंद करवा देंगे।

पिछले 8 दिनों से बांध निर्माण स्थल पर चल रहे धरने का नेतृत्व लोहारी के संदीप तोमर कर रहे हैं। संदीप बताते हैं कि 2016-17 में जब व्यासी बांध का निर्माण शुरू हुआ था तो लोहारी गांव के लोगों ने आंदोलन किया था। वे मुख्य रूप से परियोजना में गांव के युवाओं को रोजगार की मांग कर रहे थे। तब परियोजना बना रहे उत्तराखंड जल विद्युत निगम ने 97 पदों पर भर्ती की बात कही थी। इनमें से 57 पदों पर भर्ती की गई। 40 पद खाली रहे। अब 3 पद और खाली हो गये हैं। इन पदों की भर्ती में अब परियोजना से प्रभावित सभी गांवों को शामिल किया गया है, लेकिन भर्ती नहीं की जा रही हैं। उनका कहना है कि अब व्यासी बांध बन गया है और इससे बिजली उत्पादन शुरू हो गया है।

पावर हाउस संचालन संबंधी कार्यों में 68 और पद भरे जाने हैं। इस धरने के माध्यम से वे 111 पदों पर भर्तियां करने की मांग कर रहे हैं। वे कहते हैं कि 2016-17 में जो पद निकाले गये थे, उनमें 4 पद स्टेनो के भी थे। उस समय कोई युवक इस पद की योग्यता नहीं रखता था, इसलिए चारों पद खाली रहे, लेकिन अब इतने सालों बाद कई युवक इन पदों की अर्हता हासिल कर चुके हैं, लेकिन अब तक भर्ती नहीं निकाली गई है।

धरने पर बैठे कांडी गांव के अरविन्द रावत कहते हैं, इस परियोजना को लेकर जन संघर्ष का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह रहा है जब लोहारी के लोग आंदोलन कर रहे थे तो परियोजना से प्रभावित अन्य गांवों के लोग चुप थे। उन्हें लगा कि यह लड़ाई सिर्फ लोहारी के लोगों की है। लेकिन, अब जब लखवाड़ बांध का निर्माण शुरू हो गया है तो अन्य गांवों के लोगों की समझ में आया है कि लोहारी जैसा छलावा उनके साथ भी किया जा रहा है। वे कहते हैं कि आने वाले दिनों में पूरी बांध प्रभावित यमुना घाटी के लोग लोहारी में एक पंचायत करने वाले हैं। इस पंचायत में प्रभावित लोगों की मांगों को देखते हुए राजनीतिक तौर पर भी कोई बड़ा फैसला लिया जा सकता है। 

(वरिष्ठ पत्रकार त्रिलोचन भट्ट की रिपोर्ट।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments