इच्छा मृत्यु मांग रही है डीयू की पूर्व दृष्टिहीन शिक्षिका, कहा- अब मृत्यु से सुंदर कुछ भी नहीं

क्या किसी नेत्रहीन व्यक्ति के लिए हमारे दिल में संवेदना/मानवता/प्रेम भाव नहीं होना चाहिए। क्या उसके साथ कुछ बेहद निकृष्ट कार्य करने से पहले हमें सोचना नहीं चाहिए। शायद नहीं, दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज (सांध्य) ने ऐसा ही किया। कॉलेज प्रशासन ने एक दृष्टिहीन लेकिन बेहद योग्य शिक्षिका और पीएचडी स्कॉलर डॉ. पार्वती कुमारी को नौकरी से निकाल दिया। पार्वती सत्यवती कॉलेज में पिछले 9 साल से संविदा पर कार्यरत थीं।

अचानक कॉलेज प्रशासन की ओर से किए गए इस तरह के अमानवीय रवैये ने पार्वती को भीतर तक तोड़ दिया है। पार्वती अब इच्छा मृत्यु की मांग कर रही हैं। पार्वती ने जेएनयू से पीएचडी की पढ़ाई की है। नौकरी छिन जाने के बाद पार्वती रूंधे स्वर में कहतीं हैं “कहां जाऊंगी अब? आंखें न होते हुए पीएचडी की बहुत मेहनत से। ईश्वर ने आंखें छीन लीं पर हारी नहीं मैं। पर जब इंसान ही दुनिया छीन ले तो मौत के सिवा बचाता जी क्या है? अब मृत्यु से सुंदर कुछ भी नहीं है। मुझे इच्छा मृत्यु दी जाए”।

पार्वती कहती हैं कि “भारत के हर नागरिक से अपील करती हूं कि मैं ही हूं पार्वती। अब जिंदा लाश के शक्ल में तब्दील हो चुकी हूं। सत्यवती कॉलेज (सांध्य) से निकाले जाने के बाद क्षण-क्षण मर रही हूं। अब चाहती हूं कि सदैव के लिए मेरी यह पीड़ा खत्म हो जाए। ईश्वर ने आंख की रोशनी छीनी, तो लगा कि किसी तरह पार-घाट उतर जाऊंगी। मुझे क्या पता था कि बौद्धिकों के समाज में भी मेरी जैसी अभागन की आत्मा को भी चाकू से रौंदकर लहूलुहान कर दिया जाएगा। मैं घबराई हुई हूं। ऐसा लगता कि मैं दोबारा अंधी हो गई हूं। ऐसा लगता है जैसे मेरी दृष्टिहीन आंखों में गरम तेल डाल दिया गया हो। हे ईश्वर, तुम्हारा न्याय कहां गया? कुछ तो हम पर दया करो।

मैं जन्मांध पैदा नहीं हुई थी। दसवीं कक्षा में मेरी आंखों की रोशनी चली गई। मैं कोमा में चली गई। करीब तीन महीने बाद जब मुझे होश आया तो मैं अपने आपको हॉस्पिटल में पाई। जहां मुझे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। मैंने पापा से पूछा यहां लाइट चली गई है? पापा ने कहा ‘बेटी लाइट जली हुई है’। फिर मैंने पापा से कहा ‘मुझे कुछ भी दिख नहीं रहा’। डॉक्टर को बुलाया गया। शुरू में न दिखने की समस्या को डॉक्टर ने मनोवैज्ञानिक बताया। बाद में भी रोशनी नहीं आई तो गहन जांच के बाद डॉक्टरों ने मुझे अंधी घोषित कर दिया”।

“मेरे आगे एक पसरा हुआ सन्नाटा था। अबतक मैं अपने जीवन में अंधों को केवल भिखारन के रूप में देखी थी। मुझे लगता था कि मेरे घर के लोग मुझे भीख मांगने के लिए छोड़ देंगे या मुझे मार डालेंगे। बेहद गरीब परिवार से होने के कारण मैं अब परिवार के ऊपर बोझ थी। मुझे अपने मां, बाप और परिवार के लोगों से भी डर लगता था कि कहीं वह हमारी हत्या न कर दें। लेकिन मैं हारी नहीं और डरी नहीं। मैंने इस समाज पर भरोसा किया, उनकी मानवता पर मुझे भरोसा था। मैं छड़ी के सहारे ही सही बंद आंखों से दुनिया को टटोलते हुए NIVH देहरादून गई। वहां मेरे जैसे बहुत सारे अभागे-अभागन थे।

ब्रेल लिपि के माध्यम से मेरी पढ़ाई शुरू हो गई। देहरादून में पढ़ने के दरम्यान कई बार गंभीर मनोवैज्ञानिक परेशानी से भी गुजरी, लेकिन किसी तरह से बारहवीं पास करने के पश्चात दिल्ली यूनिवर्सिटी के आईपी कॉलेज से स्नातक, दौलत राम कॉलेज से एम.ए, जे.एन.यू से एमफिल और पीएचडी किया। मेरा जेआरएफ सामान्य श्रेणी में है। मेरी पुस्तक वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हैं। एक कहानी संग्रह है। बहुत सारे लेख हैं जो हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपी हैं। लेकिन मुझे एक सामान्य बीए, एम.ए और नेट पास किये नए छात्र से रिप्लेस कर दिया गया। यह मेरी हत्या ही तो है,केवल हत्या”।

“अंधों के संघर्ष को आप नहीं जानते। जीवन के हर मोड़ पर मैं जूझती हूं। हमारी सारी इच्छाओं का दमन तो ईश्वर ने कर ही दिया था, इस घटना ने मानवता को शर्मसार कर दिया। आपको एक बात बताती हूं। हमारा समाज दिव्यांगों के प्रति संवेदनशील नहीं है। पुरुष के अंधेपन और महिला के अंधेपन में भी अंतर है। हम पर दोहरी मार पड़ती है। पुरुष को समाज में विशेषाधिकार प्राप्त है लेकिन महिला को? मेरे जीवन की रोशनी यह तदर्थ की नौकरी थी। यह आशा और विश्वास हो चला था कि मेरी नौकरी स्थाई हो जाएगी। मैं किसी को शापित नहीं कर रही हूं, लेकिन आप सभी से गुहार जरूर लगा रही हूं कि देखिए आपका समाज कहां जा चुका है? केवल महाभारत में ही चीर-हरण नहीं हुआ था, आज भी अट्टहास के साथ मेरे साथ हुआ है।“

“मेरी नौकरी मुझसे छीन ली गई। जीवन में अंधापन फिर से गहरा हो गया है। हताशा और अवसाद से फिर घिर गई हूं। मुझे लगता है कि मैं जीवन के उस मोड़ पर चली गई हूं जहां से अब मेरे जीवन में कुछ नहीं बचा है। आत्महत्या करने का विचार तो कई बार आया, लेकिन मैं इच्छामृत्यु चाहती हूं। इसमें मेरी मदद कर दीजिए प्लीज”।

पार्वती इच्छा मृत्यु मांगने के लिए मजबूर हो गई है क्योंकि सत्यवती कॉलेज ने उसके जीने का आखिरी सहारा उसकी नौकरी ही छीन ली। क्या कॉलेज प्रशासन के दिल में जरा भी मर्म न आया। कम से कम पार्वती की योग्यता का तो ख्याल किया गया होता। क्या ऐसे छात्रों के लिए नौकरी में विशेष प्रावधान नहीं होने चाहिए? लेकिन यहां विशेष प्रावधान करना तो दूर एक दृष्टिहीन की नौकरी भी छीन ली गई और उसे मौत के मुंह पर लाकर छोड़ दिया।

कुछ दिन पहले ही दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज (सांध्य) ने संविदा पर पढ़ा रहे छह प्रोफेसरों को बर्खास्त कर दिया था। बर्खास्त किए गए छह शिक्षकों में से एक अनुसूचित जनजाति और दूसरा अन्य पिछड़ा वर्ग से और तीसरा दृष्टि बाधित है, जो पार्वती है।

कहा जा रहा है कि इन शिक्षकों के जगह पर सिफारिशी और पहुंच वाले कैंडिडेट्स की भर्ती की गई है। सत्यवती बिना किसी नियमित प्रिंसिपल के है और इसका नेतृत्व एक कार्यवाहक प्रिंसिपल या विशेष कर्तव्य अधिकारी (ओएसडी) करते हैं, जो दूसरे कॉलेज से संकाय सदस्य हैं।

(जनचौक की रिपोर्ट।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
kHALID
kHALID
Guest
7 months ago

इस इच्छा मृत्यु को सब जगह प्रचारित करना चाहिए, इसे एक आंदोलन बन जाना चाहिए। ।