विपक्षी जोड़तोड़ बनाम लोकतंत्र के बड़े प्रश्न 

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपनी मौजूदा अमेरिका यात्रा की शुरुआत 31 मई को सैन फ्रांसिस्को में अप्रवासी भारतीयों के बीच दिए अपने भाषण से की। इसमें उन्होंने यह बात दोहराई कि आज भारत में “सामान्य राजनीति” संभव नहीं रह गई है। उन्होंने कहा कि इसीलिए उन्होंने भारत जोड़ो यात्रा की- यानी राजनीति के एक नए तरीके का प्रयोग किया। राहुल गांधी यह बात पिछले काफी समय से कहते रहे हैं कि भारत में संवैधानिक संस्थाओं, मीडिया और उन सभी माध्यमों पर बीजेपी-आरएसएस ने पूरा कब्जा जमा लिया है, जिनके जरिए पहले विपक्ष राजनीति करता था। उनकी इन बातों का कुल मतलब यह है कि भारत में लोकतंत्र सामान्य रूप में काम नहीं कर रहा है।

विपक्षी एकता के मामले में राहुल गांधी ने जो कहा है, उसे इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। उन्होंने साफ कहा है कि बीजेपी को हराने के लिए विपक्षी एकता ‘पर्याप्त’ नहीं है। बीजेपी को हराने के लिए ‘एक वैकल्पिक दृष्टि’ की जरूरत है। उन्होंने कहा- ‘जहां तक विपक्षी एकता की बात है, हम इस दिशा में काम कर रहे हैं और इसमें अच्छी प्रगति हो रही है। लेकिन मेरी राय है कि बीजेपी को हराने के लिहाज से विपक्षी एकता से कहीं कुछ ज्यादा की जरूरत होगी। सिर्फ विपक्षी एकता से ऐसा संभव नहीं होगा। मेरी राय में बीजेपी के बरक्स एक वैकल्पिक नजरिए की आवश्यकता है।’

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पहल पर 12 जून को पटना में विपक्षी दलों की आयोजित बैठक के प्रति कांग्रेस का रुख संभवतः राहुल गांधी की इसी सोच से प्रेरित है। ऐसी खबरें छपी हैं कि जब नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी से मिले थे, तब राहुल गांधी ने तमाम विपक्षी दलों के नेताओं को लेकर तीन या चार दिन का चिंतन शिविर करने का सुझाव दिया था। इसके पीछे मकसद विपक्षी दलों के बीच उद्देश्य की एकता कायम करना और एक स्पष्ट वैकल्पिक नजरिये पर सहमति बनाना था। 

लेकिन हकीकत यह है कि बाकी विपक्षी दल फौरी जोड़-तोड़ से आगे नहीं सोच पा रहे हैं। दरअसल, कांग्रेस में भी राहुल गांधी को छोड़ दें, तो पार्टी के बाकी नेता इस दिशा में सोच रहे हों, इस बात के कोई संकेत नहीं हैं। उनके लिए भी राजनीति का मतलब चुनाव तक सिमटा हुआ है। बहरहाल, चूंकि कांग्रेस में राहुल गांधी की सोच मायने रखती है, इसलिए ऐसी खबर है कि 12 जून की बैठक में कांग्रेस की तरफ से संभवतः कोई अन्य नेता तो हिस्सा लेगा, लेकिन खड़गे या राहुल गांधी उसमें नहीं जाएंगे। 

यह बेहिचक कहा जा सकता है कि राहुल गांधी की सोच आज की वस्तुगत समझ पर आधारित है। लेकिन यह सोच लोकतंत्र को लेकर बुनियादी रूप से किसी अलग या खास सोच पर आधारित है, ऐसा कोई संकेत उन्होंने भी नहीं दिया है। बेशक भारतीय लोकतंत्र आज गहरे संकट में है। मगर ऐसा सिर्फ भारत में नहीं है। तो प्रश्न है कि आखिर दुनिया भर में पश्चिमी ढंग का लोकतंत्र इतिहास के इस मौके पर क्यों संकटग्रस्त हो गया है? बिना इस प्रश्न से उलझे और बिना इस संकट की जड़ तक पहुंचे ऐसी कोई पहल नहीं हो सकती, जिससे किसी प्रभावी समाधान की तरफ बढ़ा सके।

गौरतलब हैः जो बात राहुल गांधी भारत के संदर्भ में कह रहे हैं, वैसी चर्चा आज दुनिया के उन लगभग सभी देशों में सुनने को मिल रही है, जो अपने को ‘लोकतांत्रिक’ कहते हैं। मसलन, ब्रिटेन को आधुनिक उदार लोकतंत्र की जन्मस्थली समझा जाता है। लेकिन वहां के मेनस्ट्रीम और वित्तीय मीडिया में भी यह बात कही जा रही है कि वहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया ठीक से काम नहीं कर रही है। इसकी एक मिसाल ब्रेग्जिट (यूरोपियन यूनियन से ब्रिटेन को बाहर करने का फैसला) है।         

ब्रिटेन में ब्रेग्जिट के मुद्दे पर 2016 में जनमत संग्रह कराया गया था। ब्रेग्जिट एक धुर दक्षिणपंथी एजेंडा था, जिसके तहत नव-उदारवादी नीतियों के कारण पैदा हुई समस्याओं और श्रमिक वर्ग की मुसीबतों के लिए आव्रजकों और यूरोपियन यूनियन की उदार वीजा एवं अन्य नीतियों को दोषी बताया गया। ब्रेग्जिट के एजेंडे को तत्कालीन यूनाइटेड किंगडम इंडिपेंडेंस पार्टी (यूकेआईपी) ने सबसे प्रभावी ढंग से आगे बढ़ाया था। इस एजेंडे के लिए जन समर्थन इतनी तेजी बढ़ा कि डेविड कैमरन के नेतृत्ववाली तत्कालीन कंजरवेटिव सरकार को ब्रेग्जिट के मुद्दे पर जनमत संग्रह कराने के लिए राजी होना पड़ा था। 

यूकेआईपी के नेता नाइजेल फैराज थे। इसलिए अनिवार्य से रूप से उन्हें ब्रेग्जिट का चेहरा माना जाता है। जनमत संग्रह के बाद फैराज ने ब्रेग्जिट पार्टी नाम से एक नया दल भी बनाया था। उन्हीं नाइजेल फैराज ने हाल में कहा- ‘ब्रेग्जिट फेल हो गया है।’ 

इन दिनों ब्रिटेन आर्थिक समस्याओं और सामाजिक तनाव के कारण गहरे संकट में है। यह आम समझ है कि ब्रेग्जिट से ब्रिटेन की समस्याएं बढ़ीं। हालत यह है कि जिस देश के साम्राज्य में कभी सूरज नहीं डूबता था, वहां आज लाखों लोग चैरिटी के भोजन पर निर्भर हैं और वहां यह चर्चा आम है कि ब्रिटेन की हालत थर्ड वर्ल्ड कंट्री जैसी होती जा रही है।

फैराज ने इसके लिए कंजरवेटिव पार्टी की सरकारों के “कुप्रबंधन” को दोषी ठहराया है। लेकिन यहां गौरतलब यह है कि ब्रेग्जिट पर मुहर जनमत संग्रह में ब्रिटेन की जनता के बहुमत ने लगाई थी। 2019 के आम चुनाव में ब्रेग्जिट के सवाल पर दोबारा जनमत संग्रह कराने का लेबर पार्टी का रुख उसे बहुत महंगा पड़ा। तब ब्रेग्जिट के पक्ष में जनमत इतना प्रबल था कि जेरमी कॉर्बिन के नेतृत्व वाली लेबर पार्टी उन क्षेत्रों में भी सीटें गंवानी पड़ीं, जिन्हें दशकों से उसका गढ़ समझा जाता था। उधर ब्रेग्जिट को संपन्न कराने का वादा करने वाले प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के नेतृत्व में कंजरवेटिव पार्टी ने हाल के इतिहास की सबसे बड़ी जीत दर्ज की।  

अब जबकि ब्रिटेन बदहाल है, तो जनादेश और जनमत संग्रह जैसे लोकतांत्रिक कहे जाने वाले उपायों पर वहां के मीडिया में सवाल खड़े किए जा रहे हैं। अखबार फाइनेंशियल टाइम्स के मशहूर स्तंभकार मार्टिन वूल्फ ने अपने एक ताजा लेख में लिखा है- “ब्रेग्जिट फेल हुआ, क्योंकि ऐसा होना ही था। प्रश्न यह है कि इस देश ने ऐसी गलती क्यों की। उत्तर यह है कि हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया ठीक से काम नहीं कर रही है। चुनावों के साथ जनमत संग्रह भी जोड़ देने से समस्या हल नहीं हो जाती।” वूल्फ ने इस अपनी तरफ से इस समस्या के कुछ समाधान सुझाए हैं, लेकिन वह यहां हमारा विषय नहीं है। 

बहरहाल, वूल्फ ने इस सिलसिले में अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति जॉर्ज वॉशिंगटन की एक चेतावनी का उल्लेख किया है और वह अवश्य हमारे काम की है। जॉर्ज वॉशिंगटन ने चुनावी राजनीति के जरिए एक गुट (आज के संदर्भ में दल) के दूसरे पर बन सकने वाले वर्चस्व को लेकर आगाह किया था। उन्होंने कहा था- ‘एक गुट का दूसरे पर वर्चस्व बन जाना अपने आप में एक भयानक तानाशाही है। लेकिन ऐसे वर्चस्व से पैदा होने वाली अव्यवस्था और उससे बनने वाली दयनीय स्थितियां लोगों को किसी (मजबूत समझे जाने वाले) व्यक्ति की निरंकुश सत्ता में भरोसा जताने और उससे सुरक्षा पाने की तरफ ले जा सकती हैं।’ 

मार्टिन वूल्फ ने लिखा है- अगर हम आज के अमेरिका को देखें, तो वहां यह खतरा साफ नजर आता है। वहां की वर्तमान चुनावी राजनीति में अविवेकी और कम जानकार मतदाताओं की भावनाओं का लाभ उठाना सत्ता में आने का जरिया बन गया है। इस अवस्था में शासन वो लोग करेंगे, जिनमें जनोत्तेजना (demagogy) फैलाने की सबसे ज्यादा प्रतिभा होगी। 

जो बात अमेरिका के संदर्भ में कही गई है, क्या वह भारत पर भी (असल में आज ज्यादातर कथित लोकतांत्रिक देशों में) लागू नहीं होती? इन्हीं स्थितियों ने लोकतंत्र को लेकर एक नई बहस खड़ी की है। इस सिलसिले में पश्चिमी ढंग के लोकतंत्र की जो आलोचनाएं हुई हैं, उन पर हमें अवश्य ध्यान देना चाहिए। मसलन,

इस तरह के लोकतंत्र में चुनाव एक ‘टैलेंट शो’ बन गए हैं, जहां शासन के लिए सबसे योग्य नेता के बजाय मतदता सबसे नाटकीय प्रदर्शन करने वाले (बेस्ट परफॉर्मर) नेता को वोट देते हैं। 

आम मतदाता ऐसा कोई विशेष ज्ञान नहीं रखते और ना ही उनके पास दीर्घकालिक नजरिया होता है, जिससे वे ऐसे प्रतिनिधि को चुन पाएं, जो राष्ट्र के सर्वोत्तम हितों के अनुरूप काम करें।

इस तरह का लोकतंत्र इनपुट स्तर पर तो कारगर है, लेकिन आउटपुट के स्तर पर नहीं। इसका अर्थ है कि लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वे वोट डालने आएं। लेकिन चुनाव के बाद सरकारें लोगों के हित में काम करें, इसे सुनिश्चित करने का कोई तरीका मौजूद नहीं है। बल्कि अनुभव यह है कि तमान निर्वाचित सरकारें उन वर्गों के हित में काम करती हैं, जो ‘टैलेंट शो’ के प्रभावी आयोजन के लिए नेताओं और दलों को पैसा और अपने स्वामित्व वाले मीडिया की सहायता देते हैं। 

इस रूप में प्राचीन ग्रीक विचारक प्लेटो ने लोकतंत्र को लेकर जो कहा था, वह आज यथार्थ बन चुका है। प्लेटो ने कहा था कि लोकतांत्रिक व्यवस्था पर धनी-मानी तबका क्रमिक रूप से अपना कब्जा जमा लेता है। उसके बाद लोकतंत्र कुलीनतंत्र (oligarchy) में तब्दील हो जाता है। प्लेटो ने कहा था- ‘लोकतंत्र से स्वाभाविक रूप से तानाशाही का उदय हो जाता है। चरम स्वतंत्रता की अवस्था से सबसे भयानक अत्याचारी शासन और गुलामी का जन्म होता है।’ दुर्भाग्यवश, आज पश्चिम से लेकर उन तमाम देशों में हम इस समझ को साकार रूप लेते देख रहे हैं, जहां पश्चिमी ढंग के लोकतंत्र को अपनाया गया था। 

आज हम इस आलोचना को भी सच होते देख रहे हैं कि चुनावों में ऐसे व्यापारी, अभिनेता और शौकिया राजनेता भी सफल हो जाते हैं, जिन्हें ना तो शासन चलाने का अनुभव है और ना ही जो राष्ट्र या जन हित के लिए प्रतिबद्ध होते हैं।

आखिर यह हालत क्यों पैदा हुई? इसकी वजह यही है कि जिसे हम उदार लोकतंत्र कहते हैं, वह असल में हमेशा ही समाज के प्रभुत्वशाली और धनी-मानी तबकों का तंत्र रहा है, जिसमें नियमित चुनाव और अवरोध और संतुलन की कुछ संस्थागत व्यवस्थाओं को जोड़ कर उन वर्गों ने अपने शासन के लिए आम जन से वैधता प्राप्त करने की कोशिश की। बेशक यह कोशिश अब तक कामयाब है।  

इस व्यवस्था का लोक कल्याणकारी स्वरूप इतिहास के सिर्फ एक छोटे कालखंड में रहा। वो वह दौर था, जब सोवियत यूनियन की मौजूदगी के कारण एक खास विश्व परिस्थिति पैदा हुई थी। उस दौर में दुनिया भर में ट्रेड यूनियनों सहित तमाम तरह के जन अधिकार आंदोलन उभार पर थे और पूंजीवादी व्यवस्था के लिए एक अभूतपूर्व चुनौती पैदा हुई थी। तब इस व्यवस्था के संचालकों ने जन कल्याण और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने का वादा करने वाली व्यवस्था के रूप में उदार लोकतंत्र का सुरक्षा कवच अपनाया। 

लेकिन जैसे ही उन्हें उत्तर आधुनिकतावाद के वैचारिक साये में जन संघर्षों को छोटी-छोटी अस्मिताओं की लड़ाई में तोड़ने और woke culture का धुंध फैलाने में सफलता मिली, वे इस कवच को कमजोर करने लगे। सोवियत खेमे के बिखरने के बाद उन्होंने इस कवच को पूरी तरह खोखला कर दिया। नतीजा, आज की स्थिति है, जब लोकतंत्र कही जाने वाली व्यवस्थाएं असल में कुलीनतंत्र (oligarchy) या धनिक-तंत्र (plutocracy) में तब्दील हो चुकी हैं। 

भारत में लोकतंत्र को इस हाल तक पहुंचाने में कांग्रेस सहित बाकी वो तमाम दल भी औजार बने हैं, जिन्होंने नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों को बिना गुण-दोष आधारित उचित आलोचना किए स्वीकार कर लिया और उनकी सरकारों ने उन नीतियों को लागू करने में संपूर्ण उत्साह दिखाया। तब यह सिद्धांत सर्व-स्वीकृत हो गया कि आर्थिक नीतियों को ‘राजनीति से ऊपर’ रखा जाना चाहिए। तो उसके बाद राजनीति सिर्फ धर्म-जाति की पहचान पर जोर देते हुए ही हो सकती थी। उसमें बीजेपी सबसे प्रभावी साबित हुई, क्योंकि हिंदुत्व की राजनीति में महारत उसने क्रमिक रूप से हासिल कर रखी थी। फिर यह भारत में बहुसंख्यक धर्मावलंबियों की पहचान से जुड़ी राजनीति है। हिंदुत्व की राजनीति के सफल होने का यह स्वाभाविक परिणाम है कि भारतीय ‘लोकतंत्र आज खतरे में’ पड़ा हुआ दिखता है। 

राहुल गांधी भारतीय लोकतंत्र को दुनिया की भलाई का पहलू बताते हैं। इसके संकट के स्वरूप को उन्होंने संभवतः वर्तमान भारतीय राजनेताओं के बीच सबसे बेहतर ढंग से समझा है। इसीलिए वे कहने की स्थिति में आए हैं कि सामान्य राजनीतिक माध्यमों से बीजेपी-आरएसएस से देश को मुक्ति नहीं दिलाई जा सकती। इसके लिए वैकल्पिक नजरिए की जरूरत है। मगर वह नजरिया क्या है, इसकी व्याख्या की जब बात आती है, तो राहुल गांधी चूकते नजर आते हैं।

भारत जोड़ो यात्रा और आम जन से कई अन्य रूपों में संपर्क करने के बावजूद वे नव-उदारवादी नीतियों के निर्मम और जन विरोधी चरित्र को नहीं समझ पाए हैं- यह बात खुद उनके ही कई बयानों से जाहिर होती रही है। इसीलिए इन नीतियों के दायरे से निकलने की कोई उत्कंठा उन्होंने नहीं दिखाई है। राजनीति का तरीका बदलने का प्रयोग करने के बावजूद राजनीति को चुनावी दायरे से बाहर ले जाकर समझने या समझाने का कोई बौद्धिक प्रयास उन्होंने नहीं किया है। 

राजनीति का मतलब सिर्फ चुनाव नहीं होता है। प्रश्न है कि आजादी के पहले विभिन्न वैचारिक धाराओं ने समाज में जो प्रयोग किए गए, क्या वे ‘राजनीति’ थे या नहीं? ये प्रयोग गांधीवादी दायरे में सत्याग्रह और रचनात्मक कार्यक्रम के रूप में किए गए। मार्क्सवादी दायरे में मजदूर और किसान संघर्षों को संगठित करते हुए उनके जरिए एक नए सपने पर आधारित समाज निर्माण के प्रयास के रूप में किए गए। इन विचारधाराओं ने सामाजिक अन्याय और प्राकृतिक संसाधनों से बेदखली के खिलाफ विभिन्न समुदायों के संघर्ष से जुड़ कर अपने वैचारिक और सांगठनिक दायरे को विस्तार दिया था। उनसे भारत में भावी लोकतंत्र का जमीनी आधार तैयार हुआ था।

असल में ऐसे प्रयोग और प्रयासों के बिना जब राजनीति का मतलब सिर्फ चुनाव लड़ना और लोकतंत्र का मतलब मतलब सिर्फ चुनावी प्रतिस्पर्धा में सीमित हो जाता है, तब वो तमाम खामियां उभरने लगती हैं, जो आज पश्चिम शैली के लोकतंत्र में दिख रही हैं। यह दोहराने की जरूरत है कि उदार लोकतंत्र उसी समय अपेक्षाकृत अधिक जीवंत और संभावनापूर्ण बने थे, जब उनमें ऐसे प्रयोगों को जगह मिली थी। 

फिलहाल, मुद्दा यह है कि भारत को बीजेपी-आरएसएस के उस शासन से कैसे मुक्ति मिले, जिसकी वजह से समाज में नफरत और विभेद बढ़ रहे हैं तथा कमजोर तबकों पर शासक वर्ग का शिकंजा और अधिक कसता जा रहा है? यह समझ बिल्कुल ठीक है कि विपक्षी दलों की जोड़-तोड़ इस लिहाज से “पर्याप्त” नहीं है। बल्कि इस मकसद में उसका नाकाम साबित होना तय है। इसलिए चिंतिन शिविर में किसी वैकल्पिक दृष्टि पर बात करने का विचार सटीक है। मगर यह वैकल्पिक दृष्टि क्या है? राहुल गांधी ने इस बारे में अपनी समझ के आंशिक संकेत ही दिए हैं, जबकि यह बहुत बड़ा लक्ष्य है और उस पर सहमति बनाना उतनी ही बड़ी चुनौती साबित होगी। 

बहरहाल, यह बात बेशक कही जा सकती है कि अगर समझ चुनावों को ही लोकतंत्र और चुनावी तैयारियों को ही राजनीति मानने तक सीमित रही, तो जो भी वैकल्पिक नजरिया पेश किया जाएगा, वह अल्पकालिक महत्त्व का ही होगा। दीर्घकालिक महत्त्व का नजरिया विकसित करने के लिए सत्याग्रह से लेकर समाजवाद की स्थापना तक के उन प्रयोगों को याद करना उचित होगा, जो स्वतंत्रता संग्राम और उसके बाद के दिनों में हुए थे। बेशक आज नए हालत में नई चुनौतियों के बरक्स नए प्रयोगों की जरूरत होगी। लेकिन ये प्रयोग सिर्फ ऊंचे आदर्श, सपनों और संकल्प से लैस वे व्यक्ति और संगठन ही कर पाएंगे, जिनका मकसद जैसे-तैसे चुनाव जीत लेने तक सीमित नहीं होगा।

( सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।) 

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