तर्क संगत, न्याय संगत, कल्याण संगत समाज बनाने का ख्वाब बुनने वाले हमारे संजीव

पिछले साल 28 जून की अल सुबह हर दिल अज़ीज़ साथी संजीव माथुर हमारे बीच से चले गए। उनके जाने की खबर पर कई लोगों को सहज विश्वास नहीं हुआ, हालांकि वह काफी बीमार रहते थे, लेकिन बहुजन समाज का कोई भी आंदोलन हो, चाहे दिल्ली में रविदास मंदिर का मामला हो या 2 अप्रैल के आंदोलन में शहीद हुए लोगों को सम्मानित करने का कार्यक्रम हो, वह हर जगह अपनी सहज मुस्कान के साथ उपस्थित रहते थे और सामने वाले को अपनी पीड़ा का तनिक भी अंदाजा नहीं होने देते थे। वैसे वो कई असाध्य बीमारियों से पीड़ित थे और लगभग 2 साल से डायलिसिस पर थे।

संजीव माथुर एक जन्मजात राजनीतिक कार्यकर्ता थे। संजीव माथुर का परिवार दिल्ली-6 चांदनी चौक में रहता था। वो दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी में जाया करते थे। ज़ाकिर हुसैन कॉलेज से उन्होंने ग्रैजुएशन किया। कैंपस में तमाम सांस्कृतिक गतिविधियां होती रहतीं, थिएटर होता। उसमें वो सक्रिय रूप से हिस्सा लेते थे। संजीव माथुर के पिता एक्सेल्सियर नाम के थिएटर में मैनेजर थे। तो इस तरह से भी कला और संस्कृति की बुनियादी समझ उन्हें विरासत के तौर पर मिली।

संजीव माथुर ने देश के विभिन्न नामी मीडिया संस्थाओं में काम किया। संजीव माथुर ने दैनिक भास्कर इंदौर में साल 2007-08 में काम किया, फिर साल 2008-09 में हिन्दुस्तान दिल्ली में रहे, 2010-12 रास्थान पत्रिका जयपुर में रहे। साल 2014 में वो वेब दुनिया, साल 2015 में तहलका, फिर साल 2016 में बीबीसी में भी काम किया और साल 2016 के आख़िर में उन्होंने न्यूज़ 18 में काम किया। जहां साल 2017 में काम छोड़ने के साथ ही उन्होंने पत्रकारिता को छोड़कर ख़ुद को पूरी तरह से सामाजिक कार्यों में झोंक दिया। 

ग़ाज़ियाबाद में रहने के दौरान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जहां एक दलित राजनीति का उभार है वहां आंदोलनों और कार्यक्रमों में जाते हुए उन्हें समझ आया कि दलित आंदोलन के बीच कोई तालमेल ही नहीं है और वैचारिक स्पष्टता पर काम करने की ज़रूरत है। तरह-तरह की धाराओं के बीच बहुजन आंदोलन को फुले-पेरियार-आंबेडकर वैचारिकी पर मजबूती देने की ज़रूरत है।

बालक राम बौद्ध जी संजीव माथुर के दलित आंदोलन के शुरुआती साथियों में से एक हैं। वो बताते हैं कि सहारनपुर दंगे के आरोप में साल 2017 में जब चंद्रशेखर आज़ाद को रासुका लगाकर जेल में डाल दिया गया तो संजीव माथुर ने उनकी रिहाई के लिए सामाजिक आंदोलन और न्यायिक लड़ाई शुरू की। साल 2017-18 में पूरा एक साल उन्होंने भीम आर्मी प्रमुख की रिहाई आंदोलन के लिए काम किया।

भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेख़र के जेल से छूटने के बाद संजीव माथुर और उनके बीच एक साझा दलित बहुजन संघर्ष को लेकर कई बार बैठक और बातचीत हुई लेकिन भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर आज़ाद का रुझान सामाजिक कम राजनीतिक ज़्यादा था, जबकि संजीव माथुर पूरी तरह से सामाजिक आंदोलन के पक्ष में थे।

एक वैचारिक मतभेद था दोनों के बीच आंदोलन की दशा और दिशा को लेकर इसलिए दोनों ने अपने रास्ते अलग कर लिए। चंद्रशेखर आज़ाद ने राजनीतिक दल का गठन कर लिया और संजीव माथुर बहुजन समाजवादी मंच बनाकर सामाजिक आंदोलन को आगे बढ़ाने में जुट गए।

वो साल 2019 से लगातार डायलिसिस पर होने के बावजूद वो लगातार बहुजन आंदोलन को आगे बढ़ाने में लगे हुए थे। बहुजन समाजवादी मंच का काम है एट्रोसिटी के मामले में दलित पीड़ितों को क़ानून मदद उपलब्ध करवाना। ऐसे मामलों में प्रशासन से हैंडल करना। दलित बहुजन बच्चों स्कूल जाने के लिए तैयार करना आदि।

बहुजन समाजवादी मंच ने गांव-गांव जाकर बहुजन समाजवादी पाठशालाएं खोली। फ़िलहाल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 28-30 बहुजन समाजवादी पाठशालाएं चल रही हैं। जो बच्चे 8-10 साल के हो गए और कभी स्कूल नहीं गए, उनको बहुजन समाजवादी पाठशालाओं में पढ़ाकर आत्मविश्वास देकर सरकारी स्कूलों में दाख़िला दिलवाया जाता है।

तो इस तरह का काम है संजीव माथुर की बहुजन समाजवादी पाठशाला का। पाठशाला के अलावा लाइब्रेरी खोलना भी बहुजन समाजवादी मंच के प्रमुख कामों में से एक है। इसके तहत ग़ाज़ियाबाद के कौशाम्बी बुद्ध बिहार में लाइब्रेरी खुलवाई गई है।

संजीव माथुर ने बहुजन समाजवादी मंच के ज़रिए 2 अप्रैल 2018 में एट्रोसिटी एक्ट को कमज़ोर किए जाने के खिलाफ़ भारत बंद आंदोलन में जो 13 बच्चे शहीद हुए थे उनके परिजनों को एकजुट करने और उन्हें तमाम तरह की मदद मुहैया कराने का काम किया।

तर्कसंगत, न्याय संगत, कल्याण संगत समाज बनाने पर उनका पूरा ज़ोर था। उनका आंदोलन और उनकी बातें इसी पर आधारित होती थी। किसी आंदोलन के दौरान कोई स्वार्थी व्यक्ति भी उनसे जुड़ा तो वो उसके साथ ज़्यादा दूर चल नहीं पाए और उसको किनारे करके छोड़ दिया।

बालकराम बौद्ध कहते हैं कि एक जातिविहीन, वर्गविहीन समाज बनाने का ख़्वाब लेकर उन्होंने जिस बहुजन समाजवादी मंच की बुनियाद डाली है, वही उनके ख़्वाब साकार करने के लिए लोगों को एकजुट करके उन्हें सामूहिक संघर्ष के रास्ते पर ले जाएगा।

संजीव को आज हम एक शानदार ‘असली इंसान’ के तौर पर याद कर सकते हैं। लोगों से उसके निस्वार्थ प्रेम, अपनेपन और मानवीयता की गर्माहट आज हम सभी अपने दिलों में महसूस कर सकते हैं। उसकी राजनीतिक प्रतिबद्धता उसकी सबसे बड़ी पूंजी थी। वो अपनी ज़िंदगी की एक-एक सांस राजनीति के लिए जिये।

शरीर की असाध्य बीमारियों से कमजोर होने के बावजूद राजनीतिक कामों को करने का उसका कमिटमेंट हैरान कर देता था। एक बेहतर समाज बनाने का उसका सपना किसी भी परेशानी या मुश्किलों की वजह से कभी कम नहीं हुआ। उन्होंने नए-नए रास्तों और तरीक़ों की ईज़ाद की और अपने सपने को पूरा करने की लगातार कोशिश करते रहे।

संजीव का होना आज के समय में एक प्रतिबद्ध राजनीतिक कार्यकर्ता के तौर पर मिसाल देने वाली एक ऐसी मशाल का होना था जो इस अंधेरे समय में उम्मीद की रोशनी दिखा रही थी। संजीव के हम सभी दोस्त और साथी यह यक़ीन करते हैं और प्रण लेते हैं कि बेहतर दुनिया बनाने का यह ख़्वाब हम सब मिलकर पूरा करेंगे और इस सफ़र में संजीव का मुस्कराता हुआ चेहरा हमेशा हमें प्रेरणा देता रहेगा…   

संजीव की स्मृति में शशि मौर्य और अनिल सद्गोपाल द्वारा लिखी गई ये पंक्तियां उनकी शख्सियत को याद करने और उनके कामों को जारी रखने का हमारा संकल्प व्यक्त करती हैं

संजीव माथुर आख़िर कौन था

यह संजीव माथुर आख़िर कौन था

जिसको आज तहेदिल सलाम करने

उसके सैंकड़ों साथी यहां इकट्ठे हुए हैं?

वह किसी विश्वविद्यालय का मशहूर प्रोफ़ेसर नहीं था,

ना ही किसी अख़बार का जाना-पहचाना लेखक था

ना ही उसके पास कोई धन-दौलत थी

ना ही उसके नाम बित्ता-भर भी ज़मीन थी।

हमें फ़क्र है कि उसे पूंजीवादी मनुवादी राजसत्ता ने

कभी पद्मश्री नहीं दिया, ना ही देने का सोचा भी होगा

और ना ही किसी राष्ट्रीय बुद्धिजीवी सम्मेलन में

उसको न्यौता दिया गया होगा।  

उसके महज़ 48 साल की उम्र में गुज़र जाने

की खबर शायद ही किसी मीडिया में छपेगी

तो फिर वह आख़िर कौन था

जिसको आज हम सब याद करने

दूर-दराज़ से अपने-आप ही यहां चले आए हैं?

अगर इटली के विश्व-विख्यात दार्शनिक ग्राम्शी

की इत्तफ़ाक मुलाक़ात संजीव से हुई होती

तो वे उसे एक अनूठे ज़मीनी बुद्धिजीवी (Organic Intellectual)

का तमग़ा ज़रूर देते हालांकि यह दीगर बात है

कि संजीव उस बहुमूल्य तमग़े को भी

अपनी किताबों के ढेर में रखकर भूल जाते

और आप सबसे हैरान होकर पूछते कि

मैं उस तमग़े का क्या करूं?

उनके इस अजीब सवाल का जवाब

आप के पास भी नहीं होता

सिवाए इसके कि आप सब साथी

संजीव के साथ मिलकर

यह फ़ैसला ज़रूर लेते कि

देश के विभिन्न शोषित व उत्पीड़ित तबकों

को भी ग्राम्शी का ज़मीनी बुद्धिजीवी (Organic Intellectual)

कैसे बनाया जाए।

संजीव को यह मालूम था कि

जब तक देश के करोड़ों बहुजनों को

ज़मीनी बुद्धिजीवी नहीं बनाया जाएगा तब तक

न तो देश गैर-बराबरी व शोषण से मुक्त हो पाएगा

और ना ही क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फुले, फ़ातिमा शेख,

ना ही महात्मा जोतिबा फुले व शाहुजी महाराज (महाराष्ट्र),

ना ही नारायण गुरु व आयनकली (केरल),

ना ही आयोथी थस्सार व पेरियार (तमिलनाडु),

ना ही गुरजादा अप्पाराव व कुंडुकुरी वीरसालिंगम (आंध्र प्रदेश),

ना ही पंजाब के महान सिख गुरुओं,

ना ही संत कबीर, संत रैदास (उत्तर प्रदेश) व शंकर देव (असम)

और ना ही डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर का देश को

ब्राह्मणी वर्चस्व और मनुस्मृति की

जाति (वर्ण व्यवस्था) व पितृसत्ता की बेड़ियों

से मुक्त करने का सपना साकार हो पाएगा।

भारत के तमाम नामी-गिरामी राजनेताओं, बुद्धिजीवियों व

बहुजनों के नामपर राजनीतिक सत्ता हथियाने में माहिर

सत्ताधारियों को ज़ोरदार चुनौती देते हुए

संजीव ने अपनी मसूम नौजवानी में ही समझ लिया था

कि बहुजनों को — जो देश के 85 फ़ीसद नागरिक हैं —

अपनी सदियों पुरानी ब्राह्मणी बेड़ियों को तोड़ने

और मनुस्मृति से मुक्त होने के लिए जितनी ज़रूरत

महात्मा फुले, डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर व पेरियार की है

उतनी ही ज़रूरत मार्क्स व एंगल्स की भी है,

यानी बहुजनों की मुक्ति का रास्ता

महात्मा फुले, डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर व पेरियार को

मार्क्स व एंगल्स के साथ जोड़कर ही निकलेगा।

इसीलिए संजीव के साथियों ने जो काम

गांव के स्कूलों में हालिया शुरू किया है उसमें

बहुजनों की शिक्षा को समाजवाद और इंसानियत से जोड़ा

जिसके बग़ैर शिक्षा अधूरी है और अधकचरी भी।  

यह तय है कि संजीव की अंतर्दृष्टि आज नहीं तो कल

भारत के सामाजिक परिवर्तन में हर हाल

एक ऐतिहासिक भूमिका निभाएगी!

इसलिए संजीव को सबसे बड़ी श्रद्धांजलि यही होगी

कि हम जैसे पढ़े-लिखे डिग्रीधारी लोग

देश के करोड़ों शोषितों व उत्पीड़ितों को

अपने ’मन की बात’ सुनाकर कतई आत्ममुग्ध नहीं होंगे

बल्कि हम देश के 140 करोड़ लोगों के ’मन की बात’

सुनकर अपने अंदर झांकेंगें और भारत के 

सामाजिक-राजनीतिक व आर्थिक नवजागरण (रेनेसां) का

क्रांतिकारी रास्ता बहुजनों के साथ मिलकर खोजेंगे, बनाएँगे।

जैसा कि साथी संजीव हम सब के साथ मिलकर गाया करते थे,

“शहीदे-ए-आज़म भगतसिंह, तू हमारे ख़ून के हर क़तरे में ज़िंदा है !”

हम भी गाएंगे, ज़ोर से गाएंगे, बार-बार गाएंगे

“साथी संजीव, तेरे अधूरे अरमानों को हम पूरा करेंगे !”

और तू हमारे ख़ून के हर क़तरे में ज़िंदा है, हमेशा ज़िंदा रहेगा !”

हम ’भारत के लोग’ होंगे कामयाब, एक दिन !

(शशि मौर्य और अनिल सद्गोपाल।)

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