संवैधानिक इतिहास में हमारे वर्तमान सीजेआई का कहां रहेगा स्थान?

धारा 370 और इससे जुड़े अन्य प्रसंगों पर राय देते हुए सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने 3:2 के फ़ैसले में कहा है कि धारा 370 एक अस्थायी प्रावधान था और जम्मू-कश्मीर की अपनी खुद की कोई आंतरिक सार्वभौमिकता नहीं है। इसके साथ ही यहां तक कह दिया है कि किसी भी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा कर, उसका विभाजन करके राज्य के स्वरूप को स्थायी तौर पर बिगाड़ देने वाले फैसले कानून की दृष्टि से गलत नहीं है।

फिर भी यह कहा गया है कि बचे-खुचे जम्मू-कश्मीर को यथाशीघ्र उसका राज्य का अधिकार मिलना चाहिए। इसके लिए भी तत्काल प्रभाव से कोई आदेश देने के बजाय सुप्रीम कोर्ट ने अगले साल के सितंबर महीने की 30 तारीख़ तक का समय मुक़र्रर किया है। इस फ़ैसले का क़ानून के अनुसार क्या औचित्य है, सुप्रीम कोर्ट ने इसे रहस्य ही रहने दिया है, इसकी कोई व्याख्या नहीं की है।

इसके राजनीतिक मायने बिल्कुल साफ़ हैं कि तब तक 2024 के चुनाव पूरे हो जाएंगे और यह काम नई सरकार की इच्छा पर निर्भर हो जायेगा। सुप्रीम कोर्ट ने अभी के लिए इस बारे में सरकार के सॉलिसिटर जनरल के आश्वासन को ही पर्याप्त माना है। सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि राष्ट्रपति के आदेश से जम्मू-कश्मीर को तोड़ कर लद्दाख को केंद्रशासित क्षेत्र बनाना कानूनन गलत नहीं है।

इस प्रकार गहराई से देखें तो साफ़ है कि-

1- संघवाद एक बुरी चीज है।

2- एक संविधान, एक राष्ट्र, एक धर्म, एक संस्कृति और एक भाषा ही भारत का अभीष्ट लक्ष्य है।

3- जनतंत्र और सत्ता का विकेंद्रीकरण एक सबसे बड़ी कमजोरी है।

4- एक मजबूत देश के लिए जरूरी है एक दल का शासन और राज्य का एकीकृत रूप।

5- एक सार्वभौम राष्ट्र में किसी भी अन्य प्रकार की स्वायत्तता और सीमित सार्वभौमिकता का भी कोई स्थान नहीं हो सकता है।

भारतीय राज्य के बारे में आरएसएस पंथी तथाकथित राष्ट्रवादियों की ऐसी और कई उद्दंड, मूर्खता भरी बातों की छाप को धारा 370 पर सुप्रीम कोर्ट की इस राय में किसी न किसी रूप में इकट्ठा पाया जा सकता है।

बाबरी मस्जिद को ढहा कर अयोध्या की उस विवादित ज़मीन को मनमाने ढंग से राम मंदिर बनाने के लिए सौंपने के सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की तरह ही भारतीय राज्य के संघीय ढांचे को ही ढहाने की दिशा में यह एक भयंकर फ़ैसला है। गौर करने की बात है कि इस फ़ैसले को लिखने में वर्तमान मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने प्रमुख भूमिका अदा की है जो राम मंदिर वाले फ़ैसले की पीठ में भी शामिल थे।

सॉलिसिटर जनरल ने सुप्रीम कोर्ट को कह दिया कि कश्मीर में विधानसभा का चुनाव शीघ्र कराया जायेगा, और सुप्रीम कोर्ट ने उनके कथन को ही पत्थर की लकीर मान कर उसी के आधार पर इतना महत्वपूर्ण फ़ैसला लिख मारा, क्या कोई इस पर कभी यक़ीन कर सकता है। पर इस मामले में बिलकुल यही हुआ है।

सब जानते हैं कि जिस राज्य में राष्ट्रपति शासन होता है, उसमें चुनाव के प्रस्ताव को संसद के अनुमोदन की जरूरत होती है। पर हमारे आज के ज्ञानी सुप्रीम कोर्ट के अनुसार उसके लिए सॉलिसिटर जनरल का आश्वासन ही काफ़ी है। इससे लगता है कि जैसे सुप्रीम कोर्ट ने सॉलिसिटर जनरल को ही भारत की संसद का मालिक मान लिया है।

हमारा सवाल है कि जो सीजेआई किसी वकील के कथन को, भले वह भारत का सॉलिसिटर जनरल ही क्यों न हो, भारत की संसद की राय मान कर फ़ैसला देने का बचकानापन कर सकता है? क्या वह किसी भी पैमाने से संवैधानिक मसलों पर विचार करने के योग्य हो सकता है? धारा 370 के इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के दुर्भाग्यपूर्ण फ़ैसले में यही साबित हुआ है।

अनेक झूठे मामलों में फंसा कर जेलों में बंद विपक्ष के नेताओं, नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को बेल देने के बजाय जेलों में सड़ाने में आज का सुप्रीम कोर्ट सबसे अधिक तत्पर नज़र आता है। इसी प्रकार महाराष्ट्र की तरह की मोदी की अनैतिक राजनीतिक करतूतों से जुड़े मामलों पर फ़ैसलों की भी उसे कोई परवाह नहीं है। पर राजनीतिक महत्व के जटिल मामलों पर भी बेतुके ढंग से संविधान की व्यवस्थाओं को ताक पर रख कर फ़ैसले सुनाने में इस सुप्रीम कोर्ट को ज़्यादा हिचक नहीं होती है।

धारा 370 पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसला से एक ही सत्य को चिल्ला-चिल्ला कर कहा गया है कि अदालतें राजसत्ता का अभिन्न अंग होती हैं। संसदीय जनतंत्र का यह एक खंभा है, पर अन्य से स्वतंत्र नहीं, उसका सहयोगी खंभा।

वर्तमान सीजेआई ने अपने इस प्रकार के कई फ़ैसलों से भारत में तानाशाही के उदय का रास्ता जिस तरह साफ़ किया है उसके बाद क्या यह कहना उचित नहीं होगा कि चुनाव आयोग के चयन की प्रक्रिया से उन्हें मोदी ने ही जिस प्रकार अपमानित करके क़ानून के ज़रिए निकाल बाहर किया है वह उन्हें उनके कर्मों की ही एक उचित सजा है।

हमारे सीजेआई के एक के बाद एक संविधान-विरोधी, अविवेकपूर्ण और फ़ालतू राष्ट्रवादी फ़ैसलों के समानांतर उनकी लंबी-चौड़ी भाषणबाजियों को देख कर सचमुच एक ही बात कहने की इच्छा होती है- ‘अध जल गगरी छलकत जाय’।

कहना न होगा, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने भारत के संवैधानिक इतिहास में अपने लिए एक नागरिक स्वतंत्रता और जनतंत्र के विरोधी का स्थान सुरक्षित कर लिया है।

(अरुण माहेश्वरी वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं और आप कोलकाता में रहते हैं।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments