पीएम मोदी ने एक बार फिर नेहरू को मिस्कोट करते हुए उन्हें आरक्षण विरोधी करार दिया

नई दिल्ली। अपनी मृत्यु के 60 वर्ष बाद भी पंडित जवाहरलाल नेहरू को इतने जोर-शोर के साथ देश की संसद में बार-बार याद किया जायेगा, ऐसा तो शायद स्वयं नेहरू जी ने अपने ख्वाब में नहीं सोचा होगा। लेकिन दो दिन पहले लोकसभा में मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उद्धृत ही नहीं किया, बल्कि 15 अगस्त 1959 को लाल किले से उनके द्वारा देश की जनता में नया उत्साह भरने के लिए दुनिया में तरक्की कर चुके जिन देशों का उद्धरण दिया गया, उसे ही पीएम मोदी ने यह बता दिया कि पंडित नेहरू ने भारत के लोगों को आलसी और कम-अक्ल बताया था।

राज्यसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद ज्ञापित करने के मौके पर पीएम मोदी ने 90 मिनट के अपने भाषण में एक बार फिर से पंडित नेहरू को उद्धृत कर राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ में जाति जनगणना के प्रश्न को उठाने की इंडिया गठबंधन की मुहिम को पंक्चर करने के लिए नेहरू के पत्रों का सहारा लिया।

इस बार भी उन्होंने नेहरू के कथन के कुछ अंश को ही उद्धृत करना जरूरी समझा। पंडित नेहरू के द्वारा मुख्यमंत्रियों के नाम पत्र 1947-64 के कई खंड संग्रहालय में मौजूद हैं। इसके खंड 5 में 27 जून 1961 को मुख्यमंत्रियों के नाम अपने 65वें पत्र में नेहरू दुनिया-जहां की बातें लिखते हैं।

इसमें वे लाओस समस्या से शुरू करते हुए जेनेवा सम्मेलन, अल्जीरिया, कांगो और अंगोला समस्या का उल्लेख करते हैं। इसके साथ ही वे यूरोपीय साझा बाज़ार से ग्रेट ब्रिटेन एवं कमनवेल्थ देशों की मानसिक दशा पर पड़ रहे प्रभाव का जिक्र कर रहे होते हैं। अपने पड़ोस में पाकिस्तान की हरकतों पर ध्यान रखने की बात कहते हुए वे असम, बंगाल और पंजाब में बढ़ती भाषाई समस्या पर केंद्रित होने पर जोर देते हैं।

इस प्रकार पंडित नेहरू करीब 23 बिंदुओं पर अपने विचारों को प्रस्तुत करते हुए सरकारी नौकरियों में आरक्षण के विषय पर आते हैं। इससे पहले वे समाजवादी मॉडल पर देश की प्रगति एवं हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड एवं हिंदुस्तान मशीन टूल्स में आशातीत सफलता का जिक्र कर चुके होते हैं, और उनके पास देश को आगे ले जाने की एक दिशा नजर आती है।

नेहरू अपने 24वें पॉइंट पर लिखते हैं, “मैंने पहले ही दक्षता एवं हमारे पारंपरिक लीक से बाहर निकलने के बारे में उल्लेख किया है। इसके लिए हमें इस जाति या उस समूह को दिए जाने वाले आरक्षण सहित विशेष विशेषाधिकारों की अपनी पुरानी आदत से बाहर निकलना आवश्यक है। राष्ट्रीय एकता पर विचार-विमर्श के लिए हाल ही में हमारी यहां पर जो बैठक हुई थी, जिसमें तमाम मुख्यमंत्री मौजूद थे, उसमें यह तय किया गया था कि मदद आर्थिक आधार पर दी जानी चाहिए, न कि जाति के आधार पर।”

वो आगे लिखते हैं कि “यह सच है कि हम अनुसूचित जातियों और जनजातियों की मदद के संबंध में कुछ नियमों और परंपराओं से बंधे हैं। उन्हें मदद मिलनी चाहिए, लेकिन इसके बावजूद मैं किसी भी प्रकार के आरक्षण को नापसंद करता हूं, विशेषकर नौकरियों में। मैं ऐसी किसी भी चीज़ के ख़िलाफ़ कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करता हूं जो अक्षमता और दोयम दर्जे के मानकों की ओर ले जाती है। मैं चाहता हूं कि मेरा देश हर चीज में प्रथम श्रेणी का देश बने। जिस पल हम दोयम दर्जे को प्रोत्साहित करते हैं, हम उसे खो जाते हैं।”

निश्चित रूप से 60 के दशक और 1989 के बाद भारत का स्वरूप पूरी तरह से बदल चुका है। 60 का दशक तीसरी पंचवर्षीय योजना के साथ शुरू हो रहा था, जिसमें भविष्य में सभी देशवासियों के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य एवं नौकरियों की कल्पना की जा रही थी। आज जबकि सरकारी नौकरियां लगभग खत्म हो चुकी हैं, आरक्षण की मांग उत्तरोत्तर बढ़ रही है और सभी राजनीतिक दलों के लिए पिछड़ों और आदिवासी-दलितों को अपने पाले में लाने के लिए तमाम तरह के आख्यान रचने पड़ रहे हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि 90% से अधिक नौकरी अब निजी क्षेत्र के दायरे में है, जहां आरक्षण लागू करने के लिए एक भी राजनीतिक पार्टी के घोषणापत्र में कोई उल्लेख तक नहीं है।

लेकिन आरक्षण को खत्म करने के लिए नेहरू किस आधार को खड़ा करने की बात इस पत्र में करते हैं, उसका उल्लेख किये बिना यदि इस चर्चा को खत्म कर दिया जाये तो मान लिया जायेगा कि नेहरू तो आरक्षण विरोधी थे। इसी पत्र में वे आगे लिखते हैं:-

“पिछड़े समूह की मदद करने का एकमात्र वास्तविक तरीका उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने का अवसर देना होगा, जिसमें तकनीकी शिक्षा भी शामिल है जो अधिकाधिक महत्वपूर्ण होती जा रही है। बाकी सारी चीजें किसी न किसी प्रकार की बैसाखी का प्रावधान करना है, जो शरीर की शक्ति अथवा स्वास्थ्य में वृद्धि नहीं करता है।”

“हमने हाल ही में दो फैसले लिए हैं जो बेहद महत्वपूर्ण हैं: एक है, सार्वभौमिक निःशुल्क प्रारंभिक शिक्षा, जो कि इसका आधार है; और दूसरा, प्रतिभाशाली लड़कों एवं लड़कियों के लिए शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर बेहद वृहद पैमाने पर छात्रवृत्तियां देने की व्यवस्था करना। इसे सिर्फ साहित्यिक शिक्षा पर ही लागू नहीं किया जा रहा है, अपितु ये तकनीकी, वैज्ञानिक एवं चिकित्सा प्रशिक्षण पर भी लागू होती हैं।”

“मैं प्रतिभाशाली और सक्षम छात्र-छात्राओं पर जोर देता हूं क्योंकि वे ही हमारे मानकों को ऊंचा उठाएंगे। मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इस देश में संभावित प्रतिभा का एक विशाल खजाना है, शर्त सिर्फ यह है कि हम उन्हें इसका अवसर प्रदान कर सकें।”

निश्चित ही पंडित नेहरू के विचार में तब सोवियत रूस का मॉडल गहराई से बसा हुआ था, जिसने 1917 में रूसी क्रांति के बाद अगले 30 वर्षों में खुद को एक बेहद पिछड़े कृषि आधारित राष्ट्र से विश्व की दूसरी महाशक्ति की पांत में ला खड़ा कर दिया था। सोवियत रूस में इस छोटी सी अवधि में महिला-पुरुष कोई भी बेरोजगार नहीं था, सभी के पास शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, आवास और मनोरंजन के लिए समय उपलब्ध था।

भारत उस समय तीसरी पंचवर्षीय योजना को लागू करने की तैयारी कर रहा था। आरक्षण समर्थक भी इस बात से पूरी तरह से सहमत हैं कि यदि देश में अवसर की समानता मुहैया करा दी जाये तो उन्हें भी नौकरियों में आरक्षण की जरूरत नहीं है। इसमें बुनियादी शिक्षा से लेकर डॉक्टरेट की उपाधि शामिल है, जिसमें गुणवत्तापूर्ण मुफ्त शिक्षा एवं नवीनतम पाठ्य-पुस्तकें और कोचिंग इत्यादि शामिल होनी अनिवार्य है।

सन 60-70 के दशक तक भारत में सार्वजनिक क्षेत्र में नौकरियों को लेकर मारामारी का आलम नहीं था। हाई स्कूल की परीक्षा पास कर लोगों को क्लर्क सहित वे तमाम नौकरियां आसानी से उपलब्ध हो जाया करती थीं, जिसके लिए आज पोस्ट-ग्रेजुएट या डॉक्टरेट की उपाधि हासिल करने वाले तक लाइन लगाये खड़े मिल जाते हैं, इसके बावजूद रिक्त पदों की संख्या इतनी कम होती है कि अधिकांश लोगों को निराशा ही हाथ लगती है।

ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि मौजूदा पीएम नरेंद्र मोदी आखिर 63 वर्ष पहले नेहरू ने क्या कहा, को देश के सामने बताकर क्या साबित करना चाहते हैं? नेहरू के विजन को तो देश ने 80 के दशक में ही तिलांजलि दे दी थी। यह नेहरू युग की ही देन है कि भारत में गैर-बराबरी अगर आधुनिक भारत के किसी कालखंड में कम हुई थी, तो यह 1950-1980 के 30 वर्षों को ही श्रेय दिया जाता है।

इसके बाद का घटनाक्रम विभिन्न सरकारों द्वारा बड़ी पूंजी के लिए मार्ग को प्रशस्त करने का काल है, जिसमें कांग्रेस सहित सभी दल शामिल रहे हैं। 1991 में पूर्व प्रधान मंत्री पीवी नरसिंहराव के नेतृत्व में नई आर्थिक नीति की नींव के साथ जो शुरुआत की गई, उसके चलते देश में जीडीपी विकास की दर तो अवश्य बढ़ी है, लेकिन अमीर-गरीब की खाई कम होने के बजाय तेजी से बढ़ी है।

2010 के बाद आर्थिक असमानता में वृद्धि की रफ्तार इस कदर बढ़ चुकी है कि अब इसे पटरी पर वापस लाने को लेकर कोई आर्थिक विशेषज्ञ विचार भी नहीं रखता। आज स्थिति यह है कि देश के पास युवाओं के लिए कोई नौकरी नहीं है, शिक्षा का स्तर भी लगातार दोयम दर्जे से भी बदतर कर दिया गया है।

और राज्यसभा से पीएम मोदी ने देश को संबोधित करते हुए इशारा भी कर दिया है कि जल्द ही देश में टॉप विदेशी शिक्षण संस्थानों के प्रवेश की राह को तैयार किया जा चुका है। ये वे शिक्षण संस्थान हैं, जिनमें अभी तक देश के अमीरों के बच्चे 20-50 लाख रूपये प्रति वर्ष खर्च कर उच्च शिक्षा हासिल करते थे।

मतलब साफ़ है कि देश में जल्द ही नेहरू के जमाने में निर्मित उच्च शिक्षा के माडलों को भी व्यापक गरीबों के लिए बंद कर दिया जाना है। इसे हम हाल के दिनों में आईआईटी, आईआईएम और जेएनयू जैसे तमाम शिक्षा संस्थाओं में लगातार फीस वृद्धि एवं हॉस्टल फीस में कई गुना वृद्धि की मुहिम से समझ सकते हैं।

प्रधानमंत्री मोदी के लिए इंडिया गठबंधन की जातिगत सर्वेक्षण की मुहिम असल में उन सवालों को बुनियादी रूप से खड़ा करने वाली मुसीबत बन गई है, जो देश में आधे-अधूरे मिश्रित अर्थव्यस्था की विफलता पर तेजी से बढ़ते क्रोनी पूंजीवाद को बेनकाब करने का जरिया बन सकती है। यह बड़ा खतरा किसके लिए है, और इस मुहिम को रोकने के लिए देश में कौन सी शक्तियां काम कर रही हैं, इसे समझना कोई राकेट साइंस नहीं है।

याद कीजिये 1989 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने के बाद आरक्षण विरोध की मुहिम में सबसे बढ़-चढ़कर कौन सी शक्तियां शामिल थीं? जार्ज फर्नांडिस का वक्तव्य आज भी सोशल मीडिया में उनके वीडियो के माध्यम से लाखों लोगों को याद दिला रहा है, जिसमें जार्ज फर्नांडिस साफ़ बताते हैं कि किस प्रकार लाल कृष्ण अडवाणी ने साफ़ कहा था कि मंडल को लागू कर आप लोगों ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा।

मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने के कुछ माह बाद ही भाजपा की ओर से कमंडल प्रयोग अमल में लाया गया था। गुजरात से राम मंदिर निर्माण की मुहिम के लिए अडवाणी की रथयात्रा शुरू हुई थी, जिसके सारथी अडवाणी थे, तो इसके आयोजन में आज के पीएम नरेंद्र मोदी को देखा जा सकता है।

आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत 2015 और 2019 में क्या कह रहे थे?

21 अगस्त 2019 को द वायर में कांचा इलाया शेफर्ड मोदी राज में आरएसएस के बहुप्रतीक्षित एजेंडे पर सवाल उठाते हुए आरक्षण के खात्मे को लेकर सवाल उठाते हैं। इस लेख में कांचा संघ प्रमुख मोहन भागवत के द्वारा प्रतियोगी परीक्षाओं को लेकर आरएसएस द्वारा आयोजित ज्ञान उत्सव कार्यक्रम में उनके द्वारा दिए गये वक्तव्य का उदाहरण देते हैं। इसमें अपनी टिप्पणी में, आरएसएस प्रमुख ने कहा था कि जब उन्होंने पहले इस विषय को उठाया था, तो इस पर बहुत शोर मचाया गया और पूरी चर्चा ही पटरी से उतर गई थी।

उनका यह उद्धरण 2015 में बिहार विधान सभा चुनाव से पूर्व आरक्षण के प्रश्न को लेकर था, जिसके चलते बिहार में भाजपा को भारी नुकसान उठाना पड़ा था और नितीश-लालू यादव के नेतृत्व वाले महागठबंध को व्यापक जीत हासिल हुई थी।

मोहन भागवत ने इस आयोजन में जो कहा, वह इस प्रकार से था: “जो आरक्षण के पक्ष में हैं, वे जब आरक्षण के विपक्ष में हैं, उन्हें सुनेंगे और जो लोग आरक्षण के विरोध में हैं, वे आरक्षण के पक्ष वालों की बातों को सुनेंगे और उस पर विचार करेंगे, तब हम एक मिनट में इसका समाधान निकाल सकते हैं। तब बिना किसी कानून के, बिना नियमों के इसे हल किया जा सकता है। जब तक समूचे समाज में सद्भाव कायम नहीं हो जाता, इस सवाल का कोई जवाब नहीं निकाल सकता। हमें इस बारे में प्रयास करना होगा और संघ इस काम को कर रहा है।”

एनडीटीवी के लेख में भी इसका जिक्र मिलता है, जिसमें कहा गया है कि आरएसएस द्वारा सरकार के एजेंडे को प्रभावित करने की बात को खारिज करते हुए, श्री भागवत ने यह भी स्पष्ट किया कि संघ, भाजपा और केंद्र में पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार “तीन अलग-अलग संस्थाएं” हैं, और किसी एक को दूसरे के कार्यों के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है।

इसके साथ ही उनका कहना था,”चूंकि बीजेपी और इस सरकार के भीतर आरएसएस के कार्यकर्ता हैं, ऐसे में वे निश्चित तौर पर आरएसएस की बात सुनेंगे। लेकिन हमारी बातों से उन्हें सहमत होना अनिवार्य नहीं है। वे हमारे विचारों से असहमत भी हो सकते हैं।”

इसका क्या अर्थ हुआ?

देश में आरक्षण विरोधी सवर्ण शक्तियां तेजी से भाजपा-आरएसएस के पाले में आ गईं, और कांग्रेस पार्टी के पराभव की पटकथा इसी के साथ शुरू हो गई। मंडल समर्थकों के लिए उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बिहार में राजद और बाद में जेडीयू का उदय हो चुका था। कांग्रेस के पास दलित, अल्पसंख्यक और सवर्ण (ब्राह्मण) वोट बैंक छिटक कर भाजपा और क्षेत्रीय दलों की झोली में जा चुका था। देश में सरकारी रोजगार और शिक्षा स्वास्थ्य का मुद्दा 1989 से जो गायब हुआ, वह आज तक जारी है।

राहुल गांधी के द्वारा कांग्रेस की खोई जमीन को दुबारा हासिल करने की यह मुहिम किस हद तक कामयाब होती है, यह तो भविष्य की गोद में छिपा है, लेकिन मजे की बात तो यह है कि 1989 में मंडल बनाम कमंडल की जो लड़ाई शुरू हुई थी, आज उनके दोनों प्रतीकों बीपी मंडल बनाम लाल कृष्ण अडवाणी, दोनों को एक साथ भारत रत्न की घोषणा कर अगड़ों और पिछड़ों दोनों का वोट बैंक साधने की बाजीगरी को किंकर्तव्यविमूढ़ होकर देश का देखना भी किसी त्रासदी से कम नहीं है।

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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