मोदी ने किया देश की संप्रभुता से समझौता, भारतीय जमीन को युद्ध के लिए अमेरिका कर सकता है इस्तेमाल!

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिकी बहुचर्चित यात्रा अब पूरी हो चुकी है और हम इस बारे में ठोस समझ बनाने की स्थिति में हैं कि आखिर ये यात्रा कितनी ऐतिहासिक रही या इससे दोनों देशों के रिश्तों को तय करने वाले पैमाने कितने बदल गए? 

यह निर्विवाद है कि अमेरिका के जो बाइडेन प्रशासन ने इस यात्रा को यथासंभव हाई प्रोफाइल बनाने में अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी। बल्कि यह कहा जा सकता है कि इस यात्रा को अति महत्व देने पर अमेरिका के सत्ता प्रतिष्ठान में लगभग पूरी सहमति थी। दोनों प्रमुख पार्टियों- डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन- के नेतृत्व ने इस बारे में सहमति का संकेत देने के लिए ही प्रधानमंत्री को अमेरिकी कांग्रेस के साझा सत्र को दूसरी बार संबोधित करने का आमंत्रण दिया। इस बात पर जोर डाला गया कि ऐसा दुर्लभ मौका अमेरिका ने अपने इतिहास में गिने-चुने नेताओं को ही दिया है।

यात्रा के पूरे संयोजन में एक तरह की नाटकीयता रही। पहले प्रधानमंत्री को मई में जापान के हिरोशिमा में हुए जी-7 की बैठक में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। उसके साथ ही एलान हुआ था कि प्रशांत महासागर में स्थित पापुआ न्यू गिनी में आयोजित होने वाले विशेष सम्मेलन में भाग लेने के लिए मोदी बाइडेन और अन्य नेताओं के साथ वहां जाएंगे। फिर उसके साथ ही क्वाड्रैंगुलर सिक्योरिटी डायलॉग (क्वैड) का शिखर सम्मेलन ऑस्ट्रेलिया के सिडनी में आयोजित होने वाला था। अमेरिका के कर्ज संकट के कारण बाइडेन को यात्रा बीच में छोड़ कर देश लौटना पड़ा। इसलिए पापुआ न्यू गिनी का कार्यक्रम और क्वैड की सिडनी बैठक रद्द हो गयी। लेकिन हिरोशिमा से सिडनी तक के लिए जो पूरा कार्यक्रम बना था, उसके जरिए अमेरिका ने भारत के प्रति अपना इरादा स्पष्ट कर दिया था।

गौरतलब है कि 24 मई को क्वैड शिखर सम्मेलन होना था। वहां वार्ता तय होने के बावजूद बाइडेन ने महीने भर से भी कम अंतराल पर मोदी को 22 जून को राजकीय यात्रा पर ह्वाइट हाउस आमंत्रित किया। उसी मौके पर कांग्रेस के दोनों सदनों के दलों के नेताओं ने प्रधानमंत्री को साझा बैठक को संबोधित करने के लिए भी आमंत्रित कर दिया।

वर्तमान भू-राजनीतिक तनाव के बीच भारत को इतनी अहमियत देने के अमेरिका के निर्णय को लेकर अगर दुनिया भर में दिलचस्पी पैदा हुई, तो यह स्वाभाविक ही है। इसी बीच अमेरिकी कांग्रेस की संबंधित समिति ने भारत के सामने नाटो प्लस में शामिल होने का औपचारिक आमंत्रण दे दिया। नाटो प्लस नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन का एशिया संस्करण है, जिसे अमेरिका खासकर चीन को निशाने पर रखते हुए संगठित कर रहा है। नाटो प्लस की सदस्यता के अलावा भारत के साथ कटिंग एज (अति आधुनिक) टेक्नोलॉजी और रक्षा में सहयोग को नए स्तर पर ले जाने की बातें भी चर्चा पर छा गईं। 

अब मोदी की यात्रा का आकलन करने का पैमाना ये जगाई गई “अपेक्षाएं” ही हैं। प्रश्न है कि मोदी की यात्रा का अमेरिका के लिए भू-राजनीतिक महत्व अथवा मोदी के लिए राजनीतिक महत्व चाहे जो रहा हो, लेकिन उससे भारत को तकनीक या आर्थिक क्षेत्र में क्या लाभ हुआ?

तो आइए, बिंदुवार रूप से इनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर ध्यान देते हैं: 

  • रणनीतिक क्षेत्र में भारत में अमेरिकी नौसैनिक बेड़ों को “मरम्मत की सुविधा” देने पर सहमति बनी है। इसे ज़रूर एक अहम घटना समझा जाएगा। इसका अर्थ यह है कि भारत ने अमेरिकी सेना के अभियानों में अपनी जमीन का इस्तेमाल करने की इजाजत देने की शुरुआत कर दी है।
  • इस तरह भारत नाटो प्लस का सदस्य तो नहीं बना है, लेकिन विदेशी सेना को अपनी धरती का इस्तेमाल ना करने देने की पुरानी और चिर-परिचित नीति को उसने बदल दिया है। 
  • जेनरल इलेक्ट्रिक (जीई) और हिंदुस्तान एरॉनोटिक्स लिमिटेड (एचएएल) कंपनियों के बीच हलके लड़ाकू विमानों के इंजन को साझा तौर पर बनाने का करार हुआ। लेकिन यह उतनी बड़ी बात नहीं है, जितना भारतीय मीडिया में बताया गया है। ताजा करार के साथ जीई कंपनी ने जो बयान जारी किया खुद उसमें इस बात का उल्लेख है कि इन दोनों कंपनियों के बीच उत्पादन सहयोग 1986 से चल रहा है। इसके तहत जीई एफ-404 और एफ-414 इंजनों का निर्माण पहले ही किया जा चुका है। अब एलसीए एके-2 प्रोग्राम के तहत ये दोनों कंपनियां 99 इंजनों का निर्माण करेंगी।
  • ताजा करार के तहत जीई कंपनी बौद्धिक संपदा भी साझा करेगी, इसका कोई जिक्र उस बयान में नहीं है। तो इस समझौते को अधिक से अधिक पहले से जारी सहयोग में एक प्रगति भर कहा जा सकता है। 
  • तीन बिलियन डॉलर के खर्च से भारत ने जिन एमक्यू रीपर ड्रोन्स को खरीदने का फैसला किया है, उनके बारे में रक्षा विशेषज्ञों ने कहा है कि उनमें मौजूद तकनीक पुरानी पड़ चुकी है। यानी भारत को जो तकनीक मिलने जा रही है, उसे अति-आधुनिक (कटिंग-एज) नहीं कहा जा सकता है। 
  • इनके अलावा आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, क्वांटम कंप्यूटिंग, 5-जी/6-जी, बायोटेक, अंतरिक्ष और सेमीकंडक्टर्स के क्षेत्र में सहयोग के बारे में जो बातें कही गई हैं, फिलहाल वे एक अच्छा इरादा से ज्यादा कुछ नहीं हैं। 2008 में परमाणु करार होने के समय भी बहुत ऊंची उम्मीदें जताई गई थीं। लेकिन आज 15 साल बाद हकीकत यह है कि उसके तहत एक भी रिएक्टर चालू नहीं हुआ है। 

आर्थिक सहयोग के मामले में जो बातें कही गईं, उनमें सेमीकंडक्टर के क्षेत्र से जुड़ी कंपनी माइक्रोन के गुजरात में सेमीकंडक्टर परियोजना में 82.5 करोड़ डॉलर निवेश करने की बात सुर्खियों में आई है। लेकिन यह कोई नई बात है, इसे स्वीकार करना कठिन है। चीन से अपना कारोबार समेट रही कंपनियां सस्ती मज़दूरी वाले देशों में ठिकाना तलाश रही हैं। उन देशों में एक भारत भी है। एपल जैसी कंपनी पहले ही इस नई परिघटना के तहत भारत में निवेश कर चुकी है। 

हां, इस यात्रा के दौरान इस बात पर ज़रूर ध्यान गया कि बड़े पैमाने पर भारतीय कंपनियां अपना पैसा अब अमेरिका में लगा रही हैं। जो बाइडेन की नई औद्योगिक पहल के जरिए वहां कुछ क्षेत्रों में निवेश पर भारी सब्सिडी के जो प्रावधान किए गए हैं, संभवतः उससे इस रुझान में तेजी आई है। प्रधानमंत्री के सामने जो बाइडेन ने यह कहा कि भारतीय कंपनियां अमेरिका में दो बिलियन डॉलर का नया निवेश करेंगी, जिससे वहां हजारों नई नौकरियां पैदा होंगी।

अगले ही दिन यह खबर आई कि सौर पैनल बनाने वाली भारतीय कंपनी विक्रम सोलर लिमिटेड अमेरिका में सौर ऊर्जा सप्लाई चेन बनाने के लिए 1.5 बिलियन डॉलर का निवेश करेगी। तो इस तरह मोदी सरकार की नीतियों के तहत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) की बदलती कहानी सामने आई है। खुद de-industrialise (उद्योग-धंधों के क्षय का शिकार होते) विकासशील देश के पूंजीपति अब अमेरिका जैसे विकसित देश में पैसा लगा रहे हैं। इससे जुड़ा जो बड़ा सवाल है, वह फिलहाल यहां हमारी चर्चा का विषय नहीं है। 

रक्षा, आर्थिक और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में मोदी की अमेरिका यात्रा की ठोस कहानी यही है। बहरहाल, यह कहानी भले बहुत आकर्षक ना दिखती हो, लेकिन उसका जो प्रतीकात्मक और राजनीतिक पक्ष है, वह ज़रूर दिलचस्प है। यह तो बेशक कहा जा सकता है कि इस यात्रा से प्रधानमंत्री को अपनी बड़ी छवि पेश करने का मौका मिला है। इस कार्य में भारत का मेनस्ट्रीम मीडिया पूरे मनोयोग से लगा हुआ था। इसलिए मोदी को अपने समर्थक जमात या मतदाताओं को यह संदेश देना आसान हो गया कि प्रधानमंत्री की ऐसी हैसियत बन चुकी है कि ‘दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश’ को उनकी आव-भगत में पलक पांवड़े बिछाने पड़े हैं। इस संदेश का 2024 के आम चुनाव में उन्हें कितना लाभ मिलेगा, यह कयास की बात है।

बहरहाल, अमेरिका के लिबरल हिस्से में मोदी के लिए बाइडेन प्रशासन की तरफ से दिखाए गए अति-उत्साह को लेकर गहरी असहजता पैदा हुई और इसकी झलक लिबरल मीडिया में भी देखने को मिली। दरअसल, यह प्रतिक्रिया इतनी तीखी और व्यापक थी कि उसका अनुमान चीन को घेरने की अमेरिका की मौजूदा बेसब्री से परिचित लोगों को भी नहीं रहा होगा। 

अमेरिका एक क्षयशील महाशक्ति है, जो अपनी हैसियत बचाने के लिए हाथ-पांव मार रहा है। लेकिन धीरे-धीरे चीजें उसके हाथ से निकलती जा रही हैं। ऐसे में चीन के ऐसे सबसे निकट पड़ोसी देश को- जिसके पास अपेक्षाकृत एक बड़ा बाजार और बड़ी सेना भी है- अपने खेमे में लेने के लिए नतमस्तक हो जाना अस्वाभाविक नहीं है।

गौरतलब है कि यह बेसब्री बाइडेन प्रशासन तक सीमित नहीं है। बल्कि अमेरिका के पूरे इस्टैब्लिशमेंट (सत्ता प्रतिष्ठान) में इस पर सहमति है और मीडिया भी उसका एक अभिन्न हिस्सा है।  

इसीलिए यह अपेक्षा नहीं थी कि मोदी की यात्रा को हाई प्रोफाइल बनाने का बाइडेन का दांव अपने देश में अपने समर्थक लिबरल समूहों के बीच उलटा पड़ जाएगा। इसका पहला संकेत तो मोदी की यात्रा शुरू होने के पहले ही अमेरिकी सत्ता तंत्र की सोच को प्रतिबिंबित करने वाली पत्रिका फॉरेन अफेयर्स में छपे एक लेख से मिल गया। इस लेख में भारत में लोकतंत्र का गला घोंटने और अल्पसंख्यक अधिकारों के दमन के मोदी सरकार के रिकॉर्ड का विस्तार से उल्लेख किया गया। इसकी रोशनी में बाइडेन प्रशासन को चेतावनी दी गई कि मोदी को ऊंचा सम्मान देकर वह अपनी नैतिक साख को खत्म कर लेगी। कहा गया कि मोदी का असाधारण स्वागत करने के बाद बाइडेन के इस दावे पर दुनिया में कोई यकीन नहीं करेगा कि लोकतंत्र और मानव अधिकारों की रक्षा उनकी विदेश नीति का केंद्रीय पहलू है।

मोदी के अमेरिका पहुंचते ही चाहे न्यूयॉर्क टाइम्स हो या वॉशिंगटन पोस्ट- अटलांटिक या वॉक्स (दरअसल, नाम इतने ज्यादा हैं कि सबका उल्लेख कर पाना कठिन है)- सबमें फॉरेन अफेयर्स के लेख में व्यक्त हुई भावना को जताने वाली टिप्पणियां और रिपोर्टों की भरमार लग गई। कमेटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ जर्नलिस्ट्स, एमनेस्टी इंटरनेशनल, ह्यूमन राइट्स वॉच जैसे संगठनों, अनेक बुद्धिजीवियों, भारतीय प्रवासियों के संगठनों आदि ने ‘मोदी विरोधी’ जो जोरदार मुहिम चलाई, उसका असर डेमोक्रेटिक पार्टी की सियासत पर भी पड़ा। पार्टी के 75 सांसदों ने संयुक्त बयान जारी कर और साथ ही अपने सोशल मीडिया पोस्ट्स में भी मोदी को दिए जा रहे सम्मान की आलोचना की और कांग्रेस की संयुक्त बैठक में मोदी के संबोधन का बहिष्कार करने का एलान किया।

अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी लिबरल खेमे का नेतृत्व करने का दावा करती है। उसके मतदाताओं का बहुत बड़ा हिस्सा लिबरल उसूलों को बचाने की कोशिश में डेमोक्रेटिक पार्टी को वोट देता है। रिपब्लिकन पार्टी के लिए यह समस्या नहीं है। वह धीरे-धीरे अपने को इस हद तक दक्षिणपंथी धुरी पर ले गई है, जहां लोकतंत्र, मानव अधिकार या अल्पसंख्यक अधिकारों के हनन का पक्ष लेने से समर्थन और बढ़ता है।

बहरहाल, डेमोक्रेटिक या लिबरल खेमे में विरोध भाव इतना तेज था कि जो बाइडेन की रक्षा के लिए पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा को सामने आना पड़ा। अचानक उन्होंने टीवी चैनल सीएनएन को इंटरव्यू दिया। इसमें उन्होंने बिना नाम लिए संकेत दिया कि वे मोदी को तानाशाह नेताओं में मानते हैं। उन्होंने यह खुल कर कहा कि मोदी की अल्पसंख्यक विरोधी नीतियों से आगे चल कर भारत में “बिखराव आ सकता है”। फिर उन्होंने बाइडेन को सलाह दी कि वे सार्वजनिक या निजी रूप से यह मुद्दा मोदी के सामने उठाएं। लगे हाथ बाइडेन का बचाव करते हुए उन्होंने कहा कि अमेरिकी राष्ट्रपति देश के सुरक्षा और आर्थिक हितों को आगे बढ़ाने के लिए हर तरह के नेताओं को अहमियत देनी पड़ती है, जैसा कि राष्ट्रपति रहते हुए उन्होंने (ओबामा ने) भी किया था।

इससे देश के अंदर अपने समर्थक वर्ग में बाइडेन या अमेरिका की लिबरल छवि का कितना बचाव हुआ, यह जानने के लिए अभी कुछ इंतजार करना होगा। लेकिन वैश्विक स्तर पर लोकतंत्र एवं मानव अधिकार के मुद्दे पर अमेरिकी पाखंड के बेनकाब होने की परिघटना इससे अपने उरूज पर पहुंच गई है। जिस समय अमेरिकी साम्राज्यवाद के एक प्रमुख आधार- डॉलर के वर्चस्व में सेंध लगने की प्रक्रिया आगे बढ़ रही है, ताजा घटनाक्रम ने साफ कर दिया है कि मीडिया के जरिए मनमाफिक नैरेटिव सेट करने की अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान की क्षमता भी कमजोर पड़ने लगी है। यहां हम अपनी बात इस अनुभवजन्य तथ्य को दोहराते हुए खत्म कर सकते हैं किसी भी सत्ता प्रतिष्ठान की वैधता (legitimacy) के खत्म होने की शुरुआत लोगों का दिमाग नियंत्रित करने की उसकी क्षमता टूटने के साथ ही होती है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार और अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं।) 

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