आखिरकार 3,588 दिनों के बाद प्रोफेसर जी एन साईबाबा दोषमुक्त पाए गये

प्रोफेसर साईबाबा को पहली बार 9 मई 2014 को दिल्ली स्थित उनके आवास से गिरफ्तार किया गया था। 2017 में साईबाबा सहित 5 अन्य आरोपियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। वर्ष 2022 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने यूएपीए के तहत अवैध हिरासत को देखते हुए उन्हें बरी कर दिया था। हालांकि, पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट ने उनकी अपील पर दोबारा सुनवाई करने का फैसला देते हुए मामले पर गुण-दोष के आधार पर विचार करने का आदेश जारी किया था।

कल 5 मार्च को बॉम्बे हाई कोर्ट ने एक बार फिर सभी आरोपियों को दोषमुक्त करार देते हुए, बरी कर दिया है, लेकिन इस बार इस फैसले को मेरिट के आधार पर अभियोजनकर्ता की दलीलों और सुबूतों के खोखलेपन की बखिया उधेड़ते हुए किया है, इसलिए उम्मीद है कि इस बार का फैसला निर्णायक होने जा रहा है। हालांकि, खबर है कि मंगलवार को ही सरकार की ओर से हाई कोर्ट के इस फैसले पर स्टे और सर्वोच्च न्यायालय से पुनर्विचार के लिए याचिका दाखिल की जा चुकी है। सरकार आशंकित है कि इस बार साईबाबा की रिहाई पक्के तौर पर हो सकती है। 2024 को ध्यान में रखकर गढ़े गये तमाम नैरेटिव के बीच यह रिहाई नकारात्मक असर डाल सकती है।

इस फैसले तक पहुंचने में देश की अदालत को 10 वर्ष लग गये, जिसके कारण 90% विकलांग प्रोफेसर साईबाबा सहित 4 अन्य निरपराध नागरिकों ने अपने जीवन के 3,588 दिन जेल की सलाखों के पीछे बिताए हैं। इस अभियोग में कुल 6 लोगों को दोषी करार दिया गया था, लेकिन इनमें से एक अभियुक्त पंडू पोरा नरोटे, जिनकी उम्र मात्र 33 वर्ष थी, की अगस्त 2022 में ही गंभीर बीमारी के चलते मौत हो गई थी। आरोप है कि नागपुर सेंट्रल जेल में साईबाबा सहित सभी कैदियों को बेहद अमानवीय परिस्थितयों में रखा गया, और इसी के कारण स्वाइन फ्लू की चपेट में आने से नरोटे की मौत हो गई। जीएन साईबाबा के साथ जिन्हें अपराधी करार दिया गया था, उनमें हेम मिश्र, प्रशांत राही, महेश तिर्के, विजय तिर्के और पंडू पोरा नरोटे शामिल थे। इनमें से अधिकांश आज युवावस्था की दहलीज को पार कर चुके हैं, और उनके साथ के लोग जीवन के सफर में कहीं दूर जा चुके हैं।

सरकार के हिसाब से साईबाबा जैसे लोग राज्य के लिए सबसे बड़ा खतरा

2020 में साईबाबा की 74 वर्षीय मां जो कि कैंसर पीड़िता थीं, की हालत गंभीर होने की स्थिति में उनकी मां ने वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के माध्यम से अपने बेटे से मुलाकात की अपील की थी, जिसे अदालत द्वारा ठुकरा दिया गया था। इसके बाद जब इस बात की खबर साईबाबा तक पहुंची, जो स्वयं कई गंभीर बीमारियों से जूझ रहे थे, ने अपने इलाज और मां से अंतिम मुलाकात के लिए 45 दिनों की पैरोल की अपील की थी, उसे भी जेल प्रशासन ने मंजूरी नहीं दी थी। मां की मौत के बाद भी उनके वकील आकाश सरोदे द्वारा परिजनों के साथ वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के अनुरोध को प्रशासन ने अनसुना कर दिया था। जाहिर सी बात है, जेल प्रशासन को निर्देश वहीं से मिलते हैं, जहां से बाबा गुरमीत राम-रहीम जैसे हत्या और बलात्कार के मुजरिमों को 15-15 बार हर तीन महीने पर पैरोल मिल जाया करती थी, जिसपर हाल ही में सर्वोच्च अदालत ने रोक लगा दी है।

दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी भाषा के सहायक प्रोफेसर साईबाबा की गिरफ्तारी तब हुई थी, जब देश में 10 वर्षों से यूपीए सरकार का राज अस्ताचल की ओर जा चुका था, और मई 2014 में संसद की चौखट पर भाजपा-आरएसएस पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ अपनी धमाकेदार शुरुआत की तैयारी में जुटी थी।

मनमोहन सिंह, नरेंद्र मोदी सरकार की कॉर्पोरेट परस्त नीतियों का शिकार

अप्रैल 2006 में अपने पहले ही कार्यकाल में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नक्सलवाद को भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा घोषित कर दिया था। यूपीए सरकार 2005 में ही छत्तीसगढ़ को माओवादियों से मुक्त करने के लिए “सलवा जुडूम” नामक जन-मिलिशिया को सरकार के संरक्षण में शुरू कर चुकी थी, जिसमें बड़ी संख्या में आदिवासी युवाओं को एसपीओ के तौर पर नियुक्त कर एक ऐसे रक्त-रंजित इतिहास की शुरुआत हुई, जिसके निशान आज भी आदिवासी बहुल राज्य में गहराई से पेवश्त हैं।

हालांकि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से सरकार को सलवा जुडूम को वर्ष 2011 में बंद करने को मजबूर होना पड़ा, लेकिन इस राज्य प्रायोजित हिंसा का शिकार अंततः खुद कांग्रेस पार्टी को 2013 में होना पड़ा। 25 मई 2013 को आगामी विधान सभा चुनाव की तैयारी में पार्टी द्वारा आयोजित ‘परिवर्तन यात्रा’ के दौरान सुकमा में हुए भीषण हमले में वरिष्ठ कांग्रेसी नेता विद्या चरण शुक्ल समेत कई कार्यकर्ता हताहत हो गये थे।

यह वह दौर था, जब देश नव-उदारवादी अर्थनीति के लाभांश के सुख भोगने के चरम क्षण का आनंद लेने के बाद उसके दुष्परिणामों के शुरूआती झटकों से बुरी तरह खिन्न था। याद कीजिये, 2010 के बाद भारत में कैसे ‘कामनवेल्थ घोटाला’, 2जी और कोयला घोटाले के किस्से एक के बाद के हवा में तैर रहे थे। आसमान छूती रियल एस्टेट धड़ाम हो चुकी थी, और विकास अंधी गुफा में गुम हो चुका था। इंडिया अगेंस्ट करप्शन के झंडे तले अरविन्द केजरीवाल, अन्ना हजारे और बाबा रामदेव सहित आरएसएस-भाजपा से जुड़े तमाम लोग नॉएडा मीडिया की मदद से लगता था कि देश से भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकेंगे। लेकिन इस विक्षोभ को हवा और दिशानिर्देशित करने का काम भारत का कॉर्पोरेट अपने हाथों में लिए हुए था, जिसके लिए मनमोहन सरकार की उपयोगिता खत्म हो चुकी थी।

90 के दशक में विश्व बैंक एवं आईएमएफ के निर्देश पर देश की अर्थनीति में व्यापक बदलाव ने देशी-विदेशी पूंजी के भारत के प्राकृतिक संसाधनों पर भी पूर्ण आधिपत्य की मांग जोर पकड़ रही थी, जिसे आदिवासी बहुल प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर राज्य में विरोध का सामना करना पड़ रहा था। आदिवासियों के हो रहे दमन के विरोध को मुखरित करने की भूमिका में अब चंद ही लोग बचे थे, जिन्हें सिर्फ विश्वविद्यालय के गिने-चुने बुद्धिजीवी वर्ग के द्वारा ही समाज के सामने लाने का प्रयास किया जा रहा था। उन्हीं में से एक नाम था, प्रोफेसर जीएन साईबाबा का भी।

कौन हैं साईबाबा?

1967 में जन्में गोकराकोंडा नागा, संक्षेप में जी एन साईबाबा का जन्म आन्ध्र प्रदेश के ईस्ट गोदावरी जिले के अमलापुरम कस्बे में एक गरीब किसान परिवार में हुआ था। पांच वर्ष की उम्र में ही पोलियो के शिकार, साईबाबा को बचपन से ही व्हीलचेयर के सहारे अपने जीवन की चुनौतियों से दो-चार होना पड़ा। हैदाराबद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में पोस्ट ग्रेजुएट की डिग्री हासिल करने के बाद 2013 में उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से अपनी पीएचडी भी पूरी कर ली थी। दिल्ली विश्वविद्यालय के राम लाल आनंद कालेज में कई वर्षों तक अंग्रेजी भाषा पढ़ाने वाले विकलांग प्रोफेसर को अंततः मई 2014 में प्रतिबंधित वामपंथी माओवादी संगठन के साथ संबंध रखने का आरोप लगाते हुए सरकार की जांच एजेंसियों द्वारा हिरासत में ले लिया गया। 2017 में एक सत्र अदालत में उन्हें दोषी करार दिया गया और उम्रकैद की सजा मुकर्रर कर दी गई। इसका नतीजा यह हुआ कि मार्च 2021 में उनके कालेज ने भी उन्हें प्रोफेसर पद से हटा दिया।

साईबाबा को नागपुर की अंडासेल में रखा गया था, क्योंकि सरकार का मानना था कि साईबाबा एक बेहद खतरनाक अपराधी है। बता दें कि अंडा सेल में सिर्फ बेहद दुर्दांत अपराधियों को ही रखा जाता है। जबकि असल तथ्य आज अदालती कार्रवाई में देश के सामने सार्वजनिक हो रहे हैं कि, 90% विकलांग अंग्रेजी भाषा के प्रोफेसर को यह सजा भारतीय राज्य ने इसलिए दी, क्योंकि वे दलितों और आदिवासियों के साथ हमदर्दी रखने के अपराध में शामिल पाए गये थे। हालांकि 14 अक्टूबर 2022 को बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर खंडपीठ ने उन्हें यूएपीए के तहत अपराध से दोषमुक्त करार दिया था, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस आदेश को निरस्त करते हुए एक बार फिर से मामले को उच्च न्यायालय को सुपुर्द करते हुए गुण-दोष के आधार पर पुनर्विचार के लिए भेज दिया था

5 मार्च 2024 को बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर खंडपीठ ने एक बार फिर से जीएन साईबाबा को दोषमुक्त करार देते हुए अपने फैसले में कई उल्लेखनीय बातें कहीं हैं। यह फैसला कई अन्य लंबित मामलों में नजीर बन सकता है।

उच्च-न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले की प्रमुख बातें

उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा है कि मात्र इंटरनेट से कम्युनिस्ट या नक्सल साहित्य को डाउनलोड कर लेने या इसकी विचारधारा से हमदर्दी रखने पर ही यूएपीए के तहत दोषी नहीं करार दिया जा सकता है। अदालत ने कहा है कि ऐसे साहित्य के साथ-साथ इस बात के भी सबूत होने आवश्यक हैं कि दोषी व्यक्ति का हिंसक घटनाओं और आतंकवाद से संबंध हो। ऐसा होने पर ही यूएपीए की धारा 13,40 और 39 के तहत अपराध माना जा सकता है।

जीएन साईबाबा सहित चार अन्य को दोषमुक्त करार देते हुए न्यायमूर्ति विनय जोशी एवं वाल्मीकि मेनेज़ेस की खंडपीठ ने अपनी टिप्पणी में जो कहा, वह काबिलेगौर है, “यह बात अब एक सामान्य तथ्य हो चुकी है कि कोई भी व्यक्ति कम्युनिस्ट या नक्सली साहित्य से जुड़ी वेबसाइट से प्रचुर मात्रा में जानकारी जुटा सकता है। यहां तक कि उनकी गतिविधियों, जिनमें वीडियो और यहां तक कि हिंसक प्रकृति के वीडियो फुटेज भी शामिल हो सकते हैं, को भी बड़ी आसानी से जुटा सकता है। लेकिन, केवल इसलिए कि कोई नागरिक इस प्रकार की सामग्री को डाउनलोड करता है या कम्युनिस्ट दर्शन के प्रति सहानुभूति रखता है, ऐसा करना अपने आप में अपराध नहीं माना जा सकता है।”

अदालत ने अपने फैसले में यह भी कहा है कि प्रतिबंधित संगठन के साथ यदि किसी व्यक्ति की निष्क्रिय सदस्यता पाई जाती है तो, इसे यूएपीए की धारा 13, 20 और 39 के तहत अपराध नहीं माना जा सकता है। इसने मामले में जांच में शामिल अधिकारी, सुहास पौचे ने जो साक्ष्य अदालत के समक्ष पेश किये थे, उसमें कहा गया था कि “एक वेबसाइट पर नक्सल से संबंधित प्रतिबंधित विचारों के साथ-साथ सीपीआई (माओवादी) एवं नक्सली साहित्य, बैठकों के विवरण और प्रस्तावों के बारे में सभी जानकारियाँ उपलब्ध हैं। पीठ का इन तथ्यों को लेकर कहना था कि किसी की दार्शनिक मान्यताओं या उनके द्वारा पढ़े जाने वाले साहित्य को उनके खिलाफ सुबूत के तौर पर इस्तेमाल करना, विशेषकर जब ये चीजें इंटरनेट पर प्रचुरता में उपलब्ध हो, कहीं न कहीं भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत उनके मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन है।

किसी भी स्थिति में, मात्र इसलिए कि किसी साहित्य में एक विशिष्ट दर्शन की बात कही गई है, लेकिन किसी भी मामले में साबित नहीं हो सका है कि इसे किसी भी आरोपी के द्वारा लिखा गया है, या क्योंकि किसी व्यक्ति ने ऐसे साहित्य के पाठन का चुनाव किया जो इंटरनेट पर मौजूद तमाम कम्युनिस्ट या माओवादी साहित्य एवं दर्शन की वेबसाइट्स पर आसानी से उपलब्ध है, के खिलाफ कार्रवाई भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत किसी भी नागरिक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगा।

अदालत ने अपने फैसले में साफ़ इंगित किया है कि अभियोजन पक्ष द्वारा अभियुक्तों के खिलाफ ऐसे किसी भी कृत्य में लिप्त पाए जाने वाले सबूत पेश नहीं किये गये हैं। इसके अलावा न ही इसकी तैयारी में हिस्सा लेने, ना ही इसके निर्देशन अथवा किसी भी तरह से इसके कृत्य को अपना समर्थन ही प्रदान करने के सबूत दिए हैं।

उच्च न्यायालय के इस ऐतिहासिक फैसले को नज़ीर बनाते हैं, तो देश में सैकड़ों की संख्या में इसी तरह से झूठे मामलों में कई लब्ध-प्रतिष्ठ पत्रकारों, साहित्यकारों, सामजिक कार्यकर्ताओं एवं प्राध्यापकों को देश की विभिन्न जेलों के भीतर ठूंसा गया है। देश की सुरक्षा के नाम पर देश के विवेक और कलम पर कब्जा कर अंधभक्त अंध-राष्ट्रवादियों की फ़ौज को तैयार किया जा रहा है, जिन्हें एक इशारे पर भीड़ की हिंसा या मालदीव के खिलाफ नारेबाजी के लिए बेहद आसानी से तैयार किया जाता है। वहीं दूसरी तरफ लद्दाख और अरुणाचल में चीनी घुसपैठ या कनाडा और उसके 5EYE मित्रों के द्वारा भारत की संप्रभुता को लगातार घुटने टेकने के लिए मजबूर करने की बात उसे कभी समझ नहीं आती, क्योंकि उन्हें ब्रेन-डेड की स्थिति में ला खड़ा करना ही राज्य और कॉर्पोरेट की सबसे बड़ी जीत है।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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