भारत में इजराइल के समर्थन में रैलियों को अनुमति लेकिन फिलिस्तीन के लिए एकजुटता पर कार्रवाई

नई दिल्ली। गाज़ा पट्टी पर इजराइल की तरफ से पिछले दो हफ़्तों में की गयी अनवरत बमबारी और करीब 6000 लोगों की हत्या- जिनमें एक तिहाई बच्चे हैं- ने पूरी दुनिया के लोगों में आक्रोश पैदा किया है, जिसकी वजह से कई बड़े प्रदर्शन और युद्ध-विराम की मांग सामने आई हैं।

लेकिन, भारत में- जो पीएलओ को मान्यता देने वाला पहला गैर अरब देश बना और आज इजराइल और उसके सबसे बड़े समर्थक अमेरिका से नज़दीकियां बढ़ाते हुए नज़र आ रहा है- कुछ फिलिस्तीन समर्थक प्रदर्शनकारी सरकार के निशाने पर बताये जा रहे हैं।

गाज़ा पर प्रहार शुरू होने के एक हफ्ते के भीतर ही, भारत के सर्वाधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश के हमीरपुर ज़िले में पुलिस दो मुस्लिम स्कॉलर्स आतिफ चौधरी और सुहैल अंसारी की तलाश में जुट गयी थी। उनका अपराध? व्हाट्सएप की डिस्प्ले फोटो में “आई स्टैंड विद पैलेस्टीन”(मैं फिलिस्तीन के समर्थन में) नारे की फोटो लगाना।

दोनों पर सामाजिक समूहों के बीच द्वेष फैलाने का आरोप लगाया गया। पुलिस के मुताबिक, अंसारी को गिरफ्त में ले लिया गया है तो वहीं चौधरी अभी फरार है।

हिन्दू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी शासित उसी राज्य में, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में छात्रों ने फिलिस्तीन के समर्थन में रैली निकाली जिसके बाद पुलिस ने 4 छात्रों पर मामला दर्ज किया।

हालांकि, जब धुर दक्षिणपंथी बजरंग दल ने अलीगढ़ शहर में ही इजराइल के समर्थन में रैली निकाली और “फिलिस्तीन मुर्दाबाद, हमास मुर्दाबाद” के नारे लगाए तब प्रशासन की तरफ से उनपर कोई कार्रवाई नहीं की गयी।

‘जैसे मैंने कोई अपराध किया हो’

राष्ट्रीय राजधानी, नई दिल्ली में 7 अक्टूबर से ही छात्र संगठनों, कार्यकर्ताओं और नागरिकों द्वारा फिलिस्तीन के समर्थन में निकाली गयी रैलियों के दौरान पुलिस की तरफ से लोगों को डिटेन करने के कई मामले सामने आये।

महाराष्ट्र में, जहां भाजपा दो क्षेत्रीय पार्टियों के साथ सत्ता में है, दो प्रदर्शनकारियों, रुचिर लाड और सुप्रीत रविश को 13 अक्टूबर को गाज़ा के खिलाफ जंग के विरोध में मार्च रखने और गैरकानूनी सभा आयोजित करने पर गिरफ्तार कर लिया गया।

भारत की क्रांतिकारी मज़दूर पार्टी की सदस्य और राजधानी मुंबई में हुए प्रदर्शन की संगठनकर्ता पूजा चिंचोळे ने अल जज़ीरा को बताया कि पुलिस को “फिलिस्तीन के समर्थन में होने वाले प्रदर्शन की सूचना मिलते ही उन्होंने हमारे सामने कई बाधाएं खड़ी कर दीं।”

“उन्होंने एक संगठनकर्ता को प्रदर्शन से एक दिन पहले ही हिरासत में ले लिया और तीन अन्य संगठनकर्ताओं को प्रदर्शन की सुबह। लेकिन जब हम फिर भी प्रदर्शन करने के लिए एकत्रित हुए तो, उन्होंने हमारे पोस्टर और माइक इत्यादि छीन लिए और हममें से कुछ लोगों पर बल प्रयोग शुरू कर दिया,” उन्होंने कहा।

ये कार्रवाइयां, हालांकि, केवल भाजपा शासित प्रदेशों तक ही सीमित नहीं थीं।

कर्नाटक, जहां अभी मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस की सरकार है, की राजधानी बैंगलोर में 16 अक्टूबर को फिलिस्तीनियों के समर्थन में एक मौन मार्च निकालने वाले 10 कार्यकर्ताओं पर पुलिस ने उपद्रव का मामला दर्ज़ किया।

कर्नाटक पुलिस ने हमास के समर्थन में व्हाट्सएप पर एक वीडियो डालने वाले 58 साल के एक मुस्लिम व्यक्ति को भी गिरफ्तार कर लिया। पुलिस द्वारा कुछ समय के लिए एक सरकारी कर्मचारी आलम नवाज़ को भी हिरासत में लिया गया था, जिन्होंने अपने व्हाट्सएप स्टेटस में फिलिस्तीनी झंडे के साथ “फिलिस्तीन ज़िंदाबाद” का सन्देश लगाया था।

बीस साल के नवाज़ ने अल जज़ीरा को बताया कि लोगों ने उन्हें “शक की निगाहों से देखना शुरू कर दिया जैसे फिलिस्तीन के साथ एकजुटता ज़ाहिर करते हुए मैंने कोई अपराध किया हो।”

कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति के 9 अक्टूबर को तुरंत प्रभाव से युद्ध विराम पर प्रस्ताव जारी करने और “फिलिस्तीनी लोगों को उनकी जमीन, स्वशासन और एक गरिमा पूर्ण जीवन के अधिकार” के लिए अपना समर्थन ज़ाहिर करने के बावजूद यह सब हो रहा था।

इस दौरान, पूरे देश भर में ही इजराइल के समर्थन में रैलियां देखने को मिलीं, जो मुख्यतः हिन्दू दक्षिणपंथी संगठनों की तरफ से आयोजित की गयी थीं। वहीं कई लोगों ने सोशल मीडिया में इजराइली फौज में अपनी सेवा देने की पेशकश की।

शनिवार को, भारतीय सेना के एक रिटायर्ड फौजी के दर्ज़नों समर्थक 182 किलोमीटर का सफर तय करते हुए नई दिल्ली में स्थित इजराइली एम्बेसी पहुंचे जहां उन्होंने इजराइल जाकर गाज़ा के फिलिस्तीनियों के विरुद्ध लड़ने का प्रस्ताव पेश किया।

पिछले हफ्ते, भारत के सबसे प्रभावशाली हिन्दू राष्ट्रवादियों में से एक, यति नरसिंहानंद, ने एक वीडियो जारी करते हुए कहा कि हिन्दुओं और यहूदियों का “एक साझा दुश्मन है: मुहम्मद और उनकी शैतानी किताब” और इजराइली सरकार से गुज़ारिश करते हुए एक हज़ार हिन्दुओं को इजराइल में बसाने की मांग की ताकि “उन मुसलमानों से निबटा जा सके।”

भारत में इजराइल के राजदूत, नॉर गिलोन, 8 अक्टूबर को बताते हैं कि उन्हें कई भारतीयों से स्वेच्छा से इजराइल की ओर से लड़ने के अनुरोध प्राप्त हुए हैं।

दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी के प्रोफेसर अपूर्वानंद ने अल जज़ीरा को बताया कि उन्हें हिन्दू दक्षिणपंथियों के, जो खुलकर हिटलर के यहूदियों के खिलाफ कुकर्मो का समर्थन करते हैं, अब ज़ायनवादियों का समर्थन करने में बिलकुल भी आश्चर्य नहीं हुआ।

“भारत में हिन्दू धुर-दक्षिणपंथी संगठनों ने हमेशा से ही हिंसा के माध्यम से प्रभुत्व बनाये रखने वालों का समर्थन किया है। जब हिटलर ने यह किया, तब उसे समर्थन मिला। अब वही काम इजराइल कर रहा है, तो वे उसे समर्थन दे रहे हैं,” उन्होंने कहा।

अपूर्वानंद ने कहा कि भारतीय हिन्दू दक्षिणपंथ को लगता है कि उनके और इजराइल के ज़ायनवादियों में कोई विचारधारात्मक लिंक है।

उन्होंने कहा, “ऐसा प्रतीत होता है कि इजराइल, हिन्दू दक्षिणपंथियों के लिए एक छद्म युद्ध लड़ रहा है। उन्हें लगता है कि मुसलमानों से लड़ाई और उनका सफाया इजराइल उनकी तरफ से कर रहा है। जैसे वे पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और नेपाल को भारत में मिलाकर अखंड भारत का निर्माण करना चाहते हैं, उन्हें लगता है इजराइल भी वैसी ही विस्तारवादी विचारधारा का अनुसरण करता है।”

पर ऐसा हमेशा से नहीं था।

भारत इजराइल संबंध और फिलिस्तीनी संघर्ष

भारत की विदेश नीति ने ऐतिहासिक रूप से फिलिस्तीनी संघर्ष का समर्थन किया है, जो संयुक्त राष्ट्र के 1947 के इजराइल राज्य को बनाने के प्रस्ताव के विरुद्ध वोट देने और फिर 1974 में पीएलओ को फ़िलिस्तीनी लोगों का प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार करने से शुरू हुआ था।

इज़राइल में रहे भारत के भूतपूर्व राजदूत, ज़िकरुर रहमान अल जज़ीरा को बताते हैं कि भारत के फिलिस्तीन समर्थक रुख को दिशा देने का काम ब्रिटिशर्स द्वारा उन्हें उपनिवेश बनाये जाने के साझे इतिहास ने किया था। 

उन्होंने कहा, “हमने समझा कि उत्तर औपनिवेशिक दौर में, देश को बांटने और एक अलग देश बनाने की ये एक औपनिवेशिक कोशिश थी। हम इसके समर्थन में नहीं थे कि कोई ऐसा देश बने जिसका आधार धर्म हो।”

हालांकि, रहमान ने इसमें जोड़ा कि, फिलिस्तीन को लेकर भारत कि अवस्थिति बदली नहीं है, लेकिन ये अब उतनी दृढ़ नहीं है जितनी पहले थी।

भारत ने 1950 में इजराइल के निर्माण को मान्यता दे दी थी, लेकिन 1992 तक, जब ऑस्लो एकॉर्ड का विवरण तैयार हो चुका था, उसके साथ कूटनीतिक सम्बन्ध नहीं बनाये थे। तब से, भारत ने हमेशा ही इजराइल के साथ रणनीतिक संबंधों और फिलिस्तीनी संघर्ष के प्रति सहानुभूति के बीच संतुलन बनाये रखने की कोशिश की है।

भारत, इजराइल में बने हथियारों का आज सबसे बड़ा खरीददार बन चुका है, वहीं दोनों देशों के बीच रणनीतिक और सुरक्षा सम्बन्धी आपसी सहयोग कई गुना बढ़ चुका है। इजराइल के कब्जे वाले क्षेत्रों में फिलिस्तीनियों के घरों को ध्वस्त करने और कुछ भाजपा राज्य सरकारों द्वारा मुख्य रूप से मुसलमानों के खिलाफ समुदाय की “सामूहिक सजा” के रूप में अपनाई गई इसी तरह की नीति के बीच तुलना भी की गई है।

प्रधानमंत्री मोदी के 2014 में सत्ता में आने के बाद से, उन्होंने सार्वजानिक सम्बोधनों में अपने इजराइली समकक्ष, बेंजामिन नेतन्याहू को कई बार एक “अच्छा दोस्त” बताया है।

वैश्विक नेताओं में वह मोदी थे जिन्होंने इजराइल के साथ एकजुटता जाहिर करता हुआ सन्देश सबसे पहले डाला था। “इज़राइल पर हुए आतंकवादी हमले की खबर से गहरे सदमे में हूं।” X पर उनकी पोस्ट में कहा गया, जो इसी घटना पर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन की प्रतिक्रिया से चार घंटे पहले आ चुकी थी।

मोदी ने गाज़ा में स्थित “अल अहलि अरब अस्पताल” पर हुए इज़राइली हमले, जिसमें करीब 500 फिलिस्तीनी मारे गए, की भी निंदा की, हालांकि उनका ये सन्देश X पर बाइडन की पोस्ट के आठ घंटे बाद आया था।

इसी बीच, भारत के विदेश मंत्रालय ने 12 अक्टूबर को एक बयान जारी किया, जिसमें नयी दिल्ली की अवस्थिति को दुहराते हुए “सुरक्षित और मान्यता प्राप्त सीमाओं के भीतर, सम्प्रभु, स्वतंत्र फिलिस्तीनी राज्य की, इजराइल के साथ ही शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व” की बात की गयी।

पिछले हफ्ते, मोदी ने X पर फिलिस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास के साथ फ़ोन पर हुई अपनी वार्ता का ज़िक्र किया, जिसमें उन्होंने भारत की “इज़राइल-फिलिस्तीन मुद्दे पर लम्बे समय से कायम अवस्थिति” की बात की। उन्होंने कहा कि उनकी सरकार गाज़ा के निवासियों के लिए हर संभव सहायता भेज रही है।

हालांकि, पत्रकार आनंद के. सहाय, मानते हैं कि गाज़ा में विघटित हो रही मानवीय आपदा पर भारतीय प्रतिक्रिया अपर्याप्त है। 

उन्होंने अल जज़ीरा से कहा,  “भारत द्वारा जो अनकहा रह गया, वो महत्वपूर्ण है। भारत ने युद्ध विराम की मांग नहीं की। ऐतिहासिक रूप से, भारत ने हमेशा ही किसी भी विदेशी युद्ध में सीज़ फायर की मांग की है। इस मामले में भी पूरी दृढ़ता के साथ यह कहना चाहिए था: युद्ध पर रोक लगाओ।”

सहाय ने कहा कि मोदी का इजराइल के साथ उनकी नज़दीकियों पर इठलाना भी उनके मूल वोट बैंक, हिन्दुओं, के तुष्टिकरण पर ही लक्षित है।

“मान लीजिये फिलिस्तीन में बहुसंख्या किसी और धर्म की होती। तब हमारी अवस्थिति कुछ और होती। रूस-उक्रेन युद्ध के दौरान, हमने कहा “ये युद्धों का युग नहीं है।” यही चीज़ हम इजराइल-फिलिस्तीन युद्ध के मामले में क्यों नहीं कह सके?” सहाय पूछते हैं।

“पर युद्ध विराम के लिए न कहना, भारत का अमेरिका को परोक्ष संकेत देना था, कि भारतीय अवस्थिति अमेरिका की लाइन जैसी ही है।”

(कौशिक राज की रिपोर्ट, अल जज़ीरा से साभार।)

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