राम राज तो आ ही गया, लेकिन किसका?

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नई दिल्ली। बचपन से लेकर हाल के वर्षों तक यही समझ बनी रही कि रामराज की कल्पना में सभी का कल्याण भाव छिपा है। आज भी रामराज की कल्पना को गांधी के रामराज के चश्मे से देखने और दिखाने की आदत देश में व्याप्त है। ‘दूसरों का दुखड़ा दूर करने वाले, तेरे दुःख दूर करेंगे राम’ से लेकर एक दुखियारी पापियों के पाप धोते-धोते, गंगा के मैली होने की शिकायत भी राम से ही करती आई है।

गांधी के राम राज में शेर और बकरी एक ही तालाब में पानी पीते हैं, कुछ उसी प्रकार से 2024 में अडानी-अंबानी और उनके कुनबे के 8,000 आमंत्रित अतिथि और भारत वर्ष की जनता, दोनों की ही ख़ुशी की कोई सीमा नहीं है। सभी एक घाट का पानी पियेंगे, अंतर इतना है कि 8,000 लोगों को आज के दिन आमंत्रित किया गया है, क्योंकि वे विशिष्ट हिंदू ही नहीं हैं, बल्कि देश की आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक संरचना पर इनका पूर्ण वर्चस्व है।

लेकिन जो शेष हिंदू हैं, असल में वे इस रंगमंच के दर्शक या सही मायने में उपभोक्ता समझे जा सकते हैं। ये सारा आयोजन असल में है भी इन्हीं के लिए। फिलहाल इनमें से अधिसंख्य प्रतिमाह 5 किलो मुफ्त राशन पर जिंदा हैं, और बाकी लोगों के लिए भी मोदी सरकार द्वारा कुछ न कुछ राहत कार्य किया जा रहा है।

पिछले 3-4 दिनों से ही इनके बीच में राम मन्दिर को लेकर अचानक से सरगर्मी बढ़ गई थी। कल उत्तर भारत के अधिकांश शहरों, कस्बों और गली-कूंचों में कार्यक्रम जो शुरू हुए आज घर-घर चायनीज म्यूजिक सिस्टम पर “मेरी झोपड़ी में राम आने वाले हैं” धुन बज रही है।

यह हाल दिल्ली ही नहीं यूपी, उत्तराखंड, हिमाचल, बिहार सहित भारत के बड़े भूभाग पर पसर चुका है। बड़ा अच्छा लगता है जब पीएम मोदी की एक अपील पर देश का बड़ा तबका चुपचाप मान जाता है कि 22 जनवरी को अयोध्या में भगवान राम की प्राण प्रतिष्ठा में उसे नहीं जाना है। जब सारे वीवीआईपी कथित राष्ट्रीय मीडिया पर अपना दर्शन दिखा चुके होंगे, उसके बाद जाकर अयोध्या के कपाट उनके लिए भी खुलेंगे।

वाल्मीकि की रामायण के राम जब 14 वर्ष बनवास काटकर अयोध्या पधारे थे, तब अयोध्या वासियों ने उनके स्वागत में घी के दिए जलाए थे। आज पूरे देश में करोड़ों-करोड़ लोग यह काम करेंगे। सोचिये बाबरी मस्जिद न होती तो भला सतजुग में जन्में राम के जन्म या अयोध्या आगमन के साथ-साथ मंदिर बनने पर भी हजारों वर्ष बाद ऐसा चमत्कार संभव था? लेकिन वर्तमान के अयोध्यावासी आज कितने खुश हैं? इस बारे में जानने के लिए आपको खोद-खोदकर स्थानीय रिपोर्टों को तलाशना होगा।

मंदिर तक आवागमन को अबाध बनाने के लिए सरकार अयोध्यावासियों की हजारों दुकानों और आवास को ध्वस्त कर चुकी है। वहां के स्थानीय लोगों के आंसू अब सूख चुके हैं, उन्हें साफ़ नजर आ रहा है कि राम की प्राण प्रतिष्ठा के साथ ही उनके विस्थापन की घड़ी आ चुकी है। जो रिपोर्टे देखने को मिली हैं, इनमें सभी व्यवसायी हिंदू ही थे।

व्यापार मंडल के अध्यक्ष भी गुप्ता हैं, जो बताते हैं कि सभी दुकानदारों को मुआवजे के तौर पर 1 लाख रूपये दिए गये थे, लेकिन जो नई दुकानें आवंटित की जा रही हैं वे काफी दूर हैं। दुकान 30 साल की लीज पर 20-35 लाख रुपये में आवंटित की जा रही हैं। अधिकांश के पास इतना धन ही नहीं है, दूसरा यदि जमीन बेचकर निवेश कर भी दिया तो इतनी दूर जाकर दुकानदारी जमाने में 15-20 वर्ष लग जायेंगे।

मतलब साफ़ है कि नई अयोध्या में नए राम के साथ-साथ नया व्यापारी वर्ग आयेगा। नए तरह के होटल और रेस्तरां भी आने हैं। कई फाइव स्टार होटलों का भी प्लान है। ‘राम लला विराजमान’ की मूर्ति का योगदान भी बस यहीं तक का कहा जाना चाहिए।

ये नया भारत है। काशी विश्वनाथ कॉरिडोर, उज्जैन के महाकाल सहित बद्रीनाथ, केदारनाथ धाम के लिए भी एक नए आक्रामक इलीट हिंदू की खातिरदारी के लिए सड़क, रेलमार्ग और वायु-यातायात के साधनों को पिछले कुछ वर्षों के दौरान चाक-चौबंद किया गया है। आप समझते हैं कि ये आपके लिए किया गया है तो चलिये, ये आपकी खुशफहमी जब तक बनी रहती है, तब तक मजे कीजिये।

नोटबंदी, कोरोना के बाद राम-मंदिर पर ताली-थाली बजाता देश अब दिए जलाते हुए देखा जा सकता है। उल्टा इस बार इसकी धमक ज्यादा मुखर नजर आ रही है। ऐसा इसलिए, क्योंकि यह जन-जन के आराध्य राम के नाम के साथ जुड़ा हुआ है।

आज तक पर सुधीर चौधरी जब मनोज मुंतशिर को आमंत्रित कर यह बताने की कोशिश करते हैं कि इस मंदिर के लिए देश के मुसलमानों ने कितने सौ बरस से हिंदुओं को किसी बाबर, डाबर की कब्रगाह बताकर संघर्ष के लिए मजबूर किया, तो वे असल में आगाह करना चाहते हैं कि राम मंदिर बन जाने के बाद कहीं अपनी नफरत को खत्म मत कर देना। भले ही 5 किलो सरकारी राशन की भीख पर क्यों न पल रहे हो, लेकिन याद रखना हिंदू धर्म की पताका तो 1000 वर्ष बाद मोदी जी ही फहरा रहे हैं।

संघ-भाजपा के लिए इस आवेग को अप्रैल-मई आम चुनाव तक ले जाना एक अलग चुनौती होगी, क्योंकि भूख और महंगाई के साथ-साथ बेरोजगारी के दंश में झुलसा सवर्ण या दलित पिछड़ा व्यक्ति लगातार एक चकरघिन्नी में घूम रहा है। भला हो इंटरनेट और एंड्राइड ऐप का जिसमें डेटा डालकर आबादी का बड़ा हिस्सा इन्स्टाग्राम और शॉर्ट्स वीडियो के माध्यम से दिन-रात ऐसा रमा रहता है कि पेट की भूख भी पता नहीं चलती।

नव-उदारवादी अर्थव्यस्था यदि सिर्फ विदेशी पूंजी निवेश, प्राइवेट कैपिटल और अस्थायी श्रम बाजार को ही लाती तो एक बात थी। वास्तव में इसका दायरा इतना विस्तृत है कि इसने अपनी चपेट में शहर से लेकर दूर-दराज के गांवों तक को ले लिया है। उपभोक्तावादी संस्कृति आज समूचे देश का भूगोल नाप चुकी है। सिक्किम जैसे राज्य को अपवाद मान लें, अन्यथा कृषि क्षेत्र में बाजार की शक्तियां अनगिनत रूपों में गहरे तक धंस चुकी हैं।

यही कारण है कि उत्तराखंड, यूपी या छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में भी पैतृक संपत्ति को राजमार्ग या खनन के लिए बेचने वालों की होड़ लगी हुई है। जमीन बेचकर लाखों-करोड़ों रुपये मुआवजे पाने वाले ये लोग दिल्ली, मुंबई की नकल करते हुए अपने लिए मकान, गाड़ी और ऐशोआराम तो झटपट जुटा लेते हैं, लेकिन जल्द ही लक्ष्मी फिर से धन-कुबेरों के पास और बड़ी तादाद में तिजोरी बंद हो जाती है।

उपभोक्तावादी संस्कृति से जकड़ा समाज अपनी सोच में लोकतांत्रिक होने के बजाय पित्रसत्तात्मक, स्त्री, दलित एवं अल्पसंख्यक विरोधी क्यों और कैसे हो गया, यह एक विचारणीय प्रश्न है। जाति है जो जाती नहीं, लेकिन पिछड़े और दलित में भी अति पिछड़ा और महादलित की केटेगरी क्यों और कब से चली आ रही है, इसका ठीक-ठीक वर्गीकरण भी करना होगा।

राज्यसत्ता पर अधिकार के लिए बड़ी पूंजी के सामने खुद को सबसे सक्षम पार्टी साबित करने की होड़ में आज भाजपा ने कांग्रेस को मीलों पीछे छोड़ दिया है। हिंदुत्व+गाय के साथ वह क्रोनी कैपिटलिस्ट के एजेंडे को जिस सहजता से लागू कराने में सफल रही है, वैसा उदाहरण दे पाना नव-उदारीकरण की प्रणेता कांग्रेस के बूते अब संभव नहीं रहा।  

2019 से 2023 के बीच भाजपा ने व्यापक स्तर पर विधेयकों को पारित करा लिया है, जिसे 2024 से अमली जामा पहनाना है। श्रम कानून, वन अधिनियम, खनन सहित भारतीय न्याय संहिता एवं इंडियन पोस्ट एंड टेलीग्राफ एक्ट को एक-एक कर लागू करने, राष्ट्रीय शिक्षा नीति के माध्यम से बड़ी संख्या में उच्च शिक्षा के प्रति लाखों युवाओं में अरुचि पैदा कर उन्हें अकुशल श्रम शक्ति के विशाल भंडार के तौर पर जमाकर देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के सामने चारे के तौर पर इस्तेमाल की छूट का साधन बनाया जाना तय है।

इजराइल सहित दुनियाभर में भारतीय सस्ते श्रम की मांग की पूर्ति अब सरकार स्वयं करने जा रही है। अपने देश की मानव संपदा का इतनी बेदर्दी से इस्तेमाल शायद ही दुनिया के किसी अन्य देश में हो रहा हो। यही कारण है कि भारत का धनाड्य तबका तो अपना सबकुछ बेचकर पश्चिमी देशों की नागरिकता ग्रहण करता जा रहा है। मध्य एवं निम्न मध्य वर्ग का तबका भी बड़ी संख्या में अवैध तरीके से अमेरिका और यूरोप जाने के रास्ते तलाश रहा है।

मजे की बात यह है कि यही वे लोग हैं जो भारत से पलायन कर विदेशी भूमि पर मोदी जी के जयजयकार में सबसे आगे नजर आते हैं। असल में नवउदारवादी संस्कृति हमें एक ऐसा राष्ट्रवादी बना रही है, जो ख्वाब में तो तेज विकास की ओर भाग रहा है, लेकिन कच्ची जमीन पर जमे रहने के लिए उसके पास राष्ट्र गौरव, हिंदू संस्कृति और अतीत का ही सहारा रहा है।

लेकिन 4 ट्रिलियन डॉलर अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर भारत में गैरबराबरी और अमीरी गरीबी की खाई का तेजी से चौड़ा होते जाना, एक ऐसी भयावह दशा की ओर ले जा रहा है जिसकी दिशा को मोड़ पाना अब शायद भगीरथ प्रयास से भी संभव कर पाना मुमकिन न हो।

1950-1980 के बीच अमीरी-गरीबी की खाई में कमी आई थी, लेकिन उसके बाद यह फिर से बढ़ने लगी थी। आज तो हालत यह है कि जिस अडानी समूह के खिलाफ विपक्ष संसद में लामबंद होने की सजा पाता है, उसे ही उसकी राज्य सरकारें निवेश के लिए आमंत्रित करती हैं। पूरी अर्थव्यस्था को ही मोदी राज में औपचारिक क्षेत्र में सिमटा दिया गया है, जबकि 90% रोजगार मुहैया कराने वाले एमएसएमई सेक्टर की धीमी मौत को अनदेखा किया जा रहा है।

डेटा, बिजली, सौर उर्जा, कोयला, दूरसंचार, खाद्यान भंडारण, जहाज, रेल, राजमार्ग सहित बन्दरगाहों पर चंद अरबपतियों के कब्जे की नीति अब 140 करोड़ लोगों को बिजली वितरण से लेकर स्लम बस्ती रिडेवेलपमेंट कब नल-जल को भी अपने कब्जे में ले लेगी, यह तो 2024 के फैसले के बाद जल्द ही खुल जाने वाला है।

बड़ा सवाल है आज जिस राम नाम की लूट पर आह्लादित बहुसंख्यक आम हिंदू यह समझकर लट्टू हुआ जा रहा है कि भले ही वह भिखारी की हालत में आ गया, शायद 22 जनवरी को हमारे आराध्य राम को प्रतिष्ठापित करने से उसके कष्ट दूर हो जाने वाले हैं, तो उसे जल्द ही भारी हताशा का सामना करना पड़ सकता है।

उसे शायद इस बात का आभास नहीं है कि, राम नाम की लूट में वह परलोक सुधारने की ठान देश की अमूल्य संपदा, अपनी जमीन, आजादी की लड़ाई से अर्जित लोकतंत्र एवं संवैधानिक अधिकार सहित ससम्मान जीने के अधिकार को भी इन्हीं अति विशिष्ट 8,000 राम भक्तों के झुंड को होम करने जा रहा है।

यह काम जिन सामजिक शक्तियों के हाथ में था, वे खुद भी चुनावी लोकतंत्र की बैसाखी को प्रमुख अस्त्र मानकर, फिलहाल अचेतावस्था में जा चुकी हैं। उसे नवउदारवाद में राष्ट्रवाद के साथ-साथ अस्मिताओं के मकड़जाल के उभार का विकल्प तलाशना था, लेकिन उसकी बुनियाद इतनी कमजोर साबित हुई कि वह स्वयं असहाय अवस्था में है।

क्या पड़ोसी पाकिस्तान, अफगानिस्तान के इस्लामीकरण या म्यांमार एवं श्रीलंका के बौद्ध बहुसंख्यकवाद की सीख हमारे किसी काम की नहीं जो हम दुनिया की सबसे बड़ी आबादी को उसी स्वाद को चखाने को आमादा एक खास विचारधारा को रोक पाने में नाकाबिल हैं? 22 जनवरी को हमें इसी संदर्भ में याद करना चाहिए, क्योंकि इस देश की जन-श्रुतियों में रामनाम हजारों वर्षों से था, है और रहने वाला है।

90 के दशक से पहले राम हिंदू ही नहीं मुस्लिम, सिख और ईसाइयों के भी दिल के करीब थे, राम के नाम पर अपने राजनीतिक एजेंडे को हासिल करने की होड़ में कल तक अल्पसंख्यकों को निशाने पर रखा गया, लेकिन बड़ी संख्या में हिंदुओं को भी तो शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के सवाल से दूर रखा जा सका।

कल जब भारी कर्ज के बोझ पर चल रही व्यस्था श्रीलंका की तरह चरमरा का टूट जायेगी तो भारत जैसे देश को संभालने के लिए श्रीलंका, पाकिस्तान की तरह 5-10 बिलियन डॉलर नहीं, 500-1000 बिलियन डॉलर कौन सी अंतर्राष्ट्रीय संस्था या देश देने जा रहा है?

देगा भी तो ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह कौन-कौन से नापाक शर्तों के तहत हमारी आने वाली पीढ़ी को गुजरना होगा? आज के ही दिन हमें राम को याद करते हुए सच्चे अर्थों में देशभक्त बनकर इस बारे में भी गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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Shweta
Shweta
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7 months ago

राम भक्ति और मोदी भक्ति के बीच एक बहुत ही बारीक रेखा थी, 22 तारीख़ को वो रेखा को ऐसा धुंधला किया गया कि कई लोग बिना सोचे समझे अनजाने में उस पार पहुंच गए…

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