रामेश्वर पांडे: पंजाब ने खो दिया एक सच्चा दोस्त

रामेश्वर पांडे जी के जिस्मानी अंत की खबर मुझे तब मिली जब मुझे डॉक्टर संभाल रहे थे। खून की उल्टियां रुक नहीं रही थीं। कमजोरी के चलते शरीर जर्जर। देह का कोई ऐसा हिस्सा नहीं जहां दर्द न हो रहा हो। छोटे भाई अशोक अजनबी का फोन आया कि पांडे जी नहीं रहे। इससे आगे मैं सुन नहीं पाया और फोन रख दिया। थोड़ी देर बाद जूनियर डॉक्टरों की टीम आई और रूटीन के तौर पर बीपी चेक किया गया तो बहुत ज्यादा गड़बड़ था। अश्रुधारा देखकर डॉक्टर समझ गए कि कोई दुखद सूचना मिली है। तत्काल उन्होंने इंजेक्शन दिया लेकिन नींद थी कि पास फटकने तक को तैयार नहीं थी।

रामेश्वर पांडे से पहली मुलाकात मेरठ में हुई थी। रविवार का दिन था और उनका ऑफ। अतुल जी ने उन्हें बुलाया और मुझे तत्काल ज्वाइन करवाने के लिए कहा। सादे कागज पर उनका बोला लिखा, ‘आपके आदेशानुसार आज से अपना पदभार संभाल रहा हूं।’ एक तरफ मेरे हस्ताक्षर और दूसरी तरफ उनके। यह औपचारिकता थी और फिर बातों का सिलसिला उनके छोटे-से केबिन में शुरू हुआ जो देर रात तक चलता रहा।

उन्होंने कहा कि एक अमरीक को मैं सप्ताहिक संडे-मेल, सप्ताहिक हिंदुस्तान और जनसत्ता में पढ़ा करता था। मेरा जवाब था कि मैं वही हूं। तब तक मैंने अखबार को अपना बायोडाटा और आवेदन पत्र नहीं दिया था। राजेश रपरिया ने मुझे मेरठ दिवंगत अतुल महेश्वरी से मिलने के लिए भेजा था और फोन किया था। पांडे जी घंटों मुझसे पंजाब की राजनीति और लोकाचार पर बातचीत करते रहे। बीच में तीन बार चाय आई। आखिर में कहा गया कि कल सुबह दस बजे से ऑफिस आ जाऊं और सबसे पहले कंप्यूटर चलाना सीखूं।

मैं दिल्ली से अपडाउन करता था। अक्सर देर हो जाती थी और कंप्यूटर भी कम से कम मेरठ में तो नहीं ही सीख पाया। लोकसभा चुनाव हुए तो मेरी ड्यूटी राजेंद्र सिंह के तहत लगा दी गई। उन्होंने मुझे सर्वे का काम सौंपा और जब नतीजे आए तो सर्वे एकदम सही पाए गए। पहले राजेंद्र सिंह, फिर रामेश्वर पांडे और अंत में अतुल महेश्वरी की प्यार भरी शाबाशी मिली। लोकसभा चुनाव के दौरान ही मैंने पंजाब को लेकर एक समाचार विश्लेषण लिखा था। ‘हार और हताशा की अंधेरी सुरंग में सिख सियासत।’

पांडे जी कुछ पंक्तियों पर लाल कलम चलाना चाहते थे और मुझे इससे हरगिज़ एतराज नहीं था। संपादक का अपना विशेषाधिकार होता है। मैं श्रीकांत अस्थाना भाई साहब के केबिन में बैठा था कि पांडे जी ने आवाज लगाई। गया तो कहा कि तुमने बेजोड़ लिखा है। एक भी लाइन काट नहीं पाया। अगले दिन वह समाचार विश्लेषण ‘अमर उजाला’ के तमाम संस्करणों में प्रमुखता से छपा। दो दिन बाद राजेश रपरिया मेरठ आए।

मेरे सामने ही पांडे जी ने उनसे कहा कि कहां इसे चंडीगढ़ या जालंधर भेज रहे हैं। मेरी सलाह है कि इस लड़के को नेशनल ब्यूरो में जगह दीजिए। अतुल जी से भी उन्होंने यही कहा था। मैं दिल्ली नहीं जाना चाहता था। रामेश्वर पांडे की टीम का हिस्सा होकर जालंधर आ गया। मेरठ की बात है। एक दिन मैंने कहा कि सर (मैं उन्हें यही संबोधन देता था) मैं आपके घर आना चाहता हूं। बाखुशी बोले कि कल सुबह ही आ जाओ। जल्दी जाग जाऊंगा। (‘आज समाज’ वाले अजय शुक्ल तब मेरठ में थे और मेरे गहरे मित्र)। अजय से बाइक मांगी और मिठाई के साथ रामेश्वर पांडे के घर! उन्होंने कहा कि मिठाई की क्या जरूरत थी। मैं तो वैसे भी डायबिटीक हूं। नाश्ते के दौरान ही मैंने उन्हें कहने की हिम्मत जुटा ली कि किसी दिन रसरंजन हो जाए। तब मैं मेरठ की अग्रवाल धर्मशाला में रहता था।

शाम को पांडे जी ने कहा कि आज रम के साथ रसरंजन होगा क्योंकि पंजाबियों के साथ पीने का मजा आता है। सुबह लगभग चार बजे तक हम लोग पीते रहे। चलते वक्त उन्होंने नसीहत दी कि अभी तुम्हारी उम्र छोटी है और इतना पीना ठीक नहीं। मैंने कहा सर, पंजाबी खून का असर है-हजम हो जाती है। उस रात हम राजनीति से लेकर साहित्य तक सारगर्भित चर्चा करते रहे। सैकड़ों किताबों का जिक्र आया। वह तो उनसे गुजरे ही थे मैं भी गुजरा हुआ था। पांडे जी ने पूछा कि तुम तो पंजाबी हो फिर हिंदी में इतनी किताबें…? मैंने कहा सर, दरअसल पंजाबी मां का हरियाणवी बेटा हूं। (यानी सिरसा का हूं) इस मुहावरे पर लगा उनका ठहका आज भी गूंजता महसूस हो रहा है।

जालंधर संस्करण में मुझे उन्होंने पंथक राजनीति के लिहाज से संवेदनशील एक जिले की कमान सौंपी। संभालने में मैं सरासर नाकाम हुआ। बल्कि भगोड़ा हो गया। मेरा तबादला अमृतसर कर दिया गया और प्रभारी राजेंद्र सिंह को बनाया गया। वहां भी मैं नहीं टिका। एक तरह से मैंने रामेश्वर पांडे और राजेंद्र सिंह को धोखा ही दिया। आज माफी मांगता हूं। आखिरकार उन्होंने मुझे डेस्क पर बुला लिया। कुछ दिन की ‘सजा’ के बाद मेरे ही आग्रह पर फीचर विभाग का समन्वक बना दिया।

मनोयोग से फीचर पृष्ठों की रूपरेखा उन्हें सौंपी तो ओमप्रकाश तिवारी, रणविजय सिंह सत्यकेतु और डॉ. संजय वर्मा मेरे सहयोगी हो गए। आज तीनों अखबार में वरिष्ठ पदों पर हैं। वरिष्ठता के क्रम में बेशक मैं थोड़ा बड़ा था लेकिन तकनीकी काम इन साथियों से बहुत कम जानता था। मेरा काम समन्वय यानी कोआर्डिनेशन का था। उन्हीं दिनों राजुल महेश्वरी जालंधर आए तो उन्होंने कहा कि अगर हमारे अखबार में ज्ञानपीठ विजेता गुरदयाल सिंह नियमित स्तंभ लिखें तो बहुत अच्छा रहेगा। गुरदयाल सिंह को राजी करने का काम रामेश्वर पांडे ने मुझे सौंपा। मैं उनके गृह नगर जैतो गया और एक साथ आठ मौलिक लेख ले आया।

पांडे जी अभिभूत हो गए और उन्होंने तत्काल राजुल महेश्वरी को इसकी सूचना दी। इसके बाद रामस्वरूप अणखी, विनोद शाही और तरसेम गुजराल को नियमित रूप से लिखने के लिए तैयार किया। अतुल महेश्वरी ने पंजाब के पुराने पत्रकार और ‘वीर प्रताप’ के संपादक चंद्रमोहन की प्रखर कलम की बाबत सुना और पढ़ा था। आदरणीय रामेश्वर पांडे के आदेश से मैं उनकी गाड़ी लेकर चंद्रमोहन जी के पास गया और उन्हें अमर उजाला में नियमित लिखने के लिए राजी किया। उनकी इस शर्त का सदैव पालन किया गया कि उनके किसी भी आलेख का शीर्षक नहीं बदला जाएगा और न कोई पंक्ति काटी जाएगी। जब तक उनका कॉलम जारी रहा; ऐसा ही हुआ। पांडे जी ने यह जिम्मेवारी मुझे सौंपी थी। हम प्रोफेसर गुरदयाल सिंह की भी कोई पंक्ति नहीं काटते थे। जबकि उनकी ओर से ऐसी कोई शर्त नहीं थी।

मुझे पहले से ही मालूम था कि रामेश्वर पांडे वामपंथी हैं। वह मेरे बारे में भी जान गए थे। जालंधर में गदर लहर के शहीदों की याद में आए साल विश्व विख्यात ‘मेला ग़दरी बाबयां दा’ लगता है। विदेशी मीडिया भी उसे कवर करता है। मैंने लिखित में पांडे जी से अनुरोध किया कि अमर उजाला इस मौके पर पूरा एक पेज गदर लहर के शहीदों की याद में निकाले। वह तत्काल तैयार हो गए। इससे पहले कभी किसी अखबार ने ऐसा नहीं किया था। पांडे जी ने कहा कि यह पेज तुम्हारा रहेगा। बेशक सारा मैटर तुम लिखो। मैंने चीफ रिपोर्टर यूसुफ किरमानी से आग्रह किया कि एक आलेख वह लिख दें। बाकी मैं कर लूंगा।

मेले के पहले दिन अमर उजाला ने वहां स्टॉल लगाया। दस बजे तक अखबार की तमाम प्रतियां बिक गईं। और प्रतियों का बंदोबस्त किया गया। लोगों के बीच अमर उजाला की एक नई पहचान बनी। प्रगतिशील अखबार की। उस वक्त इसकी बहुत दरकार थी। मेले में रामेश्वर पांडे और समाचार संपादक शिवकमार विवेक आए। मैंने पांडे जी को कॉमरेड अमोलक सिंह से मिलवाया तो (आज भी अच्छी तरह याद है कि) लगभग पांच मिनट तक रामेश्वर पांडे ने अमोलक सिंह का हाथ नहीं छोड़ा। दोनों हमख्याल थे और एक ही धारा से जुड़े हुए थे। कॉमरेड अमोलक ने मंच से अमर उजाला की सराहना की।

बाद में अमोलक सिंह ने जेठूके में मोर्चा लगाया तुम मुझे कवरेज के लिए भेजा गया। वहां से लौटकर मैंने आधे पेज की विस्तृत रिपोर्ट लिखी और पांडे जी के आगे रख दी। उन्होंने कहा कि इसकी एक भी लाइन नहीं कटेगी। पांडे जी छुट्टी पर थे और मैंने क्रांतिकारी पंजाबी कवि लाल सिंह दिल पर लंबा लेख लिखा। पांडे जी ने शायद उसे गोरखपुर में देखा और लौटकर कहा कि लेख बहुत सटीक है लेकिन कवि/लेखक के जिस्मानी तौर पर चले जाने के बाद लिखना चाहिए। लाल सिंह तो अभी हैं। इसके बाद हमने क्रांतिकारी कवि अवतार पाश पर भी मौलिक सामग्री के साथ पूरा एक पेज निकाला। सूक्ष्म से सूक्ष्म जानकारी वह रखते थे।

धूर्त संवाददाताओं पर उनकी खास निगाह रहती थी जो लिखने से पहले वसूली कर लेते थे या लिखने के बाद! पांडे जी की पकड़ में आने के बाद या तो उन्हें डेस्क पर बिठा दिया जाता था या फिर हाशिए की कोई बीट दे दी जाती थी।

रामेश्वर पांडे ने मुझे जबरदस्त स्नेह दिया तो कई बार कान भी पकड़े। अमर उजाला के कई साथी मुझे उनका चमचा कहा करते थे। कभी समझ में नहीं आया कि क्यों? कुछ साथी मानते थे कि वह जातिवादी और पूर्वाग्रही हैं। मेरा निजी अनुभव है कि ऐसा नहीं था।

एक बार अमर उजाला की लोकप्रियता से खुन्नस खाए पंजाब केसरी समूह ने अमर उजाला के खिलाफ अभियान छेड़ दिया। तब पंजाब केसरी के लोग राज्य भर में कुप्रचार किया करते थे कि अमर उजाला और दैनिक जागरण ‘भइयों’ के अखबार हैं। इस कथन से वितृष्णा की जहरसनी बू आती थी। मैंने रामेश्वर जी से कहा कि इस सब का मुंह तोड़ जवाब देना चाहिए। पांडे जी ने पूछा कि संभाल लोगे। जवाब था कि इजाजत दीजिए।

मैंने पंजाब के सैकड़ों बुद्धिजीवियों और प्रगतिशील लेखकों से संपर्क करके वस्तुस्थिति बताई। उन्होंने पूरे पंजाब में खुलकर अमर उजाला का साथ दिया। आखिर पंजाब केसरी को झुकना पड़ा। हमने पहले पन्ने पर लिखा, ‘न झुके हैं न झुकेंगे!’ भरे स्टाफ के बीच अपने केबिन में बुलाकर पांडे जी ने मेरी पीठ थपथपाई और कहा कि तुमने बहुत शानदार काम किया है। बाद में मुझे मालूम हुआ कि मेरी सीआर में दो पंक्तियां लिखी गईं: 1. पंजाब के रेशे-रेशे पर पकड़। 2. बुद्धिजीवियों के बीच गजब की पकड़।

खैर, रामेश्वर पांडे के आगे मैं हर लिहाज से छोटा था। जिस दिन उनका मन होता था मुझे अलग से कह देते थे कि शाम को मत जाना ‘डॉल्फिन’ चलेंगे। डॉल्फिन जालंधर का मशहूर होटल और बार है। अमर उजाला का कोई वरिष्ठ अधिकारी आता था तो उसे डॉल्फिन में ठहराया जाता था। वहां पांडे जी के लिए जाते ही कमरा खुल जाता था। फिर दौर शुरू होता था। पांडे जी ने कभी एहसास तक होने नहीं दिया था कि वह अपने से बहुत जूनियर पत्रकार/सहयोगी के साथ बैठे हैं।

रसरंजन के दौर के लिए एक शर्त पहले से तय थी कि उस दौरान ऑफिस की कोई बात नहीं होगी और न किसी किस्म की कोई चुगली-निंदा! हम लोग पंजाब से लेकर दुनिया भर की बातें किया करते। कुलदीप नैयर, जनार्दन ठाकुर से लेकर सीमा मुस्तफा तक की। तीसरे पैग  के बाद वह अक्सर कहा करते की हमारा साथ अब बहुत थोड़ा है। मेरा तबादला होने वाला है और तुम्हें चंडीगढ़ या दिल्ली ब्यूरो भेज दिया जाएगा। लगभग सुबह के वक्त उनकी गाड़ी मुझे 16 किलोमीटर दूर कपूरथला छोड़कर आती। मैं अपनी बहन के घर रहता था और मेरे जीजा के साथ भी उनका बहुत अच्छा रिश्ता था।

वह कई बार उस घर में आए और वे मजाक में मेरे कमरे को शांतिनिकेतन कहा करते थे। एक बार उन्हें मैं अपने नानके  गांव भी ले गया था। बड़े-बड़े तांबे के गिलासों में परोसी गई लस्सी उन्हें बहुत अच्छी लगी थी। मेरे मामा अनपढ़ हैं लेकिन हिंदी बोल और समझ लेते हैं। रामेश्वर पांडे उनसे लंबे अरसे तक बतियाते रहते। चलते वक्त उन्हें एक फुलकारी मामी की पेटी से निकाल कर दी गई। उन्होंने उसे पहले सिर पर रखा और फिर अकीदत के साथ चूमा। वह मंजर मुझे आज तक नहीं भूलता। एक दिन अचानक उन्होंने मुझे बाहर आने का इशारा किया। कहां कि फलां नाम का नक्सली कॉमरेड है लेकिन उसका कोई अता-पता नहीं। तुम कोशिश करो। आखिर मोगा के कॉमरेड सुरजीत गिल से उसका सुराग मिल गया कि वह मानसा जिले के एक गांव में रह रहा है। बीमार है। हम प्राइवेट गाड़ी से उसके गांव गए। पांडे जी ने उसके साथ काम किया था। वह तत्काल उन्हें पहचान गया और जैसे-तैसे बिस्तर से उठ कर उन्हें गले लगा लिया। दोनों की आंखें पनीली थीं। औपचारिक हालचाल लेने के बाद दोनों नक्सली लहर से आज के दौर में आ गए।

मैं पांडे जी का कायल हो गया कि यह आदमी वामपंथी आंदोलनों के बारे में कितनी सूक्ष्म जानकारी रखता है। उससे वाबस्ता लोगों की बाबत भी। रात हम उन्हीं कॉमरेड के घर रहे। उनके बेटे ने पांडे जी के लिए रम का बंदोबस्त किया। पांडे जी इस कदर मुखर हो गए कि गोया संपादक/पत्रकार ने हों,किसी वामपंथी दल के नेता हों। हां, उनकी बातों से यह भी महसूस होता रहा कि अब वामपंथ से उनका मोह भंग होने में ज्यादा वक्त नहीं है। बेशक ताउम्र वह भीतर से वामपंथी ही रहे लेकिन प्रतिबद्धता की धार काफी भोथरी हो गई थी। समझौतों के साथ कुछ ज्यादा तालमेल होने लगा था। अभी बहुत कुछ होना बाकी था।

पंजाब में अमर उजाला ने अपना पाठक वर्ग बना लिया था। ग्राहक तो सभी अखबार बना लेते हैं लेकिन पाठक वर्ग कोई-कोई बना पाता है। रामेश्वर पांडे ने एक बार के अलावा कभी बाइलाइन नहीं लिखी लेकिन लोग उन्हें जानते थे कि वह अमर उजाला के संपादक हैं। बड़ी तादाद में लोग उनसे मिलने आते थे। पंजाब केसरी से जब अमर उजाला की लड़ाई चल रही थी तो एक दिन अजीत समूह के बरजिंदर सिंह हमदर्द ने उन्हें चाय पर बुलाया। वह मुझे भी अपने साथ ले गए। शायद यह सोच कर कि कोई दुभाषिया साथ होना चाहिए। हमदर्द साहब ने तत्काल मुझे पहचान लिया और गले से लगा लिया और प्रसन्नता जताई कि मैं अमर उजाला में हूं। हैरान पांडे जी ने कहा कि पूरा मोर्चा इसी ने संभाला।

हमदर्द साहब ने ठहाका लगा कर कहा कि मुझे मालूम है! जाते वक्त उन्होंने पांडे जी से मोबाइल नंबर पूछा तो पांडे जी को अपना नंबर पता ही नहीं था। मुझे भी नहीं मालूम था। आखिर ‘अजीत’ की रिसेप्शन से अमर उजाला की रिसेप्शन पर फोन करके रामेश्वर पांडे का मोबाइल नंबर लिया गया। यह उनकी सादगी की एक और मिसाल थी। एक बार मैंने डॉ बरजिंदर सिंह हमदर्द पर आलेख लिखा: ‘धरती के हस्ताक्षर।’ उस आलेख में डॉक्टर साहब से जुड़े कुछ अनछुए पहलू थे। पांडे जी को आलेख की बाबत तब पता चला जब डाक एडिशन आया। उन्होंने मुझे बुलाया और डांट कर कहा कि मुझसे बगैर पूछे तुमने यह सब लिख दिया है। अभी नहीं लिखना चाहिए था। गलत संदेश जाएगा। मैंने कहा कि मैं गलती स्वीकार करता हूं और इस्तीफा देता हूं। वह भावुक हो गए और कहा कि ऐसा सोचना भी मत। कुछ दिन बाद हमदर्द साहब अमर उजाला दफ्तर आए तो मेरे केबिन में भी आए।

मेरे केबिन में क्रांतिकारी पंजाबी कवि पाश का पोस्टर लगा था। उन्होंने पांडे जी से कहा कि देखिए आपके यहां इस परंपरा के लोग भी काम करते हैं तो अखबार बुलंदी पर जाएगा ही जाएगा। जबकि खुद वह हिंदी दैनिक ‘अजीत समाचार’ का प्रकाशन करते हैं। हमदर्द साहब की तारीफ के एवज में पांडे जी ने उस दिन फिर मुझे डॉल्फिन में रम पिलाई। उनके साथ मैं डॉल्फिन में बैठता था यह किसी को भी मालूम नहीं था। आज भी न जाने क्यों उल्लंघना-सी करते हुए वह सब जगजाहिर कर दिया। पांडे जी और खुद से माफी चाहता हूं।

एक बार एक लेखक सज्जन ने मुझे गुमराह किया कि पांडे जी उनके घर आए थे और कहा था कि अगले हफ्ते अमरीक आप पर लिखेगा। जिस दिन वह पन्ना जाना था, मैंने पांडे जी के घर फोन किया तो लैंडलाइन खराब थी। मैं सीधे उन सज्जन के पास चला गया और कुछ नोट्स लेकर लेख लिख दिया। उस लेख की बाबत भी पांडे जी को डाक एडिशन से पता चला। भरे स्टाफ के बीच उन्होंने मुझे जमकर डांटा। मैंने इस्तीफा लिख दिया और बाहर को हो लिया। पांडे जी पीछे-पीछे। बोले कि तुम्हारा कसूर कम है। वह शख्स आदतन झूठा है।

उसने तुम्हें गुमराह किया और जो मैंने भरे स्टाफ में तुम्हें बोला; उसे यहीं भूल जाओ और बैठ कर अपना काम करो। मेरे रहते तुम्हारा इस्तीफा कभी स्वीकार नहीं होगा। हालात बने लेकिन एक दिन उन्हें मेरा इस्तीफा स्वीकार करना ही पड़ा–जबकि मैं मानकर चल रहा था कि मुझे अखबार से बर्खास्त कर दिया गया है। लेन-देन के एक मामले में मेरा नाम आ गया। रकम बहुत मामूली थी और मैं सिर्फ जमानती की भूमिका में था। शर्मिंदगी में मैंने अमर उजाला दफ्तर जाना छोड़ दिया।

फिर दैनिक जागरण ज्वाइन कर लिया। बतौर पंजाब ब्यूरो चीफ। लगातार चालीस दिन फ्रंट पेज पर मेरी एक्सक्लूसिव बाइलाइन प्रकाशित होती रहीं। अमर उजाला में भी डेस्क पर रहते हुए मैं रोज कुछ न कुछ लीक से हटकर लिखता था। उन दिनों मेरे  दोस्त ओमप्रकाश तिवारी (अब अमर उजाला गोरखपुर में समाचार संपादक) ने मुझे बताया कि पांडे जी को तुम्हारे इस तरह जाने का बहुत ज्यादा दुख है और वह न्यूज़ रूम में आकर कहा करते हैं कि खबर कैसे लिखी जाती है, इससे सीखो!

उधर दैनिक जागरण की मैनेजमेंट ने दबाव बनाया कि मैं अमर उजाला से विधिवत इस्तीफा दे दूं। मेरा कहना होता था कि उन लोगों ने मुझे अब तक निकाल दिया होगा। अमर उजाला में मेरे दोस्त ज्यादा थे और दुश्मनों को मैंने कभी पहचाना ही नहीं। एक दिन पता चला कि हाजिरी रजिस्टर में अभी भी मेरा नाम दाखिल है और जब वॉल पर सैलरी डिटेल लगाई जाती है तो उसमें मेरा नाम रहता है। बेशक सैलरी के आगे शून्य लिखा होता है। दैनिक जागरण वालों को यह सारी खबर थी। आखिरकार दबाव में मैंने रामेश्वर पांडे को फोन किया कि मिलना चाहता हूं।

उन्होंने घर बुलाया। स्नेह से नाश्ता करवाया। फिर मैंने कहा कि सर मैं अमर उजाला से विधिवत इस्तीफा देना चाहता हूं। मैं तो मानकर चल रहा था कि मुझे संस्थान ने निकाल दिया है। उन्होंने कहा कि आज की तारीख तक तो तुम अभी भी अमर उजाला परिवार के सदस्य हो। मैंने दैनिक जागरण की बाबत अपनी मजबूरी बताई। वह अपनी गाड़ी में मुझे साथ लेकर दफ्तर आए और ऊपर जीएम के पास ले गए। वहीं मैंने हाथ से इस्तीफा लिखा। तत्काल मंजूर हो गया और कुछ राशि भी मिली।

रामेश्वर पांडे ने महाप्रबंधक रजत सिन्हा के आगे ही कहा कि तुम कुछ महीने दैनिक जागरण के लिए काम करो और फिर तुम्हें यहां विशेष संवाददाता के तौर पर ससम्मान लाया जाएगा। यह उनका सौजन्य था। उस दौरान उन्होंने मुझे कहा कि इसे अपनी गलती समझना और इतना ज्यादा भी दिल को मत लगाना। तुम अहमक हो लेकिन बेईमान नहीं,यह मैं बखूबी जानता हूं। पहले सारी बात बताई होती तो 4 महीने की सैलरी एडवांस दिलाता और खुद भी कुछ पैसे देता। ऐसे हालात ही दरपेश नहीं होने थे। तुम मेरे सहकर्मी तो रहे ही हो, कॉमरेड-दोस्त भी हो।

यह रिश्ता टूटेगा नहीं। टूटा भी नहीं। इन बातों को 23 साल हो गए। हफ्ते में एक बार जरूर उनसे फोन पर बात किया करता था। वह अपने एक प्रोजेक्ट में मुझे अपने साथ जोड़ना चाहते थे और लगातार कहते रहे कि एक बार लखनऊ आ जाओ। अब सब अतीत हो गया। मैं उनकी अंतिम रस्म में शामिल होना चाहता था लेकिन बीमारी की अवस्था के चलते डॉक्टरों ने इजाजत नहीं दी। रामेश्वर पांडे जी! कोई आपको काका कहता है तो कोई सर या कोई और किसी नाम से पुकारता है। मगर मैं आज आपको कॉमरेड का संबोधन दूंगा! अलविदा वाला लाल सलाम भी!

(अमरीक सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और पंजाब में रहते हैं।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
मनोज़ 'निडर'
मनोज़ ‘निडर’
Guest
9 months ago

अलविदा, रामेश्वर पांडे सर। अमरीक सिंह सिरसा के साथ-साथ मैं भी आपको बहुत याद करता हूं। अमर उजाला में राजेश रापरिया सर, ने मुझे रिमेंड किया था और रामेश्वर पांडे की बदौलत ज्वाइन किया था। अकु श्रीवास्तव की जातिवादी धारना ने मोहभंग किया था। अतुल महेश्वरी सर के साथ जालंधर के होटल रेडीसन में मुलाकात और सिगरेट पीना आजतक याद है। खुले हाथ देते थे अतुल जी, रापरिया और कामरेड पांडे सर। बहुत-बहुत शुक्रिया अमरीक सिंह सिरसा इस श्रद्धांजलि और आदरजांलि के लिए। जनचौक ने बिना किसी लाइन काटे प्रकाशित किया, शुक्रिया।
#JaiBhim