पत्रकार रामशरण जोशी का ऐलान: नए साल में अखबार पढ़ना छोड़ दिया!

नई दिल्ली। वर्ष 2024 के उद्घाटन सप्ताह में संकल्प लिया है- मैं जून तक अखबार नहीं खरीदूंगा और न ही पढूंगा। मैं दो अखबार खरीदता रहा हूं- एक हिंदी और दूसरा अंग्रेजी का। इस बाबत मैंने अख़बार विक्रेता को सूचित भी कर दिया है। मूलतः हिंदी का पत्रकार होने के बावज़ूद मैंने ऐसा निर्णय लिया है। पाठक और मित्रगण इस फैसले से हैरान हो सकते हैं, सहमत या असहमत भी हो सकते हैं। लेकिन, मैंने ऐसा क्यों किया है, इस सवाल का जवाब देने से पलायन नहीं करूंगा। इसका ज़वाब सीधा-सादा है।

पिछले कुछ महीनों से दिल्ली के दैनिकों को बदल-बदल कर पढ़ता आ रहा था। पहली जनवरी तक यह सिलसिला ज़ारी रहा है। हैरत या पीड़ा मिश्रित खिन्नता इस बात पर हुई है कि शुरू के 2 से 4 पेज इश्तिहारों से रंगे रहते हैं। ऐसा भी दिन देखने को मिलता है जब यह संख्या 6-7 तक पहुंच जाती है।

त्योहारों के अवसर पर तो दैनिक अखबार समाचारों के वाहक नहीं, विज्ञापन संचारक बन जाते हैं। विज्ञापन-व्यापार में बदल जाते हैं। उस समय देश के एक प्रतिष्ठानी अख़बार मालिक का कथन दिमाग पर दस्तकें देने लगता है कि वे विज्ञापन का व्यापार करते हैं, समाचारों का नहीं। अखबारपति कभी यह भी कह चुका है कि ‘अख़बार उत्पाद यानी प्रॉडक्ट’ है और हम विज्ञापनों का व्यापार करते हैं।

यदि अख़बार को किसी ‘उत्पाद’ में समेट दिया जाता है तो इसकी ‘हस्तक्षेपधर्मिता’ स्वतः ही समाप्त हो जाती है। जबकि आधुनिक लोकतंत्र के जन्म से प्रेस या मीडिया को राज्य का ‘चौथा स्तम्भ’ माना जाता रहा है। दूसरे शब्दों में, कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बाद प्रेस या मीडियापालिका का स्थान माना जाता है। ऐसा इसलिए है कि प्रेस या मीडिया राज्य और जनता के बीच ‘जीवंत सेतु’ की भूमिका निभाता है; राज्य की त्रिआयामी भूमिका को जनता तक पहुंचाता है, और जनता के सुख-दुःख-दर्द-समस्या-उम्मीदों को राज्य के संचालकों तक ले जाता है।

यदि कभी कहीं गाड़ी पटरी से उतरती है, शासक गैर-संवैधानिक कार्य करते हैं, तो मीडिया इसकी भी खबर लेता है। राज्य को पथविचलन की चेतावनी देता है। प्रेस की यह परम्परागत ‘हस्तक्षेपधर्मी भूमिका’ मानी जाती रही है। इस भूमिका की प्रभावशाली अदायगी तभी हो सकती है जब ‘हस्तक्षेपधर्मिता’ जीवित रहे। मीडिया की तुलना किसी कार, विमान, टेलकम पाउडर, बिल्डिंग, तेल-साबुन आदि उत्पादों से नहीं की जा सकती क्योंकि इन उत्पादों का जन्म  उपभोग के लिए हुआ है।

इन उत्पादों में हस्तक्षेपधर्मिता नहीं होती है। उपभोग-ज़रूरतों को ध्यान में रख कर इनका आकार-प्रकार तैयार किया जाता है। ऐसे उत्पाद अपनी प्रकृत्ति में ‘अनुकूलनीय व नमनीय’ होते हैं। इसके विपरीत मीडिया की रीढ़ होती है। यदि रीढ़हीन मीडिया होता है तो उसकी हस्तक्षेपधर्मिता आहिस्ता-आहिस्ता कुंद पड़ जाती है। फिर वह ‘लचर-स्तम्भों वाला पुल’ में बदल जाता है, जिसे आज़ ‘गोदी मीडिया’ से परिभाषित किया जाता है।

बेशक़ मीडिया के किसी भी रूप को ज़िंदा रखने के लिए इश्तिहार उसके लिए ऑक्सीजन है। इससे इंकार नहीं है। लेकिन, ज़रूरत से ज़्यादा खाद-बीज-सिंचाई भी फसल को नुक़सान पहुंचाती है। इंसान आवश्यकता से अधिक खायेगा तो वह रोगग्रस्त हो जाएगा। लज़ीज़ पकवान उसे हृदयघात की तरफ धकेलेंगे। उन्नीस सौ पचीस में दी गई बाबूराव विष्णु पराड़कर की चेतावनी याद आ रही है। उन्होंने कहा था कि भविष्य के अख़बार में विज्ञापनों की भरमार होगी, आकर्षक रूपसज्जा रहेगी, लेकिन उसमें पत्रकारिता की आत्मा का निवास नहीं होगा। यही दशा आज के मीडिया की है।

नेहरू और इंदिरा सरकारों ने दो प्रेस आयोगों का गठन किया था। प्रेस के लिए आचार संहिता तय की थी। विज्ञापन और समाचार का प्रतिशत निर्धारित किया था। उद्योगपतियों का दबाव नहीं रहे, इसका भी प्रावधान था। मनमोहन सिंह सरकार में ‘क्रोसओनरशिप’ को ख़त्म करने की बात की गयी थी; एक व्यक्ति सिर्फ एक ही माध्यम का मालिक हो सकता है; एक साथ अखबार और चैनल नहीं चला सकता।

लेकिन, मोदी शासन में किसी पर कोई लगाम नहीं है। आप एक साथ अखबारपति और चैनलपति हो सकते हैं; इसकी ज्वलंत मिसाल हैं टाइम्स ऑफ़ इंडिया, जागरण, भास्कर, राजस्थान पत्रिका, आनंदबाजार पत्रिका जैसे विशाल मीडिया घराने। कितने ही संस्करण निकाल सकते हैं अपने अखबारों के। कितने ही चैनलों के शेयर खरीद सकते हैं और सम्पादकीय विभाग में हस्तक्षेप कर सकते हैं। अपने औद्योगिक व राजनैतिक हितों को ध्यान में रख कर मनमाने ढंग से समाचारों-विचारों का अनुकूलन करवा सकते हैं।

इसलिए ‘अघोषित सेंसरशिप’ की धारणा फैली हुई है। ज़रूरत इस बात की है कि ‘तीसरा व्यापक मीडिया आयोग’ बनाया जाए और नए सिरे से आचार संहिता निर्धारित की जाए। विज्ञापन और समाचार+विचार सामग्री का प्रतिशत तय किया जाए। सम्पादक संस्था को पुनर्जीवित कर प्रभावशाली बनाया जाए। पत्रकारों को भय मुक्त किया जाए। उन पर हमेशा कॉन्ट्रैक्ट- असुरक्षा की तलवारें लटकी रहती हैं। इसलिए वेज बोर्ड का हस्तक्षेप ज़रूरी है।

लेकिन, मैंने दैनिकों का बहिष्कार केवल इश्तिहारों के कारण किया है, ऐसा भी नहीं है। इश्तिहारों की ज़मीन से कैसी गंध उठती है, नथुनों के माध्यम से जब वह दिमाग़ को कितना प्रदूषित करती है, यह भी जानना-समझना जरूरी है; प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, विभिन्न केद्रीय मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों के चित्रों से पटे रहते हैं इश्तिहार। कितने दिन, कब तक, कहां तक देखते रहें इन चित्रों को।

पिछले कई महीनों से यह उबाऊ सिलसिला चलता आ रहा है। प्रदेशों के चुनावों के दौरान तो और भी आक्रामक हो गया था। फिर से आक्रमक हो रहा है। भाजपा मुख्यमंत्रियों के मध्य मोदी जी को अपनी तरफ रिझाने की होड़ मची हुई है। प्रधानमंत्री के साथ अपनी फोटो को चस्पा कर देते हैं इश्तिहार में। मोदी जी के साथ विशेष रूप से दो मुख्यमंत्रियों की छवियों की बरसात होती रहती है- उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री। वैसे असम के मुख्यमंत्री भी कभी कभी चमकते हैं।

हद तो यह है कि सुदूर दक्षिण के अखबारों में भी इसी मिजाज के विज्ञापन छपने से बाज नहीं आते हैं। अब देखिए, दिल्ली की सड़कों पर निकल जाइए, होर्डिंगों में मोदी+मुख्यमंत्री की जुगुलबंदी देखने को मिलेगी। घर से बाहर निकलने पर पेट्रोल पंप रहे या पेशाबघर, ऐसे चित्र दबोचने लगजाते हैं मुझको। हो सकता है आपको भी। इश्तिहारों से पिंड छुड़ा भी लें, लेकिन भाषणों की बारिश से नहीं बच सकते। मोदी भाषणों की भरमार रहती है। फिर चैनलों पर अलग से छाए रहते हैं।

1975 के इमरजेंसी काल में भी इंदिरा गांधी की छवियों की ऐसी बरसात नहीं हुई थी। बीस सूत्री कार्यक्रम का प्रचार जरूर था, लेकिन मोदी गारंटी जैसा नहीं था। आज मीडिया केंद्र और प्रदेश सरकारों के शासकों पर पूरी तरह से आश्रित हो गया है। मीडिया के प्राण मोदी जी की मुठ्ठियों में क़ैद हैं। राजनीतिक भाषणों से मीडिया सना रहता है।

विकसित देशों में नेता, मीडिया और पूंजी, तीनों हैं। लेकिन राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री और नेताओं के भाषण और चित्र नहीं की बराबर रहते हैं। इसका प्रचुर निजी अनुभव है। मीडिया पर नेता-संस्कृति हावी नहीं रहती है। यही वज़ह है कि वहां के पत्रकार निर्भय होकर अपने नेताओं को सवालों के कठघरे में खड़ा कर देते हैं। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने कितनी दफे झूठ बोला, प्रेस इसकी भी गिनती करता है। अमेरिकी राष्ट्रपति के निवास वाइट हाउस में रिपोर्टर अपने राष्ट्रपति को झूठा तक कह देता है। दोनों के बीच ज़िरह होती है।

क्या वर्तमान दौर में इसकी कल्पना हम भारत में कर सकते हैं? अब प्रेस को हड़का दिया जाता है। प्रधानमंत्री मोदी ने  स्वयं 2014 से अब तक विधिवत प्रेस कांफ्रेंस नहीं की है। इसके विपरीत पूर्व के मौनी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह प्रेस वार्ता किया करते थे। अटल बिहारी वाजपेयी भी प्रेस वार्ता करते थे। अपने समय की शक्तिशाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी प्रेस वार्ता से मुख़ातिब हुआ करती थीं। प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू की प्रेस वार्ता तो विश्वविख्यात थीं।

लेकिन, मोदी जी प्रेस वार्ता से पलायन करते रहते हैं। मनभावन पत्रकार या अभिनेता से ज़रूर बात कर लेते हैं। बस विज्ञापनों और एकल भाषणों के माध्यम से विज्ञापनों व मीडिया में हर वक़्त दृश्यमान होते रहते हैं। समाज में संवादहीनता के कारण हिंसा, लालच, आत्मरति, परस्पर अविश्वास जैसी नकारात्मक प्रवृत्तियां उभर रही हैं। स्त्री की अस्मिता लुटती है, आत्मदाह की घटनाएं होती हैं, हत्या की वारदातें होती हैं, तमाशबीन बने लोग पहले मोबाइल से वीडियो बनाने लग जाते हैं।

शासकों की इस फितरत की वजह से लोकतंत्र रोगशैया पर ही पड़ा रहेगा। बम्पर वोट की फसल और अकूत पूंजी- मुनाफा ही शासकों व पूंजीपतियों का एकमात्र ध्येय नहीं होना चाहिए। ऐसा भी वक़्त आ सकता है जब न्यूज़ मीडिया का सामूहिक बहिष्कार की शुरुआत हो जाए और समाज सड़े-गले मनोरंजन में धंसने लगे।

 (रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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