उत्तराखंड टनल हादसा: पिछले 56 घंटे से बचाव कार्य जारी, लेकिन अभी तक नहीं मिली सफलता

नई दिल्ली। दो दिन बाद जाकर उत्तराखंड प्रशासन, एसडीआरएफ और एनडीआरएफ टीम को समझ आया कि टनल में फंसे 40 लोगों को बचाने के लिए पोकलेन मशीन, डंपर की कवायद के बजाए उसी उपाय को अपनाना होगा, जिस माध्यम से पीड़ितों तक पानी और ऑक्सीजन पहुंचाई जा रही है।

जी हां, अब रेस्क्यू अभियान से जुड़े लोगों का कहना है कि 800 मिमी डायमीटर के पाइप को सुरंग के मुंह की तरफ से मलबे में ड्रिल कर डाला जायेगा, जिसे एस्केप टनल नाम दिया गया है। लेकिन 54 घंटे बीतने के बाद भी 30 मीटर मलबे के भीतर फंसे किसी भी व्यक्ति को सुरक्षित नहीं निकाला जा सका है।

सोमवार को जब रेस्क्यू ऑपरेशन के बारे में ‘जनचौक’ के द्वारा इसकी रिपोर्ट तैयार की जा रही थी, तभी इस बात की आशंका जताई जा रही थी कि 5 मीटर ऊंचाई वाली इस सुरंग को करीब 50 मीटर गहराई पर निर्मित किया जा रहा था। सुरंग के निर्माण के वक्त ही भू-धंसाव न हो, के लिए शॉटक्रीटिंग की जाती है। इसके साथ ही प्री-कास्ट कंक्रीट की एक परत डाली जाती है। यह व्यवस्था होने के बावजूद यदि टनल को तोड़कर मलबा टनल में घुस सकता है तो इस बात को कैसे सुनिश्चित किया जा रहा है कि जितना मलबा निकाला जायेगा, ऊपर के भार से फिर से नया मलबा उस खाली स्थान को नहीं भर देगा?

शायद दो दिनों की मशक्कत के बाद अब जाकर एसडीआरएफ को यह बात समझ में आई है कि वे इस तरीके से काम करेंगे तो रेस्क्यू ऑपरेशन स्वयं में एक प्रोजेक्ट बन जाने वाला है, जबकि रेस्क्यू ऑपरेशन अपने आप में पीड़ितों को तत्काल राहत प्रदान करने से जुड़ा है। घटना स्थल से मीडिया के माध्यम से जो खबर आ रही है, उससे अंदाजा लग रहा है कि मलबे के भीतर अब 800 mm डायमीटर की स्टील पाइप को डालकर एक सुरक्षित गलियारा बनाया जायेगा। यही एकमात्र जरिया भी है, जिसमें ऊपर से कोई भी मलबा आये, लेकिन आसानी से उससे बचा जा सकता है।

लेकिन 30-35 मीटर तक इसे कैसे अंदर डाला जाएगा? कहा जा रहा है कि ड्रिलिंग के जरिये इसके लिए रास्ता बनाया जायेगा। क्या 800 mm की गोलाई वाली कोई ड्रिलिंग मशीन उत्तराखंड एसडीआरएफ के पास या देश में है, यह देखना होगा। भूमिगत मेट्रो या टनल के निर्माण में टीबीएम (टनल बोरिंग मशीन) का उपयोग भारत में एक आम बात है। दिल्ली, मुंबई और चेन्नई सहित देश में सभी शहरों में अंडरग्राउंड मेट्रो टनल के निर्माण में इसी मशीन का सहारा लिया जाता है।

लेकिन इसका आकार अपने आप में काफी बड़ा होता है, और इसे लाने ले-जाने के लिए विशेष व्यवस्था की जरूरत पडती है। इसके लिए भारी मालवाहक ट्रक और वैसी सड़क भी आवश्यक है, जो उसके भार को सहन कर सके, और मोड़ों पर ट्रक आसानी से मुड़ सके। लेकिन दिल्ली जैसे महानगर से इसे ले जाना भी कम से कम 7-8 दिन का समय मांगता है। टीबीएम मशीन अपने सामने की मिट्टी, पत्थर को काटते हुए आगे बढ़ती है, और उसके पीछे-पीछे खाली स्थान को शॉटक्रीट कर मलबा गिरने से रोका जाता है। लेकिन यहां पर तो सुरंग में कोई नई सुरंग नहीं बनाई जा रही है।

इसलिए देखना होगा कि एसडीआरएफ असल में वह कौन सा तरीका निकाल रहा है, जिसके माध्यम से ड्रिलिंग कर वह 800 मिमी डायमीटर के पाइप को साथ-साथ अंदर प्रवेश कराएगा, क्योंकि मलबा कटिंग के साथ ही पाइप का भीतर प्रवेश कराना बेहद जरूरी है, वरना पलक झपकते ही ऊपर से मलबा अपने ही भार से खाली स्थान को भर देगा।

फिर 800 डायमीटर का पाइप भी एक हाथों-हाथ उपलब्ध होने वाली चीज नहीं है। यदि उपलब्ध भी हो तो उसे वेल्डिंग कर एक के बाद एक जोड़कर तैयार करना होगा। उसके बाद उसे सुरंग में लगातार पुश करने की भी जरूरत होगी। यह सब हो गया तब ही कहा जा सकता है कि आपने एक सुरक्षित गलियारा बना लिया।

लेकिन एक सवाल सभी के मन में कौंध रहा है। वह यह है कि क्या यह जरूरी है कि सुरंग के भीतर काम कर रहे सभी श्रमिक दुर्घटना के दौरान क्षतिग्रस्त टनल के हिस्से से सुरक्षित दूरी पर ही थे? क्या इस बात की दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं है कि दुर्घटना के वक्त उस 35 मीटर के हिस्से में कोई व्यक्ति नहीं था?

ये वे सवाल हैं, जो अभी तक स्पष्ट नहीं किये गये हैं। एक बार रेस्क्यू ऑपरेशन सफल होने के बाद ही सुरंग के भीतर जाने वालों की सूची के साथ मिलान करने के बाद ही इस बारे में ठीक-ठीक कहा जा सकता है। क्योंकि यदि कोई भी व्यक्ति मलबे की चपेट में आया होगा तो उसका बचना नामुमिकन है।

फिर एक सवाल यह भी उठता है कि टनल निर्माण के दौरान ही इतना बड़ा हादसा हो गया, तो क्या गारंटी है कि निर्माण कार्य पूरा हो जाने के बाद जब सामान्य यातायात शुरू हो जाए तब ऐसी दुर्घटना नहीं होगी? दुनिया में हिमालय को सबसे नए पर्वतों में से एक माना जाता है। इसकी मिट्टी और पत्थर अभी भी बेहद कम पकड़ वाले कमजोर संरचना लिए हुए हैं। हर साल बारिश में भूस्खलन की घटनाएं होती हैं।

ऊपर से ब्लास्टिंग और पहाड़ों में सुरंग और सड़क निर्माण के लिए कटाव के कारण पहाड़ में कंपन और थर्राहट को दूर-दूर तक महसूस किया जाता है। हजारों की संख्या में पेड़ों की कटाई ने भी पहाड़ के साथ मिट्टी की पकड़ को कमजोर कर दिया है। क्या ये टनल अचानक से पहाड़ के भारी झटके को सहन कर सकता है? निर्माण से पूर्व दावा किया जा रहा था कि ऑस्ट्रियाई तकनीक का इस्तेमाल कर हिमालयी विशिष्ट भौगौलिक स्थितियों को ध्यान में रखते हुए इस प्रोजेक्ट को अंजाम दिया जा रहा है। लेकिन यह तो शुरू होने से पहले ही ध्वस्त हो गया?

रेस्क्यू ऑपरेशन सफल होने के बाद क्या इस बात की समीक्षा नहीं की जानी चाहिए कि इस परियोजना में तय शुदा मानकों के अनुरूप काम किया गया या नहीं? मलबे का निस्तारण कहां किया गया? डंपिग साइट कहां है और अनुमानित मलबा निकासी के साथ उसका मिलान करना चाहिए।

स्थानीय लोगों से संवाद कर उनकी गवाही ली जाने की जरूरत है कि सुरंग निर्माण के लिए ब्लास्टिंग नहीं की गई, क्योंकि 2019 में ही स्थानीय लोगों ने लिखित शिकायत प्रशासन को की थी कि रात के वक्त ठेकेदार के लोगों द्वारा ब्लास्टिंग को अंजाम दिया जाता था। जाहिर है ब्लास्टिंग होते ही समूचा पहाड़ थर्रा उठता है, और गहरी नींद में सोया हुआ व्यक्ति भी पहाड़ों में मीलों दूर होकर भी चौंककर उठ जाता है।

यहां पर असल में हमारे नीति-निर्माताओं की नीयत पर सबकुछ टिका हुआ है। अगर वे हिमालय और वहां के नागरिकों, जल-जंगल-जमीन के प्रति संवेदनशील होते तो वे परियोजना को अंतिम रूप देने से पहले ही इन तमाम बातों पर गहराई से विचार करते। यदि यह काम परम आवश्यक था, तो उसके लिए सर्वेक्षण, मिट्टी की जांच सहित काम के दौरान कड़ाई से सारी प्रक्रिया का पालन करा रही होती।

लेकिन सभी जानते हैं कि देश में परियोजनाओं का निर्माण ही समानांतर भ्रष्टाचार, ठेका अवार्ड किये जाने से लेकर काम पूरा होने के बीच अधिकारियों की मुट्ठी गर्म कर सस्ता उपाय अपनाकर हर ठेकेदार अपने लिए मुनाफे में इजाफा चाहता है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान हम देश में हर 15 दिन में कहीं न कहीं निर्माणाधीन पुलों, फ्लाईओवर के भरभराकर गिरने की खबरें सुनते रहते हैं।

सारी दुनिया में तकनीक उत्तरोत्तर उन्नत ही हो रही है। लेकिन जिस देश में गुणवत्तापूर्ण काम करने, लेकिन सरकारी अमले की जेब गर्म न करने पर ठेकेदार की देय राशि लटका दी जाती हो, तो किसी के लिए भी चाहकर भी ईमानदारी से काम करने का स्कोप नहीं रह जाता। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में तो पिछले कुछ वर्षों में इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़े इतने टेंडर आये हैं कि इन दोनों राज्यों में ठेकेदारों, माफियाओं का पूरा तन्त्र ही खड़ा हो चुका है।

इसी वर्ष हिमाचल प्रदेश में भारी बाढ़ के चलते 10 हजार करोड़ रुपये से अधिक के नुकसान का अनुमान है। पुनर्निर्माण के लिए राज्य सरकार इतने रुपयों का बंदोबस्त करेगी है, इसलिए आसानी से समझा जा सकता है कि निर्माण कार्य से जुड़े ठेकेदारों, ईपीसी एवं अन्य संस्थाओं के लिए आपदा एक बड़ा सुनहरा अवसर बना हुआ है।

इन ठेकेदारों की श्रृंखला की पड़ताल कर कोई भी जान सकता है कि इनमें से अधिकांश में किसी न किसी प्रकार से सत्ता से जुड़े लोगों का रिश्ता निकलेगा। असल में पूरे विकास की अवधारणा और पर्यटन को बढ़ावा का दूसरा मतलब ही पर्दे के पीछे उन लोगों की मौजूदगी है, जो पक्ष-विपक्ष की अपनी-अपनी भूमिका का मंचन कर इस पूरे घटनाक्रम को अंजाम दे रहे हैं, और हादसों में भी फायदा उठा रहे हैं।

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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