बिरसा मुंडा शहादत दिवस: उलगुलान से जुड़ा डोंबारी बुरू का शहीद स्मारक आज भी उपेक्षित

9 जून 2023 को धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा का 123वां शहादत दिवस मनाया जा रहा है। हर वर्ष 9 जून को राजधानी रांची सहित पूरे झारखंड में सरकारी व गैर-सरकारी स्तर पर बिरसा मुंडा का शहादत दिवस मनाया जाता रहा है। बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को खुंटी जिले के उलीहातु गांव में एक छोटे से मुंडा जनजातीय किसान परिवार के सुगना मुंडा और करमी मुंडाईन के घर में हुआ था।

प्रारम्भिक पढ़ाई के बाद उन्होंने चाईबासा जीईएल चर्च (गोस्नर एवंजिलकल लुथार) स्कूल में पढ़ाई की। वे छोटी उम्र से ही ब्रिटिश शासकों द्वारा शोषित अपने समाज की बुरी दशा पर वह सदैव चिंतित रहते थे। 1894 में छोटा नागपुर में भयंकर अकाल और महामारी फैली हुई थी तो बिरसा ने पूरे मनोयोग से अपने लोगों की सेवा की।

1 अक्टूबर 1894 को मुंडाओं को एकत्र कर बिरसा ने अंग्रेजों से लगान (कर) माफी के लिये आंदोलन शुरू किया। इस आंदोलन के क्रम में उन्हें 1895 में गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी। उसके बाद बिरसा को “धरती आबा” के नाम से पुकारा जाने लगा गया।

खूंटी जिला के मुरहू प्रखण्ड अंतर्गत गुटूहातू गांव में डोंबारी बुरू शहीद स्थल है, जहां ब्रिटिश शासन के खिलाफ बिरसा मुंडा के नेतृत्व में 25 दिसम्बर 1899 से अंदोलन चला था जिसमें शामिल हजारों आंदोलनकारी 9 जनवरी 1900 को अंग्रेजी हुकूमत की गोली के शिकार हुए। इन्हीं शहीदों की याद में यहां एक स्मारक स्थल बनाया गया है।

कहना ना होगा कि डोंबारी बुरू, जलियांवाला बाग (13 अप्रैल 1919) से पहले का जलियांवाला बाग था, जो अंग्रेजी हुकूमत की क्रूरता का पहला गवाह बना था। डोंबारी बुरू, जहां आज से ठीक 123 साल पहले 9 जनवरी 1900 को ब्रिटिश सेना-पुलिस और बिरसा मुंडा के आंदोलनकारियों बीच जंग छिड़ी थी। सईल रकब से लेकर डोंबारी बुरू तक घाटियां सुलग उठी थीं।

25 दिसंबर 1899 से लेकर 9 जनवरी 1900 तक खूंटी के कई इलाकों सहित रांची से लेकर खूंटी-चाइबासा तक अशांत था। मुंडा आंदोलनकारियों के साथ 9 जनवरी की लड़ाई अंतिम लड़ाई साबित हुई। इसके बाद बिरसा मुंडा के साथियों की धर-पकड़ तेज हो गई। सैकड़ों निहत्थे आदिवासियों की बड़ी क्रूरता से गोलियों की बौछार करके हत्या कर दी गई।

3 फरवरी 1900 को बिरसा मुंडा गिरफ्तार कर लिए गए और 9 जून को कारागार में ही आंग्रेजों द्वारा जहर देकर मार दिये गये। जहां 9 जून बिरसा मुंडा की शहादत के रूप में मनाया जाता है वहीं जो लोग 9 जनवरी 1900 को ब्रिटिश सेना व पुलिस की गोलियों के शिकार हुए उनकी याद में भी हर साल 9 जनवरी को अंतिम उलगुलान के रूप में याद किया जाता है। आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुंडा को भगवान की तरह पूजा जाता है।

बिरसा मुंडा की याद में रांची में कोकर के निकट डिस्टिलरी पुल के पास उनकी एक समाधि बनाई गई है। वहीं उनका स्टेच्यू भी लगा है। उनकी स्मृति में रांची में बिरसा मुंडा केन्द्रीय कारा तथा बिरसा मुंडा अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा भी है।

वहीं बिरसा मुंडा की याद में डोंबारी पहाड़ पर 110 फीट ऊंचा विशाल स्तंभ का निर्माण किया गया। जो अंग्रेजी हुकूमत की क्रूरता व सैकड़ों आदिवासियों की शहादत की यादगार बना हुआ है। उस ऐतिहासिक युद्ध की स्मृति में डोंबारी पहाड़ पर एक विशाल स्तंभ का निर्माण मुंडारी भाषा के विद्वान जगदीश त्रिगुणायत के प्रयास से किया गया।

इस ऐतिहासिक लड़ाई की स्मृति में एक स्मारक निर्माण के लिए ‘बिरसा स्मारक बहुउद्देशीय विकास समिति’ का गठन किया गया जिसके सचिव डॉ. रामदयाल मुंडा बनाए गए थे। पहाड़ पर 110 फीट ऊंचा डोंबारी बुरू का स्मारक पत्थरों से बनाया गया, जो काफी दूर से दिखाई देता है। तत्कालीन मंडलायुक्त सीके बसु द्वारा बिरसा मुंडा की शहादत दिवस के अवसर पर इस स्मारक का उद्घाटन 9 जून 1991 को किया गया था।

पहाड़ की तलहटी में एक मंच भी बनाया गया और उसके पास ही 30 फीट की बिरसा मुंडा की कास्य प्रतिमा भी स्थापित की गई। बिरसा मुंडा की कास्य प्रतिमा का निर्माण नेतरहाट के राजेंद्र प्रसाद गुप्ता ने 1990 को किया था। प्रतिमा तक पहुंचने के लिए सीढियां बनाई गई हैं, लेकिन वे आज जर्जर हो चुकी हैं। लोहे की रेलिंग में जंग लग गया है। सीमेंट जगह-जगह से छोड़ रहा है। प्रतिमा का बेस कभी भी क्षतिग्रस्त हो सकता है। पिछले 28 सालों से इसका रंग-रोगन भी नहीं हुआ है।

यहीं पर एक छोटा सा मैदान भी है। एक विशाल मंच भी है। इसके बाद अंदर स्मारक तक जाने के लिए पीसीसी सड़क बनी है। यहां तक पहुंचने के लिए सीधी चढ़ान है। यहीं से सईल रकब भी दिखाई देता है। सरकार का विकास केवल बिरसा मुंडा के जन्मस्थल तक ही सिमट गया है, जबकि उनसे जुड़े ऐतिहासिक स्थल उपेक्षा के शिकार हैं। एक महत्वपूर्ण स्मारक उपेक्षित है। जबकि उस समय यहां एक छोटा सा अस्पताल और स्कूल खोलने की बात भी की गई थी।

आश्चर्य की बात तो यह है कि बिहार के समय में जो काम हुआ वह हुआ, अलग झारखंड राज्य बनने के बाद से अभी तक यहां एक ईंट भी नहीं रखी गई है। अलबत्ता स्थानीय लोगों ने ग्राम पंचायत गुटुहातु, मुरहू के सौजन्य से यहां 9 जनवरी 2014 को एक पत्थलगड़ी जरूर कर दी है, जिस पर अंग्रेजों के गोलीकांड में शहीद छह लोगों के नाम दर्ज हैं।

दूसरी तरफ डोंबारी बुरू में शहीद हुए सैकड़ों शहीदों में से अब तक सभी की पहचान नहीं हो पायी है। शहीद हुए लोगों में मात्र 6 लोगों की ही पहचान हो सकी है। इसमें गुटूहातू के हाथीराम मुंडा, हाड़ी मुंडा, बरटोली के सिंगराय मुंडा, बंकन मुंडा की पत्नी, मझिया मुंडा की पत्नी और डुंगडुंग मुंडा की पत्नी शामिल हैं।

डोंबारी बुरू में विशाल स्तंभ उलगुलान के इतिहास को अपने अंदर समेटे हुए आज भी विकास की बाट जोह रहा है। स्तंभ की सीढ़ी व फर्स पर लगे पत्थर टूट चुके हैं। सीढि़यों के किनारे बनाए गए रेलिग भी कई जगह टूट चुकी है। सैकड़ों लोगों की शहादत की कहानी बयां करने वाले इस ऐतिहासिक स्तंभ को अब किसी तारणहार का इंतजार है।

(वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट।)

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