1982 और 2001 में भी मैतेई समुदाय के लिए एसटी दर्जे पर विचार किया गया और उसे खारिज कर दिया गया था…

मणिपुर हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है और आज तक मणिपुर की समस्या के बारे में सरकार का कोई ऐसा प्रयास भी नहीं दिखा, जिससे यह पता चल सके कि, वह इस घातक समस्या के समाधान के लिए गंभीर है। मणिपुर राज्य, फिलहाल, कानून व्यवस्था के दृष्टिकोण से, संविधान के अनुच्छेद, 355 के अंतर्गत, केंद्र के जिम्मे है। हिंसा की शुरुआत, मणिपुर हाईकोर्ट के एक आदेश से हुई, जिसमे मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने हेतु, सरकार को कार्यवाही करने के लिए आदेशित किया गया था। हालांकि मणिपुर हाईकोर्ट के इस आदेश पर रोक लगा दी गई थी, लेकिन जो हिंसा और वैमनस्य भड़कना था वह भड़क चुका था और स्थिति राज्य सरकार के नियंत्रण के बाहर हो गई और आज तक मणिपुर का वातावरण, सामान्य नहीं हो पाया है। 

हाईकोर्ट के इस अजीबोगरीब फैसले के पीछे, केंद्र और राज्य सरकार द्वारा, इस मुद्दे पर, सारे दस्तावेज, अदालत में प्रस्तुत न करना भी बताया जाता है। केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय के अधिकारियों ने उन अभिलेखों को संकलित और उन्हें मणिपुर उच्च न्यायालय में, जब इस मामले की सुनवाई हो रही थी तो, प्रस्तुत नहीं किया। वे दस्तावेज साल, 1982, और साल 2001 में, केंद्र सरकार की वह रिपोर्ट और निर्णय था, जिसमें, मैतेई समुदाय को, अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने के प्रस्ताव पर विचार किया गया था, पर उसे उपयुक्त न पाए जाने के कारण, खारिज कर दिया था। साल1982 में, भारत के रजिस्ट्रार जनरल ने कहा था कि मैतेई समुदाय में “आदिवासी विशेषताएं” ट्राइबल कैरेक्टर नहीं हैं। यही बात, साल, 2001 में भी मणिपुर सरकार ने कहा था। 

अंग्रेजी अखबार, द हिंदू ने इस मुद्दे पर विस्तार से एक खबर छापी है, जिसके अनुसार,  “पिछले चार दशकों में मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने के प्रस्ताव पर,  दो बार जांच की गई और दोनो ही बार, जांच के बाद, इसे उपयुक्त न पाते हुए खारिज कर दिया गया था। ऐसा, पहली बार, 1982 में, भारत के रजिस्ट्रार जनरल के कार्यालय द्वारा, और फिर, दूसरी बार, 2001 में, मणिपुर सरकार द्वारा, किया गया था। केंद्र सरकार और मणिपुर की राज्य सरकार ने, राज्य में चल रहे जातीय संघर्ष के दौरान, इस जानकारी को सार्वजनिक नहीं किया, और न ही इन रिकॉर्डों को मैतेई समुदाय की याचिका पर मणिपुर उच्च न्यायालय में, जब इस मामले की सुनवाई हो रही थी, तब अदालत में दाखिल  किया।” यदि यह अभिलेख और सरकार के, मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्रस्ताव खारिज कर देने का पूर्ववर्ती निर्णय, यदि मणिपुर हाईकोर्ट के समक्ष प्रस्तुत होते तो, हो सकता था, अदालत का दृष्टिकोण कुछ और होता और आज जो पिछले पांच महीने से, मणिपुर में, हिंसा चल रही है, वह शायद शुरू ही न होती। 

जनजातीय मामलों के मंत्रालय के अधिकारियों ने इस साल अप्रैल के अंत में, इन ऐतिहासिक दस्तावेजों को ढूंढ निकाला था, जिसके कुछ ही दिन बाद मणिपुर उच्च न्यायालय ने मैतेई को एसटी दर्जा प्रदान करने की सिफारिश भेजने का एक विवादास्पद आदेश दिया था। और उसी के बाद, 3 मई 2023 को, मणिपुर हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ एक विरोध रैली ने, घाटी स्थित मैतेई समुदाय और पहाड़ी स्थित अनुसूचित जनजाति कुकी-ज़ो समुदायों के बीच हिंसा भड़का दी, जो पांच महीनों से जारी है और अब तक, लगभग 180 लोग मारे जा चुके हैं। द हिंदू की खबर के अनुसार, ऐसा भी नहीं है कि, सरकार के पास वे दस्तावेज नहीं थे या सरकार को, साल 1982 और साल 2001 का निर्णय पता नहीं था। लेकिन इसे अदालत में पेश न करना, एक प्रकार की लापरवाही थी, जिसका दुष्परिणाम, मणिपुर की जनता भुगत रही है। 

इस बारे में अंग्रेजी अखबार, द हिंदू, सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के अंतर्गत मांगी गई एक सूचना का उल्लेख करता है, जिसके अनुसार, “रजिस्ट्रार जनरल के कार्यालय ने, 1982 में गृह मंत्रालय के अनुरोध पर एसटी सूची में मैतेई को शामिल करने पर विचार किया था। जिसके अनुसार, “उपलब्ध जानकारी” के आधार पर, मैतेई समुदाय में “आदिवासी विशेषताएं नहीं दिखती हैं”, और तब यह कहा था कि “वे समावेशन के पक्ष में नहीं है।” रिपोर्ट में कहा गया है कि, “ऐतिहासिक रूप से, इस शब्द का इस्तेमाल “मणिपुर घाटी में गैर-आदिवासी आबादी” का वर्णन करने के लिए किया गया था। 

लगभग 20 साल बाद, जब तत्कालीन सामाजिक न्याय मंत्रालय, राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की एससी/एसटी सूचियों को संशोधित कर रहा था, तो उसने मणिपुर सरकार से भी सिफारिशें मांगी थीं।  जवाब में, मणिपुर के जनजातीय विकास विभाग ने 3 जनवरी, 2001 को केंद्र को बताया कि वह, मैतेई समुदाय की स्थिति पर आरजीआई कार्यालय की 1982 की राय से सहमत है। तत्कालीन मुख्यमंत्री डब्लू. नपामाचा सिंह के नेतृत्व वाली मणिपुर सरकार ने, तब कहा था कि, मैतेई समुदाय “मणिपुर में एक प्रमुख समूह” है और इसे एसटी सूची में शामिल करने की आवश्यकता नहीं है।  इसमें कहा गया है कि, “मैतेई लोग हिंदू हैं और “हिंदू जातियों की सीढ़ी में वे खुद को, क्षत्रिय जाति का मानते थे”, यह कहते हुए कि, “उन्हें पहले से ही अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में सूचीबद्ध किया गया है”, सरकार ने ट्राइबल स्टेटस देने से मना कर दिया था।

मणिपुर हाईकोर्ट के कार्यवाहक चीफ जस्टिस ने, राज्य और केंद्र सरकारों को नोटिस जारी करते हुए कहा था कि, “सहमति से, मुख्य रिट याचिका को सुनवाई के प्रथम चरण में फाइनल डिस्पोजल के लिए लिया जाता है।” इसके बाद, मैतेई जनजाति संघ के सदस्यों द्वारा दायर रिट याचिका पर फैसला सुना दिया गया। मणिपुर उच्च न्यायालय के समक्ष लंबित समीक्षा और अपील मामलों में, राज्य और केंद्र सरकारों ने अभी तक मैतेई समुदाय के लिए, उनकी एसटी स्थिति पर कोई लिखित प्रस्तुतिकरण दाखिल नहीं किया था। यानी फैसला देने तक हाईकोर्ट के समक्ष, केंद्र या राज्य सरकार का पक्ष और सरकार के ही पूर्ववर्ती निर्णय, प्रस्तुत नही किए जा सके थे। 

जनजातियों को शामिल करने के तौर-तरीके केवल राज्य सरकार द्वारा शुरू किए गए प्रस्तावों को संसाधित करने की अनुमति देते हैं, जिसमें आरजीआई कार्यालय की राय को प्राथमिकता दी जाती है।  संविधान केवल संसद को संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश, 1950 में आवश्यक संशोधन पारित करके समावेशन को अंतिम रूप देने की अनुमति देता है। एसटी सूची में शामिल करने का निर्णय लेने के लिए आरजीआई कार्यालय द्वारा अपनाए गए मानदंड 1965 में लोकुर समिति द्वारा निर्धारित किए गए थे। उक्त समिति के अनुसार, आदिम लक्षण, विशिष्ट संस्कृति, भौगोलिक अलगाव, बड़े पैमाने पर समुदाय के साथ संपर्क में शर्म और पिछड़ापन के संकेत आदि मुद्दों पर विचार कर यह निर्णय लिया जाता है कि, अमुक समुदाय, जनजाति श्रेणी में शामिल किया जा सकता है या नहीं। आज भी उन्हीं मानदंडों का उपयोग किया जाता है।

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के सत्ता में आने के तुरंत बाद, 2014 में एक आंतरिक समिति की रिपोर्ट के आधार पर अनुसूचित जनजातियों को परिभाषित करने के मानदंडों को बदलने का एक प्रस्ताव जनजातीय मामलों के मंत्रालय में लाया गया था। लगभग आठ वर्षों तक इस पर विचार करने के बाद, मंत्रालय ने 2022 में कहा कि उसने प्रस्ताव को रोक दिया है और इस बारे में, अधिकारियों ने कहा कि, दशकों पुराने मानदंडों के साथ छेड़छाड़ करने की कोई योजना नहीं है। यानी, वर्तमान सरकार ने, अनुसूचित जनजाति के श्रेणी में शामिल होने वाले मानदंडों में कोई परिवर्तन नहीं किया है। बदलते आदिवासी समाजों के साथ तालमेल बिठाने के लिए आंतरिक समिति द्वारा की गई कई सिफारिशों में से एक यह भी थी कि “केवल इस तथ्य के आधार पर कि वे हिंदू धर्म के अनुयायी थे, एसटी सूची में शामिल करने के लिए किसी समुदाय की याचिका को खारिज नहीं किया जाना चाहिए।” लेकिन समिति ने, इस तर्क को भी खारिज कर दिया था। 

इस प्रकार यह विवाद खड़ा ही नहीं होता यदि सरकार, साल 1982 और 2001 के फैसलों को, हाईकोर्ट में प्रस्तुत कर देती। दरअसल, यह बीजेपी का एक चुनावी वादा है कि, मैतेई समुदाय को भी, कुकी जनजाति के समान, जनजाति का दर्जा दिया जायेगा। लेकिन इस वादे को पूरा करना सरकार के, दो पुराने निर्णयों जिनका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है और बीजेपी सरकार की ही गठित समिति के निर्णय, कि, अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में शामिल किए जाने के लिए तयशुदा, स्थापित मानदंडों में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता है, के कारण संभव नहीं है। उपद्रव, अशांति, हिंसा आदि, जिन कारणों के कारण भड़कती हैं, को नियंत्रित करने के लिए उन कारणों को खत्म करना पड़ता है। सुरक्षा बलों के बल पर इन पर कुछ हद तक काबू तो पाया जा सकता है, पर इनका स्थाई समाधान नहीं किया जा सकता है। 

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस हैं।)

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