तीस्ता सीतलवाड़ को सुप्रीम कोर्ट से नियमित जमानत, कहा-गुजरात हाईकोर्ट की टिप्पणियां ‘विकृत’ और ‘विरोधाभासी’

सुप्रीम कोर्ट ने तीस्ता सीतलवाड़ को जमानत दे दी, गुजरात हाईकोर्ट की टिप्पणियों को विकृत, विरोधाभासी बताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को 2002 के दंगों के मामलों में कथित तौर पर सबूतों को गढ़ने के गुजरात पुलिस मामले में मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ को नियमित जमानत दे दी। जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस दीपंकर दत्ता की पीठ ने गुजरात हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया। पीठ ने फैसले में यह माना ‌कि हाईकोर्ट की टिप्पणियां “विकृत” और “विरोधाभासी” थीं।

हाईकोर्ट की ओर से लिए गए विरोधाभासी दृष्टिकोण पर पीठ ने कहा कि हमें यह कहते हुए दुख हो रहा है कि विद्वान जज की ओर से पारित आदेश एक दिलचस्प अध्ययन है। एक तरफ, विद्वान जज ने यह देखने के लिए पन्ने खर्च किए हैं कि जमानत के चरण में इस पर विचार करना कैसे न तो आवश्यक है और न ही स्वीकार्य है कि प्रथम दृष्ट्या मामला बनता है या नहीं। विद्वान जज ने दिलचस्प बात यह कही कि चूंकि याचिकाकर्ता ने न तो सीआरपीसी की धारा 482 या संविधान के अनुच्छेद 226 या 32 के तहत कार्यवाही में एफआईआर या आरोप पत्र को चुनौती दी है, इसलिए उसके लिए यह कहना स्वीकार्य नहीं है कि प्रथम दृष्ट्या मामला नहीं बनता है। हमारे पास कानून की सीमित समझ यह है कि जमानत देने के लिए जिन बातों पर विचार करना आवश्यक है वे हैं (1) प्रथम दृष्ट्या मामला, (2) आरोपी द्वारा साक्ष्यों से छेड़छाड़ की संभावना या गवाह को प्रभावित करना, (3) न्याय से दूर भागना। अन्य विचार अपराध की गंभीरता है।

पीठ ने कहा कि यदि विद्वान जज की टिप्पणी को स्वीकार किया जाए, तो जमानत के लिए कोई भी आवेदन तब तक स्वीकार नहीं किया जा सकता जब तक कि आरोपी कार्यवाही को रद्द करने के लिए आवेदन दायर नहीं करता….कम से कम कहने के लिए, निष्कर्ष पूरी तरह से विकृत हैं। दूसरी ओर, विद्वान न्यायाधीश कुछ गवाहों के बयानों पर चर्चा करते हैं और पाते हैं कि प्रथम दृष्ट्या मामला बनता है। कम से कम यह तो कहा जा सकता है कि निष्कर्ष पूरी तरह से विरोधाभासी है।

पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता से हिरासत में पूछताछ जरूरी नहीं है क्योंकि मामले में आरोपपत्र पहले ही दायर किया जा चुका है। अदालत ने गुजरात हाईकोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया और उसे इस शर्त पर जमानत दे दी कि वह गवाहों को प्रभावित करने या डराने-धमकाने का प्रयास नहीं करेंगी। उल्लेखनीय है कि एक जुलाई को गुजरात हाईकोर्ट ने तीस्ता सीतलवाड़ की जमानत याचिका खारिज कर दी थी और उन्हें तुरंत आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया था। उसी दिन, शनिवार, एक जुलाई को रात 9 बजे की विशेष बैठक में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश पर रोक लगा दी ‌थी।

सीतलवाड़ गुजरात दंगों की साजिश के मामले में सबूत गढ़ने और झूठी कार्यवाही शुरू करने के आरोप में एफआईआर का सामना कर रही हैं। गुजरात दंगों में बड़ी साजिश का आरोप लगाने वाली सीतलवाड़ की याचिका सुप्रीम कोर्ट द्वारा खारिज किए जाने के एक दिन बाद पिछले साल राज्य पुलिस ने उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज की थी।

उल्लेखनीय है कि शीर्ष न्यायालय के समक्ष अपनी याचिका (जो जून 2022 में खारिज कर दी गई थी) में सीतलवाड़ ने जकिया एहसान जाफरी के साथ एसआईटी द्वारा दायर क्लोजर रिपोर्ट को चुनौती दी थी। इस रिपोर्ट में राज्य के उच्च पदाधिकारियों और तत्कालीन गुजरात मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और 63 अन्य लोगों द्वारा गोधरा ट्रेन नरसंहार के बाद 2002 के गुजरात दंगों की एक बड़ी साजिश के आरोपों को खारिज कर दिया गया था।

जून, 2022 में याचिका को खारिज करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा था कि याचिका “मुद्दे को गरम रखने” के “गुप्त उद्देश्यों” से दायर की गई थी। कोर्ट ने आगे कहा कि कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग करने वालों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि गुजरात के असंतुष्ट अधिकारियों और अन्य लोगों का “एकजुट प्रयास” झूठे सनसनीखेज खुलासे करना था, जिसे गुजरात एसआईटी ने “उजागर” कर दिया।

आश्चर्यजनक रूप से वर्तमान कार्यवाही पिछले 16 वर्षों से चल रही है….मुद्दे को गर्म रखने, गुप्त योजना के लिए। वास्तव में प्रक्रिया के ऐसे दुरुपयोग में शामिल सभी लोगों को कानून के अनुसार कटघरे में खड़ा करने और आगे बढ़ने की आवश्यकता है। इन टिप्पणियों के अनुसार, सेवानिवृत्त राज्य डीजीपी आरबी श्रीकुमार, सीतलवाड़ और पूर्व आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट के खिलाफ आपराधिक साजिश, जालसाजी और आईपीसी की अन्य धाराओं के आरोप में एफआईआर दर्ज की गई थी। संबंधित एफआईआर में सुप्रीम कोर्ट के आदेश का बड़े पैमाने पर हवाला दिया गया है।

25 जून को ही गुजरात पुलिस के आतंकवाद निरोधक दस्ते ने एक्टिविस्ट तीस्ता सीतलवाड़ को मुंबई स्थित उनके आवास से हिरासत में ले लिया था। उनकी जमानत याचिका 30 जुलाई को अहमदाबाद की एक निचली अदालत ने खारिज कर दी थी, जिसे चुनौती देते हुए उन्होंने जुलाई 2022 में गुजरात हाईकोर्ट का रुख किया था। इसके बाद वह मामले में जमानत के लिए सुप्रीम कोर्ट चली गईं।

सुप्रीम कोर्ट ने अंततः 2 सितंबर को उन्हें अंतरिम जमानत दे दी, यह देखते हुए कि वह 2 महीने तक हिरासत में थी और जांच मशीनरी को 7 दिनों की अवधि के लिए हिरासत में पूछताछ का लाभ मिला। इससे पहले 15 नवंबर को गुजरात हाई कोर्ट के जस्टिस समीर जे दवे ने इस मामले की सुनवाई से खुद को अलग कर लिया था।

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष आज की सुनवाई के दौरान, वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा कि गुजरात उच्च न्यायालय ने उन्हें इस आधार पर जमानत देने से इनकार कर दिया कि उन्होंने मामले को रद्द करने के लिए आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 482 के तहत याचिका दायर नहीं की थी। ।सिब्बल ने कहा कि जमानत याचिका खारिज करने का ऐसा कारण न्यायशास्त्र को उल्टा करने जैसा होगा । आपने जमानत से इनकार कर दिया क्योंकि आपने रद्द करने के लिए 482 दायर नहीं किया है। लेकिन प्रथम दृष्टया कोई अपराध न पाए जाने पर भी जमानत खारिज कर दी गई। पूरा फैसला इस आधार पर आगे बढ़ता है कि मैंने रद्द करने की मांग नहीं की थी।सिब्बल ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि कैसे गुजरात दंगों के अधिकांश मामलों में सजा हुई और कैसे सुप्रीम कोर्ट ने उन मामलों की जांच के लिए एक विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन किया था।

उन्होंने बताया कि गुजरात पुलिस ने एफआईआर दर्ज करने से इनकार कर दिया। वास्तविक चश्मदीद गवाहों के आधार पर एफआईआर दर्ज नहीं की गई। इस स्तर पर सर्वोच्च न्यायालय ने एनएचआरसी के कहने पर एसआईटी का गठन किया। एक मामला गुजरात से महाराष्ट्र स्थानांतरित कर दिया गया था। एक मामले को छोड़कर सभी में सजा हुई है।सभी मामलों में और यह सब चश्मदीद गवाहों के बयान पर आधारित है। 20 साल से किसी ने कोई शिकायत नहीं की है।

सिब्बल ने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट के जून 2022 के फैसले में साक्ष्यों की बनावट पर कोई निष्कर्ष नहीं निकला है।उन्होंने कहा कि  इस अदालत का फैसला 24 जून, 2022 को सुनाया गया था। इसमें किसी भी सबूत के गढ़ने का कोई निष्कर्ष नहीं है। एसआईटी ने कभी यह तर्क नहीं दिया। यह गुजरात राज्य है जिसने अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया कि ये प्रशिक्षित गवाह हैं।

उन्होंने शीर्ष अदालत के फैसले के तुरंत बाद सीतलवाड़ को गिरफ्तार करने के तरीके पर भी सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि यह क्या जल्दबाजी थी कि फैसले के दिन और अगले दिन आप सॉलिसिटर जनरल की दलील के आधार पर गिरफ्तारी कर लें। यह अनसुना है। सिब्बल ने सवाल किया कि उच्च न्यायालय ने 2002 में ‘सरकार को अस्थिर करने’ के लिए अहमद पटेल द्वारा उन्हें ₹30 लाख देने के बारे में खान के बयान को कैसे स्वीकार कर लिया, खासकर पटेल के निधन के बाद।

न्यायमूर्ति दत्ता ने कहा कि प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) के अनुसार, सीतलवाड़़ ने विशेष जांच दल (एसआईटी) द्वारा गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को दी गई क्लीन-चिट को चुनौती देते हुए एक विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) भी दायर की थी। दंगों के साथ, जिसे ख़ारिज कर दिया गया।

सिब्बल ने अदालत को बताया कि सॉलिसिटर जनरल (एसजी) तुषार मेहता द्वारा उनके अधिकार क्षेत्र पर सवाल उठाने के बाद सीतलवाड़ को नहीं सुना गया।न्यायमूर्ति गवई ने तब टिप्पणी की कि फैसले में उस व्यक्ति के बारे में टिप्पणी जो पक्षकार बनना चाहता है लेकिन राज्य की आपत्ति के कारण उसे नहीं माना गया, तथ्यात्मक रूप से गलत था।उन्होंने कहा कि तो यह उस व्यक्ति पर टिप्पणी है जो पक्षकार बनना चाहता है लेकिन राज्य की आपत्ति पर विचार नहीं किया गया… उनकी बात नहीं सुनी गई। यह तथ्यात्मक रूप से गलत है।

अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल एसवी राजू ने इस बात पर जोर दिया कि फैसला एसआईटी की दलीलों पर आधारित था कि सीतलवाड़ ने झूठे आरोप लगाने की कोशिश की थी। उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि सीतलवाड़ द्वारा कांग्रेस पार्टी से लिए गए पैसे की पुष्टि नरेंद्र ब्रह्मभट्ट ने भी की थी।

पीठ ने कहा कि सीतलवाड़ द्वारा गवाहों को प्रभावित करने की एकमात्र संभावना थी और सबूतों के साथ छेड़छाड़ की कोई संभावना नहीं थी क्योंकि यह सब रिकॉर्ड पर था। सीतलवाड़ के खिलाफ जो टिप्पणियाँ उनकी गिरफ्तारी का आधार बनीं, वह एक आदेश में की गई थीं, जहां उन्होंने पक्षकार बनाए जाने की मांग की थी, लेकिन इसकी अनुमति नहीं दी गई।

इसके बाद, न्यायमूर्ति गवई ने सीतलवाड़ की हिरासत की आवश्यकता पर सवाल उठाया और टिप्पणी की कि यदि ‘सबूत’ गढ़ने के संबंध में राज्य की दलील को स्वीकार कर लिया गया, तो साक्ष्य अधिनियम में साक्ष्य की परिभाषा को ‘कूड़ेदान में फेंकना’ होगा। कृपया हमें बताएं कि आपको किस उद्देश्य से उसकी हिरासत की आवश्यकता है। क्या आप चाहते हैं कि हम यह देखें कि धारा 194 भी लागू नहीं है। यदि आपका तर्क स्वीकार किया जाना है तो साक्ष्य अधिनियम के तहत साक्ष्य की परिभाषा को कूड़ेदान में फेंकना होगा। एक हलफनामा अदालत में पेश किया गया यह एक सबूत है ।

पीठ ने अपने आदेश में कहा कि यह अपराध वर्ष 2002 से संबंधित है और सीतलवाड़ ने न्यायिक हिरासत में भेजे जाने से पहले सात दिनों तक हिरासत में पूछताछ में सहयोग किया था। यह भी कहा गया कि अंतरिम जमानत मिलने के बाद उन्हें कभी भी जांच के लिए नहीं बुलाया गया। तदनुसार, यह भी ध्यान में रखते हुए कि अधिकांश सबूत दस्तावेजी थे और आरोप पत्र दायर किया गया था, अदालत ने पाया कि सीतलवाड़ से हिरासत में पूछताछ की आवश्यकता नहीं थी।

सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर, 2022 में मामले में उन्हें अंतरिम जमानत दे दी थी। बाद में गुजरात उच्च न्यायालय ने उनकी नियमित जमानत याचिका खारिज कर दी थी। इसके चलते सुप्रीम कोर्ट के समक्ष वर्तमान याचिका दायर की गई। पिछले महीने शनिवार को हुई विशेष सुनवाई में मौजूदा पीठ ने सबसे पहले उन्हें सात दिनों के लिए अंतरिम जमानत दी थी। बाद में इसे आज तक बढ़ा दिया गया था।

(जे.पी.सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

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