यह अजीब विडंबना है कि जब देश का प्रधानमंत्री मंच से गरज रहा हो कि देश मजबूत और सुरक्षित हाथों में है। तो ऐसे ही समय में प्रधानमंत्री की स्वप्निल परियोजना ‘नई संसद’ में दो नौजवान कूद जाते हैं और संसद को धुआं धुआं कर देते हैं। अमरत्व की दमित इच्छा लिए महामारी के क्रूरतम काल में भी (जब देश में लाखों लोग कीड़े मकोड़े की तरह मर रहे थे।) जनता की चिंता न कर 20 हजार करोड़ रुपये फूंक करके सेंट्रल विस्टा का निर्माण किया गया था।
हकीकत तो यह है कि प्रधानमंत्री अपने कीर्ति स्तंभ का निर्माण इस घोषणा के साथ करा रहा थे कि नया संसद भवन अभेद्य और अलौकिक होगा। इसके निर्माण से भारत के लोकतंत्र की यश:कीर्ति विश्व में फैलेगी। आनन फानन में नई संसद का उद्घाटन करते हुए दक्षिण भारतीय हिंदू राजशाही के प्रतीक चिन्ह ‘सिंगोल राज दंड’ को संसद में स्थापित कर दिया गया।
साथ ही घोषणा की गई कि नई संसद में स्थापित ‘सिंगोल राज दंड’ न्याय और नागरिकों की सुरक्षा की गारंटी देगा। (आपने नई संसद के उद्घाटन के दिन प्रधानमंत्री का पाखंडी और ड्रामाई अंदाज जरूर देखा होगा।) उनके अनुसार आज से विकसित और महान लोकतांत्रिक भारत की यात्रा शुरू हो रही है।
इस समय जनता के श्रम की गाढ़ी कमाई का अरबों रुपया खर्च कर विकसित भारत नामक अभियान चल रहा है। जगह-जगह सरकारी आयोजनों के द्वारा यह दिखाने की कोशिश हो रही है कि देश बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा है और हम विश्व की महाशक्ति बनने के दरवाजे पर खड़े हैं। इस प्रचार अभियान की दिशा मोदी को करिश्माई अलौकिक नेता और उनके व्यक्तित्व के महिमा मंडल के इर्द-गिर्द घूम रही है।
इस शोर-शराबे के बीच 2001 में संसद पर हुए हमले की 22वीं बरसी पर मोदी की अभेद्य संसद के अंदर दो नौजवान घुस गए और उन्होंने रंगीन कलर का धुआं संसद के अंदर फैला दिया। नौजवानों के संसद में कूदने को लेकर अनेक तरह की बहसें होती रहेंगी। तरह तरह के झूठ सच से भरे नैरेटिव गढे जाएंगे और गोदी मीडिया सहित सभी चरण वंदन करने वाले संस्थान और व्यक्ति भाजपा और मोदी को बचाने में एड़ी चोटी का जोर लगा देंगे।
लेकिन इस घटना ने भारत के जलते यथार्थ को दुनिया के सामने ला दिया है। 13 दिसंबर को मुल्क में चौतरफा पल रहा युवा असंतोष और उसके खिलाफ बढ़ता प्रतिरोध संसद में धुआं होकर फूट पड़ा। जैसे ठंडी और शांत धरती के गर्भ में चलने वाली प्राकृतिक क्रियाएं ज्वालामुखी के विस्फोट में आकार ग्रहण करती हैं। संसद की घटना ठीक इसी तरह की प्रतिक्रिया का आभास दे रही है। इसलिए इस परिघटना को समझने के लिए एक नई दृष्टि और दृष्टिकोण की जरूरत है।
पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आने के बाद मोदी के हाथ में सत्ता इस हद तक सिमट गई है कि वह पार्टी और संघ को नकारते हुए सर्वशक्तिमान बन गये और उनका एक छत्र प्राधिकार शासन तंत्र पार्टी पर और स्थापित हो गया है। इसे आप तीन राज्यों में चुनाव के बाद हुए मुख्यमंत्रियों के चयन की प्रक्रिया में खुले तौर पर देख सकते हैं।
जिस समय मोदी भारत में सर्वशक्तिमान नेता के रूप में मीडिया और राजनीतिक विश्लेषकों की नजर में चमक रहे थे। ठीक उस दिन जब वह मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में अपने द्वारा नामित जड़विहीन मुख्यमंत्रियों को शपथ दिलाने के लिए भोपाल और रायपुर की यात्रा पर थे। तो संसद में कुछ और ही नजारा देखने को मिला। जो भावी भारत के लिए एक सर्वथा नया संदेश है।
जिस संसद की प्रशंसा करते हुए मोदी ने अपने विजन और विचार की डींग हांकी थी। जिसे सुनकर देश के आम लोगों के बुद्धि विवेक पर पाखंडी मांडा छा गया। उस समय इवेंट क्रिएट कर ऐसा समां बांधा गया कि मोदी जी द्वारा बनाई गई संसद ‘न भूतों न भविष्यत’ वाली संसद है। ऐसा आभास दिया गया कि संसद भवन भारत की धरती पर किसी मानवेतर शक्ति की रचना है। जिसको भेदना दुनिया की किसी भी शक्ति के लिए असंभव होगा।
अभी पांच महीने ही हुए हैं। जब इस नई संसद के उद्घाटन के समय अनेक तरह के दावे किए गए थे और बड़बोली घोषणाएं की गई थीं। यह सच है कि संघ और मोदी की परिकल्पना में जिस तरह का लोकतांत्रिक भारत अंतर्निहित है।इन 5 महीने में ही वे विचार और व्यवहार नई संसद में दिखाई देने लगे हैं।
मोदी राज के 9 वर्षों में देश के कोने-कोने में सड़कों, चौराहा, धार्मिक त्योहारों, जुलूसों में पहले से एक खास तरह की परिघटनाएं घटित हो रही थीं। मॉब लिंचिंग द्वारा धर्म की पहचान कर हत्या करने, अपमानित करने, घर-कारोबार तबाह करने की कार्रवाइयां राज्य मशीनरी और लंपट गिरोह द्वारा पहले से ही चलायी जा रही थीं।
कानून के राज्य की धज्जियां उड़ाकर बुलडोजर को न्याय के प्रतीक के तौर पर स्थापित कर दिया गया है। फर्जी मुठभेड़ों में दलितों-पिछड़ों और मुस्लिमों को शिकार बनाते तथा बौद्धिक लोकतांत्रिक प्रगतिशील नागरिकों पर अनवरत चल रहे राज्य दमन को देश पहले से ही देख रहा है। अब उसे संसद में पुरजोर तरीके से लागू किया जाने लगा है।
13 दिसंबर के कुछ ही दिन पहले तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा पर बहुमतबाद का संसदीय बुलडोजर चल चुका था। इसके पहले भाजपाई सांसद ने मुस्लिम पहचान के आधार पर एक सांसद को जिस तरह सड़क छाप गालियां दी थीं। उसने मोदी की नई संसद के गरिमा में चांर चांद लगा दिया है। नफरत फैलाने से लेकर विरोध के विचारों को दबाने व संसद में बोलने से रोकने का खेल शुरू से चल रहा है। आसन के तथाकथित प्राधिकार का इस्तेमाल कर विपक्ष को खामोश करने के साथ निलंबन और निष्कासन धड़ल्ले से जारी है।
युवाओं द्वारा संसद में विरोध की आवाज बुलंद करने के बाद 14 तारीख को ही 15 सांसदों को इस बात पर संसद से निलंबित कर दिया गया है कि वे सरकार से संसद में हुई घटना पर वक्तव्य की मांग कर रहे थे। हालांकि नई संसद के पहले सत्र से ही अडानी और सरकार के भ्रष्टाचार के विरोध पर विपक्ष को दंडित करने की कार्रवाई शुरू हो चुकी थी।
नई संसद में कारोबार शुरू होने के बाद सांसदों के सामूहिक निलंबन से लेकर जेल भेजने की प्रक्रिया तेजी से बढ़ गई है। वस्तुत नई संसद लोकतंत्र में व्यक्ति स्वातंत्र और सांसदों के अधिकारों की गारंटी देने के बजाय तानाशाही को वैधता प्रदान कर रही है।
मोदी जी के नेतृत्व में भारतीय लोकतंत्र को बनाना राज्य बनाने (हिंदुत्व कॉर्पोरेट गठजोड़ राज, शास्त्रीय अर्थ में नहीं) का काम नई संसद के साथ पूरा हो चुका है। जो लोग संसद को देश की समस्याओं- जैसे भुखमरी, कुपोषण, बेरोजगारी और नागरिकों की चौतरफा बदहाली- से पैदा हो रहे जनाक्रोश के अभिव्यक्ति का मंच मानते है, उन्हें निराशा हाथ लगी है।
इसकी जगह पर संसदीय संस्थाओं को दमनकारी मंच में बदल देने की कोशिश हो रही हैं। वे नागरिक जो संसद को लोकतंत्र में सेफ्टी वाल्व समझते थे उन्हें निराशा हाथ लगी है। जिस अस्त्र के सहारे ही लोकतंत्र दुनिया में अभी तक जिंदा है और जन आक्रोश को विस्फोटक होने से रोककर इस तंत्र की रक्षा करता रहा है।
उन्हें यह बात तो समझ ही लेना चाहिए कि जब सत्ता का केंद्रीय कारण कुछ लोगों के हाथ में होगा तो वे दमनकारी फासिस्ट चरित्र अख्तियार कर लेते हैं। तो समाज के गर्भ में ऐसी सामाजिक शक्तियां सक्रिय हो जाती हैं जिनकी गति को पहचान पाना तानाशाही तंत्र के लिए संभव नहीं रहता।
आत्मुग्धता और सत्ता के नशा में डूबे शासकों में आवाम के वास्तविक संकट को समझने बूझने की क्षमता चुक जाती है।उनके सूचना के स्रोत या चैनल मर चुके होते हैं। जिस कारण मुल्क के बिगड़ते हुए हालात की सच्ची तस्वीर सत्ता के केंद्र तक नहीं पहुंचती। डरे हुए सलाहकार वही कहते हैं जो शासक को पसंद आता है।
पिछले कई वर्षों से देश के आर्थिक हालात बिगड़ते जा रहे हैं। बेरोजगारी 47 वर्ष का रिकॉर्ड तोड़ चुकी है। भुखमरी का भूगोल बढ़ गया है। कुपोषण से देश की बहुत बड़ी आबादी बुरी तरह से प्रभावित है। हजारों उद्योग धंधे, छोटे कारोबार बंद हो चुके हैं। किसान, नौजवान, छात्र, मजदूर, कारोबारी सबकी हालत बुरी तरह खराब है। अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं भारत के बिगड़ते हुए हालात पर बराबर चेतावनियां दे रही हैं।
इन सभी वर्गों से व्यक्तिगत और सामूहिक आत्महत्या की खबरें आने लगी हैं। यह टिप्पणी लिखे जाते समय राजस्थान में एक परिवार के पांच सदस्यों के सामूहिक आत्महत्या की सूचना मिल रही है। दक्षिण भारत से आये हुए चार सदस्यीय परिवार ने मोदी के ड्रीम शहर क्वेटो के एक धर्मशाला में सामूहिक आत्महत्या कर ली है। इन आत्महत्याओं के मूल में कर्ज, सूदखोरी, बेरोजगारी, भुखमरी का तेजी से बढ़ना है। कानून व्यवस्था की खराब स्थिति, राज्य का निरंकुश और भ्रष्टाचारी चरित्र तथा संवेदनहीनता ने जनता में निराशा और हताशा पैदा की है।
इस बीच शिक्षा के महंगे होने तथा निजीकरण के साथ लोकतांत्रिक विरोध की आवाज को कुचलने का क्रम जारी है। 13 तारीख के 1 दिन पहले ही यह खबर आई थी कि जेएनयू में किसी भी तरह के विरोध पर रोक लगा दी गई है। अगर कोई छात्र किसी तरह का विरोध-प्रतिरोध करते हुए पाया गया तो उसके ऊपर 20 हजार रुपये तक का जुर्माना लगेगा और उसे विश्वविद्यालय से निष्कासित किया जा सकता है।
हमने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के साथ इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्र-छात्राओं का दमन, लैंगिक उत्पीड़न और दलित छात्रों के साथ भेदभाव का व्यवहार देखा है। विरोध करने वालों को निष्कासन के साथ जेल भेजा जा रहा है। रोजगार के सारे दरवाजे बंद हैं।
विश्वविद्यालय, कॉलेज से लेकर सरकारी संस्थानों में नियुक्तियों में पारदर्शिता का अभाव दिख रहा है। ठेकाकारण, निजीकरण और सरकारी सेवाओं में आउटसोर्सिंग द्वारा रखे जा रहे कर्मचारियों का अमानवीय शोषण हो रहा है। जिन शर्तों पर नौजवानों को रोजगार के लिए मजबूर किया जा रहा है। वह 18वीं शदी की बर्बरता की याद दिला रही है।
इस बिगड़े हालात ने युवा शक्ति को आक्रोश से भर दिया है। जिसका विस्फोट 13 दिसंबर को संसद भवन के अंदर और बाहर देखने को मिला। पांच राज्यों के हजारों किलोमीटर दूर रहने वाले नौजवानों ने साझी पीड़ा को साझा करते हुए विरोध का जो रास्ता चुना वह दुनिया में तानाशाही के खिलाफ लड़े जाने वाले संघर्षों की ही राह है।
कर्नाटक के मनोरंजन डी, यूपी के लखनऊ के सागर शर्मा, महाराष्ट्र के अमोल शिंदे, हरियाणा की नीलम आजाद, बिहार के ललित झा और गुड़गांव के विक्की शर्मा को किन सूत्रों ने एकताबद्ध किया होगा इसे समझना होगा। वह आजाद और आत्मनिर्भर जीवन जीने की साझी ख्वाहिश ही है, जिसने इन सभी युवाओं को एक मंच पर ला दिया है।
बीसवीं सदी के तीसरे दशक में भारत में घटी घटनाएं लगता है फिर ऐतिहासिक रूप से दोहराने लगी हैं। 6 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने संसद में बम फेंकते समय घोषणा की थी कि जब सरकारे गूंगी और बहरी हो जाएं तो उन तक तेज धमाके के द्वारा ही अपनी आवाज पहुंचाई जा सकती है। जैसा कि मीडिया के सूत्रों से खबर आ रही है ये सब ‘नौजवान भगत सिंह फैंस’ क्लब के साथ जुड़े हुए थे।
उनकी फेसबुक प्रोफाइल से जानकारी मिल रही है कि वे भगत सिंह और क्रांतिकारियों से संबंधित विचारों को साझा कर रहे थे। वे स्वतंत्रता आंदोलन के शहीदों और नायकों के त्याग कुर्बानी से प्रेरणा लेते हुए दिखाई दे रहे हैं। स्वाभाविक है कि इन नौजवानों ने भगत सिंह जैसे देशभक्त क्रांतिकारियों से ही विरोध की आवाज बुलंद करना सीखा होगा।
यह इतिहास की विडंबना ही है कि इस समय सत्ता में बैठे हुए लोग ‘माफी मांगने वालों के वारिस होने का दावा करते हैं’ तो स्वाभाविक ही है कि अंग्रेजों से ‘फांसी मांगने वालों के वारिस’ दमन और उत्पीड़न के इस दौर को कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं। इस घटना ने एक बार फिर भारत की युवा पीढ़ी के अंदर पलने वाले क्रांतिकारी विचारों-आदर्शों को जीवित कर दिया है।
जहां सत्ता और प्रचार तंत्र द्वारा युवाओं में फैली धार्मिक और उपभोक्तावादी कुसंस्कृति को दिन-रात हवा दी जा रही हो। तो इन्हीं प्रतिकूल परिस्थितियों में परिवर्तनकारी ताकते ही ठोस आकार ग्रहण कर रही होती हैं। इस घटना के तौर तरीके विरोध करने की जगह पर सवाल हो सकती हैं। अनुचित उचित पर चर्चा की जा सकती है।
लेकिन वस्तुतः 10 वर्षों के मोदी काल में लोकतांत्रिक संस्थाएं व अर्थव्यवस्था ढह गई है। समाज धर्म और जाति के विषाक्त विषाणुओं से संक्रमित हो गया है। 13 दिसंबर का युवा प्रतिरोध आरएसएस और भाजपा के खिलाफ एंटी डोज साबित होने जा रहा है। आने वाले समय में देश का युवा वर्ग इन्हें नायक मानकर इनके द्वारा दिखाए रास्ते पर चलने के लिए तैयार हो सकता है।
ऐसे दौर में जब प्रतिरोध करने वाले वर्षों से बिना मुकदमा चलाए जेलों में सडाए जा रहे हों, तो इन लड़के-लड़कियों को इस खतरे का एहसास जरूर रहा होगा और उन्होंने सोच समझ कर अपने जीवन को कुर्बान और ‘अभिव्यक्ति के सभी खतरे’ उठाने का फैसला लिया होगा। शायद उन्हें यह पता रहा होगा कि लोकतंत्र के मंदिर में बैठे लोकतंत्र के रक्षक किस तरह से वहशी दरिंदे हैं और उनके ऊपर टूट पड़ेंगे।
इन युवाओं ने मोदी सरकार और संघ की फासीवादी परियोजना को चुनौती दे डाली है। आश्चर्य हो रहा है कि सर्विलांस राज्य के इस युग में ये युवा जो कई राज्यों से हैं। कैसे एक सटीक व्यवहारिक योजना पर अमल करने में कामयाब हो गए। कई राजनीतिक विश्लेषक 13 दिसंबर की घटना को 6 अप्रैल 1929 की उस घटना के साथ जोड़ रहे हैं। जब भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने उपनिवेश कालीन असेंबली में बम फेंक कर भारत के करोड़ों नागरिकों को जगा दिया था।
लगातार क्रूर और मानव विरोधी होती जा रही व्यवस्था को नौजवानों ने जिस साहस का परिचय देते हुए चुनौती दी है और बेरोजगारी, भुखमरी, तानाशाही, मणिपुर की महिलाओं, दलितों, अल्पसंख्यकों के साथ अत्याचार जैसी राज्य प्रायोजित समस्याओं को देश के राजनीतिक पटल पर विचार विमर्श के एजेंडे के बतौर उछाल दिया है, उसके लिए उन्हें कोटि-कोटि सलाम।
(जयप्रकाश नारायण किसान नेता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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