उत्तर प्रदेश में जमीन, विवाद और अपराध की भयावह सच्चाई दमन से नहीं दब सकेगी

नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश का बेहद पिछड़ा हुआ पूर्वांचल का एक जिला देवरिया अचानक ही अक्टूबर के पहले हफ्ते में राष्ट्रीय खबर का हिस्सा बन गया। 2 अक्टूबर, 2023 को देवरिया के एक गांव फतेहपुर में एक जमीन के स्वामित्व को लेकर हुए विवाद में 6 लोग मारे गये। इसमें एक ही परिवार के 5 लोगों को बेहद निर्ममता के साथ मार दिया गया। इस विवाद में जाति का मसला भी उभरकर सामने आया लेकिन यह विवाद का मुख्य हिस्सा नहीं बना।

7 अक्टूबर को एक बार फिर खबर आई कि कानपुर देहात में भूमि विवाद को लेकर 2 लोगों की हत्या कर दी गई है। इस तरह की खबरों के साथ ही गोरखपुर से एक और खबर आई जिसमें अम्बेडकर जन मोर्चा की ओर से भूमि वितरण की मांग को लेकर एक कार्यक्रम करने और ज्ञापन देने के दौरान हुए कथित विवाद में 10 अक्टूबर, 2023 को एक दर्जन से अधिक लोगों को गिरफ्तार कर कई संगीन धाराएं लगाकर जेल भेज दिया गया।

गिरफ्तार लोगों में इस कार्यक्रम में वक्ता के तौर पर आये वे बुद्धिजीवी भी थे जो आयोजक नहीं थे। इसमें लेखक और पत्रकार रामू सिद्धार्थ और दलित चिंतक, पूर्व आईपीएस अधिकारी एस.आर. दारापुरी भी थे। इसमें कई यूट्यूबर भी हैं जो इस कार्यक्रम को रिकॉर्ड कर रहे थे। साथ ही, इस आयोजन में शामिल होने आये मुख्यतः दलित समुदाय के वे लोग थे जो सरकार से हर परिवार को एक एकड़ जमीन की मांग पर लामबंद हुए थे। आयोजक श्रवण कुमार निराला को भी गिरफ्तार किया गया।

इस संदर्भ में उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से होने वाली कार्रवाइयां मुख्यतः ‘कानून व्यवस्था’ को बनाये रखने और ‘दोषी’ को दंडित करने की चिंता से संचालित हैं। देवरिया के मसले में ‘बुलडोजर न्याय’ की बात भी खूब चली, लेकिन यह फिलहाल सफल नहीं हो पाया। लेकिन, गोरखपुर में दलित परिवारों को एक एकड़ जमीन की मांग को लेकर हुए प्रदर्शन पर विभिन्न आरोप व धाराएं लगाकर प्रदर्शन में आये बहुत से लोगों को गिरफ्तार जरूर कर लिया गया।

गिरफ्तार लोगों पर सार्वजनिक संपत्ति नुकसान निवारण अधिनियम और विद्युत अधिनियम, 2023 की धाराएं लगाई गईं है। पहले एफआईआर के बाद इसमें 307 और 120बी जैसी संगीन धाराएं भी जोड़ दी गईं। और, निचली अदालत ने इन्हें जमानत देने से मना कर दिया और उन्हें जेल भेज दिया।

उत्तर प्रदेश में भूमि विवाद और अपराध की स्थिति

नेशनल अपराध रिकॉर्ड ब्यूरों के अनुसार 2017-2021 के बीच जमीन और संपत्ति के विवाद में 3021 हत्याएं हुईं। यदि प्रतिवर्ष के रिकॉर्ड के हिसाब से देखा जाये तब 2018 में 1,323 लोग इन विवादों में मारे गये थे। गिरि इंस्टिट्यूट ऑफ डेवेलपमेंट स्टडीज के असिस्टेंट प्रोफसर प्रशांत त्रिवेदी के अनुसार राज्य में क्षत्रिय और ब्राह्मण की हिस्सेदारी कुल जनसंख्या में 7 और 9 प्रतिशत है लेकिन उनकी जमीन में हिस्सेदारी 19 और 18 प्रतिशत है। पिछड़ा, अति पिछड़ा और दलितों की जनसंख्या का प्रतिशत क्रमशः 15, 27 और 21 प्रतिशत है जबकि जमीन पर हिस्सेदारी क्रमशः 20, 18 और 9 प्रतिशत है।

प्रोफसर प्रशांत त्रिवेदी बताते हैं कि ‘जनसंख्या और जमीन भूस्वामित्व के बीच की यह असमानता कई बार गांवों में आपसी झगड़ों की ओर ले जाती है।’ (देखेंः हिंदुस्तान टाइम्स, 3 अक्टूबर, 2023, रोहित कुमार सिंह की रिपोर्ट, वेब पेज से उद्धृत)। यदि हम 28 दिसम्बर, 2017 को छपे बिजनेस स्टैंडर्ड की खबर को देखें, तब हमें यह पता चलता है कि प्रदेश की 2,333 राज्य राजस्व कोर्ट जिसमें तहसील से लेकर कमिश्नरी ऑफिस तक आता है, में 7 लाख केस अनिस्तारित थे।

उस समय की सरकार जो अभी भी चल रही है, इसे हल करने के लिए एक अभियान चलाने का निर्णय लिया था। 6 अक्टूबर, 2023 को द हिंदुस्तान की रिपोर्ट के अनुसार केवल लखनऊ राजस्व न्यायालय में ही 6.5 हजार मुकदमे हैं, जो मुख्यतः पैमाइश और अंश निर्धारण से जुड़े हुए हैं। निस्तारण और भूमि विवाद के बने रहने और कई बार निस्तारण के बाद भी भूमि पर कब्जा का प्रश्न बना रह जाता है। खासकर, यदि भूमि का अधिकार गरीब और कमजोर समुदाय से आ रहा हो। इस संदर्भ में 13 जुलाई, 2019 को सोनभद्र में 11 आदिवासी समुदाय के लोगों को मार देने की घटना काफी भयावह थी।

भू-स्वामित्व की हकीकत

वैसे तो उत्तर-प्रदेश में 1951 में ही जमींदारी व्यवस्था का उन्मूलन कर दिया गया था और उत्तर प्रदेश को ‘समाजवाद’ की राह पर ले चलने का संकल्प उस समय की तत्कालीन सरकार ने ले लिया था। उस समय एक व्यक्ति या परिवार के पास जमीन रखने की सीमा को भी तय किया गया और इसे आने वाले वर्षों में समय-समय पर पुनर्चिन्हित भी किया गया।

1959 में पांच सदस्यों वाले परिवार या एक व्यक्ति को अच्छी उत्पाद वाली जमीन पर 40 एकड़ का हक दिया गया। यदि जमीन की उत्पादकता कम है तो इसमें 8 एकड़ और जुड़ जाना था। बागवानी, चारागाह जैसे प्रावधान भी छूट के कारक थे।

वहीं ‘समाजवाद’ की ओर जाने के लिए यह भी तय किया गया था कि यदि किसी गांव में 15 एकड़ से अधिक अतिरिक्त जमीन निकलती है तो उस पर पंजीकृत कोऑपरेटिव खेती का प्रावधान किया जाएगा। इसमें भूमिहीनों, खेतिहर मजदूरों को जोड़ा जाना था। यदि जमीन इससे कम निकलती है तो इसमें कुछ भूमिधरों को भी जोड़े जाने का प्रावधान बनाया गया। बहरहाल, आज विभिन्न प्रावधानों और शर्तों का इतिहास आगे बढ़ते हुए अंतिम रूप से प्रति व्यक्ति को 12.5 एकड़ जमीन स्वामित्व की सीमा पर आ गया है।

यदि हम पूर्वांचल के आंकड़ों को देखें, तब वहां 84 प्रतिशत लोगों के पास एक हेक्टेयर से भी कम जमीन है। वैसे तो औसत के हिसाब से यह स्थिति पूरे प्रदेश की है। लेकिन, आंकड़ों की तह में जाने पर स्थिति कुछ और ही रूप लेकर आती है जिसमें एक तरफ बड़ी भूमि के मालिक दिखने लगते हैं और दूसरी ही भूमिहीनों की संख्या बढ़ती हुई दिखती है।

पश्चिमी उत्तर-प्रदेश में एक एकड़ से कम जमीन मालिकों की संख्या 70 प्रतिशत है। अखिल भारतीय स्तर के आंकड़ों में यह प्रतिशत 65 है। निश्चित ही पूर्वांचल की स्थिति आंकड़ों के हिसाब से काफी बदतर है। यह स्थिति जमीन की सिंचाई और उत्पादकता में भी है जिसमें यह इलाका पश्चिमी उत्तर प्रदेश से पीछे है। उत्तर-प्रदेश की कुल सीडीआर 48 प्रतिशत है लेकिन पूर्वांचल में यह महज 27 प्रतिशत है। यहां सीडीआर बैंकों द्वारा ऋण देने और साथ ऋण लेने की क्षमता का प्रदर्शन है। (देखेंः बिजनेस स्टैंर्ड, 21 जनवरी, 2023, विरेंद्र सिंह रावत की रिपोर्ट, वेब पेज-अंग्रेजी)।

इस संदर्भ में, एग्रो इकॉनोमिक रिसर्च सेंटर, यूनिवर्सिटी ऑफ इलाहाबाद की 2013 की रिपार्ट देखना काफी उपयुक्त होगा। यह रिपोर्ट उत्तर प्रदेश की खेती की 2011-12 की स्थिति को बयां करती है। प्रो. रामेंदू रॉय और हासिब अहमद की रिपोर्ट निम्न आंकड़े प्रस्तुत करती हैः

ऑपरेशनल लैंड होल्डिंग: 2010-11, उत्तर प्रदेश

ये आंकड़े भी यही दिखा रहे हैं कि लगभग 93 प्रतिशत लोग सीमांत और छोटे किसान हैं। एक अन्य रिपोर्ट भी यही दर्शाती है। लगभग 2 प्रतिशत से भी कम हिस्सा बड़े किसानों का है। ये आंकड़े दिखा रहे हैं कि 35430 किसान ऐसे हैं जिनके पास सीलिंग की तय सीमा से अधिक जमीनें हैं। जहां एक तरफ लगभग दो करोड़ लोग महज 67 लाख हेक्टेयर जमीन पर खेती करते हैं वहीं लगभग 35 हजार बड़े किसान लगभग 4 लाख हेक्टेयर जमीन पर खेती कर रहे हैं।

2015-16 के 10वें खेती गणना में उत्तर प्रदेश में किसानों की संख्या 2 करोड़ 38 लाख गिनी गई थी, जो सबसे बड़ी संख्या है। इस प्रदेश के कुल परिवारों का 63 प्रतिशत हिस्सा खेती में लगा हुआ जबकि भारत की औसत जोत 1.15 हेक्टेयर के अनुपात में यह बेहद कम हिस्सा 0.80 हेक्टेयर पर काम करता है। निश्चित ही जमीन पर दबाव भारत के औसत से कहीं अधिक है।

नाबार्ड के अखिल भारतीय वित्तीय समाहितीकरण सर्वे 2016-17 की रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश के खेतिहर परिवार की मासिक औसत आय 6,668 रुपये है जो भारत के राष्ट्रीय औसत 8,931 रुपये से 34 प्रतिशत कम है। इसके पीछे एक बड़ा कारण सिंचाई की उपलब्धता, ऋण, बाजार और न्यूनतम मूल्य निर्धारण आदि है।

लागत करने का दबाव मुख्यतः संसाधनों पर कब्जा और श्रमिकों को कम भुगतान देने की प्रवृत्ति में सबसे अधिक दिखता है। इनके परिणाम को हम उत्तर प्रदेश में जमीनों का विवाद, दलित और गरीब समुदाय के खिलाफ जोर-जबरदस्ती और अपराध और महिलाओं के खिलाफ अपराध की संख्या में अभिव्यक्त होता हुआ देख सकते हैं।

यदि हम 1990-91 के आंकड़ों की नजर से देखें तो सीमांत और गरीब किसानों की संख्या थोड़ी सी बढ़ी हुई दिखती है। जबकि बड़े और मध्यम किसानों की कुल जोत का प्रतिशत लगभग स्थिर है। अखिल भारतीय स्तर के औसत के अनुपात में उत्तर प्रदेश में जमीन जोत का औसत थोड़ा सा ही नीचे की ओर आया है। ये आंकड़े दिखा रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में एक तरफ जमीन के वितरण का आंकड़ा कुल जोत के वितरण के आंकड़ों में कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हुआ नहीं लग रहा है।

दूसरी ओर, खेती पर भयावह निर्भरता यह भी दिखा रहा है कि उत्तर प्रदेश में शहरी रोजगार के अवसर काफी कम हैं। अभी हाल में आये आंकड़े दिखा रहे हैं कि मनरेगा में काम की स्थिति संतोषजनक नहीं है। ऐसे में मुफ्त राशन वितरण की विभिन्न योजनाएं एक तात्कालिक लाभ तो दिला रही हैं, लेकिन संसाधनों पर निरन्तर अधिकार खोते लोगों के लिए यह योजना महज जीवन बचाये रखने से अधिक भूमिका निर्वाह करती हुई नहीं दिखती है।

रास्ते की तलाश

उत्तर प्रदेश में भूमि सुधार को लेकर रेडिकल आंदोलन कानपुर, हरदोई, उन्नाव, लखीमपुर के इलाके में 1970 के दशक में उठा और यह 1980 तक आते-आते कमजोर होता गया। एक राजनीतिक पार्टी और नेता के बतौर चौधरी चरण सिंह ने जरूर भूमि के मसले का उठाया। जब वह कांग्रेस में थे, तब उनकी मांग को एक संकीर्ण नजरिये की तरह देखा गया। खासकर, 1947 की विभीषिका के बाद आये सिखों को जब तराई के इलाकों में बसाया जा रहा था। उनकी मांग थी कि पूर्वांचल के ज्यादातर किसान भूमिहीन हैं, उन्हें ही इन जमीनों पर बसाया जाये।

इसी तरह वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जमींदारी उन्मूलन के दौरान की अतिरिक्त जमीनों पर कब्जेदारी को लेकर भी कई सवाल उठा रहे थे। इसके साथ ही वह सरकार द्वारा जमीनों के अधिग्रहण के एवज में दिये जाने वाले भुगतान से बेहद आहत थे। उत्तर प्रदेश की कुल जमीन वितरण की संख्या में भले ही दलित समुदाय अधिक दिखे, लेकिन कुल जमीन पर कब्जा और बढ़ती जोत और आकार की संख्या में मध्यम जातियां बेहतर स्थिति में थीं, खासकर, बेनामी, चारागाह, ग्राम सभा और कोऑपरेटिव पर स्वामित्व के संदर्भ में।

लेकिन, अति पिछड़ी जातियां की स्थिति बदतर बनी रही। 1990-2000 के दशक में कुछ लाभ जरूर दलित समुदाय को मिला लेकिन औसत जोत और संख्या के हिसाब से देखा जाय तो यह ऊंट के मुंह में जीरा भी नहीं था। इसी दौर में खेती की लागत में हुई बेहिसाब वृद्धि ने श्रम पर जोर और अधिक बढ़ा दिया और उत्तर प्रदेश दलित उत्पीड़न के नजरिये से सबसे खराब राज्यों में गिना जाने लगा।

उत्तर प्रदेश की राजनीति पर धर्म और जाति का वर्चस्व कोई नई बात नहीं रही है। इसका राजनीतिक अर्थशास्त्र यही है कि यहां के संसाधनों पर एक या दूसरी जातियां अपना वर्चस्व बनाये हुए हैं। यह वर्चस्व सिर्फ गांव में ही नहीं है, यह शहरों तक फैलता गया है। उत्तर प्रदेश का कपड़ा उद्योग कानपुर से लेकर पूर्वांचल के गांवों तक फैला हुआ था, वह धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है।

कानपुर, एक औद्योगिक शहर था, वहां अब धूल से भरी हुई सड़कें हैं, और बर्बाद हो गये कारखानों की पुरानी इमारतें बची हुई हैं। नोएडा, गाजियाबाद ही मुख्यतः वे औद्योगिक इलाके हैं जहां काम की संभावना बनी हुई है। सारे दावों के बावजूद, फिलहाल कोई नया औद्योगिक क्षेत्र उभरता हुआ नहीं दिख रहा है, जिससे कि उत्तर प्रदेश के गांवों पर बने हुए दबाव में कमी आने की संभावना दिखे।

ऐसे में, यदि गरीब और दलित समुदाय सरकार को ज्ञापन देकर एक एकड़ जमीन की मांग कर रहा है, तब उसे गुनाह किस तरह मान लिया जाए। यह जरूर कहा जा सकता है कि गोरखपुर में प्रदर्शन कर रहे लोगों की मांग को लेकर प्रशासन को ऐतराज नहीं था, वे कानून का उल्लंघन कर रहे थे; जैसा कि तथाकथित तौर पर प्रशासन की ओर दावा किया गया है।

अब यह मसला तो कोर्ट में ही हल होगा। लेकिन, इससे स्वीकार करना मुश्किल है कि उत्तर प्रदेश में जमीन का मसला हल हो गया है। सच्चाई यही है कि उत्तर प्रदेश में जमीन का मसला हमेशा ही सुलगता रहा है और ज्यादातर मामलों में यह कोर्ट कचहरी में फंसा हुआ दिखता है। निश्चय ही, अंबेडकर जन मोर्चा की मांग उत्तर प्रदेश की राजनीति के लिए नई है। यदि यह मांग बढ़ी तो निश्चय ही राजनीतिक पार्टियों के लिए एक चुनौती बनेगी। ऐसा नहीं है कि यह कोई गैर संवैधानिक मांग है।

दरअसल खुद भारत के कई कानून, प्रावधान और भूमि से जुड़े एक्ट भूमिहीनों को जमीन मुहैया कराने की गारंटी देते हैं और कई राज्यों ने इस तरह की योजनाओं को कार्यान्वित भी किया है। यह तो उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार पर निर्भर है कि वह इस मांग पर किस तरह का रवैया रखेगी। फिलहाल, तो उसका रवैया इसकी मांग उठाने वालों के प्रति अच्छा नहीं दिख रहा है।

एक न्यायपूर्ण मांग किसी पार्टी और उसकी सरकार के रवैये से नहीं जनता के समर्थन और उसकी पक्षधरता से ही निर्धारित होती है। उम्मीद है, उत्तर प्रदेश में जमीन के मसले पर एक न्यायपूर्ण पक्षधरता का निर्माण होगा और गोरखपुर में गिरफ्तार लोगों पर डाले गये मुकदमों को वापस लिया जाएगा और न्याय की प्रक्रिया लागू होगी।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)

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