फ्रांस में हिंसा और आगजनी की वजह पुलिस के पास शूटिंग का अधिकार एवं व्यवस्थागत भेदभाव

फ्रांस में एक 17 वर्षीय युवक नाहेल (अल्जीरियाई मूल का फ़्रांसीसी नागरिक) की फ्रेंच पुलिस द्वारा कार रोकने के आदेश का उल्लंघन करने पर गोली मारकर हत्या के साथ ही पूरा देश उबाल पर है। पिछले चार दिनों से पेरिस सहित विभिन्न शहरों में आगजनी और लूट के वीडियो पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बने हुए हैं। भारत भला इससे कैसे अछूता रह सकता है। लेकिन भारत में फ्रांसीसी समाज की इस परिघटना को अपने हितसाधन के लिए जिस प्रकार से इस्तेमाल किया जा रहा है, उसे देखकर यूरोप के धुर दक्षिणपंथी पार्टियों को भी दांतों-तले ऊंगली दबाने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है। 

जी न्यूज ने फ्रांस में चल रहे विवाद पर अपने दर्शकों को एक फर्जी यूरोपीय डॉ और प्रोफेसर का संदेश बढ़ाकर पूरे मामले को सत्तापक्ष और योगी आदित्यनाथ की बुलडोजर नीति की प्रशंसा में खड़ा कर दिया है। जी न्यूज के अनुसार “फ्रांस की राजधानी पेरिस में पुलिस द्वारा एक किशोर को गोली मारे जाने की घटना के बाद देश भर में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन जारी हैं। फ्रांस के इन गंभीर हालात के बीच यूरोप के डॉक्टर और प्रोफेसर एन.जॉन कैम ने भारत से मांग की है कि वह फ्रांस में दंगों की स्थिति से निपटने के लिए उत्तर प्रदेश के सीएम योगी को भेजे। उन्होंने ट्वीट करके कहा, “भारत को फ्रांस में दंगों की स्थिति को नियंत्रित करने के लिए योगी आदित्यनाथ को अवश्य भेजना चाहिए, वह 24 घंटे के भीतर सब ठीक कर देंगे।”

ट्विटर पर बड़े पैमाने पर यूजर इस मीडिया की खिंचाई करते हुए नकली प्रोफेसर एन. जॉन कैम का पर्दाफाश का रहे हैं। असल में इस व्यक्ति का नाम नरेंद्र विक्रमादित्य यादव है, और साइबराबाद पुलिस ने इसे मई 2019 में ब्राउनवेल्ड अस्पताल के मुखिया के तौर पर 100 कर्मचारियों की तनख्वाह न देने और अवैध हिरासत में रखने के आरोप में गिरफ्तार किया था। 

भारत में हालात यह हैं कि लगभग सभी मीडिया समूहों के सनसनीखेज खबरों को आगे करने वाले पत्रकार फ्रांस की घटना पर इस खबर को आगे ठेले जा रहे हैं। उनकी मनःस्थिति साफ बताती है कि वे भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के साथ उत्तर प्रदेश सरकार के द्वारा किये जा रहे व्यवहार को न सिर्फ उचित मानते हैं, बल्कि इनका साफ मानना है कि यूरोपीय देशों और अमेरिका में धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देना बंद कर भारत के सबसे विशाल आबादी वाले राज्य में योगी राज के बुलडोजर न्याय को अगर लागू कर दिया जाये, तो फ्रांस की समस्या रातों-रात खत्म हो जायेगी।

अचानक से भारत में भक्तों की पूरी टोली फ्रांस के सवाल पर कूद पड़ी है। उसके द्वारा #quranburning #FranceRiots #franceViolence #FranceHasFallen #FranceProtest जैसे हैशटैग चलाकर फ्रांस में आगजनी और लूटपाट की घटनाओं की अपने हिसाब से व्याख्या की जा रही है।

सवाल है मणिपुर में तो 100 से अधिक लोग मारे गये, उसके बारे में कुछ बोलने में ऐसी तत्परता क्यों नहीं दिखाई जा रही है? क्या वहां पर योगी आदित्यनाथ का बुलडोजर मॉडल लागू नहीं करना चाहिए? मुख्यमंत्री भी भाजपा के ही हैं, जिनके पक्षपातपूर्ण व्यवहार की आलोचना हर कुकी समुदाय के लोगों की जुबान पर है। मणिपुर में शांति प्रयास के लिए विपक्षी नेता राहुल गांधी को रोकने में जब पहले दिन मणिपुर की सरकार और पुलिस प्रशासन नाकाम रहा, तो मुख्यमंत्री द्वारा अपने इस्तीफे की घोषणा का प्रहसन देश ने देखा। इसके बावजूद राहुल गांधी द्वारा दोनों समुदायों के दुखों पर मरहम लगाने की कोशिश का सकारात्मक प्रभाव पड़ा है, और सिर्फ कानून और व्यवस्था को चाक-चौबंद करने की गृहमंत्री के आदेश की सीमा खुलकर सामने आ चुकी है।

उन्हें शायद इस बात का जरा भी अहसास नहीं है कि फ्रांस सहित यूरोप के तमाम देश नाजीवाद और फासीवाद के दौर में किस हद तक बर्बादी के दौर से पहले ही गुजर चुके हैं। फ्रांस जैसा देश यदि दुनिया में किसी एक चीज के लिए आज भी शान से सिर उठाकर जी सकता है तो वह है उसका धर्मनिरपेक्ष स्वरूप, जिसके चलते आज भी देश में बहु-राष्ट्रीय सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक बहुलता का समावेशी स्वरूप बड़े स्तर पर विद्यमान है। वास्तविकता तो यह है कि फ्रेंच सोसाइटी में नस्लभेद की अवधारणा ही वहां का समाज नहीं मानता, हालांकि कई पर्यवेक्षक इससे भिन्न राय रखते हैं।

फ्रांस सरकार के 2019 के आंकड़े के अनुसार, देश में 1,052 ईसाई-विरोधी, 687 यहूदी-विरोधी और 154 मुस्लिम-विरोधी कृत्य हुए थे। बता दें कि फ्रांस की कुल आबादी 2019 तक 6.70 करोड़ थी। फ्रांस के मानवाधिकार आयोग की 2016 की रिपोर्ट के मुताबिक मात्र 8% फ्रेंच ही थे, जिनका मानना था कि कुछ नस्ल बाकियों से श्रेष्ठतर हैं।

फ्रांस का कानून नस्लवाद के खिलाफ है। 1905 में फ्रांस में कानून के द्वारा राज्य और चर्च के पूर्ण अलगाव के साथ राज्य के धर्मनिरपेक्ष स्वरुप को मान्यता दी गई थी। 1905 का कानून स्कूलों, राजकीय कर्मचारियों सहित शिक्षकों के लिए किसी भी प्रकार के राजनीतिक, धार्मिक प्रतीकों को धारण करने की मनाही का निर्देश देता है। राजनीतिक दलों के नेताओं को किसी विशेष धार्मिक परिधान को धारण कर सार्वजनिक स्थल पर जाने की मनाही है। भारत में इस बात की कल्पना तक नहीं की जा सकती, लेकिन हम फ्रांस को नसीहत दे रहे हैं।

2016 के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के अनुसार 33% फ्रांसीसी लोग नस्ल के मामले में खुद को कलरब्लाइंड मानते हैं, जबकि 8% का मानना है कि कुछ नस्लें दूसरों से बेहतर हैं। लेकिन 2015 के आतंकवादी हमलों के बाद से फ्रांस में इस्लामोफोबिया के प्रसार की स्थिति उत्पन्न हुई है, और नस्लवादी घटनाओं में वृद्धि देखने को मिली है। इसके बाद से ही मुस्लिम विरोधी कृत्यों और धमकाने की शिकायतों में 223% की वृद्धि हुई और हर आतंकी हमले के बाद के महीने में हिंसक नस्लवादी हमलों की घटनाओं में तेजी आई है। लेकिन चूंकि ये आंकड़े पुलिस के डेटा पर आधारित हैं, इसलिए आयोग इसे पूरी वास्तविक तस्वीर नहीं मानता है। उसका मानना है कि फ्रांसीसी पुलिस नस्लीय मुद्दों के निवारण के मामले में अन्यायपूर्ण है।

आयोग का यह निष्कर्ष काफी रोचक है कि 34% फ्रांसीसी आबादी इस्लाम को नकारात्मक दृष्टि से देखती है और 50% इसे राष्ट्रीय पहचान के खिलाफ खतरा मानती है। इसके अलावा 41% आबादी का मानना है कि यहूदियों का धन-दौलत के साथ एक अनोखा रिश्ता है और उनमें से 20% का मानना है कि यहूदियों के पास फ्रांस में बहुत अधिक ताकत है। इसके अलावा फ्रांस में रोमानी अल्पसंख्यक समूह भी है, जिनके बारे में आधे से अधिक लोग अभी भी मानते हैं कि रोमा चोरी एवं अन्य अवैध गतिविधियों से अपना जीवन यापन करते हैं। इसके बावजूद फ्रांस का समाज बड़े पैमाने पर समावेशी मान्यताओं का सबसे बड़ा पैरोकार है।

हालांकि हाल के वर्षों में नव-उदारवादी अर्थव्यस्था एवं चीन के एक महाशक्ति के रूप में उभरने के साथ-साथ विश्व के दो-ध्रुवीय हिस्से में विभाजित होते जाने की प्रकिया ने यूरोपीय संघ की स्थिति को अनिश्चितता के गर्त में डाल दिया है। अपनी ऊर्जा जरूरतों पर रूस की निर्भरता को खत्म करने और अमेरिकी डिक्टेट का अनुसरण करते जाने पर इनके सामने चीन के विस्तृत बाजार में अपनी पैठ को खोने का संकट खड़ा हो गया है। पिछले कुछ दशकों से अधिकांश प्रमुख यूरोपीय देश जहां खुद को ग्रीन एनर्जी से लैस कर औद्योगिकीकरण से दूर हो रहे थे, भारी मुद्रास्फीति और घटती क्रय-शक्ति एवं पेंशन की उम्र में बढ़ोत्तरी जैसे मुद्दे फ्रांस के समाज में भारी असंतोष को जन्म दे रहे हैं।  

नस्ल फ्रांस में दशकों से एक वर्जित विषय रहा है, और आधिकारिक तौर पर कलर-ब्लाइंड सार्वभौमिकता के सिद्धांत के लिए प्रतिबद्ध है। नाहेल की हत्या के मद्देनजर, फ्रांसीसी नस्लवाद विरोधी कार्यकर्ताओं ने पुलिस के व्यवहार के बारे में एक बार फिर से अपना विरोध जाहिर किया है।

इसके बावजूद 4 दिनों से जारी हिंसा के बाद आज फ्रांस का प्रशासन कुछ वर्ष पहले देश में पुलिस को आत्मरक्षा में कार चालक को गोली मारने के अपने आदेश पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर है। पिछले कुछ वर्षों में पुलिस गोलीबारी में वृद्धि को 2017 में एक क़ानूनी सुधार से जोड़कर देखा जा रहा है, जिसके तहत उन परिस्थितियों को आधार मिलता है जिसमें एक पुलिसकर्मी बन्दूक का उपयोग कर सकता है।

नीस में 2016 के इस्लामी हमले के बाद लागू हुआ यह कानून पुलिसकर्मियों को गोली चलाने की अनुमति प्रदान करता है, यदि उसे लगता है कि कार चालक आम लोगों को नुकसान पहुंचा सकता है। आलोचकों का कहना है कि इस प्रावधान के बाद से फ्रांस में पुलिस-गोलीकांड में मरने वालों की संख्या में छह गुना बढ़ोत्तरी हुई है।

वामपंथी सीजीटी पुलिस यूनियन के कैले के मुताबिक यह कानून पूरी तरह से अस्पष्ट है, और यह ज्यादा बैखोफ होकर शूटिंग करने की अनुमति देता है। 2017 के इस कानून को रद्द किया जाना चाहिए। आंतरिक मंत्रालय ने अपने वक्तव्य में कहा है कि शुक्रवार रात 994 गिरफ्तारियां की गईं, 2,500 से अधिक फायरिंग की घटनाएं हुईं। इससे पहले देशभर में 917 लोगों को गिरफ्तार किया गया, और हमलावरों ने 500 इमारतों को निशाना बनाया,, 2,000 वाहनों को जला दिया गया और दर्जनों दुकानों में तोड़फोड़ की गई।

आंतरिक मंत्रालय के अनुसार, पिछली रात गिरफ़्तारियों की संख्या अब तक की सबसे अधिक थी। आंतरिक मंत्रालय के मंत्री गेराल्ड डर्मैनिन ने दावा किया है कि हिंसा “बहुत कम तीव्रता” वाली थी। फिलहाल सैकड़ों पुलिस एवं अग्निशामककर्मी घायल हुए हैं, इसमें पिछली रात के 79 लोग भी शामिल हैं। हालांकि अधिकारियों द्वारा प्रदर्शनकारियों के घायल होने की संख्या के बारे में जानकारी नहीं जारी की गई है। सरकार द्वारा बार-बार शांति और कड़ी पुलिस व्यवस्था की अपील के बावजूद शुक्रवार को भी दिनदहाड़े हिंसा की वारदाते हुईं हैं।

पूर्वी शहर स्ट्रासबर्ग में एक ऐप्पल स्टोर को लूट लिया गया, जहां पुलिस को आंसू गैस का सहारा लेना पड़ा। इसके साथ ही सूत्रों के अनुसार पेरिस-क्षेत्र के शॉपिंग मॉल में एक फास्ट-फूड आउटलेट की खिड़कियां तोड़ दी गईं, जहां अधिकारियों ने एक बंद स्टोर में घुसने की कोशिश कर रहे लोगों को खदेड़ दिया।

राष्ट्रपति मैक्रॉन ने आपातकाल की स्थिति की घोषणा करने पर रोक लगा दी है, जिसका इस्तेमाल 2005 में इसी तरह की परिस्थितियों में किया गया था। इसके बजाय सरकार ने रात भर में 45,000 पुलिस की तैनाती कर छुट्टियों पर गये पुलिसकर्मियों को काम पर वापस बुलाया। देश भर में सभी सार्वजनिक बसों एवं ट्राम सेवाओं को रात के समय बंद करने का आदेश दिया गया है, क्योंकि दंगाइयों के निशाने पर मुख्य रूप से ये वाहन रहे हैं। इसके साथ ही विभिन्न सोशल मीडिया के नेटवर्कों को चेतावनी जारी की गई है कि वे खुद को हिंसा के आह्वान के माध्यम के रूप में इस्तेमाल न होने दें।

मैक्रॉन ने भी उन सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर निशाना साधा, जिन्होंने बर्बरता और कारों और इमारतों को आग लगाए जाने की नाटकीय तस्वीरें प्रसारित की हैं। स्नैपचैट और टिकटॉक पर निशाना साधते हुए उन्होंने कहा है कि इनका इस्तेमाल अशांति फैलाने के लिए किया जा रहा है और नकलची हिंसा के लिए माध्यम के रूप में काम किया जा रहा है।

नाहेल की मां, जिनकी पहचान मौनिया एम के रूप में की गई है, ने फ्रांस 5 टेलीविज़न को बताया कि वह उस पुलिस अधिकारी पर नाराज़ थीं, लेकिन सामान्य तौर पर सभी पुलिसवालों पर उनकी नाराजगी नहीं है। उन्होंने कहा, “उसने अरबी जैसा दिखने वाला एक बच्चा देखा, जिसकी वह जान लेना चाहता था। कोई पुलिस अधिकारी अपनी बंदूक लेकर हमारे बच्चों पर गोली नहीं चला सकता, हमारे बच्चों की जान नहीं ले सकता।”

पिछले वर्ष भी यातायात नियमों का पालन नहीं करने वाले 13 लोगों को फ्रांसीसी पुलिस ने गोली मार दी थी। इस वर्ष नाहेल समेत तीन अन्य लोगों की भी इसी तरह की परिस्थितियों में मौत की खबर है। इन मौतों ने फ्रांस में पुलिस प्रशासन को अधिक जवाबदेह बनाये जाने की मांग को प्रेरित किया है। इस घटना को अमेरिका के मिनेसोटा में पुलिस द्वारा जॉर्ज फ्लॉयड नामक अश्वेद युवा की हत्या के बाद नस्लीय न्याय के लिए चले विरोध प्रदर्शन के यूरोपीय संस्करण के रूप में भी देखा जा रहा है।

इस सप्ताह के विरोध प्रदर्शनों ने 2005 में हुए तीन सप्ताह चले दंगों की याद दिला दी है, जिसके बाद 15 वर्षीय बाउना ट्रोरे और 17 वर्षीय ज़ायद बेना की मौत हो गई थी, जो क्लिची-सूस-बोइस में एक बिजली सब-स्टेशन में पुलिस की धर-पकड़ से बचने के लिए छिपते समय बिजली की चपेट में आ गए थे। ब्रिटेन के प्रतिष्ठित अखबार गार्डियन में आज पत्रकार रोखैय्या डीआलो ने फ़्रांस में दशकों से पुलिस की नस्लीय हिंसक प्रवृति की प्रकृति और इतिहास का लेखाजोखा पेश किया है।

इसी प्रकार न्यूयॉर्क टाइम्स में कांस्टेंट मेहयूत का लेख साफ़-साफ़ इंगित करता है कि किस प्रकार कानून में बदलाव के बाद से फ्रेंच पुलिस के पास कार चालक को गोली मार देने के अधिकार हासिल हो गये हैं, जबकि उन्हें जरूरी प्रशिक्षण तक नहीं दिया गया है। कई वर्षों तक फ्रेंच पुलिस की ओर से मांग की जाती रही कि भगोड़े कारचालकों से आत्मरक्षा सहित खतरे की विभीषिका के मद्देनजर पुलिस को गोली चलाने की अनुमति मिलनी चाहिए, जिसे कानून-निर्माताओं द्वारा ख़ारिज किया जाता रहा था।

लेकिन 2017 में एक के बाद एक आतंकी हमलों के बाद अंततः सरकार से प्राप्त अधिकारों का पिछले 6 वर्षों में दुरुपयोग हुआ है, उसने आज फ़्रांस में पुलिस प्रशासन की स्वेच्छाचारिता के साथ-साथ फ़्रांसीसी समाज में अश्वेत समुदाय के खिलाफ संस्थागत नस्लीय भेदभाव को भी उघाड़कर रख दिया है।

यह गुस्सा पिछले कई वर्षों से संचित हो रहा था, लेकिन प्रतिहिंसा ने फ़्रांस के सामने कई नए सवाल भी खड़े कर दिए हैं। निश्चित रूप से राष्ट्रपति मैक्रॉन के पास कोई स्पष्ट वैचारिक स्पष्टता का अभाव है, धुर-दक्षिणपंथी मेरिन ली पेन का दल देश में नस्लीय भेदभाव की हवा को तेज कर फ़्रांसीसी संरचना को पलटने की फिराक में कई दशकों से लगा हुआ है। फ़्रांस जैसे बूढ़े होते यूरोपीय देश को खुद को प्रतिस्पर्धी बनाये रखने के साथ-साथ सबसे सभ्य समाज के रूप में बनाये रखने के लिए अपने भीतर दुबारा से झांकने की जरूरत है, क्योंकि वैश्विक आर्थिक-भू-राजनीतिक बदलाव ने उसकी मूल प्रकृति को भी कहीं न कहीं प्रभावित किया है।

(रविंद्र पटवाल ‘जनचौक’ की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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