इजरायल-फिलिस्तीन विवाद की जड़ें साम्राज्यवादी प्रोजेक्ट की ओर इशारा करती हैं

नई दिल्ली। ताजा जानकरी बता रही है कि गाजा पट्टी में मौतों की संख्या 770 हो चुकी है और 4,000 लोग घायल बताये जा रहे हैं। जबकि क़ब्ज़े वाले वेस्ट बैंक में कम से कम 18 फिलिस्तीनी नागरिक मारे गए हैं और 100 घायल हुए हैं। हम सभी जानते हैं कि शनिवार के दिन इजरायल के ऊपर अप्रत्याशित भीषण हमला हुआ, जिसने इजरायल ही नहीं पूरी दुनिया को भौंचक्का कर दिया था। इस हमले में 900 से अधिक इजरायली सैनिक और आम नागरिक मारे गये हैं।

पूरी दुनिया में आतंक का पर्याय बन चुके इजरायल की ख़ुफ़िया एजेंसी मोसाद के रहते ऐसा कैसे संभव हो गया? इस काम को अंजाम दिया है उग्रवादी संगठन हमास ने, जिसका आधार गाजा पट्टी में है। इस संगठन को अमेरिका सहित दर्जन भर यूरोपीय देशों ने आतंकी संगठन करार दे रखा है, लेकिन संयुक्त राष्ट्र ने इसे आतंकवादी संगठन घोषित नहीं किया है।

फिलिस्तीनी आबादी प्रमुख रूप से दो क्षेत्र में रह रही है। एक है गाजापट्टी और दूसरा वेस्ट बैंक। यदि मानचित्र पर देखें तो गाजा स्ट्रिप (पट्टी) वाकई में एक पतली सी पट्टी ही है, जिसकी कुल लंबी मात्र 45 किमी और चौड़ाई 7 किमी होगी। इतने छोटे से क्षेत्रफल में 23 लाख फिलिस्तीनियों को किसी दड़बे जैसे स्थान पर रहने के लिए मजबूर किया गया है। इनमें से अधिकांश बच्चे हैं।

सबसे आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि गाजा स्ट्रिप के एक तरफ का हिस्सा इजरायल की सीमा से लगा है तो दूसरा सिरा भूमध्यसागर से लगता है। एक छोटा सा हिस्सा मिस्र देश के साथ साझा होता है। जमीनी हिस्से पर इजरायल और मिश्र की पहरेदारी है और समुद्र में भी इजरायल की बादशाहत है। गाजापट्टी को दुनिया की सबसे बड़ी खुली जेल भी कहा जाता है, जिस पर आये-दिन इजरायली सेना के द्वारा हवाई बमबारी की जाती है।

वेस्ट बैंक का क्षेत्रफल गाजापट्टी की तुलना में लगभग 15 गुना अधिक है, लेकिन जनसंख्या घनत्व गाजापट्टी के (4,987 प्रति वर्ग किमी) की तुलना में (469) काफी कम है। वेस्ट बैंक में अरब और यहूदी दोनों बस्तियां हैं। फिलिस्तीनी अरब 21.55 लाख (72) और यहूदियों की संख्या 8.50 लाख (28.28%) है।

जून 1967 से पहले वेस्ट बैंक क्षेत्र जॉर्डन के कब्जे में था, जिसे इजरायल ने 6 दिन चले युद्ध में हथिया लिया था। बाद के दौर में सामरिक दृष्टि से वेस्ट बैंक में इजरायली सेना को बसाया जाने लगा। संयुक्त राष्ट्र में इजरायल के “स्थायी कब्जे” के खिलाफ याचिका के बावजूद वहां पर लगातार यहूदी बस्तियों को बसाने और फिलिस्तीनियों को उनके स्थानों से बेदखल करने की प्रक्रिया जारी है। 

पिछले 10 वर्षों से जब भी कोई छिटपुट संघर्ष की घटना होती है, तो बदले में इजरायल के पास एक काम तो यूं ही बैठे-ठाले मिला हुआ है, वह है दो-चार मिसाइल गाजापट्टी पर छोड़ने का। इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष को विश्व का सबसे लंबा चलने वाला संघर्ष भी कहा जाता है, जिसमें फिलिस्तीनियों को ही हर संघर्ष के बाद बेदखली और जान-माल से हाथ धोना पड़ा है।

90 के दशक से पूर्व दुनिया दो महाशक्तियों के संघर्ष के चलते द्विध्रुवीय बनी हुई थी। किसी एक देश पर हाथ डालने का मलतब था दूसरी महाशक्ति उसके पक्ष में खड़ी हो जाएगी, और परमाणु युद्ध की आशंका को देखते हुए युद्ध के व्यापक होने पर विराम लग जाता था।

यही वह दौर था जब औपनिवेशक दासता से मुक्त तीसरी दुनिया के देशों का गुट निरपेक्ष आंदोलन (एनएएम) भी फल-फूल रहा था, और फिलिस्तीनी नेता यासेर अराफात की धूम हुआ करती थी। गुट निरपेक्ष आंदोलन का भारत जैसा देश सिरमौर था, और भारत ने इजरायल के साथ किसी भी प्रकार का राजनयिक संबंध नहीं बनाये रखा था, क्योंकि उसका व्यवहार फिलिस्तीनियों के प्रति रंगभेद नीति के समान था।

लेकिन 90 के दशक में सोवियत संघ के पराभव एवं पूरी दुनिया में नव उदारवादी नीतियों ने बड़ी तेजी से दुनिया को एक-ध्रुवीय बना डाला। संयुक्त राज्य अमेरिका की दादागिरी और इजरायल की पीठ पर उसके हाथ ने उस पूरी तरह से उद्दंड बना डाला। यही वजह है कि फिलिस्तीनियों के वाजिब हक की लड़ाई लड़ने वाले यासिर अराफात का असर भी जाता रहा और उनकी मौत के बाद उनके संगठन पीएलओ के नेतृत्व का भी वह असर लगभग खात्मे की कगार पर पहुंच गया।

इतिहास गवाह है कि 90 के दशक से शांतिपूर्ण तरीके से न्यायिक हकों की मांग करने वाले देशों, संगठनों के समर्थन में आवाजें उठनी भी धीरे-धीरे मद्धिम पड़ने लगीं। भारत सहित तीसरी दुनिया के अन्य देश भी उदारवादी अर्थनीति के साथ विकास, विदेशी पूंजी निवेश और पश्चिमी देशों के साथ अपने संबंधों को सुधारने की दौड़ में, अपने पुराने साथियों को एक-एक कर छोड़ते चले गये। यहां तक कि अरब मुल्कों तक ने एक तरह से फिलिस्तीन से मुंह मोड़ सा लिया था। ले देकर एक ईरान देश ही था, जिसे खुद बड़े पैमाने पर आर्थिक प्रतिबंधों के दौर से आज भी गुजरना पड़ रहा है।

1948 से पहले तक अरब मुल्क में एक देश हुआ करता था, जिसका नाम था फिलिस्तीन। यह अरब मुल्क था, जिसमें तब करीब 3,000 की संख्या में यहूदियों की आबादी भी थी। लेकिन प्रथम विश्व युद्ध से 48 तक अंग्रेजी हुकूमत का जिस प्रकार दुनिया के अधिकांश हिस्सों में आधिपत्य था, वह यहां पर भी था।

दुनिया भर में यहूदियों की आबादी बिखरी हुई थी, लेकिन उनके पास कहने को अपना कोई मुल्क नहीं रह गया था। जर्मनी में हिटलर के शासनकाल के दौरान यहूदियों के साथ हुए कत्लेआम, गैस चैम्बर में डालकर एक साथ हजारों यहूदियों के सामूहिक नरसंहार की कहानियों से हमारे इतिहास, साहित्य और फिल्में भरी पड़ी हैं। समूची मानवता आज तक उन रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानियों को याद कर मनुष्य के ऐसे विद्रूप स्वरूप के किसी भी चिन्ह को लेकर सावधान रहने की गुहार लगाती रहती है।

1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के खात्मे के बाद यूरोप में बचे हुए यहूदियों की सार-संभाल और उनके लिए अपने देश की कल्पना को साकार करने के पीछे ब्रिटिश साम्राज्यवादी देश और नव-साम्राज्यवादी अमेरिका की योजना भी काम कर रही थी, जिसे उनके मानवतावादी पहले के एजेंडे के पीछे तब छिपा दिया गया था।

यहूदियों के भी इतिहास में येरुशलम का इलाका उनकी शुरुआत की कहानी बयां करता है, जिसकी जडें आज से 2000 वर्ष पूर्व तक जाती हैं। कहा जाता है कि रोमन साम्राज्य ने यहूदियों को इस क्षेत्र से खदेड़ा था। वे इसके बाद यूरोप के लगभग सभी देशों और बाद के दौर में अमेरिका में जाकर बस गये, लेकिन लगभग सभी देशों में कहीं न कहीं उनके लिए उपेक्षा, तिरस्कार और ईर्ष्या भाव रहा है, भले ही यह घृणा के उस स्वरूप को कभी छू नहीं पाया, जैसा कि जर्मनी में हिटलर के शासनकाल में जर्मन रेस की श्रेष्ठता और पवित्रता के नाम पर जर्मनी, ऑस्ट्रिया, फ़्रांस, पोलैंड और रूस सहित जिस भी देश पर जर्मनी ने कब्जा किया, सबसे पहले वहां के यहूदियों को उसने चुन-चुनकर मारने का काम किया था।

विवादित क्षेत्र का दो-राज्य समाधान लगभग 1947 में अस्तित्व में आया, जब संयुक्त राष्ट्र महासभा ने स्वेच्छा से प्रस्ताव 181 पारित किया, जिसमें जॉर्डन नदी के पश्चिम में फिलिस्तीन से एक नया राज्य बनाने का प्रस्ताव था: एक में यहूदी और दूसरे में अरब फिलिस्तीनियों के लिए निर्धारित किया गया। लेकिन 1948 के बाद हालात बड़ी तेजी से बदले। उस दौरान दुनियाभर से यहूदी एक-एक कर इजरायल आते गये, और उन्होंने इस भूमि को अपनी पवित्र धार्मिक भूमि और मातृभूमि के रूप में अपनाया।

लेकिन फिलिस्तीनी साफ़ देख रहे थे कि यह बसाहट उन्हें लगातार उनकी सदियों की भूमि से बाहर कर देगी। जनसंख्या के लिहाज से भी उनके पास कम भूमि ने उनके भीतर लगातार असंतोष को घर करने दिया। नतीजा 1948 में इजरायली-अरब संघर्ष में हुआ, और इसमें 7,00,000 फिलिस्तीनियों को पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ा, जिन्हें बिना नागरिकता हासिल हुए ही जॉर्डन, लेबनान, सीरिया, वेस्ट बैंक और गाजा में शरण लेनी पड़ी थी।

इसी के साथ हमें ध्यान में रखना होगा कि यही वह अरब मुल्क के देश हैं, जहां से बड़ी मात्रा में जमीन के भीतर से तरल सोना दुनिया को मिल रहा था। वह था तेल, जिस पर आने वाले कई दशकों तक समूची दुनिया का भविष्य टिका हुआ था। यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियों के पराभव के साथ ही संयुक्त राज्य अमेरिका के उदय ने इजरायल के माध्यम से खाड़ी देशों में प्रोक्सी युद्ध और अपने प्रभुत्व को बरकरार रखने के लिए आधार प्रदान कर दिया था। ऐसा कहा जाता है कि यदि ब्रिटेन ने इजरायल न भी बनाया होता, तो उस दशा में अमेरिका को एक नया इजरायल ईजाद करना पड़ता, लेकिन वह करता जरूर।

इसे समझने के लिए हमें ईरान के उस दौर को याद रखना चाहिए जब शाह की हुकूमत को तख्तापलट कर किस प्रकार एक बार फिर से ईरान में राजशाही की शुरुआत की थी, और अमेरिकी हितों को बरकरार रखा गया था। 70 के दशक में इस्लामिक क्रांति और आयतुल्ला खुमैनी के नेतृत्व ने शक्ति-संतुलन को बदल कर रख दिया था, जिसके चलते बाद के दौर में इराक-ईरान युद्ध दुनिया ने देखा।

इस संघर्ष में जॉर्डन ने 1950 में वेस्ट बैंक पर अपना नियंत्रण हासिल कर लिया था, जबकि मिस्र ने गाजा पर कब्ज़ा कर लिया। यह व्यवस्था 1967 तक चली जिसे छह-दिनों के युद्ध में इजरायली सेना ने जीतकर इन क्षेत्रों को अपने कब्जे में कर लिया था। लेकिन 1967 से पहले भी छिटपुट हिंसा का दौर जारी रहा, जिसमें 1956 में कल्किल्या, कुफ्र कासिम और खान यूनिस के गांवों में और 1966 में अस-सामू में कुछ बड़े नरसंहार की घटनाएं देखने को मिलती हैं।

इसी के साथ 1964 में फ़िलिस्तीनी मुक्ति संगठन की स्थापना काहिरा में हुई, जिसने सशस्त्र क्रांति के माध्यम से “फ़िलिस्तीन की मुक्ति” की लड़ाई लड़ने के लिए खुद को समर्पित किया था, जिसे पीएलओ ने 1993 तक जारी रखा। 1974 में अरब लीग द्वारा फिलिस्तीनी लोगों के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में पीएलओ को मान्यता दी गई।

लेकिन इसी बीच 1967 में गाजा पट्टी, वेस्ट बैंक, गोलन हाइट्स और मिस्र के सिनाई क्षेत्र पर इजरायल की सैन्य हस्तक्षेप ने ताजा रक्तपात को जन्म दे दिया था, और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा प्रस्ताव 242 पारित कर इजरायल को इन क्षेत्रों से हटने का आदेश जारी किया गया, लेकिन इजरायल ने सुरक्षा परिषद की बात अनसुनी कर अपनी मनमानी जारी रखी।

इजरायल ने 1982 में लेबनान पर आक्रमण किया, जबकि फिलिस्तीनी क्षेत्रों में पहला इंतिफादा दशक के अंत में इस कब्जे के विरोधस्वरूप शुरू हुआ। हालांकि, समझौते की उम्मीद में पीएलओ ने संयुक्त राष्ट्र के संकल्प 242 और 338 को स्वीकार कर औपचारिक रूप से इजरायल राज्य को पहली बार मान्यता दे दी। लेकिन 1992 में शांति वार्ता फिर रुक गई, और कोई ठोस समाधान नहीं निकाला गया।

1993 में ओस्लो समझौते पर इजरायली पीएम यित्ज़ाक राबिन और पीएलओ के अध्यक्ष यासर अराफात द्वारा हस्ताक्षर किए गए, जिसमें फिलिस्तीनी अंतरिम स्व-सरकार, फिलिस्तीनी राष्ट्रीय प्राधिकरण के निर्माण और कब्जे वाले क्षेत्रों से इजरायली रक्षा बलों की वापसी का प्रावधान था। 1995 में एक दूसरा समझौता, ओस्लो II के तहत वेस्ट बैंक और गाजा के कुछ हिस्सों में फिलिस्तीनी स्वायत्तता प्रदान को लेकर समझौता हुआ, लेकिन इसके बावजूद इसे राष्ट्र का दर्जा नहीं दिया गया।

2002 में दूसरे इंतिफादा तक संघर्ष-विराम जारी रहा, लेकिन इजरायल द्वारा वेस्ट बैंक के शहरों पर फिर से कब्जा कर लिया गया था। यह एक अस्थिर करने वाली घटना थी, जिसमें 2004 में अराफात की मौत के बाद हालात और खराब हो गये, और एक प्रकार से फिलिस्तीनी मकसद के लिए शांतिपूर्ण समाधान के प्रयासों के लिए यह एक बड़ा झटका था।

यही वह दौर है जब एक बार फिर से इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष में हिंसा की वापसी होती है। 2006 में इजरायल द्वारा लेबनान में हिजबुल्लाह के खिलाफ युद्ध की घोषणा के साथ-साथ गाजा में हमास पर बार-बार हमले शुरू हो गये थे, जिसमें ऑपरेशन कास्ट लीड (2008), ऑपरेशन पिलर ऑफ डिफेंस (2012) और ऑपरेशन प्रोटेक्टिव एज (2014) शामिल हैं। वर्ष 2017 और 2018 में नकबा दिवस के अवसर पर दोनों बार हिंसा में उत्तरोत्तर वृद्धि देखने को मिली।

उधर अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में डोनाल्ड ट्रम्प के निर्वाचन ने हालात और बिगाड़ दिए। इजरायली पीएम बेंजामिन नेतन्याहू से अपनी दोस्ती को मजबूत करते हुए ट्रम्प ने अमेरिकी दूतावास को तेल अवीव से यरूशलेम में स्थानांतरित कर यहूदी धार्मिक भावनाओं को हवा देने का काम किया। इतना ही नहीं गोलान हाइट्स को इज़रायली क्षेत्र के रूप में घोषित कर व्यापक अंतरराष्ट्रीय सहमति की अवहेलना करते हुए इजरायल के अवैध रूप से कब्जे को मान्यता दे दी।

हाल के दिनों में मौजूदा अमेरकी राष्ट्रपति जो बाइडेन द्वारा इजरायल-सऊदी अरब समझौते की पहल ने फिलिस्तीनियों के लिए एक आजाद नागरिक के रूप में जीने के स्वप्न को लगभग खत्म करने की ओर कदम बढ़ा दिया था। पिछले 3 दशकों से फिलिस्तीन मुक्ति की लड़ाई और उसके लिए समर्थन मद्धिम पड़ता जा रहा था। 2023 की शुरुआत से अब तक करीब 250 फिलिस्तीनियों को इजरायली सेना के द्वारा किसी न किसी बहाने मौत के घाट सुला दिया गया है।

एक ऐसी आबादी, जिसके बारे में 20 मई 2021 को संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने यूएन के अपने भाषण में कहा, “अगर धरती पर कहीं नर्क है, तो वह गाजा में बच्चों का जीवन है।” अपने वक्तव्य में उन्होंने आगाह करते हुए कहा था कि हर गुजरते दिन के साथ, यह जोखिम बढ़ रहा है कि हिंसा इजरायल और अधिकृत फिलिस्तीनी क्षेत्र से बाहर फैल सकती है।

उन्होंने इजरायल से अधिकतम संयम बरतने का आह्वान करते हुए हमास से रॉकेट और मोर्टार के अंधाधुंध प्रयोग को रोकने का आग्रह किया था। इसके साथ युद्धविराम को सुनिश्चित करने के लिए मिस्र, जॉर्डन और कतर के साथ-साथ संगठन के कूटनीतिक प्रयासों का वर्णन करते हुए, उन्होंने सदस्य देशों से गाजा में इसके मानवीय प्रयासों का समर्थन करने का भी आह्वान किया था।

लेकिन हम सभी जानते हैं कि ये बातें इजरायल के लिए कोई मायने नहीं रखती हैं। अपनी ही भूमि में निर्वासित, बाड़े में कैद बंदियों का जीवन जी रहे फिलिस्तीनियों के लिए पूरी दुनिया में कोई जगह नहीं है। शांति के सभी प्रयोगों और उपायों को आजमाने के प्रयास यासिर आराफात की मृत्यु के साथ पहले ही खत्म हो चुके थे। ऐसे में पहले ही तिल-तिल कर मरने और अपने हिस्से की जमीन पर इजरायली यहूदी बस्तियों को खुशहाल देखने वाली घेटोआइजेशन की शिकार आबादी के लिए उग्रवादी हमास जैसा संगठन ही एकमात्र विकल्प बचता है।

2005 में गाजा क्षेत्र में उसने चुनावी जीत के साथ पहले ही साबित कर दिया था कि उसका जनाधार पहले की तुलना में बढ़ चुका है। शनिवार को इजरायल पर बड़े पैमाने पर आक्रमण कर हमास ने एक आखिरी हल्ला बोल दिया था, जिसका अंजाम उसे बखूबी पता था। आज इजराइल की सेना में 3 लाख की संख्या में भर्तियां की जा रही हैं। सूचना है कि करीब 10,000 की संख्या में इजरायली सेना गाजा की सीमा पर तैनात कर दी गई है।

इजरायली रक्षा मंत्री ने अपने बयान में साफ़ कर दिया था कि वे गाजा में रहने वाले फिलिस्तियों को पानी, गैस, बिजली सहित सभी जरूरी चीजों से महरूम करने जा रहे हैं, क्योंकि वे उन्हें जंगली जानवर मानते हैं। इजरायल इस बार गाजापट्टी को समूल नाश करने के लिए कमर कस रहा है।

क्या 23 लाख फिलिस्तीनियों, जिन्हें पहले ही खुली जेल में रखा गया है, को अपनी प्रतिशोधात्मक कार्रवाई में यहूदियों की धुर-दक्षिणपंथी सरकार द्वारा हलाक़ कर दिया जायेगा, या इजरायली संयुक्त राष्ट्र में दो-राज्य के अस्तित्व को मान्यता देकर उन फिलिस्तीनी हम वतनों के साथ शांतिपूर्ण-सहअस्तित्व के साथ रहने की ओर हाथ बढ़ाएंगे, जिन्होंने कभी भी उनके साथ वैसा व्यवहार नहीं किया जैसा कि पश्चिमी देशों की जातीय श्रेष्ठता बोध ने उनके खिलाफ अब तक के मानव इतिहास का सबसे घृणित अध्याय रचा था?

इतिहास एक बार फिर से खुद को दोहरा रहा है, 40 के दशक में नाज़ी जर्मनी के हाथों यहूदियों का कत्लेआम जारी था, क्या 2023 में यह भूमिका बदल गई है? हर बार जबरा ही कमजोर से निहत्था रहते हुए जीने की भीख मांगेगा या उसका हाथ पकड़कर सहारा देगा। इजरायल में यहूदियों के बीच ऐसी शक्तियां बड़ी संख्या में हैं, लेकिन वैश्विक साम्राज्यवादी शक्तियों के हाथ की कठपुतली सरकार और सत्ता प्रतिष्ठान की बुनावट ही इस प्रकार की है, जो इजरायल को एक आतंकवादी राज्य घोषित किये जाने की ओर धकेल रही हैं।

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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