RSS और शंकराचार्यों के बीच का तनाव क्या अपनी ऐतिहासिक तार्किक परिणति की ओर बढ़ रहा है?

राम मंदिर पर शंकराचार्यों के द्वारा उठाए गए धर्मशास्त्रीय विवाद में अब स्थिति साफ़ तौर पर उस तार्किक परिणति तक जाती हुई दिखाई देने लगी है, जो वास्तव में आरएसएस का लंबे अरसे से एक सबसे गहरा अभीप्सित लक्ष्य रहा है।

अभी से छः दशक पहले, सन् 1964 में आरएसएस ने जिस उद्देश्य से विश्व हिंदू परिषद की स्थापना की थी, आज मोदी और मोहन भागवत का मानना है कि वह उचित समय आ गया है, जब पूरी शक्ति के साथ उस उद्देश्य की पूर्ति की ओर कदम बढ़ा दिए जाए।

आज सबको इस बात को जानने की ज़रूरत है कि आरएसएस के सांगठनिक ताने-बाने में राज सत्ता को हासिल करने के लिए जो महत्व कभी जनसंघ, और अभी भारतीय जनता पार्टी का है, उसी प्रकार जनता के आध्यात्मिक जगत की धर्म सत्ता पर अपना एकाधिकार क़ायम करने के लिए उतना ही बड़ा महत्व विश्व हिंदू परिषद (विहिप) का रहा है।

खुद को मूलतः एक सांस्कृतिक संगठन बताने वाले आरएसएस के लिए आध्यात्मिक जगत पर अधिकार के सपने का कितना मूल्य हो सकता है, इसे शायद किसी को भी अलग से समझाने की ज़रूरत नहीं है।

आरएसएस के तमाम इतिहासकारों ने उसके इतिहास में जनसंघ के गठन के बाद विश्व हिंदू परिषद के गठन को जिस प्रकार एक सबसे बड़ी घटना माना है, वह अनायास नहीं है।

आरएसएस के इतिहासकारों में एक प्रमुख गंगाधर इंदूरकर, जो खुद भी एक कट्टर सांप्रदायिक व्यक्ति और आरएसएस के स्वयंसेवक थे, वे आरएसएस के नागपुर कार्यालय में काम करते थे और उसके प्रचार विभाग का दायित्व संभाले हुए थे, उन्हें गांधी हत्या के आरोप में पकड़ कर जेल में भी डाला गया था, उनकी एक पुस्तक है- “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : अतीत और वर्तमान”।

इस पुस्तक में उन्होंने विहिप के बारे लिखा था कि “संघ द्वारा स्थापित अन्य संस्थाओं की अपेक्षा इस संस्था के विषय में गुरुजी (गुरु गोलवलकर) को अधिक आत्मीयता थी। मेरे इस विचार के लिए सबूत भी है। वह यह कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अतिरिक्त किसी अन्य संस्था के साथ गुरुजी का नाम नहीं जुड़ा, किंतु विश्व हिंदू परिषद के लिए 22 व्यक्तियों का जो प्रथम ट्रस्ट बना, उसमें तेरहवें क्रमांक पर श्री माधव सदाशिव गोलवलकर, यह नाम दिखाई देता है।” (पृः 138)

इसमें ही आगे इंदूरकर की एक टिप्पणी से हिंदू धर्माचार्यों के प्रति आरएसएस के अंदर के लोगों की भावनाओं का भी परिचय मिलता है जिसमें वे लिखते हैं-

“किसी भी शंकराचार्य का आज वह सम्मान नहीं, जो कि बीस-पच्चीस या पचास वर्ष पूर्व मिलता था। अनेक लोगों को संदेह होता है कि शायद इन धर्माचारयों की सत्ता बनाए रखने के लिए विश्व हिंदू परिषद के माध्यम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही तो वह कार्य नहीं कर रहा है।” ( इंदूरकर, वही, पृः 142)

इस प्रकार ज़ाहिर है कि विहिप का गठन हिंदू समाज की तमाम धार्मिक संस्थाओं के खिलाफ एक अन्य सत्ता केंद्र की स्थापना की साजिश के तौर पर किया गया था। आरएसएस के सांगठनिक सिद्धांत का एक महत्वपूर्ण तत्व है- एकचालाकानुवर्तित्व का सिद्धांत। इसका अर्थ है नेता के आदेश का आंख मूंदकर पालन करना। सब प्रकार के भेदों को परे करके सब को एक रंग में रंग देना होगा।

संगठन के संचालन का यह सिद्धांत आरएसएस पूरे देश और इसकी सभी संस्थाओं पर लागू करना चाहता है। इसी दृष्टि से उन्होंने विहिप के ज़रिए धार्मिक जगत को अपने एक रंग में रंगने का बीड़ा उठाया था।

हर कोई जानता है कि हिंदू धर्म कोई पैगंबरी धर्म नहीं रहा है। भारतीय दर्शन का वैविध्य ही हिंदू धर्म के क्षेत्र में भी प्रतिफलित हुआ है। ब्राह्मणों के छह मान्य दर्शनों में भी तीन सांख्य, वैशेषिक और मीमांसा ईश्वर के अस्तित्व को मानने से इनकार करते हैं। अन्य भारतीय दर्शनों को मिला लेने पर भारतीय चिंतन परंपरा में अनीश्वरवादियों की संख्या काफी बड़ी दिखाई देती है।

बौद्ध और जैन दर्शन अनादि, अपौरुषेय वेद तथा ईश्वर से साफ इनकार करते हैं। चार्वाक तो घोर भौतिकवादी थे। संस्कृत में प्रसिद्ध कहावत ही है- “वेदाविभिन्नाः स्मृतयो विभिन्ना नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम्।” यही हिंदू समाज का मूल चरित्र और विशिष्टता रही है। अनीश्वरवादी बुद्ध और महावीर को भी यहां समान सम्मान के साथ स्मरण किया जाता है।

आरएसएस ने भारतीय दर्शन की इस वैविध्यपूर्ण विशिष्टता को हमेशा अपने रास्ते की एक सबसे बड़ी बाधा समझा तथा गिरजाघरों, मस्जिदों की तरह किसी एक संस्था के द्वारा हिंदू धर्मावलंबियों के जीवन को चालित करने की योजना बनाई। हिंदू धर्म को एक पैग़म्बरी धर्म के ढांचे में ढालने की कोशिश के लिए ही विहिप का गठन किया गया।

इंदूरकर ने अपनी पुस्तक में इस बात को लक्ष्य किया कि विहिप के गठन के द्वारा पहली बार आरएसएस ने “आध्यात्मिक विचारों के प्रचार के कार्य को अपनाया।”

इंदूरकर ने इसे आरएसएस के जीवन में एक बड़े मोड़ की तरह रखा है। उनके शब्दों में-

“संघ व्यवस्था में समस्त भारतीय परंपराओं को स्वीकार किया गया किंतु वहां किसी भी प्रकार की उपासना पद्धति का सहारा नहीं है। विशिष्ट उद्दिष्ट के कारण परिषद् में आध्यात्मिक तथा धार्मिकता का भी समावेश हुआ। परिषद् की स्थापना के समय इस बात का भी ध्यान था कि हिंदुत्व के नैतिक तथा आध्यात्मिक सिद्धांत नए युग में उनके पुराने स्वरूप में उपयोगी नहीं होंगे, इसलिए उनका संसार में प्रचार करने के हेतु आधुनिक काल के उपयुक्त यह प्रावधान भी उसमें जोड़ दिया गया है।”

यहां इंदूरकर के द्वारा प्रयुक्त ‘विशिष्ट उद्दिष्ट’ पद पर गौर करने की ज़रूरत है। जिस आरएसएस के लिए उपासना पद्धति आदि का कभी कोई मतलब नहीं था, उसी ने ‘विशिष्ट उद्दिष्ट’ से, अर्थात् ख़ास मक़सद से अपने यहां आध्यात्मिकता और धार्मिकता का समावेश कराया।

खुद इंदूरकर में धार्मिक आचार-आचरण को लेकर कैसी वितृष्णा का भाव था, इसका परिचय उनके इस कथन से मिलता है-

“विश्व हिंदू परिषद् ने जो कार्य हाथ में लिए हैं उनके संदर्भ में एक और विचार मन में आता है। किसी तिथि को गणेश मंदिर में, मंगलवार को देवी मंदिर में अथवा शनिवार को हनुमान जी के मंदिर में भक्तजनों की जो भीड़ दिखाई पड़ती है, उसका वास्तव में क्या कारण है? क्या सच में भक्ति भावना बढ़ी है अथवा सर्वसाधारण मनुष्य की मानसिक कमजोरी का यह द्योतक है।…

…गरीब लोगों को इस प्रकार से लूटने वाला महाजन उसी काले धन से मंदिर बनवाता है और वह धर्म कहलाता है, छोटे पैमाने पर यह भी वैसा ही उदाहरण है। आज की परिस्थिति है कि झूठ और बेईमानी के कार्य के लिए मनुष्य का मन उसे कहीं पर दबोच खसोटता रहता है। उससे मुक्त होने का सहारा ढूंढ़ने के लिए वह मंदिर में जाता है। यह धार्मिक प्रवृत्ति नहीं है। जो इस प्रवृत्ति का नेतृत्व करते हैं, उनके हाथों समाज परिवर्तन होना असंभव है।” (गंगाधर इंदूरकर, पूर्वोक्त, पृ. 143)

यह भाव अकेले इंदूरकर का नहीं था, आरएसएस के नेतृत्व से लेकर सामान्य स्वयंसेवकों तक के मन का भाव था। इस प्रकार, जिन बातों पर संघ को ही कोई विश्वास नहीं था, उन्हीं बातों को उसने सिर्फ़ इसलिए अपनाया ताकि धर्म के जगत पर उसके वर्चस्व का कोई रास्ता खुल सके। इस लेखक ने तीस साल पहले अपनी पुस्तक “आरएसएस और उसकी विचारधारा” में विहिप के साथ जुड़े आरएसएस के इस ख़ास उद्देश्य के बारे में काफ़ी विस्तृत चर्चा की थी।

आज जब आरएसएस मोदी के ज़रिए देश की सत्ता पर अपना एकाधिकार क़ायम कर लिया है, तब उसका मानना है कि यही सबसे उचित समय है जब वह धर्म के जगत के भी सब स्वतंत्र पीठासीनों को अपदस्थ करके खुद को इस जगत एकछत्र सम्राट घोषित कर दे।

राम मंदिर की मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा को लेकर धर्म शास्त्र की कसौटियों के आधार पर ख़ास तौर पर सभी शंकराचार्यों के साथ जो विवाद उत्पन्न हुआ है, मोदी और आरएसएस इस विवाद को अपने अभीप्सित लक्ष्य की पूर्ति के लिए एक सबसे मुफ़ीद अवसर के रूप में देख रहे हैं। उनमें अन्य कई विषयों की तरह ही, धर्म जगत पर अपना झंडा गाड़ने को लेकर ‘अभी नहीं को कभी नहीं का’ जुझारू भाव पैदा हो गया है। वर्चस्व की अपनी इस लड़ाई में वे राम मंदिर को लेकर पैदा हो रही जन-भावनाओं का भी भरपूर इस्तेमाल कर पाने की उम्मीद रखते हैं। 

इसीलिए हमारी यह धारणा निराधार नहीं है कि अब हिंदू धर्माचार्यों और आरएसएस के बीच का अन्दरूनी द्वंद्व तेज़ी के साथ अपने तार्किक समाधान की दिशा में बढ़ रहा है। 2024 के चुनाव में मोदी यदि फिर से जीत जाते हैं, तो यह तय है कि हिटलर की शिक्षा पर अमल करते हुए आरएसएस अपने घूंसे की ताक़त के बल पर शंकराचार्यों की तरह की धर्म पीठों को भी अपने कदमों तले ले आने की किसी भी हरकत से बाज नहीं आयेगा।

अभी जिन धर्माचार्यों को हिंदू धर्मावलंबियों पर अपने प्रभाव का भारी गुमान है, हम देखेंगे कि 2024 के चुनाव के साथ ही कैसे इन सबको दिन में तारे नज़र आने लगेंगे और कैसे उस चुनाव को हिंदू धर्म के एकमात्र प्रवक्ता के रूप में आरएसएस और विहिप के चयन के जनमत संग्रह के रूप में पेश किया जाएगा।

(अरुण माहेश्वरी वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं।)

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