नितिन गडकरी ने मल्लिकार्जुन खड़गे और जयराम रमेश को भेजा मानहानि नोटिस, जानें मामला

यह कहानी शुरू होती है लल्लनटॉप के जमघट कार्यक्रम में 29 फरवरी को नितिन गडकरी के एक वक्तव्य से, जिसे कांग्रेस पार्टी के मीडिया सेल ने उठा लिया और बताने की कोशिश की कि कैसे नरेंद्र मोदी सरकार में केंद्रीय परिवहन मंत्री तक सरकार की नीतियों से नाखुश हैं। इस कार्यक्रम के एक छोटे से हिस्से को कांग्रेस पार्टी के मीडिया सेल ने अपने प्रचार में इस्तेमाल किया, जिसके बारे में नितिन गडकरी ने आपत्ति दर्ज करते हुए, संदर्भ से काटकर दिखाने का आरोप लगाते हुए मानहानि का मुकदमा ठोंक दिया है।

कांग्रेस ने अपने ट्वीट में जिस हिस्से को दिखाया है, उसमें नितिन गडकरी कह रहे हैं कि “आज गांव, गरीब, मजदूर, किसान दुखी है। इसका कारण यह है कि जल-जंगल-जमीन और जानवर, रूरल-एग्रीकल्चर-ट्राइबल की जो इकॉनमी है, यहां अच्छे रोड नहीं हैं, पीने के लिए शुद्ध पानी नहीं है, अच्छे अस्पताल नहीं हैं, अच्छे स्कूल नहीं हैं, किसानों के फसल का अच्छा भाव नहीं है।”

https://twitter.com/INCIndia/status/1763415412728016960?s=20

असल में करीब 1 घंटे 42 मिनट चले इस इंटरव्यू में लल्लनटॉप यूट्यूब चैनल के प्रमुख सौरभ द्विवेदी ने जब कार्यक्रम के 15वें मिनट में पंजाब के किसानों के जारी आंदोलन को लेकर गडकरी से सवाल किया कि, “बार-बार देश में कृषि अर्थशास्त्री इस बात पर जोर दे हैं, कि कृषक उत्पादक संगठनों के सामने यही रास्ता बचा है, जिसमें उनके उत्पाद पूरी तरह से बाजार पर निर्भर ना रहें, और विशेषकर सरकार पर उनकी निर्भरता नहीं रहनी चाहिए। वे समूह में एकजुट होकर देखें कि कहां-कहां से उनके प्रॉफिट में लीकेज हो रही है, ताकि उन्हें ज्यादा लाभ हो सके। आपके द्वारा इस बारे में विदर्भ में किये गये प्रयोग कैसे रहे?

गडकरी: “देखिए पहले आपको यह समझना होगा कि समस्या क्या है। आज देश में धान, कॉर्न, गन्ना, गेहूं का उत्पादन सरप्लस में है। आपको याद होगा हरियाणा, पंजाब में गेंहू और चावल के भंडारण के लिए जगह जब नहीं बची तो सरकार को रेलवे के प्लेटफॉर्म तक इस्तेमाल में लाना पड़ा। असल में हमारे पास स्टोरेज कैपेसिटी नहीं है, और मार्केट में अनाज, फ्रूट्स और वेजिटेबल के भाव मांग और आपूर्ति पर निर्भर हैं। फर्टिलाइजर की कीमतें बढ़ गई हैं, कीटनाशक के दाम बढ़ चुके हैं, सीमेंट और स्टील के दाम बढ़ गये हैं, लेकिन अनाज की कीमत लगभग वैसी ही बनी हुई है।”

असल में गडकरी यहां पर कृषि संकट के मूल प्रश्न को उठा रहे हैं, लेकिन समाधान के लिए वे फिर बाजार की पूंजी की शक्तियों में विकल्प तलाश रहे हैं। देश में इस प्रश्न पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। पंजाब, हरियाणा के किसानों को गेहूं और चावल पर ही एमएसपी मुहैया कराई जा रही है, जबकि वे लागत में हुई बढ़ोत्तरी की वजह से अब सरकार द्वारा घोषित एमएसपी को नाकाफी बता रहे हैं, और स्वामीनाथन कमेटी द्वारा सी2+50% को क़ानूनी मान्यता दिए जाने की मांग पर अड़े हुए हैं। वे अब अच्छी तरह से जान चुके हैं कि 70 और 80 के दशक की तुलना में 2010 के बाद लागत में जिस रफ्तार से वृद्धि हो रही है, वह सरकार द्वरा हर वर्ष बढ़ी दर पर घोषित की जाने वाली एमएसपी में कवर नहीं हो सकती। यह एक छलावे से अधिक कुछ नहीं है।

गडकरी आगे कहते हैं, “मैं अगर आज आपसे पूछूं कि 20 साल पहले चावल का भाव क्या था और आज क्या है? तो उत्तर होगा कि इनके भाव में ज्यादा बढ़ोतरी नहीं हुई। इस वजह से आज खेती आर्थिक तौर पर नॉन वायबल हो चुकी है। आज मैं जो काम कर रहा हूं, वह मेरे जीवन का लक्ष्य है। इसमें कृषि में विविधता लाकर कृषि को उर्जा एवं पावर सेक्टर से जोड़ने वाला है।”

इसके बाद नितिन गडकरी वह बात रखते हैं, जो वे विभिन्न मंचों पर अक्सर दोहराते हैं। केंद्रीय मंत्री गडकरी कहते हैं, “इस देश का किसान केवल अन्नदाता नहीं, वह ऊर्जा प्रदाता बन सकता है। अभी मैं अपने यहां 380 मेगावाट पावर तैयार कर रहा हूं, उसमें से 90 मेगावाट ग्रीन पावर है। इसके अलावा किसान सिर्फ अन्नदाता ही नहीं ऊर्जादाता, बिटुमिन प्रदाता भी बन सकता है। इस काम को हमने सफलतापूर्वक लागू किया है। पानीपत में धान की पराली से 150 टन बायो बिटुमिन, एक लाख लीटर एथोनोल और और 76,000 टन पर ईयर बायो एविएशन फ्यूल, यानी हवाई इंधन तैयार होगा। इसके छोटे-छोटे उद्योग शुरू होंगे तो किसान बिटुमिन उत्पादक बन सकता है।”

वे आगे कहते हैं, “हमारे देश के विकास में हमारी एग्रीकल्चरल ग्रोथ रेट जीडीपी में महज 12% योगदान दे रही है। जबकि मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर 22 से 24% और सर्विस सेक्टर 52 से 54% योगदान दे रहा है। उधर देश में कृषि पर निर्भर आबादी 65% है। जब गांधी जी थे तब कृषि पर निर्भर 90% आबादी गांव में रहती थी, लेकिन धीरे-धीरे 30% लोग पलायन कर गये, ऐसा क्यों हुआ?”

यही वह बिंदु है, जहां पर नितिन गडकरी अपने बयान में गांव और किसान की दुर्दशा का जिक्र करते हैं। वे कहते हैं, “इस कारण से आज गांव, गरीब, मजदूर, किसान दुखी है। इसका कारण यह है कि जल, जमीन, जंगल और जानवर। रूरल, एग्रीकल्चर। ट्राइबल की जो इकॉनमी है। यहां अच्छे रोड नहीं हैं, पीने के लिए शुद्ध पानी नहीं है। अच्छे अस्पताल नहीं है, अच्छे स्कूल नहीं है, किसान के फसल को अच्छे भाव नहीं मिलते। देश में सस्टेनेबल डेवलपमेंट जो होनी थी वह हुई है, हुई नहीं ऐसा नहीं है। पर जिस अनुपात में अन्य क्षेत्रों में हुआ वैसा ग्रामीण क्षेत्र में नहीं हुआ। हमारी सरकार आने के बाद हम भी बहुत काम कर रहे हैं।”

इसके बाद गडकरी साहब मोदी सरकार की योजनाओं को गिनाने लग जाते हैं, जिसमें 550 एस्परेंट ब्लॉक्स और 120 एस्परेंट जिलों पर विशेष रूप से जोर दिया जा रहा है। फिर गडकरी अपने प्रिय शगल को रखना शुरू कर देते हैं, जिसमें देश में 16 लाख करोड़ रुपये मूल्य के फॉसिल फ्यूल के आयात को किसनों की मदद से एथनोल बनाकर 50 से 65% कम इंपोर्ट को संभव बनाया जा सकता है। इसके अलावा गडकरी के पास किसानों के लिए ग्रीन हाइड्रोजन की भी योजना है, जिससे देश का किसान सुखी-समृद्ध और संपन्न हो सकता है, और गांवों के भीतर ही रोजगार सृजन संभव है।

नोटिस कितनी हकीकत, कितना फ़साना

1 मार्च को कांग्रेस अध्यक्ष और वरिष्ठ नेता जयराम रमेश के नाम जारी इस क़ानूनी नोटिस में कांग्रेस से 24 घंटे के भीर सोशल मीडिया पर पोस्ट को हटाने और तीन दिनों के भीतर लिखित में माफ़ी मांगने की मांग की गई है। नितिन गडकरी की ओर से उनके वकील बालेंदु शेखर की ओर से जारी एवं हस्ताक्षरित एक क़ानूनी नोटिस में कहा गया है कि ऐसा न करने पर मेरे क्लाइंट को मजबूर होकर सिविल और आपराधिक मामला दर्ज करना पड़ेगा। फिलहाल कांग्रेस के द्वारा सोशल मीडिया प्लेटफार्म X से इस पोस्ट को नहीं हटाया गया है।

नितिन गडकरी के बयान में कोई चीज तोड़-मरोड़कर पेश नहीं की गई है। हां, कांट-छांट की बात कही जा सकती है। फिर गडकरी किसानों की दुर्दशा से इंकार नहीं कर रहे हैं। अपने साक्षात्कार में वे साफ़-साफ़ बयां कर रहे हैं कि देश में गेहूं और चावल पर आधारित कृषि अर्थव्यस्था पर किसानों को और अधिक टिके रह पाना संभव नहीं है, क्योंकि खाद, कीटनाशक सहित लागत से जुड़े सभी अन्य चीजों के दामों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है। वे यह भी मानते हैं कि इसकी तुलना में गेहूं और धान के दाम काफी कम बढ़े हैं। इसके लिए भाजपा ही नहीं बल्कि 90 के दशक के बाद कांग्रेस शासन भी बराबर की दोषी है।

नितिन गडकरी अक्सर अपने बयानों में वैकल्पिक उर्जा का जिक्र करते हैं, लेकिन उनकी ये बातें क्या भारत सरकार लागू कर रही है? इसका जवाब है नहीं। इस दिशा में बेहद धीमी गति से प्रयास किये जा रहे हैं। ऐसा करने के लिए आवश्यक पूंजी निवेश सरकार की प्राथमिकता में नहीं है। हाल ही में गन्ने से एथोनोल पर केंद्र सरकार ने रोक लगा दी थी, क्योंकि देश में चीनी का उत्पादन गिरने के कारण तेजी से दाम बढ़ने शुरू हो गये थे। लेकिन चीनी उद्योग से जुड़े कारोबारियों ने इसका जमकर विरोध किया, क्योंकि एथोनोल से उन्हें तत्काल नकदी और लाभ मिल रहा है। सरकारी प्रोत्साहन के चलते उन्होंने इसके उत्पादन के लिए प्लांट लगाये हैं। पूंजी निवेश के बाद यदि सरकार चुनावी नुकसान को ध्यान में रखते हुए तुगलकी फैसले लगाती है, तो कारोबारी नुकसान में रहेंगे। सरकार अपना फैसला वापस लेने के लिए बाध्य हुई।

कृषि संकट का समाधान नहीं, लेकिन उनके लिए लारे-लप्पों की भरमार

लेकिन नितिन गडकरी के बयान में एक सच बाहर निकल आया, जिसका हल स्वंय उनके पास नहीं है, या कहें कि वे खाद्य उत्पादों को अलाभकारी बताकर देश के किसानों को एक नई राह का चुग्गा डाल रहे हैं, जो देश के लिए खाद्य आत्मनिर्भरता को हमेशा के लिए खतरे में डाल सकता है। सबसे बड़ी बात, जो बात मंत्री महोदय देश में घूम-घूमकर बताते रहते हैं, वह पश्चिमी देशों के वैज्ञानिकों, पूंजीपतियों और बड़ी जोत वाले किसानों के दिमाग में अभी तक क्यों नहीं घुसी? क्यों अमेरिका और यूरोपीय देशों में कृषि पर आज भी भारी सब्सिडी दी जा रही है?

हकीकत यह है कि देश में अनाज के दामों में पिछले 40 वर्षों से बेहद कम रफ्तार से वृद्धि हुई है। 60 के दशक में जब देश खाद्यान्न संकट से जूझ रहा था, तब उस समय के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और बाद के दौर में इंदिरा गांधी ने पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों से ‘हरित क्रांति’ को साकार करने का वचन मांगा था, जिसे उत्तर भारत के किसानों ने दिन-रात मेहनत कर पूरा कर दिखाया।

देश अगले कुछ वर्षों में ही गेंहूं और चावल के मामले में आत्मनिर्भर हो गया। इसके लिए कृषि में आधुनिक उपकरण, उन्नत बीज, खाद और कीटनाशक का प्रयोग किसान करने लगे। सिंचाई के लिए सरकार की ओर से नहर और डीजल पंप सेट एवं कृषि उपकरणों की खरीद के लिए ऋण की व्यवस्था की गई। सरकार किसानों के उत्पादों की खरीद के लिए सरकारी खरीद मूल्य (एमएसपी) पर उत्पाद खरीदकर एफसीआई और सीडब्ल्यूसी में भंडारण और उपभोक्ताओं को रियायती दर पर राशन कार्ड के माध्यम से उपलब्ध कराने लगी। लेकिन बाद के दौर में सिर्फ गरीबों, उसमें भी वर्गीकरण कर अलग-अलग कार्ड के माध्यम से खाद्यान का वितरण किया जाने लगा।

90 के आर्थिक उदारीकरण के बाद भारत में शहर ही नहीं बल्कि गांवों में भी विकास की आंधी ने जोर पकड़ा, और उपभोक्तावादी रुझान से कृषक भी महरूम न रह सका। किसान को भी अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से स्कूली शिक्षा, शारीरिक मेहनत के बजाय कृषि में मशीनीकरण और उत्पादन में ज्यादा से ज्यादा बढ़ोत्तरी के लिए अधिकाधिक खाद, कीटनाशक के छिडकाव की जो लत लगी, उसने उसे बाजार की ताकतों पर पूरी तरह से निर्भर बना दिया है।

70 के दशक में अपेक्षाकृत कम मशीनीकरण एवं खाद के एमएसपी पर किसान को लाभकारी मूल्य संभव था, आज विशेषकर 2014 में मोदी शासन के बाद यह असंभव हो चुका है। 50 किलो खाद का बोरा कब अचानक से 45 किलो का कर दिया गया, डीजल के दाम में 16 बार एक्साइज बढ़ाकर सरकार मुनाफा वसूली करने लगी, यूरिया और डीएपी के दाम बढ़ते चले गये, लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य हर बार बेहद मामूली अंतर के साथ बढ़ते रहे। यह अंतर आज इतना अधिक हो चुका है कि केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी की बात सही जान पड़ती है, कि किसानों को वैकल्पिक रास्तों की तलाश करनी चाहिए।

लेकिन मंत्री साहब इस बात को भूल जाते हैं कि खाद्यान पर अगर देश की आत्मनिर्भरता खत्म हो गई, तो देश भिखारी हो जायेगा। 60 के दशक की कड़वी यादों को देश अभी तक भूला नहीं है। पश्चिमी देशों में कृषि को दी जाने वाली सब्सिडी भारत की तुलना में काफी अधिक है। अगर आज पंजाब, हरियाणा या यूपी, बिहार और मध्यप्रदेश का किसान चावल, गेंहूं, तिलहन और दलहन की खेती छोड़ महाराष्ट्र की तरह फलों, सब्जियों और दुग्ध उत्पादन को पूरी तरह से अपना ले, तो देश ही नहीं बल्कि दुनियाभर में खाद्यान्न के दामों में आग लग जाएगी।

मोदी 80 करोड़ गरीबों को 5 किलो मुफ्त राशन देना भूल जायेंगे, क्योंकि 100 रुपये या उससे भी अधिक दाम पर चावल, गेहूं दुकानों पर उपलब्ध होगा। गुरुग्राम, बेंगलुरु और नोएडा में 8,000 रुपये प्रति माह पर खटने वाले करोड़ों-करोड़ ठेका श्रमिकों को कम से कम 15-20,000 रुपये प्रति माह वेतन देना बाध्यता होगी। ऐसा नहीं हुआ तो देश में चंद तेजी से मालामाल हो रहे कॉर्पोरेट समूह के कारोबार को ताला लगाना पड़ सकता है, और विदेशी निवेशकों को जो भारत का सस्ता श्रम बाजार लुभाता है, वह किसी काम का नजर नहीं आएगा।

खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता मतलब देश बड़े अर्थों में सुरक्षित है

असल में ध्यान से देखें तो पिछले 40 वर्षों से ग्रामीण अर्थव्यस्था को कुचलकर ही भारत के शहरों में उड़ान भरी जा रही है। देश को हर हाल में खाद्यान्न पर अपनी आत्म-निर्भरता से समझौता नहीं करना चाहिए, क्योंकि 144 करोड़ की आबादी को संभालने की कूव्वत तो अब दुनिया के किसी भी देश में नहीं रही। हां, कृषि में विवधीकरण को अपनाना चाहिए। पड़ोसी देश चीन ने इस मामले में अभिनव प्रयोग किये हैं, और वहां भारत की तुलना में उत्पादकता ढाई गुना अधिक है। यदि उत्पादकता में वृद्धि होती है, तो यह मूल्य जायज हैं। इसके अलावा धान और गेहूं के रकबे को भी कम किया जा सकता है। या फिर सरकार कृषि लागत को कम करने पर ध्यान दे, ताकि कृषि को कम खर्चे का सौदा बनाकर किसानों को लाभकारी मूल्य मिल सके।

लेकिन खेती में संकट का समाधान किये बगैर किसानों को दूर की कौड़ी समझाकर हवा-हवाई किले दिखाने से न वे घर के रहेंगे और न देश ही सुरक्षित रह सकता है। इस बात को देश के नीति-नियंताओं को गंभीरता से लेना होगा। पंजाब और हरियाणा के किसान देश में उत्पादित की जाने वाली सभी फसलों पर स्वामीनाथन कमीशन को लागू करने की मांग कर रहे हैं। देश हित वाली सरकार को 55% ग्रामीण आबादी और उससे जुड़े 15% शहरों में पलायन कर चुके मजदूरों के हित में फसलों के लिए लाभकारी मूल्य को लागू करना चाहिए। इसके बाद वह तय करे कि देश के किस हिस्से में वहां का किसान क्या बोये, जिसे केंद्रीय स्तर पर मॉनिटरिंग कर सरकार खुद भी खरीद सकती है, बाजार के लिए छोड़ सकती है, या निर्यात कर अरबों डॉलर भी अर्जित कर सकती है।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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