देश की युवा-पीढ़ी को आगे आकर मौजूदा विनाशकारी राज की पुनर्वापसी को रोकना होगा

आज कोई मौजूदा शासन का समर्थक हो या विरोधी, शायद ही किसी के मन में सन्देह बचा हो कि मोदी राज- जिसे 22 जनवरी की प्राण-प्रतिष्ठा के बाद उनकी कैबिनेट ने नया युग बताया है- की अगर 2024 में सत्ता में वापसी होती है, तो यह अपने content में एक सर्वसत्तावादी (Totalitarian state) राज्य होगा, उसका Form और नाम जो भी हो। राज्य और समाज की सारी संस्थाओं पर तो उनका कब्जा होगा ही, नागरिकों को अपना जीवन उनके विचारों-आदेशों-निर्देशों के अनुरूप ढालना होगा।

हाल के दिनों में जो चिंताजनक घटनाएं घट रही हैं, वे इसी ओर इशारा कर रही हैं। विरोध की राजनीति, विपक्ष की सरकार, लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए जनांदोलन आदि की बात छोड़ दीजिये, अब आप उनके विचारों से असहमत होकर किसी हाउसिंग सोसायटी में भी नहीं रह सकते। पूर्व केंद्रीय मंत्री मणिशंकर अय्यर की बेटी को उनकी सोसाइटी की RWA ने 22 जनवरी के अयोध्या कार्यक्रम पर अपने भिन्न विचार के लिए माफी मांगने या सोसाइटी छोड़ देने का फरमान सुनाया है।

लोकतंत्र पर तो गाज गिरेगी ही, सच्चाई यह है कि हिन्दू revival के नाम पर यह सर्वसत्तावादी शासन राष्ट्रीय एकता के लिए सबसे बड़ा खतरा है। दुनिया का यह सबसे विविधतापूर्ण समाज जहां भांति भांति की भाषा-संस्कृति, विश्वास, पूजा-पद्धति, खानपान-जीवन शैली वाले लोग रहते हैं, उसे किसी एक सांचे में बलपूर्वक ढालने की कोशिश हुई, तो उसके नतीजे भयावह होंगे।

वैसे तो पूरे समाज के लिए ही 2024 के नतीजों के गम्भीर निहितार्थ हैं, लेकिन first-time voters, छात्रों तथा देश की युवा पीढ़ी के लिए तो यह उनके पूरे भविष्य को तय करने वाले होंगे- उन्हें कैसी शिक्षा मिलेगी, उनके एम्प्लॉयमेंट का क्या होगा और अंततः जीने के लिए कैसा समाज और राज मिलेगा।

आज शिक्षा के क्षेत्र में किये जा रहे मूलगामी बदलावों के फलस्वरूप इसकी पूरी अंतर्वस्तु इतनी बदल जाएगी कि चंद सालों बाद उसे पहचानना भी मुश्किल हो जाएगा। दरअसल फासीवादी वैचारिकी और राजनीति की पूरी इमारत वैज्ञानिक चेतना और लोकतांत्रिक मूल्यों के निषेध पर खड़ी होती है। जैसे मीडिया उनके लिए फासीवादी प्रोपेगंडा का tool है, उसी तरह शिक्षा भी उनके लिए फासीवादी वैचारिकी के उत्पादन, पुनरुत्पादन और dissemination का उपकरण है।

भारतीय मार्का फासीवाद का सर्वप्रमुख तत्व हिंदुत्व की विभाजनकारी साम्प्रदायिक सोच है। 1857 में हिन्दू-मुस्लिम एकता पर आधारित पहली आज़ादी की लड़ाई से मिली ज़बरदस्त चुनौती के बाद अंग्रेजों ने अपने राज को अक्षुण्ण बनाने के लिए हिन्दू-मुस्लिम विभाजन का जो कृत्रिम नैरेटिव गढ़ा, वह आज के शासकों के लिए भी अपने राज को स्थायी बनाने का मूलमंत्र है।

इसीलिए शैक्षणिक पाठ्यक्रम में बड़े पैमाने पर बदलाव इनके एजेंडा पर है, जिसका सबसे बड़ा निशाना एक ओर इतिहास है जिसे हिंदुत्व की पुनरुत्थानवादी, साम्प्रदायिक सोच के अनुरूप ढाला जा रहा है, दूसरी ओर मानविकी और समाज विज्ञान है जिसमें से ढूंढ ढूंढ कर सभी प्रगतिशील, मुक्तिकामी, लोकतान्त्रिक विचारों को बढ़ावा देने वाली पाठ्यवस्तु को छांट कर बाहर किया जा रहा है।

आज़ादी की लड़ाई के इतिहास को तो पूरा सिर के बल ही खड़ा किया जा रहा है, कहा जा रहा है कि देश की आत्मा को असली आज़ादी तो 22 जनवरी, 2024 को राम-मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा से मिली है, 1947 में तो महज शरीर आज़ाद हुआ था।

आरएसएस ने जो आज़ादी की लड़ाई में भाग ही नहीं लिया, उसे एक तरह से justify किया जा रहा है- कि उस दौरे में एकमात्र संघ और सहमना संगठनों ने सही stand लिया और सकारात्मक भूमिका निभाई, कांग्रेस समेत बाकी लोगों की भूमिका नुकसानदेह थी, वे ही देश के बंटवारे के लिए जिम्मेदार हैं।

आज़ादी आंदोलन के इतिहास को उलट-पुलट करते हुए, हरियाणा में पिछले दिनों पाठ्यक्रम में बदलाव करते हुए यह स्थापित किया गया कि संघ के संस्थापक हेडगेवार महान देशभक्त थे जिनके सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के विचार से स्वतंत्रता आंदोलन को आवेग मिला जबकि कांग्रेस के थके, सत्तालोलुप नेताओं ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर देश का बंटवारा कराया। सावरकर हिंदुत्व के प्रबल पैरोकार थे और उन्होंने भारत-विभाजन का विरोध किया।

कर्नाटक में हाई स्कूल के कन्नड़ पाठ्यक्रम में तत्कालीन भाजपा सरकार ने प्रतिष्ठित कन्नड़ लेखक जी रामकृष्ण के “भगत सिंह” को हटाकर हेडगेवार के “आदर्श पुरुष” को शामिल करवा दिया था। बाद में भारी विरोध होने पर “भगत सिंह” को फिर retain किया गया।

CBSE पाठ्यक्रम से हटाए गए कुछ अध्याय हैं- ‘लोकतन्त्र और विविधता’, ‘लोकतन्त्र के लिये चुनौतियां’, ‘लोकप्रिय संघर्ष और आंदोलन (नेपाल और बोलिविया)’, ‘इस्लाम का उदय’, ‘मुगल साम्राज्य का शासन-प्रशासन’, ‘शीत युद्ध का काल और गुटनिरपेक्ष आंदोलन’, ‘औद्योगिक क्रांति का इतिहास’।

पिछले दिनों विभिन्न पाठ्यक्रमों से फ़ैज़ ही नहीं कबीर, मीरा, मुक्तिबोध, निराला, दुष्यंत कुमार, फ़िराक़ की भी तमाम रचनाएं बाहर की गईं। खाद्य सुरक्षा के अध्याय से ‘कृषि पर भूमंडलीकरण का प्रभाव’ वाले हिस्से को हटा दिया गया है।

इनके राज में शिक्षा अब तर्क-संगत ज्ञान और वैज्ञानिक विचारों के उत्पादन, उनके शोधन-परिवर्धन का माध्यम न रह कर, propaganda में तब्दील की जा रही है। आखिर ऐसी शिक्षा युवाओं का कैसा व्यक्तित्व-निर्माण करेगी? यह कैसे नागरिक पैदा करेगी?

हमारे समाज में जहां लोकतांत्रिक व वैज्ञानिक चेतना की जड़ें पहले से ही कमजोर थीं, शिक्षा के नाम पर यह फासीवादी प्रोपेगंडा इसे रसातल में पहुंचा देगा।

वैज्ञानिक सोच और उदार-लोकतांत्रिक चेतना से वंचित अंध-आस्था और अनुदार मूल्यों से संचालित ऐसे युवाओं का भविष्य क्या है और हमारे समाज का भविष्य क्या होगा?

हर स्तर पर शिक्षा अब इतनी महंगी हो गयी है कि किसी अच्छे संस्थान से quality education हासिल कर पाना अब आम परिवार से आने वाले छात्र के लिए असम्भव हो गया है।

यह स्वागतयोग्य है कि अकादमिक समुदाय इन प्रश्नों को मुद्दा बना रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में हो रहे खतरनाक बदलावों के खिलाफ दिल्ली के जंतर मंतर पर हाल ही में AIFRTE द्वारा आयोजित अखिल-भारतीय विरोध प्रदर्शन में NEP 2020 और NCF 2023 को ख़ारिज करने का मांग की गई थी।

इसके साथ ही KG से PG तक सभी के लिए समान गुणवत्ता वाली, मुफ्त, न्यायसंगत और धर्मनिरपेक्ष तालीम की पूरी तरह से राज्य-द्वारा वित्त पोषित व्यवस्था के लिए संघर्ष करने तथा शिक्षा में व्यावसायीकरण, साम्प्रदायीकरण, केंद्रीकरण और भेदभाव बंद करने की मांग बुलन्द की गई। AISA के कार्यकर्ता पूरे देश में ‘जुमला नहीं जवाब दो, 10 साल का हिसाब दो’ अभियान चला रहे हैं।

शिक्षा की इस तबाही के साथ ही मोदी शासन के 10 साल गवाह हैं कि उनकी धुर कॉरपोरेटपरस्त नवउदारवादी नीतियों के चलते रोजगार के मोर्चे पर स्थिति विस्फोटक होती जा रही है।

आज युवाओं के लिए रोजगार और नौकरियों की स्थिति बेहद चिंताजनक है। युवा बेरोजगारी 45% के खतरनाक स्तर पर है। जीडीपी में वृद्धि को लेकर जो भी दावा किया जाय, सच्चाई यह है कि अर्थव्यवस्था में रोजगार परक निवेश ठप है। फलस्वरूप रोजगार-सृजन नहीं हो रहा है।

मोदी सरकार की विनाशकारी नीतियों के चलते 10 साल में रोजगार के अवसरों का बड़े पैमाने पर ध्वंस हुआ है। केंद्र और राज्यों में 50 लाख के आसपास नौकरियों के पद खाली हैं। अकेले केंद्र सरकार में कई लाख पद सालों से खाली पड़े हैं जिन्हें भरा नहीं जा रहा है।

रेलवे में 3 लाख से अधिक पद खाली है। लाखों पद समाप्त कर दिए गए। 6 सालों से कोई भी भर्ती नहीं आई है। अब सरकार भर्ती ले कर आई भी है तो मात्र 5600 पदों पर। सभी खाली पदों पर भर्ती की मांग को ले कर हज़ारों की संख्या में छात्र- छात्राएं हाल ही में पटना की सड़कों पर उतरे तो भाजपा-नीतीश सरकार की पुलिस ने उनके ऊपर लाठी बरसाई।

सरकारी नौकरियों के खात्मे से हाशिये के तबके संविधान-प्रदत्त आरक्षण के लाभ से भी वंचित होते जा रहे हैं। पिछले दिनों UGC के एक ड्राफ्ट द्वारा केंद्रीय विश्वविद्यालयों से वंचित वर्गों का आरक्षण छीनने की मुहिम भारी विरोध के बाद नाकाम हो गयी।

सबसे भयावह यह है कि मोदी सरकार की अगर पुनर्वापसी हुई तो लोकतांत्रिक मांगों के लिए, किसी भी अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने का अधिकार भी व्यवहारतः खत्म हो जाएगा। छात्र-युवा परिसर के अंदर से बाहर तक दमघोंटू माहौल में जीने को अभिशप्त होंगे, जहां वे क्या खाएंगे, क्या पहनेंगे, क्या पढ़ेंगे, यहां तक कि किससे प्रेम करेंगे-इन सारे सवालों पर उनका Right to choice खत्म हो जाएगा। इसे संघी शासन-प्रशासन, उनके अनुषांगिक संगठन डिक्टेट करेंगे।

आज उदार-वैज्ञानिक शिक्षा, सबके लिए योग्यतानुसार रोजगार और लोकतांत्रिक परिसरों तथा समाज की रक्षा की पूर्व शर्त है कि देश में लोकतंत्र जिंदा रहे। लोकतंत्र को बचाने के लिए देश की युवा-पीढी को आगे आना होगा तथा आम चुनाव में मौजूदा विनाशकारी राज की पुनर्वापसी को रोकना होगा।

(लाल बहादुर सिंह, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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