कोई होता जिसको हम अपना कह लेते यारों!

नई दिल्ली। “कोई होता जिसको हम अपना कह लेते यारों!” फिल्म मेरे अपने (1971) का यह गीत बरबस देश के लाखों लोगों की जुबान पर एक बार फिर से मचलने का होने लगा है। लेकिन संदर्भ अलग है। गुलज़ार द्वारा लिखे गये इस गीत को गुनगुनाते हुए नायक अपने जीवन के टूटे-बिखरे सपनों को याद करते हुए गमज़दा है। आज देश के करोड़ों-करोड़ लोग भी अपने टूटते सपनों और जीवन की नाव की पतवार पर अपने कमजोर होते हौसलों को लेकर और भी हताशा-निराशा की गर्त में खुद को पा रहे हैं, जब वे देख रहे हैं कि क्या सरकार और क्या विपक्ष, दोनों किसी और की धुन पर थिरक रहे हैं।    

संसद की सुरक्षा में चूक पर हाय-तौबा मचाता विपक्ष सरकार के पाले में खेल रहा

यह बात शायद विपक्ष के पल्ले ही न पड़े। पिछले कुछ दिनों से संसद की सुरक्षा में सेंध को लेकर समूचा विपक्ष एकजुट हो गया है। इस मुद्दे पर उसने संसद ठप कर दी है और सोमवार को भी उसका इरादा यही बना रहने वाला है। विपक्ष की मांग है कि देश के गृह मंत्री अमित शाह सदन में उपस्थित होकर इस मुद्दे की गंभीरता को समझें और इस गंभीर चूक के लिए देश से माफ़ी मांग लें। इस चक्कर में राज्यसभा और लोकसभा में अपने 14 सांसदों का निलंबन झेल रहे विपक्ष को देखकर हंसी और रोना दोनों आ रहा है। विपक्षी दलों की हैसियत भले ही उनकी नजर में इतनी गिरी हुई हो, लेकिन देश को उनसे बड़ी अपेक्षाएं थीं। अवाम कल तक बड़ी उम्मीद से I.N.D.I.A गठबंधन पर टकटकी लगाये बैठा था, लेकिन संसद के भीतर उसकी हरकतों ने अब 2024 की दहलीज पर खड़े देश की उम्मीद को ठोकर मारकर परे ठेल दिया है।

जी हां! यह सब हुआ है 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणामों की घोषणा के बाद। मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस से शुरू करते हुए इसे आप वाम दलों के प्रमुखों के बयानों या ट्वीट से उस मानसिक बुनावट को करीब से समझ सकते हैं, जो 3 राज्यों में भाजपा की जीत से बने नैरेटिव से पूरी तरह से आक्रान्त है। 

संसद के शीतकालीन सत्र की शुरुआत के साथ ही भाजपा विपक्ष पर पूरी तरह से हावी रही। तृणमूल सांसद महुआ मोइत्रा को संसद से निष्कासित किये जाने के खिलाफ जरुर एक दिन नैतिक रूप से बाजी विपक्ष के हाथ रही, लेकिन कुलमिलाकर जीत तो उसी की होती है, जो जी-जान से बाजी खेलता है। गृहमंत्री अमित शाह संसद में दो विधेयक – जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक और जम्मू-कश्मीर आरक्षण (संशोधन) विधेयक को पारित कराने में सफल रहे। इस प्रकार भाजपा कश्मीर की विधानसभा में कश्मीरी प्रवासी समुदाय के दो सदस्यों एवं पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) से विस्थापित व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करने के लिए एक सदस्य को नामांकित करने का प्रावधान पारित कराने में सफल रही।

लेकिन बात यहीं पर खत्म हो जाती तो गनीमत होती। आज दोपहर 2 बजे के करीब राहुल गांधी के सामने जब मीडिया ने संसद की सुरक्षा पर चूक का सवाल दोहराया तो लगा कि विपक्ष को शायद कुछ-कुछ समझ आ रहा है कि देश में करोड़ों युवाओं के सामने भयानक बेरोजगारी और अंधकारमय भविष्य मुहं बाए खड़ा है। राहुल गांधी ने अपने बयान को X पर साझा करते हुए कहा है कि “Jobs कहां हैं? युवा हताश हैं – हमें इस मुद्दे पर focus करना है, युवाओं को नौकरी देनी है। सुरक्षा चूक ज़रूर हुई है, मगर इसके पीछे का कारण है देश का सबसे बड़ा मुद्दा – बेरोज़गारी!”

मनोवैज्ञानिक लड़ाई हारा हुआ विपक्ष  

इससे पहले तो वे तेलंगाना की जीत की ख़ुशी को साझा करने के बाद 7 दिनों से पूरी तरह से खामोश बैठे हुए थे। कांग्रेस और विपक्ष को मानो सांप सूंघ गया था। एक सप्ताह तक भाजपा 3 राज्यों में इसे मुख्यमंत्री बनाने जा रही है, को लेकर सारी मीडिया मोदी का डंका और मोदी के इशारे को लेकर कयास लगा रहे थे। भाजपा ने न सिर्फ कांग्रेस की तर्ज पर इन प्रदेशों में बढ़-चढ़कर रेवड़ियां बांटीं बल्कि इन तीनों राज्यों में भाजपा के पुराने दिग्गजों को किनारे लगाते हुए एक-एक मुख्यमंत्री, दो-दो उप-मुख्यमंत्री और विधानसभा अध्यक्ष भी विपक्ष की जाति जनगणना की मांग की काट के रूप में पेश कर ये मुद्दा भी कैच कर लिया। 

अभी तक जिन मुद्दों को राहुल गांधी और विपक्ष अपनी जीत के लिए अचूक मान रहा था, उनमें से अधिकांश को तो मोदी सरकार ने पहले ही समाहित कर विपक्ष की समझ को बौना बना डाला है। इन तीनों राज्यों में आरएसएस पृष्ठभूमि वाले नौसिखियों को राज्यों की कमान सौंपकर नरेंद्र मोदी ने एक तीर से तीन-तीन शिकार कर डाले हैं।

पहला, आरएसएस से अब कोई चिंता की बात नहीं रही। 2019 में आरएसएस नितिन गडकरी को आगे कर रहा था, और पूर्ण बहुमत के अभाव की सूरत में पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के मार्फत तृणमूल कांग्रेस सहित टीआरएस और बीजेडी जैसी क्षेत्रीय पार्टियों पर डोरे डालना शुरू कर चुका था।

दूसरा, इन तीनों राज्यों के पुराने दिग्गजों के सामने आरएसएस के उम्मीदवार दिखाकर उनके विरोध की हवा को फुस्स कर गुजरात, हरियाणा और उत्तराखंड की तरह इन राज्यों की बागडोर भी पीएमओ के हाथ में चली गई है। अब तो सिर्फ यूपी ही निशाने पर बचा रह गया है।

तीसरा, अब देश के सामने सिर्फ और सिर्फ मोदी न सिर्फ भाजपा के भीतर बल्कि देश में प्रधानमंत्री पद के लिए एकमात्र उम्मीदवार बच जाते हैं, क्योंकि विपक्ष के पास न तो नीति बची और न ही बिना किसी शक-सुबहा के कोई उम्मीदवार ही खड़ा करने का माद्दा है। 

इस मनोवैज्ञानिक खेल को सफलतापूर्वक अंजाम देने के लिए पीएम मोदी के पास अब सारे संसाधन और शक्तियां मौजूद हैं। सरकार, भाजपा-आरएसएस और उसके सैकड़ों हाथ, मीडिया, साइबर सेल, व्हाट्सअप ग्रुप्स, पन्ना प्रमुख, चुनाव आयोग, न्यायपालिका तक के साथ लंबी-रस्साकशी के बाद उसकी थकावट के परिणामस्वरूप रणनीतिक मोर्चों पर लाभ की स्थिति ने 2019 की तुलना में इस बार चुनाव पूर्व की तैयारियों को कहीं ज्यादा चाक-चौबंद बना डाला है। 

हालत यह हो चुकी है कि संसद के भीतर तक सरकार उल्टा विपक्ष को जब-तब घेरने लगी है। पिछले एक वर्ष के दौरान मोदी सरकार ऐसे-ऐसे विधेयक पारित करा चुकी है, जिनके बेहद घातक परिणाम आगे देश को भुगतने होंगे। इनमें से अधिकांश विधेयकों को मणिपुर हिंसा मामले पर विपक्ष के सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के दौरान पारित करा लिया गया। मोदी सरकार ने न ही बीरेन सिंह को बर्खास्त किया और न ही सैकड़ों निर्दोष नागरिकों की मौत और न ही हजारों घरों और गिरिजाघरों में आगजनी और विस्थापन की पीड़ा से आज भी जूझ रहे लोगों को राहत देने का काम किया। उल्टा दर्जनों बिलों पर बिना किसी चर्चा और संशोधन किये ही विधेयक की शक्ल देकर कॉर्पोरेट के लिए आगे की लूट के दरवाजे खोल दिए। 

समूचा विपक्ष पिछले 9 साल से लुटा-पिटा नजर आया है। इन वर्षों में सिर्फ एक मौके पर विपक्ष को सफलता हाथ लगी, और वह संसद नहीं बल्कि सड़क पर हासिल हुई है। ‘भारत जोड़ो’ मार्च ने कांग्रेस को देश से जोड़ने का काम किया, जिसका फायदा उसे दो राज्यों में सरकार के रूप में मिल भी चुका है। लेकिन अगर राहुल गांधी यह समझते हैं कि एक बार ऐसा करके उन्होंने हमेशा के लिए लोगों के दिलों में जगह बना ली है, और लोग अब 2024 में बिना कोई सोच-विचार किये I.N.D.I.A.गठबंधन के पक्ष में दनादन वोट कर देंगे तो उन्हें राजीव गांधी के 1984 और 1989 के आंकड़ों पर दोबारा गौर करना चाहिए।

10 वर्षों से हिंदुत्व की चाशनी घोलने, रात-दिन साइबर सेल से जारी व्हाट्सअप ज्ञान के बोझ तले डूबते करोड़ों लोग, हिंदू-मुस्लिम, लव जिहाद, गाय, मंदिर-मस्जिद, कांवड़ यात्रा, लाउडस्पीकर, शुक्रवार की नमाज, तबलीगी जमात, पाकिस्तान, जनसंख्या विस्फोट और मुस्लिमों की बढ़ती आबादी, मीट-अंडे की दुकान, इतिहास की नई-नई फर्जी व्याख्या जैसे असंख्य मुद्दों से देश में विभाजन की जो गहरी दीवार खींचने का काम किया जा रहा है, उसकी तुलना में एक ‘भारत जोड़ो’ अभियान कितना असर रखता है?

टूटे दिलों को जोड़ने की बात तो तब असरकारक हो सकती है, जब जरूरत पड़ने पर ये दल जमीन पर भी उसे अंजाम देते। 2020 में दिल्ली दंगों की बात हो या मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में ऐसे तमाम मौके आये, जब कांग्रेस सहित ये सभी दल डरते-डरते बेहद संभलकर टिप्पणियों से काम चला रहे थे। वामपंथी दलों को छोड़ दिया जाये तो बाकी दलों में कोई नहीं दिखा जो जमीन पर देश के अल्पसंख्यकों, दलितों और आदिवासियों के लिए खड़ा हुआ हो। 

इसके बावजूद देश भाजपा-आरएसएस का विकल्प चाहता है। लेकिन विपक्ष तो संसद के भीतर खुद की लाज तक नहीं बचाने की स्थिति में खड़ा है। जम्मू-कश्मीर विधेयक पर बात रखते हुए अमित शाह पीओके और अक्साई चिन के लिए नेहरु को गुनहगार ठहरा देते हैं, और कांग्रेस सहित समूचा विपक्ष कमजोर प्रतिवाद के साथ झूठे नैरेटिव को ख़ामोशी से सुन लेता है, और अगले दिन फिर से संसद में हाजिरी लगाने पहुंच जाता है। 

उससे भी अधिक हद तब हो गई जब सांसद महुआ मोइत्रा के खिलाफ एथिक्स कमेटी के करीब 500 पेज के अभियोग पत्र को 12 बजे संसद में रखा जाता है, और 2 बजे उस पर मात्र आधे घंटे की चर्चा का समय देकर विपक्ष को चर्चा करने का समय दिया जाता है। विपक्षी दलों को लगता है कि सदन में चर्चा के दौरान विरोध कर वे देश पर कोई बड़ा अहसान कर रहे हैं। पूरे देश को पता था कि आधे घंटे की औपचारिक कवायद के बाद क्या होने जा रहा है। जी हां, विपक्ष की सबसे कद्दावर सांसद को अडानी के खिलाफ सबसे अधिक मुखर होने की सजा दे दी जाती है, और विपक्ष उनके दुःख में शरीक होने के लिए उस दिन विरोध-स्वरुप बहिष्कार कर देता है। महुआ मोइत्रा के साथ न उनकी पार्टी पहले खड़ी थी, न विपक्ष। सिर्फ उस दिन, जब महुआ को सजा मुकर्रर करनी थी, तृणमूल और समूचा विपक्ष उनके साथ खड़ा नजर आया। उसे समझ आ जाना चाहिए था कि यह सजा महुआ मोइत्रा को नहीं बल्कि समूचे विपक्ष और 140 करोड़ जनता को दी गई है। 

उस दिन कई लोगों ने महसूस किया था कि अगर इस मौके पर समूचा विपक्ष सामूहिक इस्तीफ़ा देकर देश की सभी संसदीय सीटों पर अवाम के बीच मोदी-अडानी बनाम भारत के नैरेटिव को ले जाने का नैतिक साहस दिखा देता तो आज सूरत बिल्कुल दूसरी होती। लेकिन विपक्षी दलों को तो संसद का ऐसा चस्का लगा हुआ है कि वे शायद ये समझते हैं कि अगली लोकसभा में क्या पता, उन्हें इसके दर्शन करने का मौका ही न मिले। 

I.N.D.I.A गठबंधन आंखें खोलो और देश की दशा को पहचानने की कोशिश करो 

लेकिन विपक्ष की बंद गली की सोच की सारी हदें तो अब देखने को मिली हैं, जब संसद के भीतर 2 बेरोजगार युवा रंगीन गैस का धुआं बिखेरकर अपना विरोध दर्ज करा देते हैं। विपक्ष संसद की सुरक्षा में भारी सेंध और भाजपा सांसद के द्वारा पास जारी किये जाने के मुद्दे को इस कदर तूल देने पर तुले हुए हैं, मानो ऐसा करके वे सचमुच में संसद और संविधान की रक्षा कर रहे हैं। क्या उन्हें अहसास नहीं कि पूरे देश को उनकी संसद के भीतर की लाचारी और बेबसी अच्छे से मालूम है?

दिल्ली के बॉर्डर पर देश के किसानों के आंदोलन और सीएए-एनआरसी के विरोध में देश भर में मुस्लिम महिलाओं के प्रतिरोध के आगे ही मोदी सरकार को मजबूरी में झुकना पड़ा है। विपक्ष तो राफेल, नोटबंदी, जीएसटी, इलेक्टोरल बांड, पीएम केयर्स, कोरोना में लाखों मौतों, अडानी, लद्दाख और डोकलाम में चीन की घुसपैठ सहित सैकड़ों मुद्दों पर मोदी सरकार को न ही संसद के भीतर घेर पाया है, और न ही सड़क पर ही उसने कभी मजबूती से खड़े होने की जहमत उठाई है।     

मोदी सरकार क्रोनी-कॉर्पोरेट पूंजी के पक्ष में देश को एक ऐसी दिशा में बुलेट रफ्तार से ले जा रही है, जिसमें सिर्फ चंद अमीरों के लिए खुली लूट की छूट है। देश में 82 करोड़ लोगों को तो अब स्वंय सरकार 5 किलो राशन पर जिंदा रखे हुए है, जबकि शेयर बाजार में रोज नये कीर्तिमान बिल्कुल उलट कहानी बयां कर रहे हैं।

देश में करोड़ों मध्य वर्ग की आबादी पर्सनल लोन लेकर जल्द से जल्द अमीर बनने के लिए शेयर बाजार में कूद रही है। बैंकों के द्वारा एनबीएफसी को दिया जाने वाला लोन, सीधे शेयर बाजार में जा रहा है या उससे एप्पल के 1 लाख रूपये के फोन खरीदे जा रहे हैं। 10 वर्षों में करीब 25 लाख करोड़ रुपये एनपीए में डुबा चुके बैंकों के लिए अब सबसे बड़ा एनपीए ये एनबीएफसी के बैंक लाने जा रहे हैं, जिसे देख कर आरबीआई का कलेजा मुंह तक आ चुका है। बाकी बचा 80% मेहनतकश भारतवासी हताशा की सूरत में किधर जाये या क्या करे, इस तथ्य को शिक्षित बुद्धिजीवी वर्ग खामोशी से देख रहा है। 

ये 6 शिक्षित बेरोजगार युवा शायद हमारी तरह दुनियादारी में समझदार नहीं थे, और उन्होंने सोशल मीडिया पर भगतसिंह विचार मंच बनाकर ‘रंग दे बसंती’ फिल्म की तरह भगत सिंह और उनके आदर्शों को कॉपी करने की एक कोशिश की। उन्हें शायद लगा होगा कि जिस तरह भगत सिंह के बलिदान ने गांधी और कांग्रेस की आजादी की लड़ाई को कई गुना मजबूती प्रदान की थी, उसी प्रकार शायद सरकार और विपक्ष की आंखें खुलें। लेकिन वे इस बात को तो बिल्कुल भुला ही दिए कि हम तो आजाद भारत के लोकतांत्रिक देश में आजादी के अमृत काल वाले वर्ष में विश्वगुरु बनने की दिशा में सरपट निकल चुके हैं। वो तो बुरा हो हिंडनबर्ग और जार्ज सोरोस जैसों का, जिसके चलते हमारे अडानी जी के अश्वमेध के घोड़े को घायल हो जाने के कारण कुछ महीनों के लिए इलाज कराना पड़ा, वरना अडानी जी दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति हो चुके होते और हम भारत के 140 करोड़ रहवासी 15-15 लाख रुपये गिनते हुए विश्व को कूल-ड्यूड नजर आ रहे होते।     

अंत में, संसदीय लोकतंत्र की इस लड़ाई में यह चूक सिर्फ कांग्रेस या अन्य क्षेत्रीय दलों से नहीं हो रही है। संसदीय वाम भी पूरी तरह से इसी रंग में रंगी नजर आ रही है। संसदीय वाम के पास भी वही रंगीन चश्मा आ चुका है, जिसमें उसे करोड़ों युवाओं की हताशा के बजाय सरकार को कैसे सुरक्षा में चूक के लिए घेरा जाये, ही सबसे प्रमुख मुद्दा बना हुआ है। यकीन न हो तो आप सीपीआई, सीपीआई (एम) और सीपीआई (एमएल) के महासचिवों के ट्वीट और बयान को आज भी उनकी सोशल मीडिया पोस्ट पर देख सकते हैं। सीपीआई(एम) तो इस घटना से इतने खौफ में है कि उसके कार्यकर्ता इन युवाओं को नक्सली या दक्षिणपंथी तक बताने से गुरेज नहीं कर रहे हैं। जनता से दूरी बना लेने का आरोप सिर्फ कांग्रेस या क्षेत्रीय दलों को नहीं दिया जा सकता, इस हमाम में सभी की बराबर की हिस्सेदारी है। इसलिए फिलहाल तो बस यही गुनगुनाकर काम चला लीजिये कि ‘कोई होता जिसको हम अपना कह लेते यारों!’

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments